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पुद्गल के तेईस प्रकार जैनागम में कहे हैं और उनका बहुत विस्तार से वर्णन मिलता है जो अन्वेषकों के लिये बहुत उपयोगी है। एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ कैसे बन्यता है इसका भी विवेचन है ।
धर्म और अर्धम द्रव्य जीवों और पुद्गलों की गति और स्थिति में सहायक होते हैं। इनसे पुण्य पाप नहीं लेना चाहिये । ये दो द्रव्य ऐसे हैं जिन्हें किसी अन्य तत्वज्ञानी ने नहीं माना है ।
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जीवद्रव्य - इन छह द्रव्यों में से पांच द्रव्य जड़-अचेतन हैं । चेतन द्रव्य केवल एक जीव है। जीव के मुख्य भेद दो हैं— संसारी और मुक्त । जीव का लक्षण है उपयोग । जो जानता देखता है वह जीव है । जैन दर्शन में चेतना के भेद ज्ञान और दर्शन हैं । अतः ज्ञान दर्शन के बिना चैतन्य संभव नहीं है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप है । जो जानता है वह ज्ञान है । आत्मा जानता है अत: वह ज्ञान है । 'आत्मा भिन्न है और ज्ञान भिन्न है तथा ज्ञान के सम्बंध से ओरमा ज्ञानी है, ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। किन्तु आत्मा स्वयं ज्ञान स्वरूप है । यद्यपि संसार अवस्था में जीव की ज्ञानशक्ति इतनी कुण्ठित हो जाती है कि वह इन्द्रियों के बिना कुछ भी नहीं जान सकता और इस लिये वह इन्द्रियों को ही ज्ञान का साधन मान बैठता है। किन्तु ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा होने पर भी न इन्द्रियों का धर्म है और न ज्ञेय पदार्थों का धर्म है । वह तो ज्ञाता आत्मा का धर्म है । जब आत्मा ज्ञान की रोधक शक्तियों का अन्त कर देता है तो वह स्वयं अतीन्द्रिय ज्ञान रूप परिणत होता है । और सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन जाता है। कहा है
जादो सयं स चेदा सव्वण्हु सव्व स लोग दरसीय । पप्पोदि हम अब्बा
वार्ष
ख-४
सगममुत्तं ।। २९ ।। पञ्चास्ति ०
वह चिदात्मा स्वयं सवंश सर्वदर्शी हुआ, अनन्त बाधारहित अमूर्त आत्मिक सुख को प्राप्त
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करता है ।
इस प्रकार चेतन जीव उपयोग से विशिष्ट कर्ता, भोक्ता, तथा अपने शरीर प्रमाण, अमूर्तिक होता है तथा संसार अवस्था में कर्म के बन्धन से बद्ध होता है।
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जीव को सर्वव्यापी या अणुपरिमाण आदि रूप न मानकर शरीर के बराबर मानना भी जैन दर्शन की अपनी विशिष्ट मान्यता है जैसे दीपक को जैसे स्थान में रखा जाता है उसका प्रकाश उतने ही स्थान में फैला रहता है । उसी प्रकार जीव को जैसा शरीर मिलता है वह उतने में ही व्याप्त होकर रहता है । बड़ा शरीर मिलने पर उसके प्रदेशों में फैलाव होता है और छोटा शरीर मिलने पर उसमें संकोच होता है । किन्तु मुक्त होने पर जिस शरीर से मुक्त होता हैं उससे किञ्चित न्यून आकार सदा बना रहता है । उसमें कोई हानि या वृद्धि नहीं होती ।
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संसारी जीव के सूल भेद दो हैं, बस और स्थावर जिनके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है उन्हें स्थावर कहते हैं । उनके पांच भेद हैं- पृथिवी कायिक- पृथिवी जिनका शरीर होता है । इसी प्रकार जल कायिक, तेज स्कायिक, वायु कायिक और वनस्पति कायिक । जो जीव इन पृथ्वी, जल, वायु, आग और वनस्पति को शरीर रूप से ग्रहण करते हैं वे सब स्थावर हैं तथा कीट, जिनके स्पर्शन और रसना इन्द्रिया होती है, चींटी आदि जिनके स्पर्शन रसना और घ्राण इन्द्रियां होती हैं, और मनुष्य पशु आदि जिनके कान सहित पांच इन्द्रिय होती है वे सब सजीव होते हैं ।
जैन दर्शन में इन्द्रिय से ज्ञान में सहायक इन्द्रियां ली गई हैं और उनकी संख्या पांच है। स्पर्शन-जो स्पर्श गुण को जानती है, रसना, जो स्वाद को जानती है, घ्राण जो गन्ध को जानती है, चक्षु जो रूप को जानती कर्ण या श्रोत्र जो शब्द को जानती है । ये सब जीव अपने-अपने शुभ अशुभ कर्मानुसार मरकर सदा चार
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