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२२ ] के आधार से उन्होंने यह भी प्रकट किया था कि उनका उक्त निष्कर्ष मात्र काल्पनिक या सैद्धांतिक ही नहीं है वरन् व्यवहार्य एवं वास्तविक है क्योंकि उक्त रिपोर्ट के अनुसार जब कि प्रत्येक ४७७ ईसाइयों में से एक, ४८१ यहूदियों में से एक, प्रत्येक ६०४ मुसलमानों में से एक, प्रत्येक १५०९ हिन्दुओं में से एक और प्रत्येक २५४९ पारसियों में से एक दण्डविधान के अन्तर्गत दंडित होकर जेल की सजा भोग रहे थे तब प्रत्येक ६१६५ जैनों में से एक व्यक्ति वैसी सजा काट रहा था। सन् १९०१ में यह अनुपात और भी कम हो गया अर्थात् ७३५५ जैनों के पीछे केवल एक व्यक्ति ही दंडित अपराधी पाया गया। प्रशासन, अदालतों, व्यापार और व्यसाय में भी जैन जन अपनी सच्चाई, ईमानदारी, वचन निर्वाह एवं साख के लिए अन्य समस्त समाजों की अपेक्षा अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त रहे हैं। एक सच्चा न गृहस्थ नाप-तौल में कमी-बेशी करने से, पदार्थों में मिलावट करने से, काला बाजार से, चोरी का माल लेने-देने से, उत्कोच-घूस (रिश्वत) के आदान प्रदान से, दूसरों का शोषण आदि करने से सदा दूर रहेगा।
वह क्षमा-मादर्व-आर्जव-सत्य-शौच-संयम-तप-त्याग-आकिन्चन्य-ब्रह्मचर्य रूपी दश-लाक्षण धर्म का चिन्तन मनन करने में तथा उन्हें अपने जीवन में उतारने में प्रयत्नशील रहता है।
'देवपूजा-गुरुपास्ति-स्वाध्याय-संयमस्तपः-दानश्चेति षट्कर्मणिदिनेदिने' - जैनगृहस्थ इन षडावश्यक करणीय कर्मों को प्रतिदिन यथाशक्ति करता है। इन आवश्यक नित्य कर्तव्यों में अन्तिम.दानका विशेष महत्व है। व्यवहार्य जैन धर्म के प्रवृत्यात्मक रूपों में दान प्रवृत्ति सर्वोपरि है । इसके प्रायः चार भेद किये जाते हैंआहार, औषध, शास्त्र और अभय । एक सदगृहस्थ आत्मार्थी गृहत्यागी साधु साध्वियों को उनके उपयुक्त आहार-पान सहर्ष एवं सादर प्रदान करके उनके धर्मासाधन में सहायक होता है और दीनदुस्नी भूखे प्यासे जनों की क्षुधा निवारण करने में, अभावग्रस्तों के अभावों का यथाशक्य निवारण करने में अहोभाग्य मानता है । जो रोगी हैं उन्हें रोगमुक्त करने के लिए औषधालयों, आतुरालयों, चिकित्सालयों आदि की स्थापना आदि सहायता, निःशुल्क औषधि वितरण तथा रोगी की सुश्रुषा-परिचर्या आदि के रूप में वह औषधिदान नामक अपने आवश्यक कर्तव्य का पालन करता है । सद्साहित्य का निर्माण वा निर्माण में सहायता दान, उसके प्रकाशन, वितरण में योग, ज्ञान केन्द्रों एवं शिक्षा संस्थाओं को स्थापना सहायता, स्वयं दूसरों को ज्ञान-दान देना अथवा उसके दिये जाने की साधन सुविधायें उपलब्ध करना-कराना जैन समुदाय का शास्त्र दान है। किसी भी प्राणी को मानसिक अथवा शारीरिक कष्ट न पहुंचाना, जो अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न या त्रास के शिकार हैं उन्हें सुरक्षा एवं शरण प्रदान करके निर्भय करना जैन श्रावक का अभयदान है। 'दयामूलो धम्मो' के सिद्धान्त में विश्वास रखने वाले जैन गृहस्थ परोपकार एवं सेवाकार्यों में सदैव तत्पर रहते हैं । अनगिनत अनाथालय, विधवाश्रम, बाला विश्राम, पिंजरापोल, ज्ञानकेन्द्र, शिक्षा संस्थाएँ, पुस्तकालय, छात्रवृत्तियाँ, छात्रालय, धर्मशालाएं, चिकित्सालय, आतुरालय या औषधालय, अकाल-सूखा बाढ़ आदि प्राकृतिक वा अप्राकृतिक आकस्मिक आपस्ति-विपत्तियों से पीड़ित मनुष्यों आदि की सेवा सहायता करने वाली संस्थाएं, जैन गहस्थ की इस दान प्रवत्ति के फलस्वरूप लोक सेवा में
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