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भी नहीं बदला है। 'मैं 'पन बदल गया है, वह मूल जगह पर बैठ जाए तो फिर हो चुका।
ज्ञान या अज्ञान का आदि क्या है ? विज्ञान।
ब्रह्मांड में छः सनातन वस्तुएँ हैं। उनके इकट्ठे होने से व्यतिरेक गुण उत्पन्न हो गए। क्रोध-मान-माया-लोभ, ये व्यतिरेक गुण कहलाते हैं। क्रोध और मान से 'मैं' और माया और लोभ से 'मेरा' बना। अब आत्मा और पुद्गल तत्त्वों को अलग करने पर सबकुछ खत्म हो जाता है।
दादाश्री ज्ञान देते हैं, वह किसे? आत्मा को या अज्ञानी को? अज्ञानी को। आत्मा को ज़रूर जुदा देखते हैं।
ज्ञान सहज होता है, सोचा-समझा हुआ नहीं होता। सोचा-समझा हुआ तो अज्ञान कहलाता है। ज्ञान को जान ले तो अज्ञान को जान सकता है। जो गेहूँ को जान ले वह कंकड़ को जान सकता है।
यानी कि अज्ञान को जानना भी ज़रूरी है। बंधन को संपूर्ण रूप से समझ ले, तभी मुक्ति की आराधना हो सकती है यानी जीव दोनों में से किसी का भी फायदा नहीं उठा सका (संसार में भी फायदा नहीं उठा सका और मोक्ष का भी फायदा नहीं मिला)।
जगत् में लाने वाला कारण अज्ञान है और जगत् से छुड़वाने वाला कारण ज्ञान ! 'मैं कौन हूँ' का ज्ञान हुआ कि मुक्त हुआ !
माया वस्तु रूपी नहीं है। माया अर्थात् स्व-स्वरूप की अज्ञानता। सेल्फ इग्नोरन्स। स्वरूप का अज्ञान गया, 'मैं कौन हूँ' जाना तो माया गई!
इन सभी का रूट कॉज़ अज्ञानता हैं। माया दर्शनीय नहीं है, भास्यमान है।
अज्ञान क्या है और कहाँ से आता है? जन्म हुआ तभी से पहचानने के लिए 'चंदूभाई' नाम दिया गया लेकिन 'हमने' मान लिया कि 'मैं ही चंदूभाई हूँ'। वह जो रोंग बिलीफ है, वही अज्ञान है। उसके बाद रोंग बिलीफ की परंपराएं शुरू हो गई! रोंग बिलीफ अर्थात् मिथ्यात्व और राइट बिलीफ अर्थात् सम्यक्त्व।
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