Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003661/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस भाग १ प्रवचनकार 'आचार्यदेव श्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत संपतराज चश्वकल्याण प्रवचनकार व साहित्य सर्जक आचार्य श्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी. श्रावण शुक्ला १२ वि. सं. १९८९ के दिन पुदगाम- मेहसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रुप में जन्मे हुए मुलचन्दभाई, जूही की कली की भांति खिलती खुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि. सं. २००७. महा वद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र में अपने परम श्रद्धेय सुप्रसिद्ध जैनाचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भानुविजयजी (वर्तमान में आ. श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी) के शिष्य बनते है। मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी के रूप में दीक्षा-जीवन के प्रारंभ से ही अध्ययन-अध्यापन की.सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी। ४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मीलस्टोन' पास करती हुई वह यात्रा सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई। 'महापंथ नो यात्री से २० साल की उम्र में शुरू हुई लेखनयात्रा आज भी अथक एवं अनवरत चल रही है। तरह तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान विवेचना, दीर्घकथाएं, लघु कथाएं काव्य गीत पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन, यों साहित्य सर्जन का सफर दिन व दिन भरापूरा बन रहा है। प्रेमभरा हँसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाह्य व्यक्तित्व एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय वैसी प्रवृत्तियां उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। संघ-शासन विशेष करके युवा पीढी, तरुण पीढी एव शिशु-संसार के जीवन-निर्माण की प्रक्रिया में उन्हें रुचि है... संतुष्टि है। प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार-शिबिर, जाफ-ध्यान अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्णु व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्वल बना है। मुनिश्री जानने योग्य व्यक्तित्त एवं महसूसने योग्य अस्तित्व से सराबोर है। कोल्हापूर में ता. ४-५-८७ के दिन उनके गुरुदेव ने उन्हें आचार्यपद प्रदान किया तब से वे आचार्यश्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज के & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तसुधारस भाग १ ( प्रवचन १ से २४) अट्ठारहवीं शताब्दी के समर्थ साहित्यसर्जक महोपाध्याय श्री विनयविजयजी गणि द्वारा संस्कृत भाषा में विरचित गेय काव्यग्रंथ 'शान्तसुधारस पर आधारित प्रवचन * प्रवचनकार * आचार्यदेव श्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - : संकलन / संपादन : भद्रबाहुविजय । : प्रकाशक : श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट कंबोईनगर के पास, मेहसाना - ३८४ ००२ (गुजरात) : मूल्य : ५० रुपये : अक्षरांकन : मेक ग्राफिक्स, अहमदाबाद : मुद्रक : चन्द्रिका प्रिन्टरी, अहमदाबाद - : मुखपृष्ठ मुद्रण : मेघार्ट कलर क्राफ्स, मुंबई Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय __ पिछले ३५ बरसों से अनवरत गुजराती – हिन्दी - अंग्रेजी साहित्य का प्रकाशन करती संस्था श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट का नाम, आचार्यदेवश्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज साहब के साहित्य सर्जन के साथ-साथ काफी लोकप्रिय बनता चला है । दीर्घ कथाएँ, कथाएँ, प्रवचन, पत्रसाहित्य, तत्त्वज्ञान-विवेचना, बच्चों के लिए विविध साहित्य, गीत-काव्य साहित्य इत्यादि एक के बाद एक समृद्ध प्रकाशन जनसमूह में पहुंचे हैं... समादर पाये हैं... और लोग उसे चाव से पढ़ते हमारी सहयोगी संस्था अरिहंत प्रकाशन के माध्यम से प्रति माह अरिहंत (हिन्दी मासिक पत्र) के द्वारा पूज्य आचार्यदेव का नित्य नूतन साहित्य विशाल पाठक-वर्ग तक पहुँचता है ! वह सारा साहित्य पुस्तक रूप में संकलित होकर ट्रस्ट के द्वारा प्रकाशित होता है और आजीवन सदस्यों को व अन्य पाठकों तक नियमित पहुँचता है ! __पूज्य गुरुदेव का प्रवचन साहित्य, सविशेष तौर पर साधु-साध्वीजी म. में अत्यंत लोकप्रिय हुआ है । शान्तसुधारसं ग्रंथ पर पूज्य गुरुदेव ने जो प्रवचन किये-लिखे... वे आज शब्दस्थ होकर पुस्तक रूप में आप तक पहुँच रहे हैं ।। इन प्रवचनों का पुनः पुनः स्वाध्याय अवश्यमेव आपके चित्त को तुष्टि-संतुष्टि एवं समता प्रदान करेगा। आधि-व्याधि और उपाधि के जंगल से इस जगत में रहकर भी समत्व की साधना करनेवालों को योगी बनने में यह शान्तसुधारस अत्यंत उपयोगी होगा । ट्रस्टीगण श्री वि.क. प्र. ट्रस्ट Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी ओर से - शान्तसुधारस ! महोपाध्याय श्री विनयविजयजी महाराज की अद्भुत और अनुपम रचना ! इस ग्रंथ के प्रति मेरा खिंचाव, मेरे दीक्षा-जीवन के आरंभिक बरसों से बना रहा है ! पूरा ग्रंथ कंठस्थ करके उसे गाने में – गुनगुनाने में निजानंद की अनुभूति का हल्का-सा अहसास पाया है... देखा है... महसूस किया है ! __ अनेक बार इस ग्रंथ की भावनाओं पर... गाथाओं पर प्रवचन किये हैं ! बड़ेबड़े विशाल जनसमूह के बीच और जिज्ञासुओं के छोटे वर्तुल में भी ! इस ग्रंथ को गाने में... इस पर प्रवचन करने में विशेष आग्रहभरा योगदान रहा है वयोवृद्ध स्वर्गीय गांधीवादी श्री शांतिभाई साठंबाकर (अहमदाबाद) का ! सन् १९६६ के मार्च-अप्रैल महीने में हुए उनके प्रथम परिचय से लेकर सन् १९९२ में उनके पार्थिव शरीर का निधन होने तक के बरसों में जब जब भी शांतिभाई से मिलना हुआ है... तब-तब शान्तसुधारस' का गान... उसका रसपान... उस पर विवेचन... उसमें छुपे हुए रहस्यों का, जीवनमूल्यों का प्रगटीकरण दिल खोलकर किया है... करवाया है ! शांतिभाई तो जैसे कि शान्तसुधारस के आशिक थे । मस्त गायक थे... और बड़े प्रशंसक थे। उनके प्राणों के प्रत्येक स्पंदन में शांतसुधारस भलीभाँति रचापचा होगा... इसीलिए तो उनकी जीवन-संध्या की क्षितिज पर शांतसुधारस और विशेष रूप से माध्यस्थ्य भावना के रंग खिल उठे थे । उनके भतीजे और ख्यातिप्राप्त डॉ. वाडीभाई शाह (भरुचवाले) भी शांतसुधारस के तृषातुर अभिलाषक है... उनके लिए भी मैंने इन भावनाओं को गाया है। इस शान्तसुधारस ग्रंथ को - इसकी भावनाओं को, इसके श्लोकों को शास्त्रीय रागों में श्रुतिमधुर ढंग से स्वरबद्ध करने के और स्वरांकित शांतसुधारस को Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसमूह के बीच प्रवाहित करने का श्रेय घाटकोपर - मुम्बई के संगोई परिवार के केतन - कौशिक - कल्पना इन तीनों भाई-बहन की त्रिवेणी को जाता है। उसमें भी गोवालिया टेन्क जैन संघ में सन् १९९१ का जो मेरा चातुर्मास हुआ... और चातुर्मास के दौरान १६ दिवसीय शान्तसुधारस गान-महोत्सव के दौरान जो प्रवचन हुए... वे प्रवचन सुश्री कल्पना संगोई ने अक्षरांकित कर लिये थे... इन प्रस्तुत प्रवचनों को करने में – लिखने में वह सब प्रबल निमित्त बन गया। __ मद्रास की सुश्री पूनम एस. मेहता ने मेरी मनोभावना और इच्छा के मुताबिक अपने अंग्रेजीभाषी शोधप्रबंध के विषय के रूप में शान्तसुधारस' ग्रंथ की पसंदगी की... कड़ी मेहनत... धैर्य और लगन के साथ अध्ययन-मनन करके मेरे मार्गदर्शन तले ही उसने अपना शोधप्रबंध-महानिबंध लिखा और मद्रास विश्वविद्यालय से दिसंबर १९९५ में यशस्वी रूप से Ph.D. की पदवी भी प्राप्त की। शान्तसुधारस को इस तरह विविध रूप में प्रचारित-प्रसारित करने में मुझे जो भीतरी तृप्ति... आंतरिक आनंद का अहसास प्राप्त हुआ है, लगता है वह उपाध्यायश्री विनयविजयजी महाराज के प्रति किसी जन्मजन्मांतर का ऋणानबंध ही होगा ! १६ भावनाओं पर कुछ ७२ प्रवचन लिखने का इरादा है । उसमें से २४ प्रवचनों के संकलन रूप में प्रथम भाग प्रकाशित हो रहा है । अन्य प्रवचन तैयार होने पर यथा समय प्रकाशित होंगे। एक बात है... मेरी लेखन-सर्जनयात्रा अब पहले जैसी अस्खलित - अनवरत नहीं रही है... शरीर का कमजोर पड़ रहा स्वास्थ्य अब सातत्यभरा सहयोग देने से मुकर रहा है । तब ज्होन आदम्स' नामक एक विदेशी सर्जक ने अपने आप के बारे में की हुई नुक्ताचीनी (एक मित्र ने तबीयत का हाल पूछा तो उसके जवाब में ज्होन आदम्स ने लिखा था) याद आ रही है । हवा के