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अपने पूर्ण परिवार के नाश का निमित्त बन सकता है। मैंने भली प्रकार सोच-विचारकर निर्णय म लिया है कि अपना बलिदान दे परिवार के भविष्य को सुरक्षित और सुदृढ करूँ। कल
राज-दरबार में जाकर जब मैं राजा को प्रणाम करने झुगा तब तालपुट विष अपने मुँह में रख
लूँगा। राजा जब क्रोध से मुँह फेरने लगे तब तुम तलवार निकाल एक ही वार में मेरा सिर धड के से अलग कर देना। मेरी मृत्यु तो विष से हो जाएगी और तुम राजा के प्रिय पात्र बन जाओगे।"
श्रीयक ने दूसरे दिन अपने पिता की आज्ञा का अन्तरसः पालन किया। जैसे ही शकटार का म सिर धड़ से अलग हुआ राजा ठगा-सा रह गया। उसने श्रीयक से कहा-“श्रीयक । यह क्या ? - तुमने अपने पिता की हत्या कर डाली।" # श्रीयक ने तत्काल उत्तर दिया-"महाराज ! जिस व्यक्ति से आप खिन्न हों उसे आपका ॥
स्वामी-भक्त सेवक कैसे सह सकता है? जिसे देखने मात्र से आपको अरुचि हो, उसका इस 卐 संसार में क्या काम?" * अपने पुराने अमात्य की मृत्यु से राजा को तनिक दुःख तो हुआ पर वह श्रीयक की अपूर्व म स्वामी-भक्ति से बहुत प्रभावित हुआ। उसने श्रीयक से कहा-"श्रीयक ! अब अमात्य पद तुम ॥ ॐ स्वीकार करो।” 卐 श्रीयक-“महाराज ! अपने बड़े भाई स्थूलिभद्र के रहते में अमात्य नहीं बन सकता। वे बारह
वर्ष से गणिका कोशा के यहाँ निवास करते हैं। उन्हें बुलाया जाए, वे ही इस पद के अधिकारी हैं।" म राजा ने श्रीयक की बात स्वीकार कर ली और अपने सेवकों को आदेश दिया कि स्थूलिभद्र को कोशा गणिका के यहाँ से ससम्मान ले आवें, उन्हें अमात्य पद दिया जाएगा।
राज्य-कर्मचारी कोशा गणिका के निवास पर जाकर स्थूलिभद्र से मिले और उन्हें पूरे समाचार बता राजा की आज्ञा सुनाई। स्थूलिभद्र उस समय दरवार में चले आए। राजा ने अमात्य ॐ का आसन दिखाते हुए कहा-“स्थूलिभद्र । तुम्हारे पिता, अमात्य शकटार का निधन हो गया है।
अब यह आसन तुम सँभालो।" ॐ स्थूलिभद्र सोच में डूब गए। पिता के वियोग का दुःख तो था ही उस पर यह सोच भी कि + पिता की मृत्यु का कारण स्वयं वही व्यक्ति था जो अब उसे अमात्य पद प्रदान कर रहा है। ऐसे E अस्थिर चित्त व्यक्ति का विश्वास कैसे किया जा सकता है ? और अन्ततः ऐसा पद तथा धन भी 卐 तो अस्थिर ही है। ऐसी अस्थायी वस्तुओं के पीछे भाग से क्या लाभ?
विचार की श्रृंखला आगे बढती गई और स्थूलिभद्र संसार से विरक्त हो गया। उसने राजा से 卐 क्षमा मांगी और दरबार से निकल आचार्य संभूतिविजय के पास जा श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली।
राजा ने श्रीयक को अमात्य बना दिया।
, मुनि स्थूलिभद्र अपने आचार्य के साथ स्थान-स्थान पर विचरण करते रहे और ज्ञान-साधना F में मग्न हो गए। बहुत समय बाद एक बार फिर आचार्य संभूतिविजय पाटलिपुत्र आए और वहीं । श्री नन्दीसूत्र
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Shri Nandisutra
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