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12. The Pillar--A king required a sharp-witted minister. In order to find such a man he planned a strange test. In a large pond outside the town he got a pillar erected at the centre of the pond. After this he made an announcement that any person who ties a rope around this pillar without getting into the water will be rewarded.
After the announcement, many persons came and tried to find some way to tie a rope to the pillar. Many days passed but still no one was able to accomplish this seemingly impossible task. At last one day a witty individual came and carefully looked at the pillar and all around the pond. He thought a little to find a solution and brought a very long rope and a large spike. First of all he selected a point and hammered the spike in the ground and then tied one end of the rope to the spike. Now he took the coil of rope in his hand and started walking. As he took a step he released a short length of the rope in his hand. This way he walked around the pond and returned at the starting point. The rope had now encircled the pillar. He tied the second end of the rope with the first and proceeded to get his prize from the king.
Impressed by his Autpattıkı Buddhi the king rewarded him and made him a minister.
१३. क्षुल्लक-किसी समय एक नगर में एक संन्यासिनी रहती थी जिसे अपने आचार-विचार पर बड़ा गर्व था। एक दिन वह राजसभा में पहुंची और राजा को सम्बोधित करती हुई बोली"महाराज, इस नगर में ऐसा कोई नहीं है जो मुझे परास्त कर दे।" संन्यासिनी की यह गर्वोक्ति सुन राजा ने अपने राज्य में घोषणा करवा दी कि जो कोई इस संन्यासिनी को पराजित कर देगा उसे पुरस्कार मिलेगा। घोषणा सुनकर कोई भी नागरिक उस संन्यासिनी को पराजित करने तैयार नहीं हुआ। एक क्षुल्लक ने संन्यासिनी का दर्प चूर्ण करने की ठानी और दरवार में आया।
संन्यासिनी उसे देख हँस पड़ी-'यह मुंडित मेरा सामना करेगा !' क्षुल्लक गंभीर बना रहा। वह संन्यासिनी के वचनों से उसका चातुर्य समझ गया और उसी के उपयुक्त चाल चलने की ठानकर बोला-"जो मैं करूँ वही अगर तुम नहीं कर सकी तो तुम्हें हार माननी पडेगी।" गर्वोन्मत्त संन्यासिनी ने मन ही मन सोचा कि ऐसा क्या है जो यह क्षुद्र क्षुल्लक कर सकता है
और मैं नहीं कर सकती। वह बोली-“मुझे स्वीकार है।” क्षुल्लक इसी उत्तर की राह देख रहा था। उसने झट से पास के आसन पर बैठे सभासद को हाथ पकड़कर खड़ा किया और अपना परिधान उतारकर उसे ओढा दिया। फिर पलटकर संन्यासिनी की ओर देखकर बोला-"करो
श्री नन्दीसूत्र
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Shri Nandisutra
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