सख्त थपेड़ों से घिरे हुए, तूफान से टूटे-फटे एक कमजोर.. जर्जरित और गिरने के बहाने खड़े रहे हुए मकान में फिलहाल मैं रहता हूँ और मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मकानमालिक को अब इस घर को दुरस्त करवाने में ज्यादा रुचि नहीं है... न उसका इरादा है ! हालाँकि जहाँ-जब-जितना शरीर साथ दे... तो मेरी इच्छा है सर्जनयात्रा चलती रहे... सर्जन की यात्रा में ही विसर्जन वह तो प्रभु महावीर के निर्वाण Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्मृति का परिचायक है ! __ यात्रा तो अथक... बेरोकटोक... सदैव चलती रहती है... रास्ता बदलता है... कभी मुकाम बदलता है... साथी बदलते हैं... पर मंजिल तो वही रहती है... और यात्रा तो चलती ही है ! __ मेरी यह सर्जनयात्रा तुम्हारी निजी आंतरिक यात्रा में तुम्हें सहारा दे... इन भावनाओं का सर्जन अहंभाव का विसर्जन करे... आत्मभाव... समताभाव का नवसर्जन करे... यही परमात्मा के चरणों में अभ्यर्थना । ६५-ब, श्यामल रॉ हाऊस, स्कीम नं. ३, सेटेलाइट, अहमदाबाद-३८० ०१५ (३-८-१९९६) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतसुधारस ! संतप्त हृदय के लिए दिलासा, निराश मन को आशा... अशांत आत्मा को आराम, थके हारे प्राणी को विश्राम...! सत्रहवीं सदी के अंत में और अट्ठारहवीं सदी के आरंभ में गुजरात की गरिमामयी धरती की गोद में पैदा हुए... पले हुए, ज्ञान-ध्यान एवं परमात्मभक्ति की धूनी रमानेवाले उपाध्यायश्री विनयविजयजी महाराज, सुप्रसिद्ध महोपाध्यायश्री यशोविजयजी वाचक के समकालीन - सहाध्यायी थे। श्री विनयविजयजी की प्रकांड और प्रचंड बुद्धि प्रतिभा का परिचय उनके द्वारा सर्जित लोकप्रकाश जैसे दीर्घकाय संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से हो सकता है... जबकि भक्ति के भावों की नमी उनके द्वारा रचित स्तवन सिद्धारथ ना रे नंदन विनवू, के शब्दों में छलकती है और वैराग्य-सभर अध्यात्म का प्रकाश कहाँ करूँ मंदिर, कहाँ करूँ दमरा' शीर्षक के पद में झलकता है । तो 'शान्तसुधारस सा अद्भुत, अनूठा गेय काव्य उनके बाह्य-भीतरी विरक्त व्यक्तित्व की बहुआयामी विशेषताओं का खजाना बन कर खुलता है... खिलता है । यह उनकी सिरमोर रचना है । १६ भावनाओं के भीतरी विश्व को चिंतन-मनन और मंथन का रूप देकर शांतसुधारस वैसा नाम उपाध्यायजी ने दिया है । १६ भावनाओं के सोलह प्रकरण है । उसमें छंदोबद्ध श्लोक एवं सोलह गीतिकाएँ - गेय काव्यों को समाविष्ट किया गया है । विरक्त जीवन के रसभरपूर गायक श्री विनयविजयजी ने इस ग्रंथ में शुभ भावों का वैभव भर दिया है। श्रृंगार रस - मिलन - विरह, रुठना - मनाना... इन भावों को शब्दों में गुंफित करना या काव्यों में कैद करना कोई बहुत मुश्किल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है... किन्तु भरपूर वैराग्य की बातों को सुहावने - लुभावने शब्दों में सजा कर रखना... यह बड़ा ही मुश्किल कार्य है । उपाध्यायजी ने शानदार ढंग से बेजान शब्दों में जान डालकर रचना की है ! पूज्य गुरुदेव आचार्य भगवंत श्री विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी महाराज का यह प्रिय स्वाध्याय ग्रंथ है । अनेक बार उन्होंने अपने रसमधुर स्वर में इन भावनाओं को गाया है, विवेचित की है, और इस तरह सैंकड़ों संतप्त मन को सांत्वना के किनारे पर ले गये है । उनकी बरसों की महत्त्वाकांक्षा, एक पिछले प्रहर का स्वप्न मंत्रमुग्ध कर दे... उस रूप से आकार लेकर साकार हुआ है । और वह श्रेय उनके मानस शिष्य केतन संगोई, कौशिक संगोई एवं कल्पना संगोई की भाई-बहन की त्रिवेणी के हिस्से में जाता है । महीनों की सतत मेहनत, शास्त्रीय रागों का गुंफन, सरस स्वरनियोजन, अनवरत रियाज, ये सारे मील के पत्थर बीता कर वह स्वरयात्रा शांतसुधारस के रूप प्रस्तुत हो चुकी है । में कभी मौका मिले तो उस स्वरयात्रा में शामिल होना । फिलहाल तो प्रस्तुत शांतसुधारस काव्य को गाना.... पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों को पढ़ना... उस पर चिंतन करना... शांतसुधारस की मस्ती में डूबे हुए श्री विनयविजयजी के शब्दों के नक्शे में तुम अपना विरागमार्ग खोजने की कोशिश करना । शांत सुधा के सागर किनारे मुझे बनानी मिनारें 'प्रियदर्शन' वे महल है प्यारे, नजर न आये किनारें !' भ.बा.वि. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C 'शांतसुधारस' महाकाव्यके सर्जक महोपाध्याय श्री विनय विजयजी म. का स्मारक : Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - rms » » » महोपाध्यायश्री विनयविजयजी विरचित श्री शान्तसुधारस काव्य भावना श्लोक संख्या गेय गाथा प्रस्तावना अनित्य भावना अशरण भावना संसार भावना एकत्व भावना अन्यत्व भावना अशुचि भावना आश्रव भावना संवर भावना ९. निर्जरा भावना १०. धर्मप्रभाव भावना लोकस्वरूप भावना बोधिदुर्लभ भावना मैत्र्यादिभाव प्रस्तावना १३. मैत्री भावना प्रमोद भावना १५. करुणा भावना १६. माध्यस्थ्य भावना उपसंहार - प्रशस्ति 39 9 9 9 ११. . 9 9 १०६ श्लोक - १०६ गेय गाथा- १२८ २३४ गाथामय श्री शांतसुधारस काव्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म कालधर्म माता का नाम पिता का नाम गुरु का नाम श्रद्धेय आचार्यप्रवर क्रम महोपाध्यायश्री विनयविजयजी वि. सं. १६६१ के आसपास : : वि. सं. १७३८ में रांदेर (सूरत) । राजेश्री : तेजपाल : उपाध्याय श्री कीर्तिविजयजी : श्री विजयप्रभसूरिजी (भगवान महावीर की ६रवीं पाट पर आये हुए आचार्यश्री) सर्जनयात्रा श्लोक संख्या ग्रंथ का नाम १) अध्यात्मगीता २ अर्हन्नमस्कार स्तोत्र : ३ आदिजिन विनती ४ आनंद लेख ५ आयंबिल की सज्झाय ६ इन्दुदूत काव्य ७ इरियावहीं सज्झाय ८। उपधान स्तवन ९ कल्पसूत्र सुबोधिका टीका १० गुणस्थान गर्भित वीरस्तवन ११ जिणचेइयथवण १२ जिनचोवीशी १३ जिनपूजन चैत्यवंदन १४ जिन सहस्त्रनाम १५ धर्मनाथ स्तवना १६ | नयकर्णिका १७ नेमनाथ बारमासी १८ नेमिनाथ भ्रमर गीता १९ प्रत्याख्यान विचार भाषा गुजराती संस्कृत ५७ गाथा गुजराती २५२ पद्य ११ गाथा १३१ २६ गाथा २४ गाथा ४१५० ३३० ७३ २७ १२० १२ १४९ १३८ २३ २७ ३९ २९ संस्कृत गुजराती संस्कृत गुजराती गुजराती संस्कृत गुजराती प्राकृत गुजराती गुजराती संस्कृत गुजराती संस्कृत गुजराती गुजराती गुजराती विषय अध्यात्म परमात्म स्तवना परमात्म स्तवना विज्ञप्ति - तप महत्त्व - पत्र संदेशमय विवरण क्रिया विवरण क्रिया विवरण कल्पसूत्र पर विस्तृत टीका आत्मविकासका विवरण स्तवना स्तवना क्रिया विवरण परमात्म प्रभाव रूपकात्मक काव्य जैन न्याय (Logic) बारह महीना विवरण फागु काव्य पच्चक्खाण विचार Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ग्रंथका नाम २० | पांच समवाय स्तवन २१ पट्टावली सज्झाय २२ | पुण्यप्रकाश स्तवन २३ भगवती सूत्र सज्झाय २४ | मरुदेवा माता सज्झाय २५ लोकप्रकाश | विजय देवसूरि लेख २७ विजय देवसूरि विज्ञप्ति २८ विजय देवसूरि विज्ञप्ति २९ विनयविलास ३० विहरमान जिन वीशी ३१ वृषभतीर्थपति स्तवन ३२ शांतसुधारस श्लोक संख्या भाषा | विषय गुजराती | पंचकारण विवरण गुजराती | श्रमण परंपरा गुजराती | आत्म आराधना गुजराती सूत्र स्तवना गुजराती २०६२१ संस्कृत तत्त्वज्ञान गाथा ३४ गाथा | गुजराती विज्ञप्तिपत्र ८२ पद्य मिश्र संस्कृत विज्ञप्तिपत्र __- | गुजराती विज्ञप्तिपत्र ३७ पद्य मिश्र हिन्दी | अध्यात्म (१७० गाथा) | ११६ गाथा गुजराती |स्तवना ६ गाथा संस्कृत |स्तवना २३४ पद्य | संस्कृत १६ भावना (३५० गाथा) विवरण गुजराती ७५० गाथा गुजराती कथा जीवनचरित्र संस्कृत वादविवाद ४३ गाथा गुजराती क्रिया विवरण ३ गाथा गुजराती स्तवना १४ गाथा इतिहास विवरण (१२७ पंक्ति) ३४००० संस्कृत संस्कृत स्तवना ३३ | शाश्वत जिन भास ३४ श्रीपाल राजा रास ३५ षट् त्रिंशज्जल्प संग्रह ३६ षडावश्यक स्तवन ३७ सीमंधर चैत्यवंदन ३८ सूरत चैत्य परिपाटी गुजराती व्याकरण ३९ हैमप्रकाश ४० हैम लघु प्रक्रिया २५०० व्याकरण 'श्रीपाल रास की रचना के दौरान उपाध्याय श्री विनयविजयजी का स्वर्गवास हुआ तत्पश्चात् उनके समकालीन उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने शेष ५०२ गाथा की रचना कर के यह रास पूर्ण किया । