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ख-३
उपेक्षितों के जीवन में प्रथम बार जागति आई । युगान्तर स्पष्ट दशित होने लगा। शूद्रों की छाया से अपवित्र होने रोमांच हो आता है। बाजार में खुले आम मातृजाति का क्रय-विक्रय होता था, उन्हें पशुओं की तरह खरीदने के लिये सड़कों पर बोलियां लगाई जाती थीं। इतना ही क्यों, उन दास-दासियों की मृत्यु स्वामी की मारों से हो जाती थी तो उसकी सुनवाई के लिये कहीं स्थान नहीं था। केसी विडम्बना थी कि उनके हाथों भिक्षा ग्रहण करने में भिक्षुक भी अपना अपमान मानते थे। भगवान महावीर ने प्रथम बार इस जघन्य-वृत्ति के लिये चेत वनी दी, सृजनात्मक विप्लवी घोषणा की। इतिहास के पृष्ठों में चन्दनबाला की कष्ट-कथा तत्कालीन मनुष्य समाज की दानवी प्रवृत्ति, सामाजिक विकृति, दोनों को ही उजागर करने वाली कथा है। महावीर ने उसे यंत्रणापूर्ण जीवन से उबार कर विराट साध्वीसंघ के प्रमुखपद की पीठिका पर समासीन करने की भूमिका निबाही। उनके धर्म-संघ में वह श्रेष्ठ मानव आचारों की प्रवक्ता बनो। पवित्र शूद्र कहलाने वाला, जीवन भर दास कर्म करता हुआ मृत्यु अपनाने वाला, अभिशापित वर्ग, समाज में श्रद्धा-भाजन ही नहीं, मुक्ति-लाभी भगवत्स्वरूप अर्हन्त भी स्वीकृत हुआ। समाज की विषमता दूर करने में भगवान महावीर को हम अन्य सभी महापुरुषों से आगे पाते हैं। ज्ञात इतिहास में उनके वैशिष्ट्य की तुलना सहज ही किसी दूसरे से नहीं की जा सकती।
रही राजनीति-क्षेत्र की बात, हम देखते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में भी भगवान महावीर की उपलब्धि किसी प्रकार कम नहीं कहीं जा सकती। जिस संक्रान्तिकाल में उनका जन्म हुआ था, वह राजनीति का सर्वथा ह्रासकाल था। भारत ने प्रजातत्र का नवीन प्रयोग कर जो कीति प्राप्त की थी, उस प्रजातंत्र का ढांचामात्र शेष रह गया था। प्रजातंत्र में भी अधिनायकवाद का उभरता प्रचण्ड नाग जनता का रक्तपान करने लगा था। प्रजातंत्र की जन्मभूमि वैशाली में जननायक जन से हटकर केवल नायक के आसन पर आसीन हो चुके थे। और तो क्या, राजा और राजा से ऊपर महाराजा का उच्च आसन भी रिक्त नहीं था, तत्कालीन प्रजातन्त्रों में। इतिहास महाराजा चेटक को हमारे सामने सर्वाधिकार प्राप्त महाराजा के रूप में ही उपस्थित करता है। स्वयं भगवान महावीर का जन्म ज्ञात-गणतंत्र के वैभवशाली एक सामान्य राजकुल में हुआ था। हम तो कहेंगे, प्रजातंत्र की अनेक अलोकतंत्रीय खामियों ने, नित्य के होने वाले उत्पीड़नों ने, उन्हें तथाकथित प्रजातंत्री जननायकों तथा एकतंत्री निरंकुश राजाओं के विरुद्ध बोलने को विवश कर दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने भिक्षुओं को राजकीय अन्नग्रहण का भी निषेध कर दिया था। उन्होंने प्रथम बार आने वाले कठिन भविष्य की ओर उन जननायकों का ध्यान ही आकृष्ट नहीं कराया, उन्हें सही रूप में जन-प्रतिनिधि के योग्य कर्तव्य-पालन की चेतावनी भी दी। महावीर ने कहा था 'कोई कैसा ही महान क्यों न हो, महा आरम्भ और महा परिग्रह नरक के द्वार हैं । समग्रभाव से प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील होना ही राजा का सही अर्थ में राजत्व है।' 'और कुछ उच्चतर नहीं कर सकते हो तो आर्यकर्म तो करो।' राजनीति के क्षेत्र में यह कितना महान उद्बोधन था। कौन कह सकता हैं कि वैशालीजनतन्त्र का विघटन भगवान महावीर के उक्त साम्यधर्म को यथारूप ग्रहण करने के अभाव में नहीं हुआ? यदि वैशाली के जननायक अपने को साम्य भूमि पर उतार पाते, बिखरे जनगण को समधर्मी रूप में अपनाने का साहस करते तो वैशाली का जनशासन कभी विघटित नहीं होता। मगध की राजशक्ति वैशाली को चिरकाल में भी ध्वस्त नहीं कर पाती।
इतिहास का वातायन एक-एक अन्वेषी हृदय के लिये खुला हुआ है-हम जितनी बार चाहें, भगवान महावीर के जीवन पर दृष्टिपात कर सकते हैं। हमें उनके जीवन एवं सन्देशों से किसी भी समस्या का समुचित समाधान आज भी प्राप्त हो सकता हैं।
जाती है जिस ओर दृष्टि, बस उसी ओर आकर्षण, करता अग जग को अनुप्राणित जग-नायक का जीवन ।
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