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[ ४५ वीतराग भगवान महावीर के अद्वितीय शान्त, निष्क्रिय रूप में तथा उपर्युक्त वर्णन में क्या अन्तर है ? वीतराग ने तपश्चर्या द्वारा पापक्षय तथा कर्म-क्षय की बात सिखलाई थी । वीतिहोत्र नामक पौराणिक राजा की कथा तो प्रसिद्ध है कि उसने अपने पाप का क्षय करने के लिए बारह वर्ष तक कन्दमूल का सेवन किया तथा बारह वर्षों तक केवल वायु का भक्षण किया, तब उसके पापों का क्षय हुआ । यदि हम अपने पाप का क्षय करने के लिए केवल देवता के आशीर्वाद के भरोसे बैठे रहें तो क्या कभी उसका क्षय हो सकता है ।
बड़े से बड़े महापुरुष तथा उच्च से उच्च आत्माएं कर्म का, संस्कार का क्षय कष्ट भोग कर करते हैं । रामकृष्ण परमहंस को बार-बार उनके इष्ट का साक्षात्कार होता था, पर उन्होंने स्वयं अपने शिष्यों से कहा था कि अपने संस्कार का क्षय करने के लिए ही वे गले के कैंसर के अत्यधिक पीड़ामय रोग को भोग रहे हैं । महर्षि रमण को कैंसर रोग ने वर्षों तक कष्ट देकर प्राण लिया । तपस्वी अरविन्द जब रोग शैय्या पर पड़े थे तो उनके शिष्यों ने उनसे पूछा कि आप अपने को स्वस्थ क्यों नहीं कर लेते ? उन्होंने भी उत्तर दिया था कि संस्कार के क्षय के लिए कष्ट सहन की तपस्या अनिवार्य है ।
अहिंसा और अस्तेय इन दो बातों पर जैन धर्म बहुत बल देता है । विष्णु पुराण ( ३१९/२४-३३), गरुड पुराण (१/१०२/१-६), अग्नि पुराण ( १६१ / १ - ३१), पद्म पुराण ( १/१५/३४८-३९२) तथा भागवत् (७/१३/१-४६), में यति का जो धर्म बतलाया गया है, वे भगवान महावीर के ही अहिंसा तथा अस्तेय का प्रतिपादन करते हैं । कूर्म ने यहाँ तक लिखा है
स्तेयादभ्यधिकः कश्चिन्नास्त्यधर्म इति स्मृतः । हिंसा चैषापरा दिष्टा या चात्माज्ञाननाशिका |
(२/२९/३०)
चोरी से बढ़कर और कोई अधर्म नहीं है । चोरी आत्मज्ञान को नष्ट करने वाली दूसरी हिंसा कही गयी है । अमरकोश के अनुसार हिंसा का अर्थ है 'चौर्यादि कर्म
हिंसा चैव न कर्तव्या वैधहंसा तु राजसी । ब्राह्मणः सा न कर्तव्या यतस्ते सात्विका मताः ॥
हलायुध कोश के अनुसार 'धर्म' का अर्थ है 'सुकृत, न्याय, आचार, सत्संग तथा अहिंसा ।' हम हिन्दू कैसे अपने को धर्मात्मा कह सकते हैं यदि हम हिंसक हैं, यदि हम सत्कर्म नहीं करते, यदि हमारा आचरण ठीक नहीं है । यदि हम न तो सत्संग करते हैं और न हम न्यायपूर्ण जीवन बिताते हैं, हम अपने को हिन्दू कह सकते हैं पर हम धार्मिक व्यक्ति हैं, यह झूठ होगा ।
मैं इन्हीं मोटी बातों को पकड़कर कहता हूँ कि बिना अच्छा जैनी हुए मैं अच्छा हिन्दू नहीं बन सकता । जैन धर्म के आचार्यों ने किसी भी धर्म का खण्डन - मण्डन करके अपने को ऊँचा साबित करने का प्रयास भी नहीं किया । मैं यहां स्याद्वाद या अनेकान्तवाद पर न जाकर केवल जैन आचार्यों की निष्पक्ष विचारधारा की ओर संकेत करना चाहता हूँ । आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट लिखा है कि "हमने जो कुछ लिखा है वह पक्षपात वश या द्वेष भाव से नहीं । केवल श्रद्धा के कारण, न आपके प्रति, हे वीर ! हमारा कोई पक्षपात है और न द्वेष के कारण अन्य देवताओं
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में अविश्वास है, किन्तु, यथार्थ रूप में आप की परीक्षा करके ही हमने आपका आश्रय लिया है।"
न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रावरुचिः परेषु । यथावदाप्तव्यपरीक्षया तु'वामेव वीर प्रभुमाश्रिताः स्मः ॥
कोई झगड़े की बात तो जैनधर्म कहता भी नहीं। जैन परम्परा केवल एक धुरी पर घूमती रही है । वह धुरी केवल एक लक्ष्य है-अनन्त ज्ञान । जिसे वह प्राप्त हो गया, उसे सब कुछ मिल गया । आचारांग सूत्र ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है
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