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नमस्ते वीतरागाय सर्वज्ञाय महात्मने । याताय दुर्गमं कूलं संसारोदन्वतः परम् ॥ भवता सार्थवाहेन भव्य चेतन वाणिजाः । यास्यन्ति वितनुस्थानं दोष चारैरलुण्टिताः॥ प्रवर्तितस्त्वया पन्था विमलः सिद्धगामिनाम् । कर्मजालं च निर्दग्धं ज्वलित ध्यानवन्हिना ॥ निर्बन्धूनामनाथानां दुःखाग्नि परिवर्तिनाम् । बन्धु थश्च जगतां जातोऽसि परमोदयः ॥ कथं कुर्यात्तव स्तोत्रं यस्यान्तपरिवर्जिताः । उपमानेन निर्मुक्ता गुणः केवलिगोचराः ॥
-रविषणाचार्यः शुद्धज्ञान प्रकाशाय लोकालोकैक भानवे। नमः श्री वर्तमानाय वर्द्धमान जिनेशिने ॥
-जिनसेनाचार्यः
हे भगवान् ! आप वीतराग हो, सर्वज्ञ हो, महात्मा हो, और संसार रूपी सागर के दुर्गम अंतिम तट पर पहुँच गये हो, अत: आपको नमस्कार हो। आप ऐसे उत्तम सर्थवाह हो कि भव्य जीव रूपी अनेक व्यापारी आप के नेतृत्व में, आपके साथ,निर्वाण धाम को प्राप्त होंगे, और राह में दोष रूपी लुटेरे उन्हें नहीं लूट सकेंगे। आपने मोक्षभिलाषियों को निर्मल मोक्ष का मार्ग दिखाया है, और ध्यान रूपी अग्नि से कर्मों के समूह को भस्म कर दिया है। जिनका कोई बन्धु नहीं, जिनका कोई नाथ नहीं उन दुःखरूपी अग्नि में जलते हुए संसारी जीवों के आप ही बन्धु हो, आप ही नाथ हो, और आप ही उन्हें परम अभ्युदय प्राप्त कराने वाले हो। हे भगवन् ! हम आपके गुणों का स्तवन कैसे कर पावें, जब कि वे अनन्त हैं, उपमा रहित हैं, और केवल ज्ञानियों के विषय हैं। जिनका शुद्धज्ञान रूपी प्रकाश सर्गत्र फैल रहा है, जो लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय सूर्य हैं, तथा जो अनन्त चतुष्टय रूपी लक्ष्मी से सदा वृद्धिंगत हैं, ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार हो।
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