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स्त्री से विवाह सम्बन्ध करना (६) उपयुक्त बस्ती या मुहल्ले में रहना ( ७ ) उपयुक्त मकान में निवास करना (८) लज्जाशील होना (९) योग्य भोजन पान करना (१०) उपयुक्त आचरण करना (११) उत्तम पुरुषों की संगति करना ( १२ ) बुद्धिमत्ता (१३) कृतज्ञता (१४) जितेन्द्रियता (१५) धर्मोपदेश श्रवण करना (१६) दयालुता और (१७) पाप से भय करना ।
आचार्य नेमिचन्द ने प्रवचनसारोद्धार में बताया कि निम्नोक्त २१ गुणों को धारण करने वाला श्रावक ही अणुव्रतादि व्रतों की साधना करने के योग्य होता है-अक्षुद्रपन, स्वस्थता, सौम्यता, लोकप्रियता, अक्रूरता, पापभीरुता, अशठता, दानशीलता, लज्जाशीलता, दयालुता, गुणानुराग, प्रियसम्भाषण या सौभ्यदृष्टि, मध्यस्थ वृत्ति, दीर्घदृष्टि, युक्तियुक्त, सत्य का पक्ष करना, नम्रता, विशेषज्ञता, वृद्धानुगामी होना, कृतज्ञता, परहितकारी या परोपकारी होना और लब्धलक्ष्य अर्थात् जीवन के साध्य का ज्ञाता होना ।
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हेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र ( प्रथम प्रकाश) में श्रावक के ऐसे प्राथमिक गुणों की संख्या ३५ दी है और उन्हें मार्गानुसारी गुण कहा है, यथा - न्यायपूर्वक धनोपार्जन, ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध शिष्टजनों का सम्मान, समान कुलशील साधर्मी किन्तु भिन्न गोत्रोत्पन्न व्यक्ति के साथ विहाह सम्बन्ध, चोरी, परस्त्रीगमन, झूठ आदि पापाचार का परित्याग, स्वदेश के हितकर आचार-विचार एवं संस्कृति का पालन-संरक्षण, परनिन्दा से बचना, उपयुक् मकान में निवास, सदाचारी जनों की संगति, माता-पिता का सम्मान सरकार एवं उन्हें सन्तुष्ट रखना, जिस नगर या ग्राम का वातावण अशान्त अराजकतापूर्ण हो वहाँ निवास नहीं करना, देश - जाति कुल विरुद्ध आचरण न करना, देशकालानुसार वेषभूषा एवं रहन-सहन रखना, आय से अधिक व्यय न करना और अनुचित कार्यों में व्यय न करना, धर्मश्रवण की इच्छा रखना, शास्त्र चर्चा तत्व चर्चा आदि में रस लेना, जीवन को उत्तरोत्तर उच्च एवं पवित्र बनाने का प्रयत्न, अजीर्ण होने पर भोजन न करना, समय पर भोजन करना, भूख से अधिक न खाना, धर्म-अर्थ- काम का निर्विरोध सेवन, अतिथि- दीन- साधुजनों को यथायोग्य दान देना, आग्रहशीलन होना, सौजन्य, औदार्य, दाक्षिण्य आदि गुणों की प्राप्ति में प्रयत्नशील होना, अयोग्य देश एवं अयोग्य काल में गमनागमन न करना, आचारवृद्ध-ज्ञानवृद्ध जनों को स्वगृह पर आमंत्रित कर उनकी सत्कार सेवा करना, माता पिता पत्नि पुत्र पुत्री आदि आश्रित जनों का यथायोग्य भरण-पोषण करना और उनके विकास में सहायक होना, दीर्घदर्शिता, विवेकशीलता, कृतज्ञता, निर-अहंकार, विनम्रता, लज्जाशीलता, करुणाशीलता, सौम्यता, परोपकारिता, काम-क्रोध-लोभ-मोह - सह मत्सर्य आदि आतिरक शत्रुओं से बचे रहने का प्रयत्न, और इन्द्रियों की उच्छृन्खलता पर रोकथाम । कविवर बनारसीदास ने भी श्रावक के २१ गुण गिनाये हैं ।
इन तालिकाओं में अनेक गुण अभिन्न या समान हैं। इन गुणों के संकेत से पुरातन आचार्यों का अभिप्राय यही प्रतीत होता है कि श्रावक की भूमिका को समुचित ढंग से निभाने के लिए व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि सर्वप्रथम वह स्वयं मानवोचित व्यावहारिक सदगुणों का विकास करके एक सभ्य, शिष्ट, सर्वप्रिय, उपयोगी नागरिक एवं समाज का प्रशंसनीय सदस्य बन जाय ऐना व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में श्रावक
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