________________
#ॐॐॐ श्री श्री
(स्थूल) तथा सूक्ष्म । यहाँ सूक्ष्म निगोद का उदाहरण दिया है। सूक्ष्म निगोद सामान्य दृष्टि से 5 दिखाई नहीं देता; उसके अस्तित्व का आभास पिण्डाकार समूह में ही होता है। ऐसे जीवों की आयु भी अति सूक्ष्म ( अन्तर्मुहूर्त) होती है। समय काल के सूक्ष्मतम भाग का नाम है। सूक्ष्म ( पनक) निगोद जीव तीन समय में अपने सबसे छोटा किन्तु पूर्ण आकार को प्राप्त कर लेता है । अवधिज्ञान का कम से कम क्षेत्र इतना सूक्ष्म होता है।
फ्र
45
5
Elaboration - Moss, fungus, mildew, etc. come under the class of panag beings. According to the Jain biology these come under the class of nigod or dormant beings. A snowball like cluster of microbeings or a cluster like body having infinite number of individual micro-beings living together is called nigod beings. There are two classes of these nigod beings-badar or gross and sukshma or tiny. Here the tiny or the micro-nigod has been cited. The micro-nigod is invisible to the naked eye. Its existence becomes apparent only in the Hcluster form. The life span of such beings is infinitely short. Samaya 5
卐
5
is the ultimate fraction of time, something even smaller than a
IFIPIFIPICKLE LE LE
nanosecond. A micro-nigod being reaches its minimum but full
5 growth within three samaya. The minimal scope of Avadhi-jnana is 5 so infinitesimal.
अवधिज्ञान का उत्कृष्ट विषय- (क्षेत्र)
THE MAXIMUM SCOPE OF AVADHI-JNANA
अर्थ-अग्निकाय के सभी प्रकार के ( सूक्ष्म - बादर) समस्त अधिकाधिक जीव सभी दिशाओं में आकाश के जितने क्षेत्र में अन्तररहित व्याप्त हो जाये उतना क्षेत्र अवधिज्ञान का अधिकतम क्षेत्र होता है।
श्री नन्दीसूत्र
१५ : सव्व-बहु अगणिजीवा णिरंतरं जत्तियं भरेज्जंसु । खेत्तं सव्वदिसागं परमोहीखेत्तनिधि |
15. The maximum scope of Avadhi- jnana is equivalent to an area that can be occupied by all or maximum number of all types (gross and micro) of fire-bodied beings in space, without a gap, in all directions.
विवेचन - तेजस्काय अथवा अग्निकाय के जीव सभी प्रकार के स्थावर जीवों में सबसे स्वल्प होते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं- अपर्याप्त सूक्ष्म, पर्याप्त सूक्ष्म, अपर्याप्त बादर तथा पर्याप्त बादर । ये समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। इन चारों प्रकार के जीवों की अधिकतम संख्या
Jain Education International
( ९४ )
@5555555
For Private & Personal Use Only
Shri Nandisutra
474445555 5 5 5 5 5 55 55555 46 4 5 6 7 5 #
www.jainelibrary.org