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खण्ड-३
[ ३१ यायियों-भिक्षुओं को भी ऐसी भिक्षा लेने की सख्त मनाई कर दी। उन्होंने अपने निर्वाह के लिये छोटा अथवा बड़ा अथवा किसी भी प्रकार का विहार आदि का दान कभी स्वीकार नहीं किया। दान में बगीचा, भूमि, मठ ओदि कभी स्वीकार नहीं किया। अपने अथवा संघ के स्थायी निर्वाह के लिये किसी असाधारण उपासक अथवा उपासिका को भी कभी कोई प्रेरणा नहीं दी। और तो और हरण होने पर भी उन्होंने औषधि लेने अथवा कोई वैद्य उपचार करने कराने की तनिक भी इच्छा नहीं की। संघ के धमण-श्रमणी को भी रोगी अवस्था में हर बात में वैद्यकीय सहायता लेने का स्पष्ट शब्दों में निषेध किया है । यही उनकी कठोर साधना को रीति थी। जब कोई जिज्ञासु उनसे पूछताछ करता तो उसको अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर उन सब विषयों की जानकारी जीवन के अन्तिम श्वासोच्छवास तक देते रहे। उन्होंने कहीं भी और कभी भी यह नहीं कहा कि वस्तुस्वरूप के रस विचार के विषय में स्पष्टता नहीं हो सकती, अथवा यह चर्चा अव्याकृत है । भगवती सूत्र (शतक १० उद्देशक ३) में घोड़ा दौड़ता है, तब उसके पेट में अमुक प्रकार का शब्द हुआ करता है, इस विषय का एक प्रश्न है। ऐसे मामूली प्रश्न तक का उत्तर भी उन्होंने जिज्ञासु को दिया है, उसे टाला नहीं है । तात्पर्य यह है कि उनके पास जैसा भी जिज्ञासु पहुंचता वह उनसे कुछ न कुछ प्राप्त करके ही लौटता था। इस प्रकार उनकी वृत्ति ज्ञान की दृष्टि से भी असाधारण थी।
अन्तिम प्रवचन के समय काशी देशाधिपति, मल्लवंश के गणतन्त्री नौ राजा तथा कोसलादेशपति लिच्छविवंशीय गणतन्त्र के नौ राजा पावापुरी में भगवान महावीर की उपासना के लिए उपस्थित थे। पावा और आस पास का विशाल जनसमूह भी वहाँ उपस्थित था। भगवान के निर्वाण के समय उनके श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविकाओं का परिकर इस प्रकार बताया गया है, इन्द्र भूति गौतम आदि १४ हजार श्रमण-आर्या चन्दनादि ३६ हजार श्रमणियां, शंख शतक आदि १ लाख ५९ हजार श्रावक तथा सुलसा रेवती, आदि ३ लाख १८ हजार श्राविकाएँ।
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