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ख-४
गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। वे चार गतियां हैं-नरक, तिर्यञ्च मनुष्य और देव । लोक के तीन भागों में से नीचे के भाग में नरक हैं, मध्य भाग में मनुष्य रहते हैं और ऊपर के भाग में देवलोक या स्वर्ग है। अधोलोक दु:ख प्रधान है, देवलोक सासांरिक सुख प्रधान है और मध्यलोक सुख दुःख की स्थिति से भी मध्यम ही है। मध्य लोक के मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही मरकर नरक या स्वर्ग में जाते हैं। न नारकी मरकर स्वर्ग में जा सकता है और न देव मरकर नरक में जाता है। वे मरकर मनुष्य या तिर्यञ्च होते हैं। देव, नारकी और मनुष्य के सिवाय शेष सब जीव तिर्यञ्च कहे जाते हैं। इनमें से एक इन्द्रिय वाले तिर्यञ्च समस्त लोक में रहते हैं। इन जीवों का बहुत विस्तार से वर्णन जिनागम में किया है। इसका कारण यह है कि संसार नाम जीवों के परिभ्रमण का है और एक जन्म त्याग कर नया जन्म धारण करते रहते का नाम संसार है और इस संसार से छुटकारा दिलाना धर्म का कार्य है। अत: जीव की दशाओं का वर्णन भी धर्म का ही अंग है। उसे जाने बिना धर्म में प्रवत्ति नहीं होती।
सात तत्व-जैसे छह द्रव्य हैं वैसे ही सात तत्त्व हैं। छह द्रव्यों से तो यह जगत बना है। इन द्रव्यों के सिवास जगत में अन्य कोई मौलिक वस्तु नही हैं। जो कुछ है वह इन्हीं छह में समाविष्ट है । अत: जगत के मूल कारणों को जानने के लिये छह द्रव्यों का ज्ञान आवश्यक है। उनसे वस्तु व्यवस्था का बोध होता है, जो दर्शन शास्त्र का विषय है। किन्तु जो इस संसार के वन्धन से छूटकर मुक्त होना चाहते हैं उन्हें सात तत्त्वों की श्रद्धा होना आवश्यक है। उसके बिना मुक्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। तत्व कहते हैं सार भूत को । वे हैं-जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ।
जैसे वही रोगी वैद्य के पास जाता है जिसे यह विश्वास होता है कि मैं बीमार हूँ । यदि बीमार होने पर भी कोई अपने को बीमार नहीं मानता तो वह वैद्य के पास नही जाता । और 'मैं रोगी हूँ' इस श्रद्धा के लिये अपनी निरोग अवस्था के साथ रोग का बोध होना आवश्यक है, उसके बिना वह अपने को रोगी नहीं मान सकता।
वैद्य के पास जाने पर वह पूछता है रोग कसे हुआ और कैसे उसने तुम्हें जकड़ लिया। यह जानने के बाद ही वह चिकित्सा करता है कि अमुक-अमुक पदार्थों का सेवन न करना। ऐसा करने से नया रोग नहीं बढ़ेगा। और औषधि सेवन करने से धीरे-धीरे रोग घटेगा तब तुम रोग से मुक्त हो जाओगे ।
इसी प्रकार जीव के साथ कर्म का बन्धन एक रोग है। इस रोग को जानने के लिये शुद्ध जीव का स्वरूप तथा उससे बंधने वाले कर्म का स्वरूप जानना आवश्यक है। ये दोनों जीव और अजीव नामक तत्व हैं। जीव में अजीव तत्व कर्म का आना कैसे होता है उसके कारण क्या है, यह आस्रवतत्व है। आने के पस्चात कर्म जीव से किस प्रकार बंधता है यह बन्ध तत्व है। नवीन कर्म बन्ध को रोकने की प्रक्रिया संवर तत्व है । पूर्वबद्ध कर्म को धीरे-धीरे निर्जीर्ण करने की प्रक्रिया निर्जरा तत्व है और कर्म बन्धन से सर्वदा के लिये पूर्ण रूप से छूटना मोक्ष है। इन सात तत्वों को जानकर उनपर श्रद्धा करना सम्याक् दर्शन है। सात तत्वों की श्रद्धा के बिना सभ्यक दर्शन नहीं होता और सम्यग्दर्शन के हुए बिना मोक्ष का मार्ग नहीं बनता।
कर्म सिद्धान्त-यहां संक्षेप में जैन कर्म सिद्धान्त पर भी प्रकाश डालना उचित है। क्योंकि उसको समझे बिना मुक्ति को भी समझना शक्य नहीं है। जैनधर्म में कर्म केवल संस्कार रूप ही नहीं हैं किन्तु पौदगलिक पर. माणुओं का एक समूह भी है जिन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं। ये कर्म वर्गणा समस्त लोक में भरी हैं। जीव की प्रत्येक मानसिक वाचनिक और कायिक क्रिया से आकृष्ट होकर यह कर्म वर्गणा उस जीव से बन्ध जाती हैं। इस आस्रव
और बन्ध के मूल कारण दों हैं-योग और कषाय । मन बचन काय की प्रवृत्ति पूर्वक जीव के आत्म प्रदेशों में जो परिस्पन्द होता है, वह योग है, कर्मों के आने का नाम आस्रव है, उसका कारण योग हैं अत: उसे आश्रव कहते
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