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भव-भव
की
साधना
-डा० कामता प्रसाद जैन
भगवान महावीर की जीवात्मा ने केवली तीर्थकर का पद सहज ही नहीं पा लिया था। एक समय था जब उनका जीव एक शिकारी भील था-पूर्ण हिंसक और असंस्कृत ! किन्तु उसी जन्म में उन्होंने अहिंसा का बीज अपने अन्तर में बो लिया । भील गया था शिकार करने पशुओं का, किन्तु शिकार हो गया उसके अन्तर के पशु का । जैन मुनि से उसने जीव दया पालने का व्रत लिया कि वह किसी को मारेगा नहीं और निरामिष भोजन करेगा। अहिंसा का यह बिरवा उस जीव के हृदय में पनपा, परन्तु एक जन्म में उसपर फिर हिंसा का तुषार पड़ गया, अनादि काल का कुसंस्कार चमक गया । तब वह एक भयंकर शेर था। शिकार करना उसका काम था। किन्तु सत्य मिटता नहीं, अहिंसा के बिरवा की जड़ फिर हरी हो गई। शेर को मुनि के दर्शन हुए और वह अहिंसक बन गया । आज जैसे अमेरिका में टायक नाम की सिंहनी जीवदयापालक शाकाहारी बनी थी, वैसे ही वह शेर भी पूर्ण अहिंसक बना था।
आदि तीर्थकर भगवान ऋषभ अथवा वृषभ से भी बहुत पहले भगवान महावीर के जीव ने अहिंसा धर्म की साधना प्रारम्भ की थी। आदि भगवान का तो वह पोता हुआ था। उपरान्त उत्थान-पतन की भूल-भुलैया में भटक कर शेर हा जहां से फिर उसने आत्मोन्नति का प्रयास प्रारम्भ किया। अच्छे कर्म का फल भी अच्छा होता है। आम बोने पर आम ही मिलता है। अहिंसा का व्रत पाला तो उसका पुण्य-पुष्प चक्रवर्ती जसी विभूति में फलित हुआ। किन्तु महावीर के जीव को तो आगे बढ़ना था। उसके हृदय में आत्मबोध का फल खिल चुका था, जिससे सम्यक्त्व की सुगंधि आ रही थी। निस्संग का भाव आर्जवता में चमक रहा था। वह राजभोग में नहीं फंसे । उनकी सम्पत्ति लोक कल्याण के लिए थी और उनका समय और शक्ति अहिंसा के विकास में लगी थी। रागद्वेष से निलिप्त रहने की जागरूकता ने समता और समानता को भाव जगा रखा था। मैत्री और करुणा उनके आगे नाचती थी। यह प्रिय मित्र चक्रवर्ती तो हुए परन्तु सार्थक नाम, छह खण्ड भूमि पर अहिंसा का साम्राज्य पनपे इसलिए ही वह धर्म विजय की यात्रा पर निकले । निस्पृही तेजपुत्र अहिंसक वीर के आगे सभी नतमस्तक होकर अहिंसा संस्कृति के उपासक बन जाते। प्रियमित्र सर्वत्र मैत्री और कारुण्य की पुण्यधारा बहाकर लौटे तो उन्हें राजत्व का ऐश्वयं काटने लगा। शासन भार से मुक्त होकर वह साधु हो गए। कर्मशूर तो थे ही अब धर्म-शुर भी बन गए। केवली भगवान के पादमूल में बैठकर उनके जीव ने तीर्थंकर बनने की कला को पहचाना । उस कला के विकास में मूल प्रेरक सोलह प्रकार के कारणों को अपने रोम-रोम मे ऐसा चमकाया कि उनको तीर्थंकर होते देर न लगी। स्वर्ग के भोग विलास में भी वह आत्मरसी ही रहे। आत्मा स्वस्थ, तो शरीर भी स्वस्थ । स्वर्ण के संसर्ग से पाषाण चमकता ही है। आखिर उस भील के जीवने अपने अन्तर को ऐसा मांझा कि रागद्वेषपरक हिंसा की गंध भी उसमें न रही। सहज आर्जव के भाव ने भील के जीव को लोकपूज्य बना दिया।
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