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आध्यात्मिक आलोक राजा हो तो पांच राज्य-चिन्हों को छोड़ना धर्म-सभा का नियम है : जैसे १-छत्र २चामर ३मुकुट ४-मौजड़ी और खड्ग तथा फूलमाला । यह सभी त्याग धर्म के प्रति आदरभाव प्रदर्शित करने वाला है।
विवेक से काम लेने पर राजा से लेकर रंक तक सभी धर्म-साधना कर सकते हैं और निश्चित रूप से सबको करना भी चाहिए । क्योंकि संसार की सभी वस्तु नाशवान हैं, कहा भी है -
धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, भार्या गृहद्वारि जनः श्मशाने ।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ।।
यहां से प्रयाण करने पर कोई भी भौतिक वस्तु साथ नहीं जाती, परलोक मार्ग में जीव को कर्म के साथ अकेले ही जाना है । केवल धर्म ही उसके साथ रहने वाला है । परभव के लिए संबलरूप धर्म को अपनाये बिना यात्रा दुःखद रहेगी। संत एवं शास्त्र का काम तो तत्व बता देना है, पर साधक में श्रद्धा, विश्वास एवं रुचि होने पर ही ग्रहण किया जा सकता है , इनके बिना न तो साधना में मन लगेगा और न वास्तविक आनन्द ही आएगा । केवल आदेश पालन से व्रत-साधना उतनी श्रेयस्कर नहीं होती, जितनी ज्ञान-युक्त रुचि से की गई । रुचि का कारण कभी-कभी आज्ञा भी बन जाती है । किन्तु इस प्रकार की आज्ञा-रुचि जब तक ज्ञान से समर्थित न हो, स्थायी नहीं होती।
आनन्द को प्रभु की वीतरागता पर श्रद्धा थी वह उनके वचन को एकान्त हितकारी मानता था, अतः अन्तर में रुचि जगी कि कुछ साधना करूं । उसने प्रभु की संगति में अलौकिक ज्ञान प्राप्त किया और अपने जीवन को धन्य बनाया ।
आनन्द की तरह मुनि शय्यंभव भट्ट के उपदेश से यशोभद्र को भी साधना की रुचि जगी और वे साधु बन गये और शय्यंभव भट्ट के स्वर्गवास के बाद आप युग प्रधान आचार्य बने एवं शासन-सूत्र का संचालन करने लगे । आचार्य यशोभद्र ने धर्म-शासन को सुरुचिपूर्ण ढंग से चलाया और जगह-जगह भ्रमण कर सहस्रों नर-नारियों को अपनी संगति का लाभ दिया । बड़े-बड़े विद्वान उनसे ज्ञान ग्रहण कर जीवन को सफल बनाते थे । यशोभद्र में त्याग और ज्ञान का सुन्दर सामन्जस्य था ।
त्याग के साथ ज्ञान का बल ही साधक को ऊंचा उठा सकता है । जैसे सुक्षेत्र में पड़ा हुआ बीज, जल-संयोग से अंकुरित होकर फलित होता है और बिना जल के सूख जाता है, वैसे त्याग और ज्ञान भी बिना मिले सफल नहीं होते । जिस साधक में पेय, अपेय, भक्ष्य-अभक्ष्य, और जीव-अजीव का ज्ञान न हो वह साधक कैसे