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वर्तमान युग में महावीर के उपदेशों की सार्थकता
- डा० प्रभाकर माचवे
हजारों वर्ष पूर्व महावीर और उनके शिष्यों ने नय-पद्धति से अपेक्षा भंग पर गहरा विचार किया था । यदि उसे आज की समाजनीति राजनीति अर्थनीति पर लागू किया जाय तो गांधी जी कहते थे उस प्रकार से प्रत्येक व्यक्ति "स्वे-स्वे कर्मण्यभिरतः " रहकर " योग। कर्मसु कौशलम् " का अनुसरण करेगा । जन्मना जातीय ऊँचनीचता नहीं रहेगी। वर्गों की परस्पर हित रक्षा पंचायत और पंच पद्धति से “पंचाठ" अवार्ड और ट्रस्टी विश्वस्त संस्था से बात-चीत और परस्पर संवाद से प्राप्त की जा सकेंगी। हर छोटी-छोटी मांग के लिए परस्पर सिर फोड़ने, दंगे, रक्तपात, घेरत्व और दबाव में मानवी शक्ति का अपव्यय नहीं होगा ।
विचार के क्षेत्र में, साहित्य- कला संस्कृति के सम्यक् समीक्षा-दृष्टि दे सकता है । आज हम देखते हैं मानकर, हम अन्य सम्भावनाओं को एकदम झुठला देते हैं ।
क्षेत्र में भी महावीर का स्याद्वाद बहुत उपयोगी और एकमात्र कि अपनी बात को मनवाने के लिए, उसी को अन्तिम सत्य
मनोविष्लेषण शास्त्र के नये आचार्य जानते हैं कि पूर्वाग्रह एक प्रकार का मनोरोग है । उससे तो कोई भी ज्ञान आगे विकसित नहीं हो सकता । जहाँ ज्ञान नहीं है, वहाँ सृजन क्या होगा । ऐसी दिशा में महावीर के अनन्त सम्भावनाओं वाले “स्याद्वाद" से हमें बहुत प्रेरणा मिलेगी। वह " अव्यक्तव्यं" तक मानवी कल्पना को पहुँचाता है । अतः वह नवीनतम "मोन में शब्द की अन्तिम परिणति वाले" विचार को बहुत पहले ही सोच चुका है ।
जीवन अधिकाधिक अप्राकृतिक और असहज होता जाता है । प्रदूषण न केवल पर्यावरण में, पर विचारों के सूक्ष्मलोक में भी पहुँच चुका है । यदि मनुष्य आत्महत्या के विरुद्ध और देहात से हटकर जीना चाहता है तो उसे पुनः उसी प्राकृतिक और सहज जीवन पद्धति की ओर जाना होगा। जिसकी बात महावीर ने की थी और बाद में गांधी ने उसे कृति द्वारा पुनः अधोरेखित किया था ।
महावीर के उपदेशों की सबसे बड़ी सार्थकता मुझे उनके अस्तेय और अपरिग्रह की श्रेष्ठता के प्रतिपादन में लगती है । आज जो स्मगलर, मुनाफाखोर, जमाखोर, चोर बाजारिये, कालाधन संग्राहक व्यापारी और जल्दी से जल्दी श्रीमन्त बननेवाले समाज के ही तबके और हर प्रदेश और भाषा भाषी समाज में दिखाई देते हैं, भारत को यह जो की तरह से रोग लगा है, इसका मूल है लोभ और तृष्णा । मनुष्य की एषणाओं का अन्त नहीं | उनमें घुन ईंधन डालो अग्नि भड़कती ही जाती है। यहां महावीर ने जो यह कहा कि भंगुर, क्षणजीवी, असार और बेकार की चीजों से मोह मनुष्य को कहीं का नहीं रहने देगा, आज फिर से दुहराने की आवश्यकता है। जड़ और चेतन का भेद समझना होगा । पुद्गल से सब व्याप्त हैं । फिर यह मैल मन पर और तन पर ओढ़ते जाने से क्या होगा ? संवरण करना होगा । 'कम्म-निज्जरा' वृत्ति ही यहाँ अन्ततः काम आयेगी ।
सबसे बड़ी महावीर की देन निर्भीकता और निडर होने के क्षेत्र में है । वन, पर्वतों में अकेले घूमना, हिंस्र श्वापदों और बटमारों से न डरना इन निरंतर परिव्राजक मुनियों और यात्रियों का नित्य धर्म था । आज तो पग-पग पर लोग अनुक्षण निराधार भयाकुल लगते हैं । कई भय तो अमूर्त और निराधार होते हैं । डरने से कोई बात नहीं मिलती । 'मा मै' के उपनिषदीय मंत्र को महावीर ने अपने जीवन में प्रत्यक्ष अनुवाद किया । ●
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