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वीर ! त्वमानन्दभुवाम वीरः मीरो गुणानां जगतामारः। एकोऽपि सम्पातितमामनेक-लोकाननेकान्तमतेननेक ॥
यज्ज्ञानमस्त सकलप्रतिबन्धभावाद्, व्याप्नोति विश्वगपि विश्वभवांश्च भावान् । भद्र तनोतु भगवान जगते जिनोऽसावस्थ न स्मयरयाभिनयादिदोषाः ॥
-ज्ञानसागरः स्यादिति वादः सुवचनममृतं ते जिन संसृति गदमपहर्तृ । मारजयी त्वं हरमदहरणो नाव सुवंश तिलक इह लोके ॥
ज्ञानवती श्रीः झटिति भवतुमे भक्तिवशात् तवमुनिगणवंद्या। स्वात्मजसिद्धिवसुख-जनिका सन्मतिदेव ! सकल विमला स्यात् ॥
वर्धमानो महावीरो श्रीमान् सिद्धार्थनंदनः । त्वत्संस्तुतेः स्मृतेश्चापि विघ्नौघः प्रलयं व्रजेत् ॥
-ज्ञानमती माताजी असितगिरि समं स्यात्कज्ज्लं सिन्धुपात्रे,
सुरतरुवरशाखालेखनी पत्रमूर्वी । लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं, तदपि तवगुणानां वीर ! पारं न याति ॥
-अज्ञात
हे वीर भगवन् ! आप आनन्द की भूमि होकर अवीर हो, और गुणों के मीर होकर भी जगत के अमीर हो। आपने एक होकर भी अपने अनेकान्त दर्शन द्वारा अनेकों को एकता के सूत्र में बांध दिया। जिनका ज्ञान समस्त प्रतिबन्धक कारणों का अभाव हो जाने के फलस्वरूप अखिल विश्व के समस्त पदार्थों को व्याप्त कर रहा है-साक्षात् जान रहा है, तथा जिनमें मद, मत्सर, आवेग, राग, द्वेषादि दोष नहीं रहे, वह महावीर भगवान सम्पूर्ण जगत का कल्याण करें।
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परम्परोपजीबाबाम
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