Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Sthanakvasi
Author(s): Devvachak, Amarmuni, Tarunmuni, Shreechand Surana, Trilok Sharma
Publisher: Padma Prakashan

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Page 221
________________ Winnnnnnnnnnnn 5555555555550 * से होता है। यह वाग्योग द्रव्यश्रुत कहलाता है और जो प्राणी सुनते हैं उनके लिए वही भावश्रुत * बन जाता है। यही गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध श्रुतज्ञान है-यही आगम है। Elaboration-Tirthankar Bhagavan with the help of his Kewal. 4 jnana sees and knows infinite things and infinite modes but not all 41 i come within the scope of expression. Therefore he tells only what is expressible in words. According to the Jain philosophy the inspiring cause for a discourse by a Kewal-jnanı is not his omniscience but vachan yoga which manifests due to fruition of the karma known as 4 Bhasha Paryapti. This vagyoga is also called dravya-shrut and it 卐 becomes bhava-shrut (the thought manifestation of knowledge) for those who listen. This alone is the Shrut-jnana organised or verbalised by the Ganadhars-this is Agam or the canons. परोक्षज्ञान का निरूपण PAROKSH-INANA ४५ : से किं तं परोक्खनाणं? परोक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-आभिणिबोहिअनाणपरोक्खं, सुअनाणपरोक्खं च। जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थ आभिणिबोहियनाणं। दोऽवि एयाइं अण्णमण्णमणुगयाइं तहवि पुण इत्थ आयरिआ नाणत्तं पण्णवयंतिअभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिबोहियनाणं, सुणेइ ति सुअं, मइपुव्वं जेण सुअं, न मई सुअपुव्विआ। अर्थ-प्रश्न-यह परोक्षज्ञान क्या है ? के उत्तर--परोक्षज्ञान दो प्रकार का बताया है--आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान। है जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान है वहाँ पर श्रुतज्ञान भी होता है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान। ये दोनों ही अन्योन्यानुगत हैं अर्थात् एक-दूसरे के साथ रहने वाले हैं। परस्पर अनुगत होने पर भी आचार्य जन इनमें परस्पर भेद का प्रतिपादन करते हैं। जो सामने आये पदार्थों को प्रमाणपूर्वक समझता है वह आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान है है और जो सुना जाता है वह श्रुतज्ञान। श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है। किन्तु मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता। श्री नन्दीसूत्र ( १६२ ) 0555555555550 全听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听F F听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 Shri Nandisutra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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