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तीर्थंकर महावीर
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जब ग्रीष्म का सूर्य अपनी प्रखर किरणों से जगत् को संतप्त कर डालता है, पक्षियों का उन्मुक्त गगन विहार बन्द हो जाता है, स्वछन्द विहारी हिरणों की खुले मैदान की आमोदमयी क्रीड़ा रुक जाती है, असंख्य प्राणधारियों की तृषा बुझाने वाले सरोवर सूल जाते हैं, उनकी सरस मिट्टी भी नीरस हो जाती है, जनता का आवागमन अवरुद्ध हो जाता है, प्राणदायक वायु भी तप्त लू बनकर प्राणहारक बन जाती है, समस्त धलचर, नभचर प्राणी असह्य ताप से त्राहि-त्राहि करने लगते हैं।
- उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द
तब जगत की उस व्याकुलता को देखकर प्रकृति करवट लेती है, आकाश में सजल काले बादल छा जाते हैं, संसार का संताप मिटाने के लिए उनमें से शीतल जल बिन्दु टपकने लगते हैं, वाष्प (भाप) के रूप में पृथ्वी से लिए हुए जल ऋण को आकाश सूद समेत चुकाने के लिए जलधारा की झड़ी बाँध देता है । जिससे पृथ्वी न केवल अपनी प्यास बुझाती है, अपितु असंख्य व्यक्तियों की प्यास बुझाने के लिए अपना भंडार भी भर लेती है, जनता के आमोद-प्रमोद के लिए हरी घास की चादर बिछा देती है, समस्त जगत का संताप दूर हो जाता है और सभी मनुष्य, पशु-पक्षी आनन्द की ध्वनि करने लगते हैं।
इसी तरह स्वार्थ की आड़ में जब दुराचार अत्याचार संसार में फैल जाता है; दीन, हीन, निःशक्त प्राणी निर्दयता की चक्की में पिसने लगते हैं, रक्षक जन हो उनके भक्षक बन जाते हैं, स्वार्थी दयाहीन मानव धर्म की धारा अधर्म की ओर मोड़ देता है, दीन असहाय प्राणियों की करुण पुकार जब कोई नहीं सुनता, तब प्रकृति का करुण स्रोत बहने लगता है । वह ऐसा पराक्रमी साहसी वीर ला खड़ा करती है, जो अत्याचारियों के अत्याचार को मिटा देता है, दीन-दुःखी प्राणियों का संकट दूर करता है और जनता को सत्पय दिखाता है।
आज से २६०० वर्ष पहिले भारत की वसुन्धरा भी पाप भार से कांप उठी थी। जनता जिन लोगों को अपना धर्म-गुरु पुरोहित मानती थी, धर्म का औतार समझती थी, उन ही का मुख रक्त-मांस का लोलुप बन गया था, अत: वे अपनी लोलुपता शान्त करने के लिए स्वर्ग, राज्य, पुत्र, धन आदि का प्रलोभन देकर भोली अबोध जनता से हवन कराते थे उनमें बकरों आदि अनेक मूक, निरीह और निरपराध पशुओं, यहां तक कि कभी-कभी धर्म के नाम पर कत्ल करके उनके मांस का हवन करते थे। ज्ञानहीन जनता उन स्वार्थी, माने हुए धर्म गुरुओं के वचनों को परमात्मा की वोणी समझकर दयाहीन पाप को धर्म समझ बैठी थी इस तरह दीन, निर्बल, असहाय पशुओं की करुणा-जनक आवाज सुनने वाला कोई न था ।
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इस प्रकार मांस-लोलुप धर्मान्धों का स्वार्थ ओर जनता का अज्ञान उस पाप कृत्य का संचालन कर रहा था । उस समय आवश्यकता थी जन साधारण को ज्ञान का प्रकाश देने की और पथ भ्रष्ट धर्मान्धों का हृदय बदलने की, जिससे भारत का पाप भार हल्का होता और पाप की दुर्गन्ध देश से दूर होती ।
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