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हा मानते हैं, और इसी रूप में चिरकाल से उसका उपयोग करते आ रहें हैं। जैनेतर विद्वानों ने भी सामान्यतया उसी तिथि को मान्य कर लिया है, किंतु उनमें से कई एक ने उस पर गम्भीर आपत्तियां भी की हैं और उसे पर्याप्त विवादास्पद भी बना दिया।
तद्विषयक विभिन्न मतों को स्थूलतया तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-(क) उन विद्वानों के मत जो प्रचलित निर्वाण वर्ष में वृद्धि के पक्षपाती हैं और उसे ई०पू० ५२७ से अल्लाधिक पूर्व स्थिर करते हैं । (ख) वे विद्वान जो उसमें कमी करके उसे दशकों आगे खींच लाते हैं। और (ग) वे जो ईसापूर्व ५२७ की तिथि का ही पक्षसाधन करते हैं।
प्रथम वर्ग में (१) एम के. आचार्य12 और डा. पी. एस. शास्त्री13 जैसे विद्वान हैं जो हिन्दू पौराणिक अनुवतियों तथा वराहमिहिर आदि ज्योतिविदों की गणना के आधार पर महाभारत युद्ध, युधिष्ठर का समय और कलि सम्वत् का प्रवर्तन ईसा से लगभग तीन सहस्र वर्ष पूर्व मानकर बुद्ध और महावीर के समय में भी साधिक एक सहस्त्र वर्ष की वृद्धि करने के पक्ष में हैं। किन्तु ऐसी मान्यताएँ शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से मान्य नहीं हैं, अतएव उन पर विचार करने की भी आवश्यकता नहीं है।
(२) मैसूर के आस्थान विद्वान पं० ए. शान्तिराज शास्त्री ने महावीर-निर्वाण के ६०५ वर्ष पश्चात होने वाले शकराज का समीकरण विक्रम (ई०प०५७) के साथ करके निर्वाणकाल में १३५ वर्ष की वृद्धि करने और उसे ईसापूर्व ६६२ में हुआ मानने का पक्ष साधन किया। तदनन्तर कुछ अन्य पंडित भी जब-तब उसका समर्थन करते रहे हैं। किन्तु यह मान्यता एक भ्रान्तिमूलक उल्लेख पर आधारित है, उसके पक्ष में युक्ति और प्रमाण का कोई बल नहीं है, और कई बार उसका सफल निरसन किया जा चुका है।14
(३) तीसरा मत स्व. डा० काशिप्रसाद जायसवाल का है जो महावीर-निर्वाण ईसापूर्व ५४५ में स्थिर करते हैं। उनका मुख्य तर्क यह था, क्योंकि जैन पट्टावालियों के अनुसार महावीर का निर्वाण विक्रम के जन्म से ४७० वर्ष पूर्व हुआ था और विक्रम सम्वत का प्रारम्भ १८ वर्ष की वय में, ई० पू० ५७ में, विक्रम के राज्याभिषेक से हआ था, निर्वाण वर्ष में १८ वर्ष की वृद्धि करके उसे ई०पू० ५४५ में हुआ मानना चाहिए। उसके समर्थन में उनका एक तर्क यह था कि कतिपय अन्य पट्टावलियों में महावीर-निर्वाण और चन्द्र गप्त मौर्य के राज्याभिषेक के मध्य २१९ वर्ष का अन्तराल दिया हुआ है, और यह नरेश नवम्बर ३२५ ई०प० में सिंहासनासीन हुआ था। जैन अनुश्रुतियों के आधार से निर्मित अपनी कालानुक्रमणिका की उन्होंने हिन्दू पौराणिक
12-अ० भा० प्राच्यविद्या सम्मेलन विवरणिका (पूना, १९१९), पृ. १११-११४ 13-वहो (लखनऊ, १९५१), पृ० १२५ 14--शास्त्री जी का मूल संस्कृत लेख 'जैन गजट' के १९४१ के दिवाली अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसका
अनुवाद 'अनेकान्त' व० ४ कि० १० के पृ० ५५९ पर प्रकाशित हुआ था। पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने उस लेख का युक्ति पुरस्सर खण्डन 'अनेकांत' के उसी अंक म कर दिया था। उसके पश्चात् भी जब कुछ विद्वानों ने उस प्रश्न को पुनः उठाया तो हमने तथा पं० के० भुजबलि शास्त्री ने अपने लेखों (शोधांक-५-अक्टूबर १९५९, पृ० १७२-१७६ तथा १६९-१७१) द्वारा उसका निरसन कर दिया था।
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