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महावीर और अहिंसा
-आज के वीरप्रेक्ष्य में
-पद्मविभूषण डा० दौलतसिंह कोठारी
भारतीय जीवन और चितन्तन में अहिंसा का केन्द्रीय स्थान रहा है। अब से २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने कहा था कि अहिंसा ही परम धर्म है, अर्थात मन, वचन और काय से हिंसा-विरमण के व्रत का पालन करना। महावीर ने जैसा आचरण किया उसी का उदघोष किया और उपदेश दिया। उनके सन्देश और उनकी जीवन चर्या में पूर्ण सामंजस्य था-दोनों अभिन्न थे।
मानव की अंहिसा विषयक अथक खोज में २४वें जैन तीर्थंकर महावीर एक सर्वोपरि पथ-चिन्ह, और प्रकाश प्रेरणा एवं उत्साह के सतत स्रोत हैं। वह जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, जो कि इस देश में उनके समय से बहुत पूर्व भी क्वचित प्रचलित था। महावीर का दर्शन उनके उपदेश और आदर्श आज जितने समयानुकूल हैं उतने शायद पहले कभी नहीं थे। जैसा कि गान्धी जी ने सदैव बलपूर्वक कहा है, अहिंसा और सत्याग्रह का अविनाभाव सम्बन्ध हैं, एक से दूसरे को अलग नहीं किया जा सकता। इस आणविक युग में अहिंसा की प्रगति के अभाव में मनुष्य के भविष्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती। उसके जीवित रहने में भी संशय है। मनुष्य स्वयं अपना प्रतिद्वन्द्वी है। वह इस पृथ्वीमण्डल पर सम्पूर्ण जीवन का विनाश कर सकता है ? अथवा वह सांस्कृतिक, सामाजिक और अध्यात्मिक विकास के नवीन क्षेत्र उन्मुक्त कर सकता है। यही विज्ञान और अहिंसा का मार्ग है, यह दोनों परस्पर एक दूसरे को बल प्रदान करते हैं जैसा कि नेहरू जी ने (अपनी डिस्कवरी आफ इन्डिया, पृष्ठ ४९३) कहा हैं, "मानवीयता और वैज्ञानिक मनोवृत्ति में समन्वय वृद्धिंगत हैं, जिसका परिणाम एक प्रकार की वैज्ञानिक मानवीयता हैं ।" महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम यह स्वीकार करें कि मानवीय मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही जैविक विकास की प्रकृति में एक गम्भीर परिवर्तन-गुणात्मक परिवर्तन हुआ है। जैविक विकास का क्रम अब अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा स्वयं मनुष्य पर अधिक निर्भर करता है । और, यह तथ्य अहिंसा को मानवीय विकास का प्राथमिक विधान बना देता है ।
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