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इस लेख के प्रारम्भ में ही वस्तु को, द्रव्यपर्यायात्मक सिद्ध किया है। द्रव्य एक नित्य और सामान्य रूप होता है। पर्याय अनेक अनित्य और विशेष रूप होती हैं। अतः द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक वस्तु एक, नित्य और सामान्य रूप है तथा पर्याय दृष्टि से अनेक, अनित्य और विशेष रूप है।
___ अमृतचन्द्राचार्य ने प्रवचनसार (गा० ११३) की टीका में कहा है-सब वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से उसके स्वरूप को देखने वालों की दो आंखे हैं। एक आंख या दृष्टि द्रव्याथिक है जो वस्तु के सामान्य रूप को देखती है। दूसरी दृष्टि पर्यायाथिक है जो वस्तु के विशेष रूप को देखती है । जब पर्यायाथिक दृष्टि को बन्द करके केवल द्रव्याथिक दृष्टि से देखते हैं तो नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव, सिद्ध पर्याय रूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को ही देखने पर और पर्यायों को दृष्टि से ओझल करने पर सब जीव द्रव्य ही प्रतिभासित होता है । और जब द्रव्याथिक दृष्टि को बन्द करके पर्यायाथिक दृष्टि से देखते हैं तब जीव द्रव्य में होने वाली नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव और सिद्ध पर्याय रूप विशेषों को देखने वालों को सब पर्याय भिन्न-भिन्न प्रती हैं। और जब दोनों दृष्टियों को एक साथ खोलकर देखते हैं तो एक ही समय में नारक आदि पर्यायों में स्थित जीव सामान्य और जीव सामान्य में होने वाली नारकादि पर्याय विशेष दृष्टिगोचर होती हैं। अत: एक दृष्टि से देखना एकदेश देखना है और दोनों दृष्टियों से देखना पूर्ण वस्तु का अवलोकन है। पूर्ण अवलोकन अनेकान्त रूप है और एक देश अवलोकन एकान्त रूप है। जो वस्तु के एकदेश को देखकर उसे ही यथार्थ मानता है और उसी वस्तु के अन्य देशों का निषेध करता है वह अयथार्थवादी और जो एकदेश को देखकर भी अन्य देशों का निषेध नहीं करता, उन्हें भी यथार्थ मानता है, वह यथार्थवादी है । अतः प्रत्येक एकान्त दृष्टि अन्य दृष्टि से निरपेक्ष होने पर मिथ्था है और अन्य दृष्टि सापेक्ष होने पर सच्ची है।
इस तरह भगवान महावीर की अनेकान्त दृष्टि में सब एकान्त दृष्टियों का समन्वय किया है । वहां द्वैत-अद्वैतवाद, नित्य-अनित्यवाद, सामान्य-विशेषवाद, एक-अनेकवाद, भेद-अभेदवाद, भाव-अभाववाद परस्पर में मित्रता के साथ रहते हैं ।
भगवान का कहना है कि व्यक्ति वस्तु को अपनी तत्कालीन दृष्टि से देखता है अत: वह दृष्टि सत्य का अंश देखती है। किन्तु उस एकांशग्राही दृष्टि को तभी सत्य कहा जा सकता है जब वह सत्य के शेष अंशो को भी मान्य करे। यदि वह अपने ही एकांश के पूर्ण सत्य का आग्रह करती है तो मिथ्या है । जैसे कुछ अन्धे हाथी के -एक अवयव को स्पर्श करने के बाद हायी को अपने-अपने देखे अवयव के रूप में ही सत्य मानकर झगड़ने
टिसमपान व्यक्ति ने उन्हें समझाकर उनके द्वारा देखे गये संड. पर. पेट. कान आदि अवयवों को जोडकर उन्हे पूर्ण हाथी का ज्ञान कराया । यही स्थिति अनेकान्त की भी है। वह भी परस्पर में फैले विवाद को दूर करके दुराग्रह को हटाता है और मनुष्य को समन्वयात्मक दृष्टि प्रदान करता है।
भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट परमागम का तो वही प्राण है । उसको समझे बिना न भगवान महावीर के दर्शन को समझाया जा सकता है और न धर्म को । दर्शन में जो अनेकान्तवाद है वह अहिंसा का ही प्रतिरूप है। अतः भगवान महावीर का दर्शन और धर्म दोनों अहिंसात्मक हैं क्योंकि उनका उद्गम निर्विकार शुद्धात्म स्वरूप भगवान महावीर के अहिंसामय अन्तस्तल से हुआ है।
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