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीमत २००-०० २००-०० २००-०० ५०-०० ५०-०० ३०-०० ३०-०० ३०-०० २५-०० २०-०० २०-०० १५-०० १०-०० हिन्दी प्रकाशन सूचि १. जैन रामायण १-२-३ २. श्रावक जीवन भाग १/२/३/४ धम्म सरणं पवज्जामि (भाग-१-२-३-४) ४. प्रशमरति भाग १-२ ५. प्रीत किये दुःख होय ज्ञानसार (संपूर्ण) ७. मारग साचा कौन बतावे ८. संसार सागर है पर्व-प्रवचनमाला १०. यही है जिन्दगी ११. जिन्दगी इम्तिहान लेती है १२. मायावी रानी १३. विज्ञान सेट (३ पुस्तके) १४. राजकुमार श्रेणिक १५. कथादीप १६. न म्रियते जिनदर्शन १८. फलपत्ती १९. छोटी सी बात मांगलिक २१. राग-विराग २२. सुवास सेट (३ पुस्तकें) २३. हिसाब किताब २४. प्रार्थना २५. शोध प्रतिशोध(समरादित्य महाकाथा-१) २६. द्वेष अद्वेष (समरादित्य महाकाथा-२) २७. विश्वासघात (समरादित्य महाकाथा-३) २८. वैर-विकार (समरादित्य महाकाथा-४) २९. व्रतकथा ३०. शांत-सुधारस (सानुवाद) ३१. शांत-सुधारस (प्रवचन) ३२. चिंतन की चांदनी ३३. समाधान ३४. पीओ अनुभवरस प्याला (शाम्यशतक) 1111111111111111111111111111111 २०. मांग २-०० ३०-०० ३०-०० ५०-०० ० १५-०० १२-०० ५०-०० ३०-०० ३०-०० २०-०० Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १ : संकलना : * प्रस्तावना । * यह भव-वन है। * अविरत आश्रव-जलवर्षा । * भव-वन में सर्वत्र कर्मों की बेल । * भव-वन में सर्वत्र मोहान्धकार । * तीर्थंकरों की वाणी * तीर्थंकरों की दिव्य करुणा जिनवाणी पर विश्वास । * जिनवचन रक्षा करते हैं । * जिनवाणी ने आत्महत्या से बचाया । * सगर चक्रवर्ती * डाकू नरवीर * जिनवाणी : कुमारपाल Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीरन्धे भवकानने परिगलत् पञ्चासवाम्भोधरे, नानाकर्म-लतावितानगहने मोहान्धकारोद्धरे । भान्तानामिह देहिनां हितकृते कारुण्यपुण्यात्मभिस्तीर्थेशैः प्रथितास्सुधारसकिरो रम्या गिरः पान्तु वः ॥ १ ॥ जिन महापुरुष का जीवनकाल वि. सं. १६६१ से १७३८ का था, जिनकी जननी का नाम राजेश्री था और पिता का नाम तेजपाल था, वे उपाध्यायश्री विनयविजयजी की यह अद्भुत रचना है शान्तसुधारस । यह संस्कृत महाकाव्य है, गेय काव्य है । इस महाकाव्य के माध्यम से उपाध्यायजी की प्रकांड और प्रचंड प्रज्ञा - प्रतिभा का परिचय प्राप्त होता है । उनके आन्तर-बाह्य विरक्त व्यक्तित्व की विशेषताएँ उभरी हुई प्रतीत होती हैं । उन्होंने अनेक संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषाओं में ग्रंथों की रचनाएँ की हैं, उन सभी में यह रचना शान्तसुधारस' मुझे श्रेष्ठ रचना लगी है । हालाँकि लोकप्रकाश', हैम लघुप्रक्रिया, नयकर्णिका, इत्यादि अनेक ग्रंथ, उनकी अपूर्व विद्वत्ता का परिचय देते हैं । श्रीपाल रास भी उनकी लोकभोग्य सरस रचना है। हम आज उनके शान्तसुधारस महाकाव्य पर प्रवचनमाला का मंगल प्रारंभ कर रहे हैं । यह ग्रंथरचना उनकी श्रेष्ठ रचना है । १६ भावनाओं के ऊपर उपाध्यायजी ने गहरा चिंतन-मनन-मंथन कर भावनाएँ भावपूर्ण शैली में छंदोबद्ध श्लोकों में एवं गेय काव्यों में प्रवाहित की है । यह सामान्य रचना नहीं है, यह असाधारण रचना है । २५०० वर्ष के संस्कृत-प्राकृत भाषा के इतिहास में ऐसी वैराग्यभरपूर एवं अध्यात्मपूर्ण महाकाव्य की रचना यह एक ही है, अद्वितीय है । मेरा तो कई वर्षों से यह प्रिय स्वाध्याय-ग्रंथ है । अनेक बार मैंने एकान्त में और प्रवचनों में रसप्रचुर स्वर में इन भावनाओं को गाई हैं, उन पर विवेचना की है । अनेक संतप्त एवं शोकाकुल जीवों को, मनुष्यों को शान्ति, समता और प्रसन्नता मिली है । आप लोग भी इस प्रवचनमाला के एक-एक प्रवचन को एकाग्र मन से सुनोगें तो अनुभव करोगे शान्ति का और प्रसन्नता का, समता का और समाधि का। इस ग्रंथ का नाम ही शान्तसधारस' है । ग्रंथकार ने ही स्वयं यह नाम दिया है । शान्तरस की गंगा बह रही है इस ग्रंथ में । वास्तव में इस महाकाव्य में शान्तरस का मधुर और शीतल प्रवाह ही बह रहा है । आवश्यकता है इस महाप्रवाह में स्नान करने की ! सर्वांगीण स्नान करने की । कई घंटों तक इस महाप्रवाह में पड़े रहो। जिस प्रकार प्रचंड ताप के दिनों में शान्त सुधारस : भाग १ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग तालाब में, नदी में, सरोवर में...Bath (बाथ) में पड़े रहते हैं न ? ताप से बचते हैं, शीतलता पाते हैं । वैसे संतप्त मन को शान्ति प्राप्त करनी है तो शान्तसुधारस' के बाथ' में स्नान करने प्रतिदिन आया करो। यह भव-वन है: __ उपाध्यायजी ने ग्रंथ का मंगलाचरण करते हुए तीर्थंकरों की रम्य, करुणासभर और हितकारी वाणी की स्तवना की है। हम भी जिनवाणी को प्रणाम कर उनकी स्तवना करते हैं । चूँकि जिनवाणी ही संसार की, भव की भ्रमणा को मिटा सकती है । जीवात्मा की सबसे बड़ी भ्रमणा है भव-संसार को नगर मानने की, स्वर्ग मानने की... संदर शहर या ग्राम मानने की । भ्रमणा यानी असत् ! भ्रमणा यानी झूठ! जो नहीं है वह दिखता है – यह होती है भ्रमणा । रेगिस्तान के प्रदेश में पानी नहीं होता है, फिर भी मृग को पानी दिखता है, मनुष्य को पानी दिखता है, यह भ्रमणा होती है । नहीं होता है पानी, फिर भी दिखायी देता है, वह पानी की भ्रमणा होती है । ___ संसार नगर नहीं है, वन है, भीषण वन है । यह वास्तविकता है । सत्य है। संसार में स्वर्ग के, नगर के, शहर के दर्शन होते हैं, यह भ्रमणा है, असत्य है ! सर्वप्रथम भ्रमणा से मुक्त होना आवश्यक है । वास्तविकता का स्वीकार करना आवश्यक है । आप कहोगे : हमें आँखों से नगर...शहर...गाँव दिखता है... प्रत्यक्ष दिखता है, फिर भ्रमणा कैसे माने ? अपनी आँखों से ही रेगिस्तानी प्रदेश में पानी दिखता है न ? वह भ्रमणा होती है न ? अपनी आँखों से ही श्वेत वस्तु पीली दिखायी देती है न ? वह भ्रमणा होती है न ? आँखों पर भरोसा मत करो । जिनवचन पर भरोसा करना होगा । जगन्मिथ्या' जो जगत् दिखता है, वह मिथ्या है, असत् है । वह स्वर्ग नहीं है, नगर, गाँव नहीं है... जंगल है, कानन है, वन है। ___ एकान्त में इस बात पर सोचना ! आँखें मूंद कर और मनःचक्षु खोल कर सोचना । संसार वन दिखेगा । संसार घोर जंगल दिखेगा ! यह कोई कवि की कल्पना नहीं है, कोई दुःखी मनुष्य के उद्गगार नहीं हैं, यह पूर्ण ज्ञानी, करुणासागर तीर्थंकर परमात्मा के वचन हैं । इसलिए यह बात विश्वसनीय है, श्रद्धागम्य है । ज्ञान के आलोक में दिखायी देनेवाला सत्य है । अविरत आश्रव-जलवर्षा : इस भव-वन में निरंतर वर्षा हो रही है । आश्रव' - बादलों से वर्षा हो प्रस्तावना Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रही है । कल्पना के आलोक में बरसात की कल्पना करनी है। संपूर्ण संसारवन में पाँच आश्रवों के बादल बरस रहे हैं! पाँच आश्रव के बादल ! जानते हो इन बादलों को ? मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, अशुभ योग और प्रमाद ये पाँच आश्रव हैं और वे घनघोर बादल हैं, बरसते बादल हैं । अनंत जीव इस वर्षा में भीग रहे हैं । - यह तात्त्विक दर्शन है । तत्त्वदृष्टि से दर्शन करना है । मिथ्यात्व बरस रहा है, अविरति बरस रही है, कषाय बरस रहे हैं, मन-वचन काया के अशुभ योग बरस रहे हैं और प्रमाद बरस रहा है ! ऐसी बरसात का दर्शन करना है । करोगे न ? अवश्य करना है। हम भव-वन में हैं, भटक रहे हैं... और आश्रवों की वर्षा में भीगे जा रहे हैं ! आश्रवों की यह वर्षा जीवों को मात्र भिगोती है, ऐसा नहीं है, इस वर्षा के कुछ निश्चित दुष्प्रभाव होते हैं ! * मिथ्यात्व की वर्षा से भीगनेवाला जीव आत्मतत्त्व को मानता नहीं, जानता नहीं और स्वीकारता नहीं है । देह को ही, शरीर को ही आत्मा मानता है ! वैसे, जो परमात्म-तत्त्व होता है, वास्तविक होता है, उसका स्वीकार नहीं करना है, परंतु जो वास्तव में परमात्म-तत्त्व नहीं होता है, उसको परमात्मा मानता है ! जो सही रूप से गुरुतत्त्व होता है, उसको गुरु नहीं मानता है, जो वास्तव में गुरु नहीं होते, उसको गुरु मानता है ! जो धर्मतत्त्व नहीं होता है उसको धर्म मानता है और जो सच्चा धर्मतत्त्व है, उसका स्वीकार नहीं करता है। जैसी चाहिए वैसी आस्तिकता नहीं होती है, जैसा चाहिए वैसा भववैराग्य नहीं होता है, नहीं मोक्षराग होता है... दुःखी जीवों के प्रति तीव्र करुणा नहीं होती है और कषाय भी उपशान्त नहीं होते हैं ! मिथ्यात्व की वर्षा में भीगनेवाले जीवों की यह परिस्थिति होती है । * दूसरी 'अविरति' की वर्षा होती है। अविरति की वर्षा में भीगनेवाले जीवों में एक बहुत बड़ी विकृति आती है। उन जीवों को कोई छोटा-बड़ा व्रत लेने की, प्रतिज्ञा लेने की, नियम लेने की इच्छा नहीं होती है । व्रत ग्रहण करने का उत्साह ही पैदा नहीं होता है । वह व्रत - नियम की बात से घबराता है। हाँ, मिथ्यात्व की वर्षा से नहीं भीगनेवाला जीव, अविरति की वर्षा से भीगता है, तो वह व्रत - नियम की उपादेयता का स्वीकार करेगा, परंतु व्रत - नियम का स्वीकार कर पालन नहीं कर सकेगा ! 