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महावीर जीवन दर्शन :
एक मूल्यांकन
-डा० धर्मचन्द
महावीर संन्यस्त जीवन का लम्बा अंश ध्यान, योग, तपश्चर्या के द्वारा सुख-दुख, राग-द्वेष, अहं-आग्रह, संकल्प-विकल्प को हटाकर, मन से परे, आत्म स्वरूप के बोध में लगा। साधनाकाल में संयम, सहनशीलता, अनुकल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव व स्थिरता को साधा । सम्पूर्ण समाज के परिवेश का विश्लेषण कर तत्कालीन समस्याओं के समाधान का मार्ग ढूंढा । उनकी साधना का मार्ग कतई आत्मदमन का मार्ग नहीं रहा। आत्म उन्नयन व सहज-स्वस्थ आनन्द का मार्ग रहा है । व्यक्तित्व के विकास की ऐसी विशिष्ट अवस्था प्राप्त की जहाँ व्यक्तित्व समस्त ग्रन्थियों से मुक्त हो जाता है, भविता शरीर व मन की सीमाओं से परे हो जाती है, साध्य और साधक एक हो जाते हैं, निश्चय और व्यवहार में भेद नहीं रहता, सम्पूर्ण सत्य के ज्ञान की क्षमता आ जाती है, अर्थात सर्वज्ञता आ जाती है।
___ महावीर ने अपनी साधना का मार्ग स्वयं निर्मित किया । किसी गुरु या ग्रन्थ को मान्य नहीं किया। प्रत्येक आत्मा अद्वितीय होती है, अतः प्रत्येक आत्मा का मार्ग भी अद्वितीय ही हो सकता है। धर्म अर्थात् सत्य की साधना व शोध का मार्ग तो निश्चय ही अनुगमन का बंधा-बंधाया मार्ग नहीं हो सकता । यह तो अन्वेषण व आविष्कार का मार्ग ही हो सकता है। इसके लिए वैयक्तिक स्वतन्त्रता एवं मौलिकता तथा प्रयोगधर्मिता नितांत आवश्यक होते हैं, क्योंकि चेतना का विकास व्यक्तिक होता है। हर अनन्त के यात्री का अपना ही पथ होता है। महावीर ने अपने युग की आवश्यकता को पहचान कर, पार्श्व-परम्परा के सूत्र शेष होते हुए भी, स्वयं प्राप्त सत्य की दृष्टि से समाज की आवश्यकता के अनुरूप धर्म की व्याख्या, प्ररुपणा एवं संगठन किया। किसी भी जीवन्त मार्ग की सार्थकता मनुष्य के कल्याण और विकास के साधन में हैं।
महावीर ने समाज की जर्जर स्थिति को समझा । अपनी व्यक्तिक उपलब्धियों को सम्पूर्ण समाज की चेतना के विकास हेतु समर्पित कर दिया। अपनी साधना को पूरे समाज के हित में व्यापक करने हेतु धर्म के चतुविध संघ की स्थापना की। साधना को सामूहिकता प्रदान की, क्योंकि व्यक्ति की चेतना से भिन्न समाज की चेतना, व्यक्तिगत धर्म-कर्म व समष्टिगत आकांक्षाओं में भिन्नता जीवन में भेद उत्पन्न करते हैं। जीवन-व्यवहार व धर्मसाधना को विभाजित नहीं किया जा सकता । सम्पूर्ण जीवन-व्यवहार ही धर्म-साधना बन जाना चाहिए।
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