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सूत्रकृतांग में लोक, अलोक व लोकालोक का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। कोई द्रव्य न अपना स्वरूप त्यागता है और न दूसरे के स्वरूप को ग्रहण करता। द्रव्य के इस द्रव्यत्व कोम परिभाषित किया गया है तथा यह बताया गया है कि शुद्ध जीव शुद्धात्मा अथवा परमात्मा है, शुद्ध अजीव जड़ पदार्थ है तथा संसारी जीव शरीरधारी कहलाता है जो आत्मा और जड़ के संयोग से शरीर धारण किये हुए हैं।
सूत्रकृतांग में स्वदर्शन, अन्य दर्शन तथा उभय (स्व-पर) दर्शनों का सिद्धान्त स्वरूप बताया गया है। अन्य दर्शनों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
(अ) क्रियावादी-जो नव तत्त्वों की अवधारणा को निराधार व मिथ्या मानते हैं तथा धर्म के वास्तविक स्वरूप के प्रति उदासीन व अनभिज्ञ होने के कारण केवल बाहरी आडम्बर व क्रियाकाण्ड के पक्षपाती हों उन्हें क्रियावादी कहते हैं। कर्ता ईश्वर में आस्था रखने के कारण इन्हें प्रायः आस्तिक माना जाता है। ये १२० प्रकार के बताये हैं।
(ब) अक्रियावादी-जो नव तत्त्व अथवा चारित्ररूप क्रिया का निषेध करते हैं वे अक्रियावादी कहलाते हैं। इनकी गणना प्रायः नास्तिकों में की जाती है। ये २४ प्रकार के बताए हैं। स्थानांगसूत्रक के आठवें स्थान में आठ प्रकार के अक्रियावादियों का उल्लेख है। वे इस प्रकार हैं
(१) एकवादी-जो किसी एक वस्तु में ही आस्था रखते हैं। अन्य सबको नकारते हैं वे सभी एकवादी अथवा अद्वैतवादी होते हैं। कुछ विचारक यह मानते हैं कि संसार में सभी कुछ जड़ पर ___ आधारित है। कुछ एक मात्र शब्द को ही सर्वोपरि मानते हैं तो कुछ एक मात्र ब्रह्म को।
(२) अनेकवादी-जितने अवयव हैं वे सभी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। जितने गुण हैं उतने ही उनके स्वतन्त्र धारक हैं। ऐसे वस्तुगत अनन्त पर्याय होने से वस्तु को भी अनन्त मानने वाले अनेकवादी कहलाते हैं।
(३) मितवादी-जो लोक को सात द्वीप-समुद्र तक ही सीमित मानते हैं। जो आत्मा को सूक्ष्म अथवा अंगुष्ट प्रमाण भी मानते हैं, शरीरव्यापी या लोकव्यापी नहीं। जो दृश्यमान जीवों को ही आत्मा मानते हैं सूक्ष्म या अदृष्ट को नहीं। आत्मा के सम्बन्ध में ऐसे सभी सीमित दृष्टिकोण वाले मितवादी कहलाते हैं।
(४) निर्मितवादी-जो यह मानते हैं कि यह विश्व किसी न किसी के द्वारा निर्मित है वे सभी निर्मितवादी हैं। इनमें वे सभी सम्मिलित हैं जो किसी अदृष्ट शक्ति को कर्ता रूप में मानते हैं। अथवा उसके किसी आकार विशेष जैसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवी आदि को कर्ता, धर्ता, हत्ता के रूपों में मानते हैं।
(५) सातावादी-कुछ लोग यह मानते हैं कि सुख का बीज सुख है और दुःख का बीज दुःख ज जैसे सफेद धागे से बुना वस्त्र भी सफेद होता है वैसे ही सुख के उपभोग से भविष्य में सुख प्राप्त
होगा। तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि शरीर और मन को कष्टप्रद होने के कारण दुःख के मूल श्रुतज्ञान ( ३९५ )
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