'मैं व्रत ग्रहण करूँ वैसा भावोल्लास ही प्रगट नहीं होता है ।' * तीसरी वर्षा होती है कषायों की । क्रोध-मान- माया और लोभ की वर्षा, शान्त सुधारस : भाग १ ४ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I भव - वन में होती रहती है । जीव कषायवर्षा में भीगते रहते हैं । वे क्रोधी बनते हैं, अभिमानी बनते हैं, माया करते रहते हैं और लोभी बने रहते हैं । जो जीव मिथ्यात्व की वर्षा में नहीं भीगते हैं, उन पर कषायों की वर्षा का प्रभाव कुछ कम होता है ! अविरति की वर्षा में जो ज्यादा नहीं भीगते हैं, उन पर भी कषायों का असर कुछ कम होता है । कषायों की वर्षा से संपूर्णतया बचना, भव-वन में अशक्य सा है । थोड़ा बहुत भीगना ही पड़ता है ! भव-वन में भटकते जीवों की यह परवशता है । * चौथी वर्षा होती है मन-वचन-काया के शुभाशुभ योगों की । अशुभ योगों की वर्षा से जीवों के मन बिगड़ते हैं । बुरे विचार आते रहते हैं । अशुभ ध्यान होता रहता है । मन की विकृति के साथ-साथ वाणी भी विकृत बनती है । अप्रिय, असत्य और अहितकारी बनती है वाणी । जीवात्मा अप्रिय, असत्य और अहितकारी ही बोलता रहता है । अशुभ योगों की वर्षा से जीवात्मा अपने शरीर से भी दुष्ट प्रवृत्ति करता है । इन्द्रियों का दुरुपयोग करता है । यह तो हुई अशुभ योगों की वर्षा के प्रभावों की बात । शुभ योगों की वर्षा से इससे विपरीत प्रभाव पड़ते हैं । मन में अच्छे विचार आते हैं; वाणी प्रिय, सत्य और हितकारी होती है । शरीर से प्रवृत्तियाँ भी प्रशस्त होती हैं । कभी शुभ योगों की वर्षा में भीगते हैं, कभी अशुभ योगों की वर्षा में भीगते हैं ! योगों की वर्षा निरंतर होती रहती है । * पाँचवी वर्षा होती है प्रमादों की । प्रमादों की वर्षा में जो जीव भीगते हैं उन में अनेक प्रकार की विकृतियाँ पैदा होती हैं। मुख्य रूप से पाँच विकृति होती है । पहली विकृति है निद्रा की । उन जीवों को निद्रा ज्यादा आती है । ज्यादा सोना उनको पसंद भी होता है । दूसरी विकृति होती है विषयलालसा की । पाँच इन्द्रियों के प्रिय विषयों का ज्यादा उपभोग करते रहते हैं । तीसरी विकृति होती है कषायों की । कषाय करते रहते हैं। चौथी विकृति होती है विकथाएँ करने की । विकृत कथा को विकथा कहते हैं। शृंगार- प्रधान बातें करते हैं, भोजनविषयक चर्चा करते रहते हैं, देश-संबंधी फालतू बातें करते रहते हैं और देशनेताओं के विषय में निष्प्रयोजन आलाप - प्रलाप करते रहते हैं। प्रमाद-वर्षा में भीगनेवालों की यह स्थिति होती है । पाँचवी विकृति होती है आलस्य की । कोई भी कार्य समय पर नहीं करेगा । उसका बस चले तो कार्य करेगा ही नहीं । सुस्त पड़ा रहेगा । अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा । प्रस्तावना Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मिथ्यात्व की वर्षा में जीव नहीं भीगता है, अविरति की वर्षा में कम भीगता है, तो उस पर प्रमाद - वर्षा के प्रभाव कम पड़ते हैं । सदैव याद रखना, यह भव - वन है । - सदैव याद रखना कि भव-वन में पाँच आश्रवों के बादल बरस रहे हैं, उस वर्षा में अनंत - अनंत जीव भीग रहे हैं । हम भी भीग रहे हैं - वैसी कल्पना करते रहना । भव-वन की भयानकता का ख्याल रहेगा तो संसार के प्रति राग नहीं रहेगा, विषयों में आसक्ति नहीं रहेगी । उपाध्यायजी ग्रंथ के प्रारंभ में ही, ज्ञानदृष्टि से संसार का स्वरूपदर्शन कराते हैं। स्वरूपदर्शन करवा कर, इस संसार में तीर्थंकर की वाणी ही जीवों का सहारा है, यह बात कहते हैं । भव-वन में सर्वत्र कर्मों की बेल : - वन में, जंगल में जमीन पर क्या होता है ? कंकर होते हैं, वृक्ष होते हैं, पौधे होते हैं... और बेलें होती हैं । भव-वन की जमीन पर सर्वत्र कर्मों की बेलें फैली हुई हैं। जमीन का एक टुकड़ा भी ऐसा नहीं है कि जहाँ कर्मों की बेल फैली हुई नहीं हो ! ऊर्ध्व लोक हो, मध्य लोक हो या अधो लोक हो । सभी जगह कर्मों की बेलें फैली हुई हैं। जीव जहाँ भी पैर रखता है, वहाँ कर्मों की बेल पैरों से लिपट जाती हैं । I हैं मुख्य रूप से कर्मों की बेल आठ प्रकार की होती हैं । अवांतर प्रकार १५८ होते हैं और अवांतर के भी अवांतर असंख्य प्रकार होते हैं। मुख्य आठ प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य । अवांतर प्रकार हैं- ज्ञानावरण के पाँच, दर्शनावरण के नौ, मोहनीय के २८, अंतराय के ५, नाम के १०३, गोत्र के २, वेदनीय के २ और आयुष्य के ४ । इसके भी अवांतर प्रकार होते हैं । ये सभी बेल भव-वन की भूमि पर फैली हुई हैं । जहाँ-जहाँ जीव कदम रखता है, कर्मों की बेल उसके पैरों में लिपटती जाती हैं । — समझे न ? घर में हो या मंदिर में, दुकान में हो या धर्मस्थान में, हिलस्टेशन पर हो या तीर्थस्थान में... कर्मों का बंधन होता ही रहता है। एक आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सातों कर्म बंधते ही रहते हैं ! शुभ कर्म अथवा अशुभ कर्म... बंधते ही रहते हैं। संसार में एक भी ऐसी जगह नहीं है कि जहाँ कर्म बंध जीव नहीं करता हो ! शान्त सुधारस : भाग १ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बंधते रहते हैं, कर्म उदय में आते रहते हैं ! इस बात को उपाध्यायजी ने काव्यात्मक शैली में बताया है - नानाकर्मलतावितानगहने विविध प्रकार के कर्मों की लताओं से गहन भव-वन में अनन्त भ्रान्त जीव भटक रहे हैं ! कल्पना करने की है ! भव-वन की कल्पना करें, उसमें आश्रवों की वर्षा की कल्पना करें... जमीन पर सर्वत्र कर्मों की लताएँ फैली पड़ी हैं... समग्र भूमि कर्मलताओं से दबी हुई है । जीवों को सर्वत्र कर्मलताओं पर ही पैर रखने पड़ते हैं । कुछ लताएँ लिपटती हैं, कुछ लताएँ छूट जाती हैं । अनादिकाल से यह क्रम चलता रहता है । भव-वन की यह एक भयानक स्थिति है । ___ कुछ कर्मलताएँ जीवों को लिपट कर दुःख देती हैं, कुछ लताएँ लिपट कर सुख देती हैं ! भव-वन में कुछ जगह ऐसी होती है कि जहाँ जीवों को दुःख ही दुःख होता है। वहाँ की कर्मलताएँ दुःख देनेवाली ही होती हैं। वैसे कुछ जगह भव-वन में ऐसी होती है कि जहाँ जीवों को कर्मलताएँ सुख ही सुख देनेवाली होती हैं । परंतु वहाँ भी नयी दुःखदायिनी कर्मलताएँ जीवों से चिपकती रहती हैं ! __कर्मलताएँ इस प्रकार चिपकती रहती हैं कि जीवों को मालूम नहीं पड़ता कि मेरे शरीर पर (आत्मा पर) कर्मों की लताएँ चिपक रही हैं ! कर्मलताओं की यह विशेषता होती है ! परंतु जब चिपकी हुई कर्मलताएँ अपना प्रभाव जताती हैं... तब जीवों को मालूम होता है ! सुख-दुःख... शान्ति-अशान्ति...सब, कर्मलताओं का प्रभाव होता है ! भव-वन में सर्वत्र मोहान्धकार : पहली बात : भव-संसार वन है । दूसरी बात : भव-वन में आश्रवों की वर्षा हो रही है । तीसरी बात : भव-वन में सर्वत्र कर्मों की लताएँ फैली हुई हैं ! अब उपाध्यायजी चौथी बात बता रहे हैं कि भव-वन में सर्वत्र अंधकार है ! प्रकाश की एक किरण भी नहीं है ! प्रगाढ़ अंधकार व्याप्त है भव-वन में । वह अंधकार है मोह का, अज्ञान का ! उपाध्यायजी कहते हैं : मोहान्धकारोधुरे (भव-वने) अंधकार में सही मार्ग नहीं दिखता है । अंधेरे में जीव भटक जाता है । गलत रास्ते पर चल देता है । अंधेरे में सही और गलत रास्ते का निर्णय नहीं कर सकता प्रस्तावना Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । संभव रहता है कि गलत मार्ग को सही मान ले और सही मार्ग को गलत समझ ले । और, यह तो मोह का अंधकार ! बड़ा खतरनाक होता है मोहान्धकार तो। इतना तो रात्रि का अंधकार भी खतरनाक नहीं होता, भूमिगृह का अंधकार भी इतना भयावह नहीं होता, मोह का अंधकार भयावह होता है । जरा सी कल्पना तो करें - 'जंगल है, भयानक है, उसमें मूसलाधार वर्षा हो रही है... जमीन पर सर्वत्र भिन्न-भिन्न प्रकार की लताएँ फैली पड़ी है... सर्वत्र घोर अंधकार है... और हमारा कोई साथी नहीं है... हम अंधेरे में भटक रहे हैं.... कितनी भयानक कल्पना है ? अपने आपको ऐसे जंगल में भूले-भटके हुए देखो ! काँप उठोगे ! रोने लगोगे ! और उस समय यदि आपके मुँह से पुकार निकले-हे प्रभो, मेरी रक्षा करो... मुझे बचा लो इस भीषण वन से !' तो संभव है कि आपकी पुकार सुनायी देगी और आपको बचानेवाले, आपकी रक्षा करनेवाले कहीं से भी आ जायेंगे । आपको दिव्य अभय वचन सुनाई देगा - वत्स, निर्भय बन, मैं तेरी रक्षा करूँगा !' तीर्थंकरों की सुधारसपूर्ण वाणी : वे अभय वचन होते हैं तीर्थंकर भगवंत के ! वह करुणापूर्ण वाणी होती है, तीर्थंकर परमात्मा की ! करुणा के सागर तीर्थंकर इसीलिए तो अपनी अमृतमयी वाणी बहाते हैं । भव-वन में भूले-भटके जीवों का परम हित करने के लिए ही तीर्थंकर धर्मदेशना देते हैं । धर्मतीर्थ की स्थापना ही इसी हेतु से की जाती है। लोकाहिताय प्रवर्तयामास तीर्थमिदम् । भगवान् उमास्वातीजी के ये वचन हैं। __ जब भी भव-वन में आपको भय लगे, संताप लगे, दुःख महसुस हो, तब आप के हृदय से वेदनापूर्ण पुकार निकलनी चाहिए - भगवंत, मेरी रक्षा करो, आपके बिना मेरा कोई सहारा नहीं है । आपके बिना मेरी कोई शरण नहीं है... प्रभो, मुझे इस भयानक भव-वन से बचा लो । हृदय की पुकार सुनायी देती है, रक्षा होती है, किसी भी तरह...