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कालानुक्रमणिका भी उक्त सहस्त्राब्द को दे दी जाती है, जिसका अन्त कल्कि के अत्याचारी शासन के साथ हुआ ।
प्रथम अनुश्रुति तो जैन साहित्य एवं जैनसंघ के इतिहास की मूलभित्ति है । इसे आधार बनाकर हम ईस्वी सन् की प्राथमिक चार-पांच शताब्दियों में हुए प्रमुख जैन आचार्यों एवं ग्रन्थकारों के क्रम को तथा उनके समय को सन्तोषप्रदरूप में निर्धारित कर सकते हैं। विशेषकर दिगम्बर आम्नाय के प्रायः सभी संघ - गण गच्छ आदि के इतिवृत्तों का मूलाधार भी यही अनुश्रुति है । ये संघ-गण- गच्छ आदि अपनी-अपनी पट्टावलियाँ या गुर्वावलियाँ उपरोक्त महावीर निर्वाण वर्ष ६८३ से ही प्रायः प्रारंभ करते हैं, और साथ ही उक्त ६८३ वर्ष की आचार्यपरंपरा अपनी-अपनी पट्टावलियों के प्रारम्भ में प्राय: उसी रूप में निबद्ध कर देते है जिसमें कि वह अनुश्रुति से सम्बन्धित अन्य अनेक साधन स्रोतों में प्राप्त होती है । स्वयं भगवान महावीर के समय के संकेत भी उनमें बहुधा प्राप्त होते हैं ।
ख - ३
अस्तु, विक्रम सम्वत् ८३८ (सन् ७८० ई०) में समाप्त अपनी धवला टीका में स्वामी वीरसेन ने भगवान महावीर के उपरान्त होने वाले २८ आचार्यों की परम्परा दी है, जिसे उन्होंने पांच समूहों में विभाजित किया है। और साथ ही प्रत्येक समूह का पूरा काल भी निर्देशित कर दिया है तथा अन्त में यह सूचित किया है कि 'उपरोक्त ६८३ वर्ष में से ७७ वर्ष ७ मास घटाने से ६०५ वर्ष ५ मास शेष रहते हैं जो उस अन्तराल के द्योतक हैं जो महावीर निर्वाण और शक सम्वत् के प्रवर्तनकाल के मध्य रहा था ।' अपने कथन के समर्थन में उन्होंने एक प्राचीनतर गाथा भी उद्धृत की है जिसका आशय है कि प्रचलित शकवर्ष में ६०५ वर्ष ५ मास जोड़ने से वर्तमान महावीर निर्वाण वर्ष निकल आता है 1 32.
मुक्तिगते महावीरे प्रतिवर्ष सहस्रकम् । एकैको जायते कल्की जिनधर्म विरोधकः । इदि पडि सहस्सवस्सं वीरे कक्कीणदिक्कमे चरिमो ।
जलमंथणो भविस्सदिकक्की सम्यग्गमत्थणओ ॥
-तिलोयसार (९७३ ई० )
तित्थोगालीपयन्ना, दीपमालाकल्प, कालसप्तति आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इसी आशय के कथन पाये जाते हैं ।
अवणी
32- सव्वकाल समासो तेयासीदिअहिय छस्सदमेत्तो (६८३), पुणे एत्थ सत्तमासाहिय सत्तहत्तरिवासेसु (७७-७) पंचमासाहियपंचत्तर छस्सदवासाणि ( ६०५-५ ) हवंति । एसो वीर जिणिणिव्वाणगद दिवसादो जाव सगकाल सभादी होदि, तावदियकालो, कुदो ? एदम्मिकाले सगणरिदकालस्स पक्खित्ते वड्ढमाणजिण विदकालगमणादो |
- हरिवंश (७८३ ई० )
वृत्तं च-पंच य मासा पंच या वासा छच्चेव होंति वाससया ।
सगकालेन य सहिया थावेयव्वो तदो रासी ॥
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- जैन सिद्धांत भवन आरा की प्रति, पृ० ५३७
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