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धूत ने किसान से कहा-“देखो ! सभी यह कह रहे हैं कि ये सब ककड़ियाँ खाई हुई हैं। म तुम हार गए। अब मुझे अपना लड्डू दो।" साक्षी लोग भी इस तर्क के आगे कुछ न बोल सके।
किसान घबरा गया। उसके समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। उसने धूर्त से पीछा म छुड़ाने को कुछ पैसे देने की चेष्टा की पर वह कहाँ आसानी से मानने वाला था। हारकर किसान # ने उससे थोड़ा समय माँगा कि लड्डू ढूँढ़कर लाना पड़ेगा।
अब वह नगर में गया और किसी ऐसे व्यक्ति को खोजने लगा जो उसे इस संकट से उबार सके। कुछ दूर चलने पर उसे एक अन्य धूर्त मिला और उसने समस्या का हल सुझा दिया। किसान प्रसन्न हो मिठाई की दुकान से एक लड्डु खरीद लाया और नगर के द्वार के बाहर उस
लड्डु को धर दिया। वह स्वयं दो कदम चल द्वार के दूसरी ओर जा खड़ा हुआ और वहाँ से म पुकारने लगा-“हे लड्डू ! चल इस द्वार में आ जा।" म कुछ देर यों पुकारने पर भी जब वह लड्डु अपने स्थान से टस से मस नहीं हुआ तो किसान
आगे बढ़ा और लड्डू उठाकर पहले धूर्त की ओर बढ़ाकर बोला-“लो भाई । यह रहा तुम्हारा
लड्डू। मैंने तुमसे कहा था न कि ऐसा लड्डू दूंगा जो इस द्वार में न आ सके। यह ऐसा ही ढीठ लड्डू 卐 है। अब मैं अपने वचन से मुक्त हुआ।" धूर्त को काटो तो खून नहीं। साक्षियों ने भी किसान के तर्क को माना।
३. वृक्ष-कुछ यात्री विश्राम करने के लिए आम के एक सघन पेड के नीचे रुके। ऊपर देखा तो वह पके आमों से लदा हुआ था और कुछ बंदर भी कूद-फॉद रहे थे। आमों को देख यात्रियों ॐ के मुँह में पानी भर आया। पर एक तो पेड़ ऊँचा और दूसरे उस पर खेल रहे बंदरों का डर,
यात्री समझ नहीं पाए कि कैसे आम तोड़कर खाए जाएँ। सब उपाय खोजने लगे। तभी उनमें से म एक चतुर व्यक्ति को उपाय सूझ आया। उसने कुछ पत्थर उठाए और एक-एक कर पेड पर चढ़े है
बंदरों की ओर फेंकना चालू कर दिया। बंदर चंचल और नकलची होते ही हैं। वे भी पत्थर फेंकने की नकल करते हुए पेड़ से आम तोड़-तोड़कर उस यात्री की ओर फेंकने लगे। सभी ने पेट भरकर आम खाये और आगे बढ़ गए।
४. अंगूठी-राजगृह नगर में एक समय राजा प्रसेनजित का राज्य था। उन्होंने अपने पराक्रम के से समस्त शत्रुओं को पराजित कर दिया था और न्यायप्रियता से अपनी प्रजा का मन मोह लिया है
था। उनके अनेक पुत्र थे किन्तु उनमें से एक श्रेणिक उनको विशेष प्रिय था। कुमार श्रेणिक + आकर्षक व्यक्तित्व, अद्भुत बुद्धि और समस्त राजोचित गुणों से सम्पन्न था। ईर्ष्यावश कोई ॥
उसकी हत्या न कर दे इस आशंका से राजा अपने इस पुत्र पर अपना स्नेह प्रकट नहीं करता
था। यह बात श्रेणिक के युवा मन को बहुत कष्ट देती थी। अपने पिता से उचित स्नेह व सम्मान 卐 न मिलने से दुःखी श्रेणिक एक दिन घर छोड़ने का निश्चय कर बैठा। योजना बनाकर एक दिन है
वह चुपचाप महल से निकला और विदेश-यात्रा के लिए रवाना हो गया। मतिज्ञान ( औत्पत्तिकी बुद्धि)
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Mati.jnana (Autpattiki Buddhi) 555555555555555550
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