किसी भी निमित्त से, माध्यम से रक्षा होती है । विश्वास चाहिए, श्रद्धा चाहिए । उपाध्याय श्री विनयविजयजी कहते हैं - तीर्थेशैः प्रथितास्सुधारसकिरो रम्या गिरः पान्तु वः ॥ 'तीर्थंकरों की अमृतमयी रम्य वाणी आपकी रक्षा करे !' शान्त सुधारस : भाग १ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर परमात्मा की पहचान की है ? आंतर-बाह्य रूप से आपने तीर्थंकर भगवंत का परिचय प्राप्त किया है क्या ? तीर्थंकरों की दिव्य करुणा : __ तीर्थंकर परमात्मा वीतराग होते हैं । राग-द्वेष से रहित होते हैं । न किसी के प्रति राग होता है, न किसी के प्रति द्वेष होता है ! फिर भी वे संसार के सभी जीवों के प्रति, भव-वन में भटकते हुए सभी जीवों के प्रति करुणावंत होते हैं । आप करुणा को राग नहीं समझे ! राग करुणा नहीं होता है । करुणा का स्वरूप राग नहीं होता है । राग स्वकेन्द्रित होता है, करुणा स्वकेन्द्रित नहीं होती है । 'परदुःख विनाशिनी करुणा । दूसरों के दुःखों को मिटानेवाली होती है करुणा ! इसीलिए तो बड़े-बड़े ज्ञानी... योगी और आध्यात्मिक महापुरुषों ने तीर्थंकरों को करुणासागर' कहे हैं, करुणानिधान' कहे हैं, करुणा के घर' कहे हैं ! उनसे अपने उद्धार की, दुःखनिवारण की प्रार्थना की है। ___ आप जानते हो क्या, कि तीर्थंकर बनानेवाला तीर्थंकर नामकर्म कौन बाँधता है और कैसे बाँधता है ? भगवान महावीर स्वामी तीर्थंकर कैसे बने थे ? पूर्वजन्मों की उनकी कथाओं का अध्ययन करने से मालुम पड़ेगा ! नंदन मुनि' के २५वें भव में उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म बाँधा था ! समग्र जीवसृष्टि के प्रति उनकी दिव्य करुणा-भावना थी – 'मुझे ऐसी शक्ति प्राप्त हो कि मैं भव-वन में भटकते सभी जीवों को परम सुख प्रदान करूँ... सभी को सिद्ध...मुक्त...बुद्ध बना = !' और वैसी शक्ति प्राप्त करने के लिए उन्होंने वीस स्थानक-तप की उग्र साधना की । लाखों उपवास किये । सस्ते में शक्ति नहीं मिलती है जीवों के उद्धार की । मात्र विचार करने से कार्यसिद्धि नहीं होती है । प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । करुणा-भावना से और तप की आराधना से तीर्थंकर नामकर्म बाँध लिया । २६वाँ भव मिला देवलोक का और २७वे भव में वे तीर्थंकर महावीर बने । तीर्थंकर बन कर, धर्मतीर्थ की स्थापना कर उन्होंने वही काम किया, जो नंदन मुनि के जन्म में सोचा था, तीव्रता से चाहा था। सभी जीवों को, जो कि भव-वन में भटक रहे हैं उनको परम सुखमय मोक्ष में ले जाऊँ, परम सुख...शाश्वत् सुख दिला हूँ । धर्मतीर्थ की स्थापना की; साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की और जगत को; धर्मोपदेश देना शुरु किया । परम सुखमय प्रस्तावना । ९ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग का ज्ञान देना शुरु किया । 'संसार में सुख है, संसार स्वर्ग है... ऐसी भ्रान्तियों में भ्रान्त बने जीवों की भ्रान्तियों को मिटाने लगे । उनको करुणापूर्ण वाणी से समझाया * संसार नगर नहीं है, स्वर्ग नहीं है, वन है, जंगल है । * संसार में निरंतर आश्रवों की वर्षा हो रही है । * संसार में सर्वत्र कर्मों की लताएँ फैली हुई हैं, और * संसार में सर्वत्र मोह का प्रगाढ़ अंधकार है । इसलिए संसार - वन से बाहर निकल जाओ । मुक्ति के मार्ग पर आ जाओ । मुक्ति के मार्ग पर चलते चलो। थको नहीं, अधीर मत बनो... हिंमत से आगे बढ़ते रहो । किसी लोभ में, लालच में मत फँसो । हम जैसे कहें वैसे करते रहो, चलते रहो । कष्ट और आपत्तियों से डरो नहीं । संकटों को सहते चलो | जिनवाणी पर विश्वास करो : I परमात्मा तीर्थंकरदेव के प्रति विश्वास होगा तो उनकी वाणी के ऊपर, उनके वचनों के ऊपर विश्वास होगा ही । भगवान महावीर स्वामी २४वें तीर्थंकर थे । उनके उपदेशों को उनके गणधरों ने सूत्रबद्ध किये थे । शिष्यपरंपरा से सूत्रबद्ध उपदेश आज २५०० वर्षों के बाद भी हमें प्राप्त हुए हैं। सभी उपदेश नहीं, कुछ उपदेश लुप्त हो गये, कुछ उपदेश सुरक्षित रह गये। आज हम उन उपदेशों को 'आगमसूत्र' कहते हैं । वैसे ४५ आगमसूत्र हैं । जैनशासन की एक बहुत अच्छी परंपरा रही है कि कोई भी प्रज्ञावंत ऋषि, मुनि... आचार्य... उपाध्याय ... मौलिक ग्रंथों की रचना करते हैं, वह ग्रंथरचना आगमसूत्र के अनुसार करते है । आगमसूत्र से विपरीत बात अपने ग्रंथ में नहीं आ जायें, वैसी सावधानी रखते हैं । उपाध्यायश्री विनयविजयजी वैसे प्राज्ञ पुरुष थे, आप्त पुरुष थे, उन्होंने जिनवचनों के अनुरूप, आगमसूत्रों से अविरुद्ध ऐसी 'शान्तसुधारस ग्रंथ की मौलिक रचना की है । इस दृष्टि से 'शान्तसुधारस' में जो वाणी बह रही है, वह जिनवाणी ही है । तीर्थंकर के ही वचन हैं । इसलिए इन वचनों पर विश्वास करना होगा । इस ग्रंथ की उपादेयता का स्वीकार करना होगा । उपाध्यायजी ने जिनवाणी की स्तुति की है - रम्या गिरः पान्तु वः ।' कह कर अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त की है । 'जिनेश्वरों की भव्य रम्य वाणी आपकी रक्षा करो !' I १० - शान्त सुधारस : भाग १ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवचन रक्षा करते हैं: उपाध्यायजी की यह बात सौ प्रतिशत सही है । जीवात्मा यदि जिनवचनों का सहारा लेता है, तो जिनवचन अवश्य जीव की अशान्ति मिटा देते हैं । उसके भयों का नाश कर देते हैं। जिनवचनों की शरण लेने पर जीव अभय, अद्वेष और अखेद का अनुभव करते हैं। और, जीवन में से सभी भय चले जायें, द्वेष दूर हो जायें एवं खेद-उद्वेग नष्ट हो जायें, फिर क्या चाहिए ? सुख मिल जाता है, शान्ति मिल जाती है और उत्साह-उल्लास जाग्रत हो जाता है ! बस, सब कुछ मिल गया ! यही जिनवचनों का महान् प्रदान है । यही उनकी रक्षा है ! 'शान्तसुधारस महाकाव्य, जिनवचनों की गंगा है । इस गंगा में स्वच्छन्द बनकर स्नान करना है । आते रहें प्रतिदिन यहाँ स्नान करने । यह गंगा का घाट है ! एक घंटे तक स्नान करते रहें । सभी दुःखों को भूल जाओगे, सभी अशान्ति बह जायेगी, सभी प्रकार के भय दूर हो जायेंगे... निर्भयता के गीत गाने लगोगे । मैंने तो अनेक बार इस महाकाव्य को गाया है, नगरों में गाया है और जंगलों में भी गाया है । बहुत आनंद पाया है । आध्यात्मिक मस्ती का अनुभव किया है । मैं इसका सारा श्रेय उपाध्यायजी को देता हूँ | चूँकि उन्होंने शान्तसुधारस जैसे अद्वितीय अध्यात्म-काव्य का सर्जन कर हम पर परम उपकार किया है । जनम-जनम हम इस उपकार का बदला नहीं चुका सकते हैं । यह साधारण उपकार नहीं है, परम उपकार है । जिनवाणी ने आत्महत्या से बचाया : एक शहर में हमारा चातुर्मास था। हर रविवार के दिन दोपहर में जाहिर प्रवचन होते थे। एक रविवार को इन भावनाओं के विषय में प्रवचन था। प्रवचन पूर्ण होने के बाद मेरा एक परिचित युवक एक मित्र को लेकर मेरे पास आया और उसका परिचय देते हुए कहा : महाराज श्री, यह मेरा मित्र है, सरकारी नौकर है, अच्छी पोस्ट पर है, वह घुमने जा रहा था, मैं उसको प्रवचन में ले आया । इसने ध्यान से प्रवचन सुना और बहुत प्रभावित हुआ है । उस युवक ने कहा : 'महाराजश्री, सच कहता हूँ कि मुझे आज नया जीवन मिला है । मैं आज घर से निकला था आत्महत्या करने के लिए ही। मैं दो वर्ष से बहुत अशान्त था ! पति-पत्नी का संबंध टूट चूका था । मैं अति निराश हो गया था। जीना मेरे लिए अशक्य बन गया था...