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* महावीर स्तवन है
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प्राकृत पाठ
णमो जिणाणं वड्ढमाणं, जिय भयाणं । महावीरा मंगलम्, महावीरा लोगुत्तुमा, महावीरे सरणं गच्छामि ॥
णिस्संसयकरो महावीरो जिणुत्तमो।
रागदोस-भयादोदो धम्म-तीत्थस्स-कारओ ॥ इक्कोवि णमुक्कारो जिणवर वसहस्स वध्धमाणस्स । संसार सागराओ तारेइ नरं वा नारि वा॥ सव्वण्णु सोमदंसण अपुणभव भवियजण-मणाणन्द । जय चिन्तामणि जगयगुरू जय जय जिण वीर अकलंक ॥
-अज्ञात
* अर्थ
भयादिक समस्त विकार भावों के विजेता वर्द्धमान जनेन्द्र को नमस्कार हो; भगवान महावीर मंगल स्वरूपी है, लोकोत्तम हैं, उन्हीं की शरण मुझे प्राप्त हो। संशयों के निर्मूल करने में वीर, जिनोत्तम भगवान महावीर राग द्वेष भय आदि विकारों से रहित हैंअतीत है ; वह धर्मतीर्थ के कर्ता या संस्थापक हैं। जिनेन्द्र भगवान ऋषभदेव (प्रथम तीर्थकर) अथवा वर्द्धमान महावीर (अंतिम तीर्थकर) को एक बार भी (भाव पूर्वक) नमस्कार करने से नर हो या नारी, संसार सागर से तिर जाते हैं-पार हो जाते हैं । सर्वज्ञ, सोमदर्शन, अपुनर्भव, भव्य जन-मनान्द, चिन्तामणि, जगद्गुरु, अकलंक वीर जिनेन्द्र की जय हो। जय हो, जय हो !
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