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* समत्व सृष्टा भगवान महावीर *
-साध्वी अणिमाश्री
“समया धम्म मुदाहरे मुणी" भगवान महावीर का यह पावन उद्घोष रहा है। कथनी-करनी का साकार प्रतिबिम्ब भगवान महावीर के जीवन में देखने को मिलता है । अभिभावकों के अगाध वात्सल्य से लालित-पालित, राजकीय अतुल्य सुकुमार राजकुमार महावीर ने दुष्क र दीक्षाव्रत को स्वीकार किया और तत्काल ही आत्म-शोध के मार्ग को अपनाया, निर्वाण प्राप्ति अपना लक्ष्य बनाया । “न पीछे हटाया कदम को बढ़ाकर, गर दम भी लिया तो मंजिल को पाकर" । आत्म-दर्शन के महान उद्देश्य के पीछे अतुल साहस और अट निष्ठा ही सफलता के द्योतक थे।
भगवान के साधना-काल में समुपस्थित उपसर्गों की आश्चर्य-भूत कहानी पढ़ने मात्र से कलेजे में कंपन होता है। इतनी प्रतिकलता में कितनी समता मनुष्य, होकर देवताओं द्वारा दत्त कष्टों को समचित्त सहन करना, यह थी भगवान की उदात्त समता, अदभुत सहनशीलता। वस्तुत: साधना पथ कटकाकीर्ण पथ है। भगवान के साधनाकाल के १२१ वर्षों की अवधि में देव, मनुष्य तथा तिर्यंचों द्वारा अनेक अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग उत्पन्न हुए । सामान्य व्यक्ति जहाँ कष्टों के मार्ग को टालते हुए अन्य पथ का अनुसरण करते हैं, महापुरुष लक्ष्य निरूपण करके उसी पथ पर आगे बढ़ते हैं। अपने दारुण कर्मों के क्षय के लिए भगवान अनार्य भूमि में पधारे। वहाँ अचित्त द्रव्य पर निनिमेष दृष्टि से ध्यान कर रहे थे । इन्द्र ने ज्ञान द्वारा जान भगवान की प्रशंसा के गीत गुनगुनाए। एक तरफ जहाँ शौर्य के गीत गाए जाते हैं, वहाँ दूसरी तरफ असूया का आलाप होता है। इन्द्र की सभा में उपस्थित ईर्ष्याल संगमदेव कब सहन कर सकता था ? तत्काल भगवान के सन्निकट प्रस्तुत हुआ और विकराल रूप धारण किया । ध्यान से विचलित करने के लिये एक ही रात्रि में पिशाच, व्याघ्र, सर्प, बिच्छ आदि के तथा देवांगना के हावभाव पूर्ण अनुकल-प्रतिकुल बीस मारणान्तिक उपसर्ग दिए । लेकिन भगवान तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनके चेहरे पर न रोष था, न आक्रोश, केवल मात्र सन्तोष के सागर में वे गोते लगा रहे थे। अन्ततोगत्वा संगमदेव पराजित होकर अपने गन्तव्य स्थान को चला गया। भगवान अपनी तप: पूत साधना में सफल बने ।
भगवान की भाषा में समता ही धर्म है और विषमता अधर्म । राग-द्वेष दोनों विषमता के प्रतीक हैं। अहिंसा, सत्य, आचार्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, अभय आदि गुणों की जड़ एक मात्र समता है। ये सारे तो समतारूपी वृक्ष की शाखाएं, पत्र, पुष्प फल आदि हैं ।
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