आज मैं जीवन का अंत लाने को ही घर से प्रस्तावना Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकला था... और रास्ते में राजेन्द्र मिल गया ! वह मुझे प्रवचन में ले आया । मैं जैन नहीं हूँ... इसलिए यहाँ आने में मुझे संकोच होता था, परंतु राजेन्द्र ने आग्रह किया, यहाँ ले आया, मेरे ऊपर उसने बड़ा उपकार किया । प्रवचन सुनता गया... और मेरा मन स्वस्थ बनता गया। मेरी उलझनों का समाधान हो गया। अब मैं कभी भी आत्महत्या का विचार नहीं करूँगा । आपका मेरे ऊपर महान् उपकार हुआ। __वास्तव में यह उपकार जिनवाणी का था । जिनवचनों का था । मैं तो मात्र माध्यम बना था । जिनवाणी ने उस युवक को बचा लिया । नया जीवन प्रदान किया। सगर चक्रवर्ती - भावना से मनःशान्ति : यह तो अभी-अभी की घटना है, ऐसी अनेक सुखद घटनाएँ घटती रहती हैं । प्रसंग-प्रसंग पर बताता रहूँगा घटनाओं को । परंतु एक प्राचीनतम रोमांचक घटना है । आपने सुनी भी है यह घटना । अष्टापद तीर्थ की महापूजा में आपने सुना था कि अष्टापद तीर्थ की रक्षा करते-करते सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्रों की मृत्यु हो गई थी । नागकुमार देवों ने ६० हजार राजकुमारों को जला दिये थे । ६० हजार राजकुमार तो देवगति में चले गये थे, परंतु उनके पिता सगर चक्रवर्ती ने जब ये समाचार सुने... वे पागल से हो गये थे। करुण आनंद करने लगे थे । किसी मनुष्य में शक्ति नहीं थी कि जो चक्रवर्ती को शान्त करें ! आखिर देवराज इन्द्र को आना पड़ा । देवराज इन्द्र तत्त्वज्ञ होते हैं, सम्यग् दृष्टि होते हैं। उन्होंने चक्रवर्ती को अनित्य-भावना से समझाया । संसार में स्वजनों के सारे संबंध अनित्य होते हैं। आयुष्य, आरोग्य, शक्ति और जीवन... सब कुछ अनित्य होता है !' अच्छी तरह समझाया... तब जाकर चक्रवर्ती का शोक दूर हुआ । वे स्वस्थ बने । यह क्या था ? जिनवाणी का उपकार था । जिनवाणी ने चक्रवर्ती की रक्षा की। डाकू नरवीर : जिनवाणी से उपशान्त : राजा कुमारपाल का पूर्वजन्म जानते हो ? पूर्वजन्म में वे डाकू थे । नाम था नरवीर । गुजरात और मालवा की सीमा के ऊपर उसका अड्डा था । डाकुओं का पूरा गिरोह था । हजारों मुसाफिरों को लूटा था, मारा था। परंतु एक दिन, मालव देश के सैनिकों के हाथ नरवीर का गिरोह मारा गया और सैनिकों के शान्त सुधारस : भाग १ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरदार ने (जो कि एक व्यापारी था) नरवीर की सगर्भा पत्नी को मार डाला । नरवीर अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ । सैनिकों ने उसके अड्डे को जला दिया। नरवीर दूर-दूर एक जंगल में जा पहुँचा । एक वृक्ष की छाया में हताश-निराश होकर बैठ गया । वह थक गया था। उसका सर्वनाश हो गया था। उसके मन में वैर की आग सुलग रही थी। वह अत्यंत अशान्त, उद्विग्न और खिन्न था। थोड़ी देर के बाद उस जंगल के रास्ते से कुछ जैन साधु गुजरते थे । नरवीर ने साधुओं को देखा। वह खड़ा हुआ और सबसे आगे जो आचार्य चल रहे थे, उनके सामने जाकर प्रणाम किया। वे आचार्य थे यशोभद्रसूरिजी। यशोभद्रसूरिजी ने नरवीर को धर्मलाभ' का आशीर्वाद देकर जिनवाणी का उपदेश दिया। हिंसा वगैरह आश्रवों के कटु परिणाम बताये । क्षमा वगैरह धर्मों का श्रेष्ठ प्रभाव बताया। उसके हृदय को शान्त-उपशान्त किया । वैरभावना को मिटा दिया। सन्मार्ग पर स्थापित किया । एकशीला नगरी में भेजा...। आढर श्रेष्ठी का परिचय करवाया...! परिणाम स्वरूप उसका जीवन धर्ममय बना, मृत्यु समाधिमय हुआ और दूसरे भव में वह राजा कुमारपाल बना ! यह उपकार किस का था? दुर्गति में जाते हुए नरवीर की किसने रक्षा की ? जिनवाणी ने ! यशोभद्रसूरिजी ने जिनवाणी सुनायी थी न ? इस प्रकार इस दुनिया पर जिनवाणी ने असंख्य उपकार किये हैं । दुर्गति में गिरते हुए असंख्य जीवों को बचा लिये हैं । जिनवाणी और कुमारपाल : नरवीर का कैसा सौभाग्य था, कि दूसरे जन्म में भी कदम-कदम पर उनकी रक्षा करनेवाली जिनवाणी मिली । नरवीर के जन्म में गुरुदेव यशोभद्रसूरिजी मिले थे, कुमारपाल के जन्म में आचार्यश्री हेमचन्द्रसरिजी मिले ! नरवीर के जन्म में सहायक-साधर्मिक आढर श्रेष्ठी मिले थे, तो यहाँ कुमारपाल के भव में उदयन मंत्री मिले ! कुमारपाल राजा बने ५० वर्ष की उम्र में ! ५० वर्ष तक उनका जीवन अनेक आपत्तियों से, विपत्तियों से गुजरा था । वह अति निराशा में डूब गये थे । राजा सिद्धराज, कुमारपाल की हत्या करने उतारू हुआ था। भाग्योदय से वह बचता रहा... और अंत में हेमचन्द्रसूरिजी के परिचय में आ गया । आचार्यदेव ने उसको आश्वस्त किया और जिनवाणी सुनाना प्रारंभ किया । राजा बनने के बाद भी, जिनवाणी के माध्यम से आचार्यदेव ने कुमारपाल की द्रव्यात्मक और भावात्मक प्रस्तावना 388888888888856002 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षा की । कुमारपाल स्वयं जिनवाणी के उपासक बन गये थे । उन्होंने संस्कृत - प्राकृत भाषा का अध्ययन किया था और जिनवचनों को संस्कृत काव्यों में निबद्ध किये थे । वे स्वयं चातुर्मास में पाटण में ही रहते थे और गुरुदेव के चरणों में बैठकर घंटों तक जिनवाणी का श्रवण करते थे । प्रातःकाल कुछ समय जिनवचनों का स्वाध्याय करने के बाद ही मुँह में पानी डालते थे । वे जानते थे, उनके तन-मन की रक्षा जिनवाणी ने कैसे की थी ! गुरुदेव हेमचन्द्रसूरिजी ने कैसे की थी ! उपाध्यायश्री विनयविजयजी ने 'शान्तसुधारस' के प्रारंभ में ही जिनवाणी की स्तुति की है, यह समुचित है । रम्या गिरः पान्तु वः । जिनेश्वरों की भव्य वाणी तुम्हारी रक्षा करे ! प्रतिदिन जिनवाणी की आराधना करें : भव-वन में दूसरा कोई भी अपनी रक्षा करनेवाला नहीं है । और किसी पर भी विश्वास नहीं करना । कोई रक्षा नहीं करेगा, कोई दुःख में सहारा नहीं देगा । जिनवाणी ही सहारा देती है, आश्वासन देती है और सही मार्गदर्शन देती है । भीषण भव - वन में, जिनवाणी हमें अभय देती है घोर अंधकार से भरे भव-वन में दिव्य दृष्टि देती है कर्मलताओं से विकट भव-वन में सही रास्ता बताती है, भव-वन में शत्रुओं से बचानेवाली भी जिनवाणी है... भव-वन में भटक भटक कर थके हुए जीवों को नयी शक्ति, नयी चेतनास्फूर्ति देनेवाली भी जिनवाणी है । इसलिए आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि जिनवाणी की प्रतिदिन आराधना करते रहो । प्रतिदिन जिनवाणी का श्रवण करो, जिनवाणी का वांचन ( पठन) करो, जिनवाणी का चिंतन-मनन करो । कुछ मार्मिक हृदयस्पर्शी जिनवचनों को याद कर लो । स्मृति में भर लो । जिनवचनों की आराधना से मन को शान्ति मिलती है, समता मिलती है, समाधि प्राप्त होती है ! जिनवचनों से उलझनें सुलझ जाती हैं, शंकाओं का समाधान हो जाता है । जीवन की अंतिम क्षणें महोत्सव बन जाती हैं । आज बस, इतना ही । १४ * * * शान्त सुधारस : भाग १ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : २ संकलना : * आचार्यश्री हरिभद्रसूरि : व्याकुलता * हंस- परमहंस बौद्धमठ में हंस की मृत्यु परमहंस का बौद्धाचार्य से वाद । * हरिभद्रसूरि उपशान्त होते हैं । संसार : मोह - विषाद के जहर से व्याप्त । मोहविष के प्रभाव | * वासनाओं की पूर्ति में अशान्ति । पुत्रप्राप्ति की वासना । यशःकीर्ति की वासना । आरोग्य की वासना । सुख-शान्ति का एक ही उपाय : भावनाएँ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्फुरति चेतसि भावनया विना, न विदुषामपि शान्तसुधारसः । न च सुखं कृशमयमुना विना, जगति मोहविषाद - विषाकुले || उपाध्यायजी कहते हैं : 'भले ही आप विद्वान हो, शास्त्रज्ञ हो, परंतु यदि आप भावनाओं में रममाण नहीं हो, भावनाओं से भावित नहीं हो, तो आपके मन में शान्त-सुधा का उपशम-रस का आस्वाद नहीं कर सकोगे । मोह - विषाद से भरा हुआ है यह संसार, यह जगत्, उसमें आप अंशमात्र भी सुख नहीं पा सकोगे ।' उपाध्यायजी ने विद्वानों को, पंडितों को लक्ष्य बना कर यह बात कही है । उन्होंने पंडितों को भी तीव्र राग-द्वेष में व्याकुल, अशान्त और संतप्त देखे होंगे । 'अरे, इतने हजारों शास्त्र पढ़ने के बाद, पढ़ाने के बाद भी ये पंडित, ये विद्वान क्यों शोकविह्वल हैं ? क्यों शोकसंतप्त हैं ? क्यों दुःखी हैं ? क्यों रुदन करते हैं ? ऐसे प्रश्न उनके मन में पैदा हुए होंगे। प्रश्नों का समाधान उन्होंने यह खोज निकाला कि 'भावनाओं से जो अपने मन को भावित नहीं करते, वे विद्वान होते हुए भी राग-द्वेष में उलझ जाते हैं । अशान्ति और उद्वेग से भर जाते हैं । चूँकि संसार तो मोह - अज्ञान के जहर से भरा-पूरा है ही ! वैसे संसार में भावनाओं के चिंतन के बिना सुख का एक अंश भी मिलना संभव नहीं, शान्ति की एक क्षण मिलना भी संभव नहीं । उपाध्यायजी महाराज 'अनित्य' आदि बारह भावनाओं के विषय में और 'मैत्री' आदि चार भावनाओं के विषय में यह ग्रंथ लिखते हैं शान्तसुधारस ! हर मनुष्य के जीवन में भावनाओं के चिंतन की अनिवार्यता प्रतिपादित करते हुए वे यह बात कह रहे हैं । विद्वान् लोग भी भावनाओं के बिना सुख और शान्ति नहीं पा सकते हैं, तो फिर जो शास्त्रज्ञ नहीं है, विद्वान् नहीं हैं, उनको सुख-शान्ति कैसे मिल सकती है ? बुध हो या अबुध हो, धनी हो या निर्धन हो, प्राज्ञ हो या अज्ञ हो, भीतर का सुख, भीतर की शान्ति उसी को मिल सकती है; जो भावनाओं का चिंतन करते रहते हैं, प्रतिदिन करते रहते हैं। हर प्रसंग पर, हर घटना पर, भावनाओं की दृष्टि से जो देखते हैं, सोचते हैं, वे कभी अशान्त और उद्विग्न नहीं बनते । