Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Author(s): Devvachak, Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

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Page 477
________________ * समवायांग में एक से बढ़ते-बढ़ते सौ स्थान तक भावों की प्ररूपणा की गई है और ॥ द्वादशांग गणिपिटक के संक्षिप्त परिचय का समाश्रयण किया गया है। ___समवायांग में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ तथा संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं। ____ अंग की अपेक्षा से यह चौथा अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध, एक अध्ययन, एक उद्देशन काल और एक समुद्देशन काल है। इसका पद परिमाण एक लाख चवालीस हजार है। इसमें संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर हैं। इसमें शाश्वत, कृत, निबद्ध व निकाचित द्वारा सिद्ध जिन-प्रणीत भावों का आख्यान है, प्ररूपणा है, दर्शन है, निदर्शन है तथा उपदर्शन है। इसका अध्ययन करने वाला इससे एकात्म भाव युक्त होकर ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है ऐसी चरण-करण रूप प्ररूपणा इसमें की गई है। यह समवायांगसूत्र का वर्णन है। ___86. Question-What is this Samvayang Sutra? ___Answer-In Samvayang Sutra samashrayan (rights substantiation) of jiva (being) has been done; samashrayan (right substantiation) of ajiva (non-being or matter) has been done; samashrayan (right substantiation) of jivaajiva (being and matter) has been done; samashrayan (right substantiation) of sva-mat or Jain principles has been done; samashrayan (rights substantiation) of par-mat or principles of other schools has si been done; samashrayan (right substantiation) of sva-par-matsi or principles of both these has been done; samashrayan (right substantiation) of lok (inhabited space) has been done;' samashrayan (right substantiation) of alok (un-inhabited space si or the space beyond) has been done; samashrayan (right substantiation) of lokalok (inhabited and un-inhabited space), has been done. ____In Samvayang Sutra bhavas (attitudes, feelings, or thoughts) have been substantiated in ascending order from one tosi hundred. Also samashrayan of a brief introduction of twelves canons has been done. 生听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 ॐ 卐 श्री नन्दीसत्र ( ४०६ ) Shri Nandisutrai ainEduRomala For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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