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95 5 5 5 5 5 5555555555595555555 5€ पाँच इन्द्रियों तथा मन। इन छह निमित्तों द्वारा होने वाला मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय व धारणा रूप २४ भेद होते हैं । इनके विषय की विविधता तथा क्षयोपशम के स्तरानुसार प्रत्येक बारह-बारह प्रकार के क्षमतारूपी भेद होते हैं । बारह भेदों का विवरण इस प्रकार है
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(१) बहुग्राही संख्या तथा परिमाण दोनों अपेक्षाओं से अधिक ग्रहण करने को बहुग्राही क्षमता कहते हैं। वस्तु के अनेक पर्यायों को जानना, अधिक परिमाण वाले द्रव्य अथवा विषय को जानना आदि इसमें सम्मिलित हैं।
(२) अल्पग्राही - किसी एक ही विषय को या द्रव्य के एक ही पर्याय को अल्प मात्रा में जानने की क्षमता को अल्पग्राही कहते हैं ।
(३) बहुविधग्राही - किसी एक वस्तु, द्रव्य या विषय को अनेक प्रकार से जानने की क्षमताको बहुविधग्राही कहते हैं। उदाहरणार्थ वस्तु का आकार-प्रकार, रंग-रूप, लम्बाई-चौड़ाई आदि को विभिन्न स्तरों से समझना ।
(४) अल्पविधग्राही - किसी वस्तु, द्रव्य या विषय को अल्प प्रकार से जानने की क्षमता को अल्पविग्राही कहते हैं।
(५) क्षिप्रग्राही - किसी वक्ता या लेखक के भावों को शीघ्र ही किसी भी इन्द्रिय या मन
द्वारा जान लेना, तथा स्पर्श द्वारा अन्धकार में भी किसी व्यक्ति या वस्तु को पहचान लेने की क्षमता को क्षिप्रग्राही कहते हैं।
(६) अक्षिप्रग्राही - क्षयोपशम की मंदता अथवा विक्षिप्त उपयोग के कारण किसी भी इन्द्रिय या मन के विषय को अनभ्यस्त अवस्था में कुछ विलम्ब से जानने की क्षमता को अक्षिग्राही कहते हैं।
(७) अनिश्रितग्राही - बिना किसी हेतु या निमित्त के उपयोग की एकाग्रता अथवा स्वप्रेरणा से वस्तु के गुण व पर्याय को जानने की क्षमता को अनिश्रितग्राही कहते हैं ।
(८) निश्रितग्राही - किसी हेतु निमित्त, युक्ति आदि के द्वारा वस्तु के गुण पर्याय को जानने की क्षमता को निश्रितग्राही कहते हैं ।
(९) असंदिग्धग्राही - किसी वस्तु के गुण व पर्याय को संदेह रहित होकर जानने की क्षमता को असंदिग्धग्राही कहते हैं ।
(१०) संदिग्धग्राही - किसी वस्तु के गुण व पर्याय को संदेह सहित जानने की क्षमता को संदिग्धग्राही कहते हैं ।
(११) ध्रुवग्राही - किसी वस्तु या विषय को उचित - निमित्त मिलने पर निश्चित रूप से नियमतः जानने तथा चिरकाल तक धारण करने की क्षमता को ध्रुवग्राही कहते हैं ।
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श्री नन्दी सूत्र
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