Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Author(s): Devvachak, Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

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Page 535
________________ *** 5 @! मूअं हुंकारं वा, बाढंकार पडिपुच्छ वीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणिट्टा सत्तमए ॥४॥ सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निजुत्तिमीसिओ भणिओ । तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे || ५ || सेत्तं अंगपविट्ठ, सेत्तं सुअनाणं, से त्तं परोक्खनाणं, से त्तं नन्दी | सूत्र -- अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादि, सपर्यवसित, गमिक और अंग-प्रविष्ट सात पक्ष ); अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादि, अपर्यवसित, अगमिक, और अंगबाह्य सात प्रतिपक्ष) इस प्रकार श्रुत के १४ भेद हैं। बुद्धि के जो अष्ठ स्वाभाविक गुण आगम शास्त्र के अध्ययन द्वारा श्रुतज्ञान का लाभ देते हैं उन्हें पूर्व शास्त्र के ज्ञाता एवं धैर्यवान आचार्य इस प्रकार कहते हैं १. सुश्रूषा, २. प्रतिपृच्छना, ३. श्रवण करना, ४ ग्रहण करना, ५ . ईहा करना, ६. अपोह करना, ७. धारणा, तथा ८. सम्यक्तया आचरण करना । सुनने के सात गुण ये हैं- मूक रहकर सुने, हुंकार आदि कहे, समर्थन व्यक्त करें, फिर प्रश्न करें, विचार करें, प्रसंग का पारायण करें, अर्थ का प्रतिपादन करें। 556 अनुयोग विधि इस प्रकार है - सर्वप्रथम सूत्र व अर्थ की वाचना करें, दूसरी वाचना में नियुक्ति मिश्र की वाचना करें और फिर तीसरी वाचना में नय निक्षेपपूर्वक प्रतिपादन करें। यह अंग-प्रविष्टश्रुत का वर्णन पूर्ण हुआ। यह श्रुतज्ञान का वर्णन है। यह परोक्षज्ञान का वर्णन है। यह नन्दीसूत्र का वर्णन समाप्त है। 115. There are fourteen types of shrut-jnana - Akshar, Sanjni, Samyak, Saadi, Saparyavasit, Gamik and Angapravisht (seven positives); Anakshar, Asanjni, Mithya, Anaadi, Aparyavasit, Agamik and Angabahya (seven negatives). The eight inherent qualities of wisdom that help gain scriptural knowledge through study of Agams are defined by the serene and scholarly sages of the past as follows 1. Sushrusha, 2. Pratiprichhana, 3. Shravan, 4. Grahan, 5. Tha, 6. Apoha, 7. Dharana, and 8. Samyak Acharan. The seven qualities of listening are-be silent while listening, utter acknowledgment, express acceptance, raise 5 questions, contemplate, absorb the lesson, define the meaning. फ्र 5 श्री नन्दीसूत्र ( ४६४ ) Jain Education International 555555 For Private & Personal Use Only Shri Nandisutra @फ्र www.jainelibrary.org

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