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परमात्मपथ का दर्शन
भाष्य
पुरुष-परम्परा अनुभव से मार्गनिर्णय सभव नहीं ___उपर्युक्त गाथा मे पुरुप, परम्परा और अनुभव ये तीन पद है । तीनो का
आशय भी अलग-अलग प्रतीत होता है । पुल्प-परम्परा ने आशय है, वीतराग मार्ग मे अनभिन किमी प्रसिद्ध पुरुप ने कोई परमात्ममार्ग बनाया, उसके पीछे विना मोचे-समझे अन्धश्रद्धावश चले आते हुए मार्ग के ज्ञान को परमात्ममार्ग: मानना । दूसरे परम्परापद से आशय है.--शास्त्रो मे न लिखी- गई वातो को एक के बाद एक गुरु-शिष्य-परम्परा या सन्प्रदाय-परम्परा द्वारा कुरुढिवश प्रचलित मार्ग को परमात्ममार्ग मानना । तथा अनुभव का आशय हैपचेन्द्रियो मे विषयासक्त पुरुप के अनुभव के द्वारा परमात्ममार्ग का निर्णय करना । यानी अपनी गलत समझ से उत्पन्न हुए अनुभव से परमात्म-मार्ग का निर्णय करना।
श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि पूर्वोक्त तीनो उपाय अन्धो की टोली मे एक अन्धे के पीछे दूसरे अन्वे के भागने की तरह है। इनसे वीतराग परमात्मा के असली मार्ग का पता नहीं लगता।
, वीतरागमार्ग मे अनभिज्ञ किमी प्रसिद्ध पुरुष ने वीतरागमार्ग के नाम से कोई बात चलाई। उसके पीछे आने वाली भीड उस पर कोई पूर्वापर विचार किये विना अन्धश्रद्धावश उसे यथार्थ परमात्ममार्ग के नाम से पकड लेती हैं। अत ऐसे प्रसिद्ध पुरुप की परम्परा से परमात्ममार्ग का निर्णय करना कोरा, अन्धानुकरण हो जाता है ।
इसी प्रकार शास्त्र मे कई बाते लिखी नहीं होती , कई बाते पूर्वापरविरुद्ध या वीतरागता के सिद्धान्त से असगत भी मिलती हैं, परन्तु गुरुधारणा या सम्प्रदायं-परम्परा के नाम से वे परमात्म-मार्ग के रूप मे चलाई जाती है, मगर ऐसी स्ढ सम्प्रदायपरम्परा पर से भी परमात्ममार्ग का निर्णय करना खतरे से खाली नहीं है, क्योकि ऐमा करना भी लकीर के फकीर बन कर अन्धाधुन्ध चलना है।
' ' ____ अपना या बहुत-से लोगो का पराश्रित अनुभव भी गलत हो सकता है, इसलिए उम पर से भी परमात्म-मार्ग का निर्णय करना गतानुगतिकता को बढावा देना है।