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प्रशान्तं दर्शनं यस्य सर्वभूताऽभयप्रदम् । मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते ॥ जगन्नकावस्थं युगपदखिलाऽनन्त विषयं, यदे तत्प्रत्यक्षं तव न च भवान् कस्यचिदपि । अनेनैवाऽचिन्त्य-प्रकृति-रस-सिद्धस्तु विदुषां, समीक्ष्यतद्वारं तवगुण-कथोत्कावयमपि ॥ नार्थान् विवित्ससि न वेत्स्य सि ना, ऽप्यवेत्सीन ज्ञातवानसि न तेऽच्युत! वेद्यमस्ति । त्रैकाल्य-नित्य-विषमं युगपच्च विश्व,
पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ दूरामाप्तं यदचिन्त्य-भूतिज्ञानत्वया जन्मजराऽन्तकर्तृ ।
तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ! लोकोत्तमतामुपेतः ॥ क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रियाविहीनं च विबोधसंपदम् । निरस्यता क्लेश समूह-शान्तये त्वया शिवाया लिखितेव पद्धतिः॥
समुद्र से पार होने के लिये नौका के समान है, जिनके चरण भक्तों के लिये परम निधान हैं, जिनकी प्रतिमा सब कार्यों की सिद्धि करने वाली है, जिन्हें सहर्ष प्रणाम करने वाले तथा जिनका मंगलगान करने वाले मुझ सेवक की उन्नति निर्बाध है, वे दानशील, कर्म विजेता देवेश्वर भगवान महावीर सबके मनोरथ पूर्ण करें।
जिनकी प्रशान्त मूर्ति के दर्शन मात्र से समस्त प्राणी अभय प्राप्त करते हैं, वह भगवान प्रशस्त मंगलरूप एवं कल्याणमयी शोभायमान हैं। अखिल विश्व के अनन्त विषय और उनकी समस्त पर्यायें जिसके प्रत्यक्ष हैं. अभ्य किसी को नहीं, और प्रकृति-रस-सिद्धविद्वानों के लिए भी जो अचिन्त्य है, ऐसे उक्त सर्वज्ञद्वार की समीक्षा करके मैं आपका गुणगान करने को उत्सुक हुआ हूँ। विश्व के त्रिकालवर्ती समस्त साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थल, दृष्ट-अदृष्ट, ज्ञात-अज्ञात, व्यवहित-अव्यवहित आदि पदार्थ अपनी अनेक अनन्त पर्यायों सहित आप को युगपत प्रत्यक्ष हैं. हे भगवान अच्युत ! आपको नमस्कार हो ! हे सर्वान्सर्वज्ञ ! कठिनाई से प्राप्त होने वाले अचिन्त्य तत्त्वज्ञान द्वारा आपने जन्म-जरा-मृत्यु को जीत कर लोक को अभिभूत किया और लोकोत्तमता प्राप्त की। हे प्रभ ! आपके सन्मार्ग में सम्यग्ज्ञानरहित क्रिया को तथा क्रियाविहीन ज्ञान को क्लेश समूह की शान्ति और शिवप्राप्ति के अर्थ निष्फल बताया है।
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