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि अति व्याकुल क्यों बने थे ? उपाध्यायजी की एक बात सदैव याद रखना - 'जगति मोहविषादविषाकुले।' यह दुनिया मोह - विषाद के जहर से व्याप्त है। दुनिया में सर्वत्र मोह - विषाद का १६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहर फैला हुआ है । और जीवों के अपने-अपने पापकर्म एवं पुण्यकर्म होते हैं । कर्मों के उदय के अनुसार सुख-दुःख के प्रसंग उपस्थित होते रहते हैं । ऐसे प्रसंगों में सामान्य मनुष्य स्वस्थ नहीं रह सकता है । वह तीव्र हर्ष-शोक में, रागद्वेष में उलझ जाता है । भावनाओं का चिन्तन नहीं होता है, भावनाओं से आत्मा भावित नहीं होती है, तो वह प्रशम-उपशम का आनन्द नहीं पा सकता है । श्रमण भगवान महावीर स्वामी के धर्मशासन में जो अनेक ज्ञानी, श्रुतधर आचार्य, उपाध्याय, मुनिराज हो गये, उनके प्रथम पंक्ति के ज्ञानी आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी हो गये । उन्होंने अपने जीवन में १४४४ धर्मग्रंथों की रचना की थी। याकिनी महत्तरा' नाम की साध्वी के वे धर्मपुत्र थे । उनके जीवन में एक बहुत बड़ी दुर्घटना घटी थी और वे क्रोध से...द्वेष से पागल से बन गये थे। विद्वान् थे, शास्त्रज्ञ थे...फिर भी उस एक दुर्घटना ने उनको अति विह्वल, अति चंचल...अति रोषायमान बना दिये थे । संक्षेप में वह दुर्घटना बताता हूँ । विक्रम की आठमी शताब्दी का समय था । आचार्यश्री हरिभद्र के दो भानजे थे। दोनों रणवीर और शूरवीर थे । युद्धकला में पारंगत थे । किसी निमित्त से वे दोनों संसार से विरक्त बने और अपने मामा हरिभद्रसूरिजी के पास गये । उन्होंने आचार्यदेव को कहा : 'गुरुदेव, हम दोनों गृहवास से विरक्त बने हैं । आचार्यदेव ने कहा : यदि तम्हें मेरे प्रति श्रद्धा हो तो विधिपूर्वक दीक्षा ले लो। हंस और परमहंस ने दीक्षा ले ली। दोनों प्रज्ञावंत शिष्यों को आचार्यदेव ने जैनागम पढ़ाये । न्यायदर्शन और वैदिक दर्शन का भी अध्ययन कराया । बौद्ध दर्शन का अध्ययन करते-करते हंस और परमहंस के मन में विचार आया कि बौद्धशास्त्रों का बोध प्राप्त करने, बौद्ध आश्रम में जाकर बौद्धाचार्य से अध्ययन करें । दोनों ने अपनी इच्छा गुरुदेव के सामने व्यक्त कर दी। गुरुदेव ने शिष्यों की इच्छा जानने के बाद अपने ज्ञान के आलोक में दोनों शिष्यों का भविष्य देखा । उन्होंने कहा : वत्स, वहाँ बौद्धमठ में जाने में मझे तुम्हारा भविष्य अच्छा नहीं लगता । इसलिए तुम वहाँ जाने का विचार छोड़ दो। यहाँ दूसरे भी अपने आचार्य हैं, विद्वान् हैं, बौद्ध दर्शन के ज्ञाता हैं, तुम उनके पास अध्ययन कर सकते हो । हंस ने कहा : गुरुदेव हमारी इच्छा तो बौद्ध आचार्य से ही बौद्धमत का अध्ययन करने की है... । । प्रस्तावना १७ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव ने कहा : जो कुलीन शिष्य होता है वह गुरु को छोड़कर निरुपद्रवी मार्ग पर भी नहीं जाता है, तो फिर जिस मार्ग पर बड़ा उपद्रव हो, उस मार्ग पर कैसे जा सकता है ? मैं तुम्हें बौद्धमठ में जाने की इजाजत नहीं दे सकता । हंस ने कहा : 'गुरुदेव, हम दोनों पर आपका अति वात्सल्य है, इसलिए आप इस प्रकार कहते हैं । परंतु गुरुदेव, आपका नाम ही मंत्र है, उस नाममंत्र के प्रभाव से हमारा कुछ भी अहित होगा नहीं । आपकी दिव्य कृपा हमारी रक्षा करेगी । वैसे भी आप हमारी शूरवीरता और युद्धकौशल्य जानते हो । समर्थ पुरुषों का दुर्निमित्त क्या बिगाड़ सकते हैं ? गुरुदेव, कृपा करें और बौद्धमठ में जाने की अनुज्ञा प्रदान करें । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि उदास हो गये। उन्होंने कहा : 'वत्स, तुम्हें हितकारी बात कहना निरर्थक लगता है । तुम्हें जैसा जँचे वैसा करो, जहा सुक्खं देवाणुप्पिया !' हंस और परमहंस ने गुरुदेव की बात नहीं मानी । हितकारी वचनों की उपेक्षा की । उन्होंने वेशपरिवर्तन किया और वे 'भूतान गये । भूतान पर उस समय बौद्ध राजा का शासन था । वहाँ बौद्धों की अनेक विद्यापीठें थीं। हंस और परमहंस एक विद्यापीठ में प्रवेश ले लिया । बौद्ध आचार्य के पास रह कर बौद्ध दर्शन का अध्ययन करने लगे । बौद्ध आचार्य से जो-जो सिद्धान्त वे जानते थे, समझते थे, उन सिद्धान्तों का गुप्त रूप से, जैन सिद्धान्तों के द्वारा खंडन लिखते थे । लिखे हुए पत्र वे सम्हाल के गुप्त रखते थे । परंतु एक दिन बौद्ध धर्म की अधिष्ठात्री देवी तारा ने, उन लिखे हुए पत्रों में से एक पन्ना उड़ाकर शाला में डाल दिया । बौद्ध छात्रों ने वह पन्ना देखा, उस पर 'नमो जिनाय' लिखा हुआ था, वह पढ़ा। छात्रों ने वह पन्ना बौद्धाचार्य को दिया । आचार्य ने सोचा : 'जिनमत का कोई उपासक यहाँ पढ़ने आया लगता है । वह कौन है, परीक्षा कर उसको जानना होगा, पकड़ना होगा । एक दिन आचार्य ने कुछ छात्रों को अपने पास बुला कर कहा : 'भोजनगृह के द्वार पर, मार्ग में जिनप्रतिमा का आलेखन करो और उस प्रतिमा के सर पर पैर रखकर भोजनगृह में प्रवेश करना । हंस - परमहंस को छोड़कर सभी छात्रों ने वैसा किया। हंस- परमहंस के हृदय में जैन धर्म के प्रति अपार श्रद्धा थी, उन्होंने उस जिनप्रतिमा के ऊपर खड़ी (चोक) से जनेउ का चिह्न किया और उस पर पैर रखकर चल दिये ! कुछ बौद्ध छात्रों १८_______ शान्त सुधारस : भाग १ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने हंस - परमहंस की यह क्रिया देख ली और आचार्य को बोल दिया । आचार्य ने कहा : 'प्रज्ञावंत पुरुष देव के मस्तक पर पैर नहीं रखते । इसलिए उन दो छात्रों ने जनेउ का चिह्न किया वह उचित है । वे दो छात्र परदेशी हैं, तुम धैर्य रखो। मैं दूसरे प्रकार से उनकी परीक्षा लूँगा । उस रात्रि के समय, जिस कमरे में हंस- परमहंस दूसरे छात्रों के साथ सोये थे, कमरे के ऊपर के भाग में, आचार्य ने मिट्टी के घड़े रखवाये और उन घड़ों को कमरे में पटकवाये । घड़े एक के बाद एक फूटने लगे। सभी छात्र जग गये और अपने-अपने इष्टदेव के नाम लेने लगे । हंस-परमहंस के मुँह से 'नमो अरिहंताणं' मंत्र निकल गया ! बौद्ध गुप्तचरों ने निर्णय किया- 'ये दो जैन हैं ।' हंस- परमहंस भी सावधान हो गये । वे अविलंब विद्यापीठ को छोड़कर, नगर को छोड़कर भागने लगे। आचार्य ने नगर के बौद्ध राजा को सारी बात बता दी और हंस - परमहंस को पकड़कर वापस लाने के लिए कहा। राजा ने सैनिकों को दौड़ाये । हंस - परमहंस ने सैनिक घुड़सवारों को अपने निकट आते देखा | हंस ने परमहंस को कहा: “तू अपने गुरुदेव के पास पहुँच जाना और उनकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके, उसका 'मिच्छामि दुक्कड' कहना | तू अभी क्षत्रिय राजा सूरपाल के पास जाना । वह राजा शरणागत की रक्षा करेगा। मैं यहाँ खड़ा रहूँगा। बौद्ध सैनिकों को यहाँ रोकूँगा... उनसे युद्ध करूँगा... तू राजा के पास पहुँच जाना ।" — परमहंस रो पड़ा । हंस के चरणों में प्रणाम कर वह चल पड़ा । हंस ने बौद्ध राजा के सैनिकों के साथ युद्ध करना शुरु किया । तब तक युद्ध जारी रखना था, जब तक परमहंस राजा सूरपाल के पास पहुँच न जायं ! युद्ध में हंस की मृत्यु हो गई । परमहंस राजा सुरपाल की शरण में पहुँच गया । सुरपाल ने शरण दी । बौद्ध सैनिक भी सुरपाल के पास गये और बोले : 'परमहंस हमें सौंप दो ।' राजा ने कहा : वह मेरा शरणागत है, मैं उसे सौंप नहीं सकता, कुछ भी हो जायं । बौद्ध सुभटों के बहुत आग्रह करने पर राजा ने परमहंस से परामर्श कर के कहा : 'तुम्हारे बौद्धाचार्य और परमहंस का यहाँ मेरी राजसभा में वाद-विवाद हो । यदि परमहंस हार जाये तो उसको ले जा सकोगे अन्यथा वह अपने स्थान पर चला जायेगा !' बौद्धाचार्य के साथ परमहंस का वाद-विवाद प्रारंभ हुआ। वाद-विवाद बहुत प्रस्तावना १९ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन तक चलता रहा। परमहंस को कुछ शंका हुई। उसने जैन धर्म की अधिष्ठायिता अंबिकादेवी का स्मरण किया। अंबिकादेवी ने कहा : परमहंस, परदे के पीछे, घडे में मँह रखकर, बौद्धमत की अधिष्ठात्री तारादेवी वाद कर रही है, इसलिए तू परदा हटाकर प्रतिवादी को कह दे कि वह तेरे सामने आ कर वाद करें । दूसरे दिन ही परमहंस ने अंबिकादेवी के कथनानुसार बौद्धाचार्य को ललकारा : यदि तेरे में शक्ति हो तो अब परदा हटाकर मेरे सामने आ कर वाद कर। परंतु आचार्य मौन रहा । परमहंस ने परदा हटा दिया और लात मार कर उस घड़े को फोड़ दिया। बौद्ध आचार्य का तिरस्कार कर के कहा : तुम अधम पंडित हो... अब मेरे साथ वाद करो। परमहंस ने आचार्य को पराजित कर दिया। राजा सुरपाल ने घोषित कर दियावाद-विवाद में परमहंस की विजय हुई है । परमहंस निर्भय बन, चित्रकूट पहुँच गया । गुरुदेव हरिभद्रसरिजी के चरणों में वंदना की और वह फट-फटकर रो पड़ा । रोते-रोते उसने हंस की मृत्यु की बात सुनायी... बात कहते-कहते उसका हृदय बंद पड़ गया... और वहाँ ही उसकी मृत्यु हो गई। हंस-परमहंस, हरिभद्रसूरिजी के प्रिय शिष्य थे। दोनों प्रज्ञावंत थे, विद्वान् थे और युद्धवीर थे । इस प्रकार दोनों की अकाल मृत्यु से हरिभद्रसूरिजी अति उद्विग्न...