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9545555 mins EETELEEEEEEEEO * ३२ : जइ संखेज्जवासउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, किं पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं।
अपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं ? गोयमा ! पज्जत्तग-संखिज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्वंतिय-मणुस्साणं, णो अपज्जत्तगसंखेज्ज-वासााउयकम्मभूमग-गब्भवतिय-मणुस्साणं। म अर्थ-प्रश्न-यदि संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमि में जन्मे गर्भज मनुष्यों को होता
है तो क्या पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है अथवा 9 अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को? के उत्तर-गौतम ! पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही
मनःपर्यवज्ञान होता है अपर्याप्त को नहीं। 4 32. Question-When you say that it (Manah-paryav-jnana)
is 'acquired by the karmabhumi inhabitant placental human y beings with a finite life-span do you mean those who are fully 4 developed or those who are under-developed ? 4 Answer-Gautam ! It is acquired only by the karmabhumi 4 inhabitant placental human beings with a finite life-span who
are fully developed and not by those who are under-developed. ॐ विवेचन-संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य दो प्रकार के होते हैं-पर्याप्त
और अपर्याप्त। पर्याप्त का अर्थ है कर्म प्रकृति के उदय से आवश्यक जीवन क्षमता की पूर्णता + को प्राप्त कर लेना। अपर्याप्त इसका विलोम है अर्थात् क्षमता की पूर्णता को प्राप्त न कर पाना। 5 पर्याप्ति का अर्थ है-जीव की शक्तियों की परिपूर्ण प्राप्ति। ये पर्याप्तियाँ छह प्रकार की होती हैं
(१) आहार-पर्याप्ति-जिस क्षमता से जीव आहार के योग्य पदार्थों को ग्रहण कर उन्हें आवश्यक वर्ण, रस आदि रूप में परिणत कर लेता है उस क्षमता की पूर्णता को आहार-पर्याप्ति ॐ कहते हैं। ज (२) शरीर-पर्याप्ति-जिस क्षमता से रस, रूप आदि में परिणत आहार को अस्थि, माँस,
मज्जा आदि शरीर के आधारभूत तत्त्वों में परिणत किया जाता है उस क्षमता की पूर्णता को ॐ शरीर-पर्याप्ति कहते हैं।
(३) इन्द्रिय-पर्याप्ति-पाँच इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोग निवर्तित योग + शक्ति (यह जीव की नैसर्गिक शक्ति है जो पुद्गलों को निरासक्त रूप से जोड़ती है) द्वारा उन्हें
इन्द्रिय विशेष का पूर्ण रूप प्रदान करने वाली क्षमता को इन्द्रिय-पर्याप्ति कहते हैं। श्री नन्दीसूत्र
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