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अनगार
अर्हन्तदेवके वाक्योंको तीर्थकरनामक पुण्यकर्मविशेषसे ही उत्पन्न हुए कहनेका प्रयोजन यह है कि उनके वाक्य विवक्षा आदिकसे उत्पन्न नहीं होते; क्योंकि वीतराग भगवान्के विवक्षाका होना बन नहीं सकता । यही बात कही भी है
यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितीष्ठद्वयं, . नो वाच्छाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम् । शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकर्णितं कर्णिभि
स्तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः ।। इति । समस्त विपत्तियोंको नष्ट करदेनेवाले सर्वज्ञदेवके वे वचन हमारी रक्षा करें जो कि, शान्त होगया है कषायविष-पारस्परिक वैरविरोध जिनका ऐसे पशुगणोंके साथ साथ, सभी श्रोत्रन्द्रियके धारकोंके द्वारा सुने जाते तथा समस्त प्राणियोंकेलिये हितकर हैं, एवं जो न होठोंसे मलिन हैं और न वर्गों-अक्षरोंसे सहित हैं। तथा जिसका क्रम श्वाससे रुद्ध नहीं होता, और जिसके उत्पन्न होनेमें न तो दोनो ओष्ठोंका स्पन्दन-हलन चलन ही होता है और न अंतरंगों वाञ्छा-विवक्षा ही होती है। इससे स्पष्ट है कि भगवान् के वाक्य विवक्षाजनित नहीं हैं। किंतु वे केवलज्ञानका साहचर्य पाकर उदयको प्राप्त हुई तीर्थकर प्रकृतिके निमित्तसे ही उत्पन्न होते हैं । इन वाक्योंको ही दिव्यध्वनि कहते हैं। इस दिव्यध्वनिक विषयमें कहा गया है कि
पुब्बण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मज्झिमाये रत्तीये ।
छच्छग्घडिया णिग्गय दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थे ॥ इति । अर्थात्-भगवान्की दिव्यध्वनि पूर्वाह मध्यान्ह और अपराण्ह तथा अर्धरात्रि इन चार-समयोंमें छह छह घडी तक होती है और वह सूत्रके अर्थों का अथवा सूत्ररूप अर्थका निरूपण करती है। इसी दिव्यध्वनिके द्वारा भगवान् अर्हन् भव्योंको मोक्षमार्गका निरूपण करते हैं । तथा
'अध्याय