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[ ५ ] भुक्ति से मुक्ति की ओर
मानव के सामने जीवन के मुख्य दो लक्ष्य हैं, एक भुक्ति और दूसरा मुक्ति । भुक्ति का अर्थ भोग या भोग की सामग्री में तल्लीन होना है तो मुक्ति का अर्थ मोक्ष है जिसमें कि मनुष्य बारबार जन्म ग्रहण करने से छुटकारा पा ले । इन दोनों में से उसका साध्य क्या होना चाहिए, इसके लिए विवेकशील बुद्धि ही निर्णायक है । कहा भी है- "बुद्धेः फलं तत्व-विचारणं च" याने तत्वातत्व का निर्णय करना ही बुद्धि का फल है ।
सारी दुनिया भुक्ति या भोग के पीछे छटपटा रही है, क्योंकि परिग्रह की साधना में किए गए समस्त कार्य भुक्ति के अन्तर्गत आते हैं । मनुष्य यदि भुक्ति को ही जीवन का लक्ष्य बनाले तो पशु और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं रहता । मनुष्य को छोड़ कर अन्य प्राणियों के सन्मुख मुक्ति का लक्ष्य ही नहीं है । वे तो भुक्ति को ही सब कुछ समझते हैं । उनके भोग में किसी की रोकथाम नहीं, भक्ष्य- अभक्ष्य, गम्य- अगम्य का कोई प्रतिरोध नहीं । चलता हुआ भी पशु किसी वस्तु में मुंह डाल देता है । रातदिन मधुकोष में बैठने वाली मक्खी और कमल के कोमल सुमनों में सोने वाला भ्रमर भोग में किस मानव से कम है । इस प्रकार भोग भोगने में मनुष्य से बढ़ा हुआ पशु आदरणीय नहीं कहलाता और मनुष्य की पूजा होती है । इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य की कोई खास विशेषता है जो उसे पूज्य बनाती है ।
मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। वह हर वस्तु की गहरी गवेषणा के बाद ही कुछ निर्णय करता है । मनुष्य का भोग राज और समाज के नियमों से नियन्त्रित रहता है । उसके भोग में कुटुम्ब की भी बाधा रहती है और भी कतिपय मर्यादाएं होती हैं जिन्हें मनुष्य सहसा लांघ नहीं सकता । वह भुक्ति पर विजय पाकर मुक्ति की साधना करना जानता है और जानता है पशुता और मनुष्यता के विभाजक तत्व धर्म की विशेषता को । कहा भी है