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मिला। लुटेरे भी अपना काम व्यवस्थित ढंग से करते थे। वे जहाँ भी जाते, घोषित करके जाते थे। धन्ना सार्थवाह की अनीति का प्रतिशोध करने के लिए वे शहर में घोषणा करते हुए आये कि आज लुटेरों का सरदार चिलाती धन्ना का घर लूटेगा, जिसे नई मां का दूध पीना हो वही अपने घर से निकले । इस घोषणा को सुनकर राजगहवासी अपने-अपने घरों में छिप गये। राजा की ओर से उनका कोई प्रतिरोध नहीं हआ। इससे यह ध्वनित होता है कि जीवन की जरूरतें पूरी करने को जनता बुरा नहीं समझती थी, बुरे तो वे थे जो जरूरतों की सीमा नहीं समझते थे। महावीर ने समता का सन्देश दे कर अनिवार्य आवश्यकताओं का मूल्य समझाया। आवश्यकताओं के विवेक से ममता की भावना घटी। अमीरों ने घरों में धन गाड़ना बन्द किया और गरीबों ने लूट न करने की शपथ ली। सबके लिए जीवन-निर्वाह की परिस्थितियां पैदा हुई, जिसके परिणामस्वरूप धर्मशालाएं, कुँए, जलाशय, चिकित्सालय, विद्यालय, मन्दिर आदि स्थापित हुए और परोपकार की वत्ति को प्रश्रय मिला। सम्राट श्रेणिक ने महावीर से जब अपनी अपार सम्पत्ति की चर्चा की तो वे बोले, 'सम्राट ! पूनी कात कर आजीविका चलाने वाले पूनिया की एक मुहूर्तचर्या के समक्ष यह सब नगण्य है।' महावीर की इस स्पष्टोक्ति से जहाँ इच्छा परिमाण का विचार फैला वहीं पिछड़े वर्गों को समानता के धरातल पर सिर ऊँचा उठाकर चलने की भी शक्ति मिली।
महावीर को सबसे अधिक संघर्ष दासप्रथा के खिलाफ करना पड़ा। उस समय दासप्रथा के अभिशाप ने समूचे देश को अभिशप्त कर रखा था। राजा-महाराजा एवं धनी-मानी लोगों की बात छोड़िये, पोलासपुर के सद्दाल कुंभकार की पत्नी भी जब महावीर के दर्शन करने पहुंची तब उसके साथ अनेक दासियाँथीं। चन्दना स्वयं क्रीत दासी थी। दास दासियों को मुक्त करना एवं फिर उन्हें सामाजिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र में समान अधिकार देना दिलाना महावीर का प्रभावकारी कार्यक्रम था । वे इसमें कम सफल नहीं रहे। दास प्रथा से परावलम्बन एवं असंयम बढ़ा। महावीर ने श्रमण संस्कृति के समुद्धर्ता के रूप में स्वावलम्बन एवं समय की साधना से जीवन को नये आयाम दिये । 'परस्परं भावयन्तः' के रूप में जब एक दूसरे के सहयोग से सारा काम होगा, तभी सचमुच दासथप्रा का अन्त होगा।
महावीर ने ऊँच-नीच, गरीब-अमीर, शासक-शासित आदि सब को ध्यान में रख कर सोचा-समझा। जीवन के छोटे-से-छोटे पहल पर कहां हम स्खलित होते हैं और कैसे हमें सभलना है, कैसे अतीत, आज, एवं अनागत की गौरव रक्षा सम्भव है, वह कोई उनसे सीखे । न वे आदर्श में उड़ते हैं और न व्यवहार में डूबते हैं। हर बात को हर दृष्टि से सुन-समझ कर यथार्थ का आकलन करने में ही उनका सौंन्दर्य बोध है उनकी चर्या हैं। उनकी दृष्टि में सत्य भगवान है और विवेक धर्म । असत से असत में सत की लो प्रज्वलित करने में उन्हें कभी झिझक नहीं लगी। हर धर्म, पथ, सम्प्रदाय, वेश-भाषा-भूषा के बीच उन्होंने मानवीय पक्ष को उजागर किया । 'असंविभागी नहु तस्य मोक्खो'-जैसे सूत्रों में उनके समाजवादी व्यवहार की झंकृति है। महावीर ने यम-नियम आदि की उपयोगिता का प्रतिपादन किया तो स्पष्ट कह दिया कि 'अस्थिलाए परस्थ य-जो वर्तमान को नकारता है, वह इष्ट नहीं है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय. ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना इसलिए जरूरी है कि हम सुखी रहें और अपने पास पड़ोस वालों को सुखी रखें। एक दूसरे की जिजीविषा में तालमेल बिठाने की भावना से आनंद उदभूत होता है । जो आनंद मिल बाँट कर भोगा जाय वह परमानंद है और उसकी पराकाष्ठा में ही ब्रह्मानंद के अक्षय भंडार की उपलब्धि है। 'अहं ब्रह्मास्मि' की अनुभूति से ही 'यत्पिण्डे तद ब्रह्माण्डे' की अभिव्यक्ति संभव हैं, और महावीर क्योंकि समाज एवं देश के स्तर पर हर असंभवता से बचाते हुए हमें आत्मा, महात्मा एवं परमात्मा को साक्षात्कार कराते हैं, इसीलिए अब ढाई हजार वर्ष बाद जब उनके आचार समम्त विचार दर्शन की ओर राष्ट्र का ध्यान आकृष्ट हुआ है, तो हमें चाहिए कि समग्र क्रान्ति के द्रष्टा के रूप में हम महावीर को नमन करें।
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