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संसार दावानल दाह नीरं,
संमोह धूलोहरणे समीरं । मायारस दारण सार सीरं, नमामि वीरं गिरिसार धीरं ॥
-हरिभद्रसूरिः स्थेयाज्जात जयध्वजाऽप्रतिनिधिः प्रोद्भूत भूरिप्रभुः, प्रध्वस्ताखिल-दुर्नय-द्विषदिभः सन्नीति सामर्थ्यतः। सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्गऽमथनोर्हन्वीरनाथः श्रिये, शश्वत्संस्तुति-गोचरोऽनघधियां श्री सत्यवाक्याधिपः ॥
-विद्यानंदः श्रीवर्धमानमनिशं जिनवर्धमानं
त्वां तं नये स्तुतिपथं पथि संप्रधौते । योऽन्त्योऽपि तीर्थकरमग्रिममप्यजैषीत् ।
___ काले कलौ च पृथुलीकृतधर्म तीर्थः॥ देवा वीरजिनोऽयमस्तु जगतां वन्द्यः सदा मूनि मे ॥
-गुणभद्राचार्यः श्रियं त्रिलोकीतिलकायमानामात्यन्तिकी ज्ञातसमस्ततत्त्वाम् । उपागतं सन्मतिमुज्ज्वलोक्ति वन्दे जिनेन्द्र हतमोहमन्द्रम् ॥
संसार रूपी दावानल की ज्वाला को शान्त करने के लिए जल के समान, संमोह रूपी धुलि को उड़ाने के लिए वायु के समान, और माया के रस को सुखाने के लिए सूर्य के समान तथा पर्वतराज के समान धीर वीर प्रभु को नमस्कार हो । अद्वितीय विजेता, महत् प्रभुत्व के धारी, अपनी सन्नीति की सामर्थ्य से दुर्नयरूपी शत्रुगजों के संहार में सिंह के समान, कुमार्गों का मथन करने वाले, साक्षात् रत्नत्रय की मूति, कलुषित आशय से रहित सुधीजनों द्वारा सदैव संस्तृत, श्री सम्पन्न, सत्य वाक्यों के अधिपति, अहंन्त वीरनाथ (महावीर) कल्याणार्थ लोक हृदयों में निवास करें। जो मोक्ष रूपी लक्ष्मी से निरन्तर वृद्धि को प्राप्त हैं, जिन्होंने इस कलिकाल में भी धर्मतीर्थ का भारी विस्तार किया है, और इस प्रकार जो अन्तिम तीर्थंकर होते हुए भी पूर्ववर्ती तीर्थकरों से आगे बढ़ गये हैं, ऐसे श्री वर्धमान जिनेन्द्र की मैं स्तुति करता हूँ। सम्पूर्ण जगत द्वारा वन्दनीय देवाधिदेव श्री वीर जिनेन्द्र सदैव मेरे मस्तक पर विराजमान रहें। जो तीनों लोकों में श्रोष्ठ, भविनाशी सर्वज्ञत्वलक्ष्मी को प्राप्त थे, जिनके वचन निर्दोष (पूर्वापर विरोध रहित) थे, और जिन्होंने मोहरूपी तन्द्रा को नष्ट कर दिया था, उन सन्मति जिनेन्द्र महावीर की मैं वन्दना करता हूँ।
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