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जब केवलज्ञान प्राप्त हो गया, उनकी साधना सार्थक और सफल हुई, तो भगवान महावीर जनपदों की ओर लौटे और अपना धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया। भगवान की धर्म सभा को 'समवसरण' कहते हैं - वह स्थान जहाँ सभी प्राणी (पुराणों की भाषा में जहाँ देव, मनुष्य पशु-पक्षी सभी) सम भाव से समताभाव से इकट्ठे होकर, श्रेणीबद्ध बैठते हैं, उपदेश सुनते हैं। सभी प्रकार के मनुष्य, विविध भाषाएं बोलने वाले और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी बैठेंगे तो किस भाषा में महावीर बोलें कि सब समझें ? एक कल्पना है कि भगवान जिस भाषा में बोलते थे, वह निरक्षरी भाषा थी, वह एक नाद था, ओंकारनाद जैसा, जो हृदयों में गूंजता था और प्रत्येक प्राणी उसकी अनुभूति से शांति, सुख और समताभाव प्राप्त करता था । महावीर ने जनभाषा में उपदेश दियो । वह मगधवासियों की मागधी ही नहीं थी, अर्धमागधी थी, अर्थात् वह मिश्रित भाषा (अनेक प्रान्तों का सम्मिलित रूप ) जो मगध के आस पास के जनपदों को पिरो लेती थी और इसलिये सीमा पार के लोग भी समझ लेते थे । वैदिक संस्कृत और शिष्ट संस्कृत को त्याग कर जनपदीय भाषा में उपदेश देने का अर्थ ही था कि धर्म का रहस्य जन-जन तक उनकी भाषा में पहुंचे, उनके लिये बोधगम्य हो न यन्त्र, न तन्त्र न मन्त्र यश मानव धर्म के सहज सिद्धांत सहज भाषा में कथा है कि भगवान का समवसरण देवों ने रचा, किन्तु उपदेश प्रारम्भ नहीं हुआ। इसलिये कि उनकी वाणी की अवधारणा करने वाला, उस वाणी को सार्थक रूप से भगवान के उपरान्त जन-जन तक पहुँचाने वाली समर्थ और उपयुक्त ज्ञानी गणधर सामने नहीं आया था। अन्त में इन्द्रभूति गौतम आये जो ब्राह्मण विद्वान थे, जिनकी शंकाओं का समाधान भगवान महावीर ने किया था और जो यज्ञ की परिपाटी से प्रसन्न होने वाली परमात्मा पद्धति से उबर कर आत्म-साधना की पद्धति से अभिभूत हुए थे । भगवान स्वयं क्षत्रिय, उनके गणधर ब्राह्मण, उनके उपासकों में अहिंसक पद्धति से आजीविका उपार्जित करने वाले वैश्य, और उनकी वाणी तथा उनकी कल्याणकारी, परोपकारी जीवन पद्धिति से प्रभावित शूद्र, सब उनकी धर्म-श्रृंखला की कड़ी बन गये ।
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व्यवहार-पक्ष की दृष्टि से महावीर के धर्म की यह विशेषता है कि चिन्तन के क्षेत्र में व्यक्ति को अपना मार्ग आप खोजने की भरपूर प्रश्न पूछने और तर्क-वितर्क करने की स्वतन्त्रता दी गई। बुद्ध ने सत्ता के अत्यन्त गहन प्रश्नों में उलझने से गृहस्थों को रोका था वह उनकी दृष्टि से सार्थक भी था; किन्तु जैनधर्म के अनुयायी श्रावकों ने तो जीवन और जगत के प्रश्नों को हर स्तर पर समझने का प्रयत्न किया है, उन्हें प्रोत्साहित किया गया है ।
आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जहाँ इन्द्रियातीत ज्ञान की उपलब्धि का प्रश्न है, वहाँ 'युक्ति' की मान्यता के साथ 'अनुभूति' को ही प्रमाण माना है। युक्ति और अनुभूति की वैज्ञानिक दृष्टि ने जैन दर्शन को समृद्ध किया ।
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