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समता धर्म के प्ररूपक - महावीर
- प्रो० दलसुख मालवणिया
श्रमण संस्कृति की ही यह विशेषता है कि उसमें प्राकृतिक अधिदैविक देवों या नित्यमुक्त ईश्वर का पूज्य स्थान नहीं है । एक सामान्य मनुष्य ही अपना चरम विकास करके आम जनता के लिये ही नहीं किन्तु यदि किसी देव का अस्तित्व हो तो उसके लिए भी पूज्य बन जाता है । इसीलिये इन्द्रादि देवों का स्थान श्रमण-संस्कृति में पूजक का है, पूज्य का नहीं । भारतवर्ष में राम और कृष्ण जैसे मनुष्य की पूजा ब्राह्मण-संस्कृति में होने तो लगी, किन्तु उन्होंने उन्हें केवल मनुष्य, शुद्ध मनुष्य न रहने दिया । उन्हें मुक्त ईश्वर के साथ जोड़ दिया । ईश्वर का अवतार मान लिया । किन्तु श्रमण संस्कृति के बुद्ध और महावीर पूर्ण पुरुष या केवल मनुष्य ही रहे । उनको नित्य बुद्ध, नित्यमुक्त रूप ईश्वर कभी नहीं कहा गया ।
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भगवान महावीर के माता पिता भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे, अतएव बाल्यकाल से ही उनका संसर्ग त्यागी - महात्माओं से हुआ, यही कारण है कि उनको सांसारिक वैभवों की अनित्यता और निस्सारता का ज्ञान हुआ । संसार की अनित्यता और अशरणता के अनुभव ने ही उनको भी त्याग और वैराग्य की ओर झुकाया । उन्होंने सच्ची शांति सुख-वैभव के भोग में नहीं, त्याग में देखी। तीस वर्ष की युवावस्था में सब कुछ छोड़कर त्यागी बन गये - ३० वर्ष तक भी जो उन्होंने गृहवास स्वीकारा, उसका कारण भी अपने माता पिता और बड़े भाई की इच्छा का अनुसरण था । संसार में रहते हुए भी उनका मन सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं था । अन्तिम एक वर्ष में तो उन्होंने अपना सब कुछ दीन-हीन जनों को दे दिया था और अकिंचन होकर घर छोड़ कर निकल गये थे ।
उनके उपदेश को सुनकर वीरांगक, वीरयश, संजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन और शंख इन आठ समकालीन राजाओं ने प्रव्रज्या अंगीकार की थी। अभयकुमार, मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारों ने भी घरबार छोड़ कर व्रतों को अंगीकार किया था । स्कंधक प्रमुख अनेक तापस तपस्या का रहस्य जानकर भगवान के शिष्य बने थे । अनेक स्त्रियाँ भी संसार की असारता समझकर उनके श्रमणी संघ में शामिल हो गयीं थीं। उनमें अनेक तो राजपुत्रियाँ भी थीं । उनके गृहस्थ अनुयायियों में मगधराज श्रेणिक और कुणिक, वैशालीपति चेटक, अवन्तिपति चण्डप्रद्योत आदि मुख्य थे । आनन्द आदि वैश्य श्रमणोपासकों के अलावा शकडाल - पुत्र जैसे कुम्भकार भी उपासक संघ में शामिल थे । अर्जुनमाली जैसे दुष्ट हत्यारे भी उनके पास वैर त्याग करके शान्तिरस का पान कर क्षमा को धारण कर दीक्षित हुए थे। शूद्रों और अतिशूद्रों को भी उनके संघ में स्थान था ।
उनका संघ राढ़ देश, मगध, विदेह, काशी, कोसल, शूरसेन, वत्स, अवन्ति आदि देशों में फैला हुआ था । उनके विहार के मुख्य क्षेत्र मगध, विदेह, काशी, कोसल, राढ़ देश और वत्स थे ।
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तीर्थंकर होने के बाद ३० वर्ष पर्यन्त सततं विहार करके लोगों को आदि में कल्याण, मध्य में कल्याण, और अन्त में कल्याण, ऐसे अहिंसक धर्म का उपदेश कर ७२ वर्ष की आयु में मोक्ष लाभ किया। लोगों ने दीपक जलाकर निर्वाणोत्सव मनाया। तब से दीवाली पर्व प्रारम्भ हुआ, ऐसी परम्परा है ।
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