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परन्तु महावीर विलक्षण हैं। वे अहिंसक पहले से हैं और उसी के आलोक में संसृप्ति की घटनाओं के साक्षी बनते हैं । अहिंसा उनकी आत्मा थी, हमारे लिए वह साध्य है । हम घटना के द्वारा, क्रिया के द्वारा, व्रत के द्वारा, चर्या के द्वारा अहिंसा की साधना में संलग्न हैं। यह प्रक्रिया अपने में द्वैतपरक है, हिंसक है, यह बात महावीर ही जान सकते थे, क्योंकि उनकी चेतनता अद्वैत को, एकरूपता की समग्रता को, उपलब्ध हो गई थी।
हम निषेध की, अस्वीकार की, छोड़ने की, पलायन की भाषा में और चर्या में सोचते हैं। हम इतने बाह्य और गणितप्रिय हैं कि आंकडों से और वस्तुगत परिधि से परे देख नहीं पाते हैं। महावीर निषेध की. की, ग्रहण की प्रक्रिया में विचरते थे। उनके लिए ग्रहण में भी त्याग था और त्याग में भी ग्रहण। उनके लिये त्याग और ग्रहण में कोई अन्तर नहीं रह गया था।
महावीर ने जो कुछ छोड़ा, वह छोड़ा नहीं था, वह आपोआप छूट गया था, क्योंकि उन्हें उत्कृष्ट या विराट उपलब्ध हो गया था। निकृष्ट को छूटना ही था। नसैनी का जब ऊपरी डण्डा हाथ आ जाता है तो नीचे का डण्डा अपने आप छूट जाता है। उसे छोड़ने का प्रयास नहीं करना पड़ता है। जब बढ़िया वस्तु हाथ लगती है तो घटिया अपने आप छूट जाती हैं। महावीर ने क्या-क्या छोड़ा था, यह शायद वे स्वयं न बता सके। पर हम बता सकते हैं, कि हमने क्या-क्या छोड़ा, क्योंकि हम छोड़कर प्राप्त करने की आशा या अभीप्सा में तन को गलाते हैं। महावीर इतने आनन्दोपलब्ध थे, ज्ञान चेतना से भरे थे, कि बाहर का अपने आप छुट गया।
सत्य और मिथ्या को जांचने की कसौटी बाह्यता कभी नहीं है। बाहर से हिंसक दीखने वाली घटना में भी परम अहिंसा हो सकती है और अहिंसक दीखने वाली घटना भी घोर हिंसामय हो सकती है। इसलिए महावीर घटना से अधिक उसकी आंतरिक भूमिका को, उसके रहस्य को, महत्व देते थे। इसी अर्थ में वे ज्ञाता-दृष्टा थे और इसी के लिये अनेकान्त की कसौटी उन्होंने प्रस्तुत की। किताबी कानुन या संहिता ऐसे लोगों के लिये बेमानी होती है । महावीर जैसे दृष्टा-ज्ञाता ही जान सकते हैं कि बाह्यतः दीखने वाली अहिंसा के भीतर कितना आग्रह, कितना अहंकार और दर्प है।
महावीर सहज नग्न थे, सहज विहारी थे, वीतरागी थे, लेकिन उनकी छवि को भी हमारी आँखें बिना रागद्वेष के नहीं निहार सकतीं । उनकी सर्वांगसुन्दर सहज मूर्ति में भी हम 'अश्लीलता' को ढाकने का बाल-प्रयास करते हैं। अपनी भोगाकांक्षा कायासक्ति की तृप्ति भी हम प्रतिकार के द्वारा करना चाहते हैं।
जो ग्रन्थ और ग्रन्थियों से सर्वथा मुक्त थे, उनको हम ग्रन्थों में खोजना चाहते हैं और ग्रन्यों में आबद्ध करना चाहते हैं, क्योंकि हम स्वयं प्रमाण बनने के बदले ग्रन्थ प्रामाण्य में विश्वास करते हैं। जिन्हें स्वयं का विश्वास नहीं होता, जिन्हें अपने पथ का ज्ञान नहीं होता, वे ही ग्रन्थ और पन्थ में उलझते हैं । ग्रन्यों से हम अपनी चर्या तय करते हैं। ग्रन्थ के मरे हुए सत्य को हम अपना जीवन धर्म बना लेते हैं। महावीर के पीछे ग्रन्थों का ढेर लगा कर हम महावीर के व्यक्तित्व को विस्मृत कर गये हैं। उनका जीवन्त, तेजस्वी व्यक्तित्व ग्रन्थों में छिप गया है। अब हम उनकी देह के साथ अपने को एकरूप करने के प्रयास में संलग्न हैं । परिणामतः राजनीति और अर्थ नीति हम पर हावी है । यह महावीर ही जानते थे कि ग्रन्थों का सत्य सजीव नहीं होता, क्योंकि सत्य निरन्तर नया होता है और वह सर्वथा वर्तमान में ही रहता है-अतीत तो स्मृति मात्र होता है।
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