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कर्म संज्ञा से अभिहित किया। उन्होंने दुःख को कर्मोपाधि कहा । वर्तमान जीवन-क्रम कर्मजन्य माना। उनकी निगाह में कर्म की यह शृंखला अनादि कालीन है। जीवन का विविधरंगी उत्पाद और व्यय कर्मकृत है। दु:ख की प्रतीक एवं जनक इस कर्म संहति से संघर्ष करके मुक्ति प्राप्त करने का जो उपाय उन्होंने बताया वही उनका धर्म-दर्शन है।
निज्झाइत्ता पाडिले हित्ता पत्तेयं परिनिव्वाणं सम्वेसि पाणाणं सव्वेसि भूयाणं, सम्वेसि जीवाणं, सम्वेसि सत्लाणं अस्सायं अपरिनिव्वाणं महाब्भयं, दुक्खंत्ति बेमि, तसंति पाणा पदिसो दिसासुयअचारांग सूत्र, श्रुत० प्रथम १-६-५१ जाई च बुडिढं च इहऽज्ज, पासे,
भएहि जाणे पडिलेह सायं-आचांराग, श्रुत० प्रथम ३-२-४ २. आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा एवमाहु संमत्त दंसिणों, वे सब्वे पावाइया दुक्खस्स कुशला परिष्ण मुदाहरंति
इयं कम्मं परिणय सव्वसो-वही ४-३-१३५ ३. आयंकदंसी अहियंता णच्चा-आचारांग, श्र त. प्रथम १-७-५७
दुःख और सुख के कारण
गौतम-भंते ! जीव दीर्घकाल तक दुःखपूर्वक जीने के योग्य कर्म क्यों व किस कारण से करता है ? भगवान-गौतम ! हिंसा करने से, असत्य बोलने से तथा श्रमण ब्राह्मणों को अवहेलना, निन्दा एवं
अपमान करने से, उन्हें अमनोज्ञ आहार पानी देने से जीव दुःखपूर्वक जीने योग्य अशुभ कर्म का
बंध करता है। गौतम-भंते ! जीव दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जीने योग्य कर्म किस कारण से बांधता है ? भगवान-गौतम ! हिंसा व असत्य की निवृत्ति से तथा श्रमण-ब्राह्मणों को वंदना-उपासना करके प्रिय
कारी निर्दोष आहार-पानी का दान करने से जीव शुभ दीर्घायुष्य का बंध करता है।
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