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बहार
विवाग
हम्मक
श्रमण भगवान महावीर
परम्परोपमहो त्रीवानाम
-पं० बेचरदास दोशी
माता पिता और कुटुम्ब के अकारण वत्सलभाव का पोषण करने से भगवान महावीर में किसी को उद्विग्न न करने को बीजरूप वत्ति का विकास हो गया था। परिणामस्वरूप जब उन्होंने यह अनुभव किया कि देहसुख, इन्द्रिय सुख और वासनाओं की वृत्तियों की तृप्ति का सुख दूसरों को त्रस्त या दु:खी करने पर ही सम्भव है, अन्य छोटे-बड़े प्राणियों को दुःखी या त्रस्त किये बिना, सताये बिना, ये सब ग्राह्य सुख संभव ही नहीं है, तब उन्होंने अपनी निजी संपत्ति सब लोगों में बांट दी।
जिस समय वर्द्धमान महावीर राज भोग कुटुम्ब आदि सभी सांसारिक सुखों को तृणवत् त्यागकर आध्यात्मिक शांति और आध्यात्मिक पूर्ण विकास की शोध में निकले, उस समय के उनके स्वभाव का चित्र जैनागमों में इस प्रकार मिलता है
श्रमण वर्धमान महावीर मन-वचन-काय को ठीक-ठीक संचालित करने वाले थे। मनगुप्ति और कायगुप्ति पालने वाले थे। जितेन्द्रिय, सर्वथा निर्दोष ब्रह्मचर्य-बिहारी थे। क्रोध, अहंकार, छल-कपट और लोभविहीन थे, शांत, उपशांत, अपरिग्रही, अकिंचन थे। निर्ग्रन्थ थे, अर्थात जिनके पास गांठ बांधकर रखने या संग्रह करने जैसा कुछ भी न था। निर्लेप थे जैसे-कांसे के बर्तन पर कोई लेप नहीं चिपट सकता। वीतरागी थे शंख की तरह जिस पर रागद्वेष का कोई रंग नहीं चढ़ता। वोतद्वेषी अर्थात आकाश की तरह स्वप्रतिष्ठित यानी दूसरे के आधार की अपेक्षा न रखने वाले थे। वायु की भांति स्वतन्त्रविहारी यानि एक ही स्थल पर बंधकर न रहने वाले थे। शरद ऋतु के जल की तरह निर्मल थे । कमल की तरह अलिप्त थे। कछुए की तरह गुप्तेन्द्रिय थे। गैंडे के मुख पर के श्रंग की भांति एकाकी, किसी घोर विपत्ती में भी किसी की भी सहायता न लेने वाले थे। पक्षी के समान सर्वथा मुक्त, हाथी के समान शुर, जातिवंत वृषभ के समान पराक्रमी, सिंह के समान अपराजित थे। क्सिी से भी न दबने वाले, मेरुवत अंकप थे। सागर के समान गम्भीर थे। सोने के समान कान्तिमान थे, वृतहोमी अग्नि के समान प्रदीप्त थे और पृथ्वी के समान सब परिस्थितियों को सहन करने वाले सर्वसहा थे। वर्धमान महावीर ने तन ढंकने के लिए वस्त्र के एक टुकड़े, चिथड़े तक का भी उपयोग नहीं किया। अग्नि आदि अन्य साधनों का भी कोई उपयोग नहीं किया। गांव में भगवान एक रात ही ठहरते और नगर में पांच रात्रियों से अधिक
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