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जैसे
धूम्र
से अग्नि का ज्ञान । शब्द, संकेत आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह 'श्रुत' है। इसे आगम, प्रवचन आदि भी कहते हैं । जैसे—'मेरु आदिक हैं' शब्दों को सुनकर सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है। ये सभी ज्ञान परापेक्ष और अविशद हैं । स्मरण में अनुभव, प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण, तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और श्रुतं में शब्द एवं संकेतादि अपेक्षित हैं, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । अतएव ये और इस प्रकार के उपमान, अर्थापत्ति आदि परापेक्ष अविशद ज्ञान परीक्ष प्रमाण माने गये हैं ।
ख -४
प्रतिपादित किया है ।
अकलंक ने इनके विवेचन में जो दृष्टि अपनायी वही दृष्टि विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि आदि तार्किकों ने अनुसृत की है । विद्यानन्द ने 30 प्रमाण-परीक्षा में और माणिक्यनन्दि ने 31 प्ररीक्षामुख में स्मृति आदि पांचों परोक्ष प्रमाणों का विशदता के साथ निरूपण किया है। इन दोनों तार्किकों की विशेषता यह है कि उन्होंने प्रत्येक की सहेतुक सिद्धि करके उनका परोक्ष में ही समावेश किया है। विद्यानन्द ने 32 इनकी प्रमाणता में सबसे बड़ा हेतु उनका अविसंवादी होना बतलाया है । साथ ही यह भी कहा है कि यदि कोई स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और श्रुत ( पद- वाक्यादि ) अपने विषय में विसंवाद (बाधा ) उत्पन्न करते हैं तो वे स्मृत्याभास, प्रत्यभिज्ञाभास, तर्काभास, अनुमानभास और श्रुताभास हैं । यह प्रतिपत्ताका कर्तव्य है कि वह सावधानी और युक्ति आदि पूर्वक निर्णय करे कि अमुक स्मृति निर्बाध होने से प्रमाण है और अमुक सबाध (विसंवादी) होने से अप्रमाण है । इसी प्रकार प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और श्रुत के प्रामाण्याप्रामाण्यका निर्णय करे। ये पाँचों ज्ञान यतः अविशद हैं, अत: परोक्ष हैं, यह भी विद्यानन्द ने स्पष्टता के साथ विद्यानन्द की 38 एक और विशेषता है । वह है अनुमान और उसके परिकरका विशेष निरूपण । जितने विस्तार के साथ उन्होंने अनुमान का प्रतिपादन किया उतना स्मृति आदिका नहीं | तत्वार्थश्लोकवार्तिक और प्रमाणपरीक्षा में अनुमान -निरूपण सर्वाधिक है । पत्रपरीक्षा में तो प्रायः अनुमान का ही शास्त्रार्थ उपलब्ध है । विद्यानन्द ने 34 अनुमान का वही लक्षण दिया है जो अकलंकदेव ने 35 प्रस्तुत किया है । अर्थात् 'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमनम् ' - साघन से होने वाले साध्य के ज्ञान को उन्होंने अनुमान कहा है । साधन और साध्य का विश्लेषण भी उन्होंने अकलंक प्रदर्शित दिशानुसार किया है। साधन 36 वह है जो साध्य का नियम से अविनाभावी है । साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के न होने पर नहीं ही होता। ऐसा अविनाभावी साघन ही साध्य का अनुमापक होता है, अन्य नहीं । त्रिलक्षण, पंचलक्षण आदि साधन लक्षण सदोष होने से युक्त नहीं हैं 137 इस विषयका विशेष विवेचन हमने अन्यत्र 38 किया है । साध्य 39 वह है जो इष्ट- अभिप्रेत, शक्य- अबाधित और अप्रसिद्ध होता है । जो अनिष्ट है, प्रत्यक्षादि से बाधित है और प्रसिद्ध है वह साध्य - सिद्ध करने योग्य नहीं होता । वस्तुतः जिसे सिद्ध करना है उसे इष्ट होना चाहिए, अनिष्ट को कोई सिद्ध नहीं करता। इसी तरह जो बाधित हैसिद्ध करने के अयोग्य है, उसे भी सिद्ध नहीं किया जाता। तथा जो सिद्ध है उसे पुनः सिद्ध करना निरर्थक है । अत: निश्चित साध्याविनाभावी साधन ( हेतु) से जो इष्ट, अबाधित और प्रसिद्ध रूप साध्य का विज्ञान किया जाता है वह अनुमान प्रमाण है ।
अनुमान के दो भेद हैं- १. स्वार्थानुमान और २ परार्थानुमान । अनुमाता जब स्वयं ही निश्चित साध्याविनाभावी साधन से साध्यका ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहा जाता है । उदाहरणार्थ - जब वह धूप को देखकर अग्नि का ज्ञान, रस को चखकर उसके सहचर रूप का ज्ञान या कृतिका के उदय को देखकर एक मुहूर्त्त बाद होने वाले शकट के उदय का ज्ञान करता है तब उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान है। और जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्यों को बालकर दूसरों को उन साध्य साधनों की व्याप्ति ( अन्यथानुपपत्ति ) ग्रहण कराता है और दूसरे उसके उक्त वचनों को सुनकर व्याप्तिग्रहण करके उक्त हेतुओं से उक्त साध्यों का ज्ञान करते हैं तो दूसरों का वह अनुमान ज्ञान परार्थानुमान है ।
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