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सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्यकल्पं सर्वातशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥
इति स्तुत्यः स्तुत्यस्त्रिदश-मुनिमुख्यैः प्रणिहितः, स्तुतः शकत्या श्रेयः पदमधिगस्त्वं जिन! मया। महावीरो वीरो दुरित-पर-सेनाऽभिविजये,
विधेया मे भक्तिं पथि भवत एवाऽप्रतिनिधौ। कीर्त्या भुवि भासितया, वीरत्वं गुणसमुत्थया भासितया ।
भासोड्डसमाऽसितया, सोम इव व्योम्नि कुन्दशोभाऽसितया॥ तव जिन शासन विभवो, जयति कलावपि गुणानुशासन विभवः । दोष कशासन विभवः, स्तुवन्ति चैनं प्रभाकृशासन विभवः ॥
त्वं जिन गत-मद-मायस्तव भावानां मुमुक्षुकामदमायः । श्रेयान् श्रीमद् मायस्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥
हे प्रभु ! आपका धर्म शासन नय-प्रमाण द्वारा वस्तु तत्त्व को सर्वथा स्पष्ट करने वाला तथा समस्त प्रवादियों से अबाध्य होने के साथ साथ दया, दम, त्याग और समाधिनिष्ट है, अतएव संसार में अद्वितीय है। (पिछले पृष्ठ के अंतिम श्लोक का अर्थ)
हे स्वामी ! आपका धर्म शासन अनेकान्त रूप है तथापि सुव्यवस्थित है, उसमें असंगतता और विरोध के लिए कोई अवकाश नहीं है। वह समस्त आपदाओं का अन्त करने वाला है, अखंडनीय है, और सभी प्राणियों के अभ्युदय का कारण होने से 'सर्वोदय तीर्थ' है। हे जिनेन्द्र ! आप मोहादि शत्रुओं की सेना को पूरी तरह पराजित करने में वीर हैं, निःश्रेयस (मोक्ष) पद प्राप्त करने से 'महावीर' हैं, जिन देवेन्द्रों और मुनीन्द्रों की दूसरे लोग स्तुति करते हैं उनके स्तुत्य हैं, और आपका मार्ग अद्वितीय है. अतएव आप मेरी सविशेष भक्ति के भाजन बनो।
हे वीर प्रभु ! आप अपने निर्मल आत्मीक गुणों से समुत्पन्न धवल कीर्ति से पृथ्वी मंडल पर ऐसे शोभायमान हो जैसे कि कुन्दपुष्पों की आभावाली नक्षत्रमालिका के मध्य चन्द्रमा शोभायमान होता है। हे जिनेन्द्र ! आप के शासन की परम महिमा इस कलिकाल में भी जयवंत हो रही है। काम-क्रोध आदि दोषों को दूर करके जिनके ज्ञान की महिमा सर्वत्र प्रभावान है, ऐसे गणधरादि देव भी आपके इस महिमामय शासन की स्तुति करते हैं। हे बीर जिनेन्द्र ! आप मान और माया से रहित हैं, मुमुक्षुओं (मोक्ष के अभिलाषियों) को इच्छा पूर्ण करने वाले हैं, अर्थात् भक्ति भाव से आपकी स्तुति करने वाले जन मान और माया को शीघ्र ही छोड़ देते हैं तथा आप जैसे ही गुणों के धारक होने के अधिकारी शीघ्र ही बन जाते हैं।
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