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शतशत वन्दन
यह त्याग ज्योति का प्रख्यापक, विभु वर्द्धमान की कीर्ति-किरण । ज्योतिर्मय अन्तर-वाह्य सभी,
रे धन्य वीर ! शिवरमा-वरण । प्रभु धन्य-धन्य सन्मति स्वामी, जिनवर जिनेन्द्र विभु निष्कामी।। शाश्वत सु-शक्ति शान्ति निधि अभिरामी, शिवपथदर्शक शिव-पदगामी॥
निस्सीम देव ! सीमित वाणी, यशगान न कुछ भी बन पाता। श्रद्धालु विनत अन्तस लेकिन,
जय बोल झुका शिर सुख पाता ॥ जय जय जय जयवन्त सह त्रिशला नन्दन । जय जय जय जय जगवंद्यनीय शत शत बन्दन ॥
-बीरेन्द्र
आत्मज्ञानी महावीर
सत्ता, सम्पत्ति, सिंहासन, सौन्दर्य और सम्बन्धी जन, हिला सके नहिं 'वीर' हृदय, मानों सुमेरू था उनका मन । तब माता की ममता दौड़ी, त्रिशला ने रोका महल द्वार, आँसू की नदिया उमड़ पड़ी, और उमड़ पड़ा था पुत्र प्यार ॥
वीर चरण रुक गये वहाँ, थी माँ की ममता का प्रभाव, सिद्धार्थ जनक भी पहुंच गये, उनकी वाणी में प्रेम भाव । स्नेह सत्य से सनी हुई बोले प्रभुवर तब अमिय घोल, समझायी जग की ममतायें और मुक्तिमार्ग को दिया खोल ॥
(३) उघड़े हिय के तब नयन-पलक, माता त्रिशला थी हुई शांत, स्वीकृत बन जाने को दे फिर, लौट पड़ी मन रहित भ्रान्त । नभ में गूंजी थी मधुर तान, जल थल में मुखरित दिव्य गान, "मन वैभव है धूल पिणु, जिसको जागा है आत्म ज्ञान ॥"
-नेमीचन्द पाटोदिया
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