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ख-३ ऐसी ही गाथातित्यो-गाली-पयन्ना नामक प्राचीन श्वेताम्बर आगमिक रचना में पाई जाती है 133 प्रथम पंक्ति दोनों में समान है, दूसरी पंक्ति भिन्न है, किन्तु उक्त पाठभेद से गाथा के आशय में कोई अन्तर नहीं आता। 'उपपन्नो सगोराया' (शक-राज उत्पन्न हुआ ) का फलितार्थ यही है कि 'शक संवत् की प्रवृत्ति हुई' । यतिवृषभ (लगभग १७६ ई.) ने इस अनुश्रुति को सर्वप्रथम लेखबद्ध किया प्रतीत होता है ।34 तदनन्तर जिनसेन (७८३ ई०), 35 नेमिचन्द्र (९७३ ई०),36 मेरुतुंग (१३०६ ई०) 37 आदि परवर्ती विद्वानों ने उसकी पुनरावृत्ति की। अतएव यह स्पष्ट है कि शक संवत् की प्रायः प्रथम शती से ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही इस विषय में पूर्णतया एकमत रहते आये हैं कि महावीर निर्वाण संवत् और शक संवत् के प्रवर्तनकालों के मध्य ६०५ वर्ष ५ मास का अन्तराल था, साथ ही यह भी कि उक्त शक संवत् सन् ७८ ई० में प्रारम्भ हुआ था, जिससे सिद्ध है कि महावीर निर्वाण १७ में हुआ था।
एक दूसरे वर्ग की अनुश्रु ति विक्रम संवत् के अधार से महावीर का समय सूचित करती है । दिगम्बर पट्टावलियों में प्रायः सर्व प्राचीन, नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावलि, प्राचीनता में प्रायः उसी के समकक्ष श्वेताम्बर तपागच्छ पट्टावलि, तथा हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति (लगभग ७७५ ई०), तीर्थोदारप्रकरण एवं कई अन्य ग्रन्थ
33--पंच य मासा पंच य वासाछच्चेव होंति वाससया। परिणिव्वु अस्सअरहंतो तो उपपन्नो सगोराया ।
-पट्टावली समुच्चय, पृ० ५३७ मुनि कल्याणविजयजी ने अपने पूर्वोक्त निबन्ध में भी इस पयन्ना को उद्धृत किया है। 34-णिव्वाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचवरिसेषु । पणमासेसु गदेषु संजादो सगणिओ अहवा ॥
__ -तिलोयपण्णति, IV, १४९९. 35--वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पंचाग्रां मास पंचकम् । मुक्तिगते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ।।
-हरिवशं, अ०६०, श्लो० ५४९ 36--पणछस्सय वस्सं पणमासजुदं गमियवीर णिव्वुइदो। सगराजो तो कक्की चदुणवतिय एहिय सगमासं ।।
-तिलोयसार, गा० ८५० 37--श्री वीर निवृतेर्वषः षड्भिः पंचोत्तरैः शतैः ।
शाक संवत्सरस्यैषां प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥ -विचारश्रेणी वस्तुत: मेहतुङ्ग ने किसी पूर्ववर्ती रचना से यह पद्य उध्दृत किया है ।
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