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जिसका नाम रोहक था। बालक होनहार और प्रखर बुद्धि था। अपने अवयस्क बालक की देखभाल तथा घर-गृहस्थी की सँभाल करने के लिए भरत ने दूसरा विवाह कर लिया ।
भरत की नई पत्नी दुष्ट स्वभाव की थी । वह रोहक को कष्ट देती थी। तंग आकर एक दिन रोहक बोला- “माँ ! आप मुझसे दुर्व्यवहार करती हैं, क्या यह आपके लिए उचित है ?" यह सुनते ही विमाता आगबबूला हो गई और चिल्लाकर बोली - "दुष्ट ! छोटे मुँह बडी बात करता है । ऐसे दुष्ट के साथ तो जैसे मैं ठीक समझॅगी, व्यवहार करूँगी । तुझसे जो वन पड़े वह कर ले।"
रोहक के मन में विमाता की बात चुभ गई । वह बदला लेने की ठानकर उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। एक दिन जब वह अपने पिता के पास सोया हुआ था तब अचानक उठकर 5 बोला- “पिताजी । देखिए, कोई व्यक्ति भागा जा रहा है।" भरत के मन में संदेह उत्पन्न हो गया कि उसकी स्त्री सदाचारिणी नहीं है। धीर-धीरे वह पत्नी से विमुख हो गया और उससे बोलना तक बन्द कर दिया।
रोह की विमाता ताड़ गई कि हो न हो यह रोहक की करतूत है कि उसने अपने पिता को भड़का दिया है। उसे सबक मिल गया। वह रोहक से स्नेह भरे स्वर में बोली - "बेटा ! मुझसे भूल हुई थी। भविष्य में मैं तेरे साथ मधुर व्यवहार रखूँगी।" रोहक का बाल सुलभ क्रोध शान्त हो गया और वह अपने पिता का भ्रम मिटाने का अवसर खोजने लगा। एक दिन चाँदनी रात में वह अपनी ही परछाईं की ओर इंगित कर बोला - " पिताजी ! देखिये कोई व्यक्ति भागा जा रहा है।” भरत ने क्रोधित हो अपने हाथ में तलवार उठाई और एक कदम आगे बढ़ा, पूछा - "कहाँ है वह दुष्ट ?" रोहक ने फिर अपनी छाया की ओर इशारा करके कहा - " यह रहा।”
छाया देख भरत को अपनी भूल मालूम पड़ी, अपने किये पर पश्चात्ताप हुआ और उसने पत्नी से क्षमा माँग पूर्ववत् मधुर व्यवहार आरम्भ कर दिया । बुद्धिमान् रोहक ने सोचा -विमाता अन्ततः विमाता ही है । कहीं मेरे व्यवहार से क्रुद्ध हो बदला लेने की नीयत से किसी दिन मुझे विष न दे | अतः वह सदा अपने पिता के साथ ही रहने लगा। उन्हीं के साथ खाता, पीता व सोता ।
एक दिन किसी कार्यवश भरत को उज्जयिनी जाना था। रोहक भी पिता के साथ गया । बालक रोहक नगरी का वैभव और सौन्दर्य देख मुग्ध हो गया और घूम-घूमकर नगरी का पूरा मानचित्र अपनी स्मृति में बैठा लिया। जब गाँव लौटने का समय हुआ तो भरत ने रोहक को साथ लिया और नगरी के बाहर निकला। नगरी के निकट ही क्षिप्रा नदी के तट पर आते-आते भरत को कुछ याद आया कि वह कुछ भूल गया है, और वह रोहक को नदी तट पर बैठाकर पुनः नगरी में गया।
रोहक नदी के तट की बालू में खेल ही खेल में उज्जयिनी का मानचित्र बनाने लगा। कुछ समय में उसने महलों सहित सम्पूर्ण नगरी का मानचित्र जैसा का तैसा बना दिया। संयोगवश उसी समय नगरी का राजा घूमते हुए उधर आया। चलते-चलते वह रोहक के निकट पहुँचा और जैसे ही मानचित्र पर पैर रखने को हुआ रोहक ने उसे रोक दिया - " महाशय ! इस मार्ग से न जायें । "
मतिज्ञान ( औत्पत्तिकी बुद्धि )
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Mati-jnana (Autpattiki Buddhi)
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