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जनगार
दृग्धिशुद्धयाद्यत्यतीर्थकृत्त्वपुण्योदयात् स हि।
- शास्त्यायुष्मान् सतोऽर्तिनं जिज्ञासूस्तीर्थमिष्टदम् ॥ उक्त दर्शनीवशुद्धयादि भावनाओंके द्वारा संचित तीर्थंकर प्रकृतिरूप पुण्य कर्मके उदयसे वे आयुष्मान् भगवान् मोक्षमार्गके जिज्ञासु भन्योंको, संसारकी पीडाको दूर करनेवाले और इष्ट-मोक्ष फलके देनेवाले तीर्थसंसारसे निस्तरणके उपायका उपदेश देते हैं।
.. इस प्रकार सिद्धोंके अनंतर मोक्षमार्गके सर्वप्रधान उपदेशक भगवान् अर्हन्तदेवकी स्तुति की गई । अर्हन् शब्दका निरुक्तिकी अपेक्षा अर्थ होता है कि जो पूजाके योग्य हो । अतएव मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिकमोंके दूर कर देनेसे जिनको अनन्त चतुष्टय [ अनंत- सुख ज्ञान दर्शन वीर्य ] स्वरूप प्रास होगया है उनको अर्हन् कहते हैं।
इस स्तुतिमें अर्हन्तदेवके स्वरूपका ही निरूपण नहीं किया है किंतु उस स्वरूपकी प्राप्तिके उपाय और क्रमका भी वर्णन कर दिया है। यह बात उक्त और आगेके कथनसे स्पष्ट ही समझमें आ सकती है। क्योंकि अर्हतके स्वरूप और उसके कारण तीर्थकर प्रकृति तथा उसके भी कारण दर्शनविशुद्धयादि भावनाओंके स्वरूप तथा उनके भी विषयके वर्णन करनेका प्रयोजन यही है। उक्त कथनका सारांश यही है कि तीनो लोकके सभी प्राणी श्रेयोमार्गका यथावत् ज्ञान न रखनेके कारण दुःखोंसे भीत रहते हुए भी उल्टे ही चलते हैं। चाहते हैं कि हमारा दुःखोंसे छुटकारा हो किंतु सेवन उनका करते ही हैं, जो कि दुःखोंके ही उपाय हैं। अतएव जिनके हृदयमें यह बात देखकर उनके अभ्युद्धारकी वह अनुकम्पापूर्ण बलवती भावना उत्पन्न होती है जो कि तीर्थकर प्रकृतिके बंधकेलिये कारण हैं, और जो घातिकर्मीका घात कर उस अनंतचतुष्टय स्वरूपको प्राप्त करते हैं जिसके कि साहचर्यसे उक्त भावनाके द्वारा संचित तीर्थकर प्रकृतिका उदय होता है; और अंतमें जो इस तीर्थकर पुण्यकर्मके उदयके निमित्तसे ही उत्पन्न हुई दिव्यध्वनिके द्वारा श्रेयोमार्गका ज्ञान करा कर उन प्राणियोंका अभ्युद्धार कर देते हैं। वे अर्हन्त देव मेरा भी अभ्युद्धार करें । क्योंकि लोकमें भी यह बात देखी
अध्याय