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अन्धो 'अत्र पसार ना -
कि जमा आदनी स्वय माग देव नहीं मानानी स्थिति में वह जिम मार्ग बनाना है, वह भी उमगे बताए अनमा वरती और न होने में पीट पीने नता है। फलत वह मागका मागटाना पा तो उत्पय पर चलना है, अयमा टूनर नार्ग का अनुसरण करता रहता है। अधे मार्गदर्शक के मार्गदशन में अनुगामी पथिक भी जन्य हो तर बनता है। नी प्रकार परम्परा, मम्प्रदाय-परम्परा और पगचित अनुभव-परम्परा सीना ही अन्धानुकरण मात्र हैं, इनस बालविर परमात्ममाग का निणय नहीं हो नाता । ग्णा देने वाला अपन मत, यया अभिनाया न्यायही हो का जय प्रणा लने पान को प्रेरणा देता है नब माय मरदृष्टि छोड देना है, इसलिए परमान्ममार्ग ने बार में उनकी या उसकी परम्परा की बात भी प्रायः पूर्णतया यथार्थ नहीं मानी जा सकती।
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आगम से भी मार्गनिर्णय कठिन है परमात्मा के मार्ग निर्णय करने में आगमो-धमशास्त्रों का आधार भी साफी वजनदार माना जाता है। जागग में परमात्मपथ का निर्णय कारन में पहली कठिनाई यह है कि यद्यपि आप्तपुरषो के वचन [अहला प्रनु द्वारा भापित अर्थ एव गणधगे द्वारा ग्रथित (मम्पादित) मूत्र को आगम या शान्त्र कहा जाता है परन्तु प्राय आगम या शास्त्र के नाम में प्रचलित आगमो या गास्त्रो में बताई गई बातो का अर्थ करने वाले मिन्न-भिन्न दृष्टि के होते हैं, वे अपने सम्प्रदाय,मत, पय या गच्छ की परम्परा के अनुनार ही प्राय मर्थ करते हैं , उसी अर्य को यथार्य और दूसरी परम्परा द्वारा कथित अयं
१-देखिये 'अन्धो अन्ध पलाय' का मूलसूत्र में निर्देश
अघो अघ पह नितो, दूरमद्धाण गच्छति । आवजे उप्पहं जतू अदुवा पंयागुगामिए। स्वकृतागमूत्र शु १ अ १ उ २ अधा आदमी अन्वे को प्रेरित करके ले जाय तो वह विवक्षित मार्ग में पृथक मार्ग पर ले जाता है अथवा अन्धा प्राणी उत्तथ पर जा बहता है, या अन्य मार्ग का अनुसरण करता है।