दुःखी और संतप्त हुए । बौद्ध आचार्य के प्रति उनके मन में प्रचंड रोष पैदा हुआ । बदला लेने की अदम्य इच्छा पैदा हुई । गुरुदेव की आज्ञा लेकर वे राजा सुरपाल के नगर में पहुंचे। राजा ने हरिभद्रसूरिजी का स्वागत किया। आचार्यदेव ने राजा को कहा : हे राजेश्वर, तुमने मेरे शिष्य परमहंस को शरण देकर उसकी रक्षा की, इसलिए मैं तुम्हें लाख-लाख धन्यवाद और धर्मलाभ देता हूँ। तुम शरणागत-वत्सल हो । तुमने क्षत्रियकुल की शोभा बढ़ायी है। राजा सुरपाल ने परमहंस की अद्भुत वादशक्ति की प्रशंसा की, तब आचार्यदेव की आँखें आँसुओं से भर आयी... उन्होंने कहा : वह मेरा प्रिय शिष्य... बात करते-करते मौत का... आचार्य रो पड़े। राजा सुरपाल भी परमहंस की मृत्यु की बात सुनकर स्तब्ध हो गया और बोला : बहुत बुरी बात हुई...' _ 'राजन्, मैं उन दुष्ट बौद्ध भिक्षुओं से वाद-विवाद करूँगा, पराजित करूँगा और मौत का बदला मौत से लूँगा। शान्त सुधारस : भाग १ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने कहा : 'गुरुदेव, वे बौद्ध भिक्षु एक-दो या सौ-दो सौ नहीं हैं, वे शत- सहस्त्र हैं । उन पर विजय पाना सरल नहीं है... हाँ, यदि आपके पास कोई दिव्य अजेय शक्ति हो !' आचार्यदेव ने कहा : 'राजन्, जिनशासन की अधिष्ठायिता देवी अंबिका मेरे पर प्रसन्न है । तुम निश्चित रहो, मैं अकेला उन हजारों को पराजित कर सकता '' आज जो बात मुझे बतानी है वह यही बात है । भावनाओं के बिना, विद्वानों को, शास्त्रज्ञों को भी शान्ति नहीं मिल सकती है । आचार्य हरिभद्रसूरि सामान्य विद्वान नहीं थे । जैनागमों के ही नहीं, वे षड् दर्शनों के पारगामी थे । परंतु अपने दो शिष्यों की मृत्यु से, दो शिष्यों के विरह से, वे कितने व्यथित हो गये ? एक दुःखद घटना ने उनको कितने विचलित... रोषायमान और वैर की भावना से उत्तेजित कर दिये ? वे अशान्त बन गये, व्यथित बन गये... उनके मन में वैर की आग जल उठी। क्यों ? 'भावनाओं का चिंतन नहीं किया था । 'एकत्व' और 'अन्यत्वं' भावना का मनन नहीं किया था। संबंधों की अनित्यता' का चिंतन नहीं किया था । ज्ञान था, परंतु 'भावना' नहीं थी ! अध्ययन था, अनुप्रेक्षा नहीं थी । इसलिए बौद्ध आचार्य और बौद्ध भिक्षुओं के प्रति तीव्र रोष लिये वे वादविवाद कर, उन भिक्षुओं को मौत के घाट उतारने की बात करने लगे । उन्होंने राजा सुरपाल को कहा: 'राजन्, उन दुष्ट बौद्ध भिक्षुओं को यहाँ बुलाकर कहना - तुम्हें जैनाचार्य हरिभद्रसूरि से वाद-विवाद करना है । जो हारेगा उसको गरमागरम तैल के कुंड में गिरना होगा .... ।' राजाने बौद्ध आचार्य को बुला कर सारी बात बता दी । वाद-विवाद निश्चित हो गया । वाद का प्रारंभ हुआ। दूसरी ओर कुंड में गरमागरम तैल भर दिया गया । बाद में बौद्ध आचार्य हार गया । उनको तैल के कुंड में डाल दिया गया । बाद में एक के बाद एक ऐसे पाँच बौद्ध भिक्षु हार गये। सभी को तैल के कुंड में डाल दिये गये । वे सभी मृत्यु की गोद में समा गये । इस विषय में अलग-अलग प्राचीन ग्रंथों में अलग-अलग मंतव्य प्राप्त होते हैं । 'प्रभावक चरित्र' नाम के ग्रंथ में कहा गया है कि 'अपने दो शिष्यों की मृत्यु से रोषायमान बने हुए हरिभद्रसूरि ने महामंत्र के प्रभाव से बौद्ध भिक्षुओं का आकर्षण कर, आकाशमार्ग से ला- लाकर गरमागरम तैल के कुंड में डाल २१ प्रस्तावना - - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिये । 'पुरातन प्रबंध संग्रह' नाम के ग्रंथ में कहा गया है कि बौद्ध भिक्षुओं के प्रति प्रचंड क्रोध पैदा होने पर, हरिभद्रसूरि ने उपाश्रय के पीछे ही गरमागरम तैल का बहुत बड़ा भाजन तैयार करवाया और मंत्रप्रभाव से बौद्ध भिक्षु आकाशमार्ग से आकर उसमें गिरने लगे । ७०० बौद्ध भिक्षु इस प्रकार मर गये । 'प्रभावक चरित्र के अनुसार १४४० भिक्षु मर गये थे । हरिभद्रसूरि उपशान्त होते हैं : उधर चित्रकूट में गुरुदेव जिनदत्तसूरिजी को बौद्ध भिक्षुओं के विनाश की और हरिभद्रसूरिजी के प्रचंड कषाय की बात मालुम हुई । उन्होंने हरिभद्रसूरि को शान्त करने तीन गाथाएँ देकर दो साधुओं को हरिभद्रसूरि के पास भेज दिये । तीन गाथाएँ इस प्रकार थी गुणसेन अग्गिसम्मा- सीहाणंदा य तह पियापुत्ता । सिहि - जालिणीमाइ - सुआ, धण - धणसिरिमोय पड़-भज्जा ॥ १ ॥ जय विजया य सहोअर, धरणो लच्छीअ तह पड़-भज्जा । सेण-विसेणा पित्तिय- पुत्ता- जम्मम्मि सत्तम ॥ २ ॥ गुणचन्द - वाणमन्तर समराइच्च-गिरिसेण पाणोअ । एगस्स तओ मोक्खोऽणन्तो अन्नस्स संसारो ॥३॥ 'प्रभावक चरित्र ग्रंथ में ये तीन गाथाएँ मिलती हैं । 'समरादित्य - केवली' के नौ भवों का मात्र नामनिर्देश इन तीन गाथाओं में किया गया है । अंत में कहा गया है कि एक का मोक्ष हुआ, दूसरा अनन्त संसार में भटकेगा । हरिभद्रसूरिजी को इस महाकथा का ज्ञान तो था ही, वे इस कथा को जानते थे, अच्छी तरह से जानते थे, परंतु जब गुरुदेव ने इस कथा का निर्देश किया, उन्होंने उस महाकथा पर चिंतन किया । क्रोध... वैर... रोष के विपाकों का चिंतन अग्निशर्मा से लगाकर गिरिसेन तक के भवों के माध्यम से किया और क्षमा... शान्ति... उपशम का चिन्तन, गुणसेन से समरादित्य तक के भवों के माध्यम से किया । इस चिंतनयात्रा में 'अनित्य - भावना' से लगाकर 'बोधिदुर्लभ' भावना तक बारह भावनाओं का चिंतन समाविष्ट होता है। मैत्री - प्रमोद - करुणा और माध्यस्थ्य २२ शान्त सुधारस : भाग १ - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाओं का मंथन भी हो जाता है ! हरिभद्रसूरिजी इस चिंतनयात्रा में चल पड़े । उनका क्रोध उपशान्त हो गया । उनका संताप दूर हो गया। उनकी वैर की आग बुझ गई और वे गुरुदेव के पास पहुँच गये । पश्चात्ताप की आग में वे विशद्ध बने । प्रायश्चित्त ग्रहण कर वे स्वस्थ बने । उपाध्यायश्री विनयविजयजी, इस शान्तसुधारस ग्रंथ की रचना का प्रयोजन बताते हुए यह बात कहते हैं कि भावनाओं से ही शान्ति प्राप्त होती है । शास्त्रों से, तप से, दान से... और दूसरी धर्मक्रियाओं से पुण्य प्राप्त होगा, परंतु शान्ति नहीं ! मन की शान्ति, चित्त का उपशम भाव भावनाओं की रमणता से ही प्राप्त होता है और इसीलिए वे इस ग्रंथ की रचना करते हैं । भावपूर्ण गीतों में वे भावनाओं का चिंतन प्रवाहित करते हैं । संसार : मोह-विषाद के जहर से व्याप्त : रोग होते हैं तो औषधों की आवश्यकता होती है । संसार में अनेक-असंख्य रोग भरे पड़े हैं । शारीरिक रोगों की मैं यहाँ बात नहीं करता हूँ, मानसिक रोगों की बात करता हूँ । आध्यात्मिक रोगों की बात करता हूँ। उन सभी रोगों का उद्भव मोहं से होता है । मोह का अर्थ है अज्ञान । अज्ञान यानी अंधकार । यह विश्व, यह संसार मोहान्धकार से व्याप्त है । उपाध्यायजी ने तो मोह को अंधकार नहीं, जहर कहा है, विष कहा है । सारा संसार मोह-विष से व्याप्त है । संसार की हवा मोह के जहर से जहरीली बनी हुई है । परंतु यह बात आपके मन में, आपकी बुद्धि में जंचती है क्या ? आपको लगता है कि आपके मन पर मोहविष का असर है ? 'मेरे मन पर, चित्त पर मोह-जहर का असर है या नहीं, इस बात का निर्णय कैसे करोगे? निर्णय करना होगा । निर्णय करने के लिए एक बात का विचार करना है । 'मेरे मन में किसी प्रकार का विषाद है क्या ? किसी प्रकार का खेद-उद्वेग है क्या ?. किसी प्रकार का भय है क्या ? यदि है, तो निश्चित रूप से मोह-विष का असर है आपके मन पर। न च सुखं कृशमपि जिस मन में मोह-विष का असर होता है उस मन में अंश मात्र भी सुख नहीं होता है ! आप कितने भी उपाय करें...भौतिक, धार्मिक... परंतु आपको मानसिक सुख नहीं मिलेगा। जब तक मोह का विष रहेगा तब तक सुख नाम का तत्त्व आप नहीं पा सकोगे । सर्व प्रथम मोह-विष को दूर करना होगा । मोह-विषाद को मिटाना होगा। प्रस्तावना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह-विष के प्रभाव : मोह-विष के प्रभाव...मोह-विषाद से उत्पन्न विषैले प्रभावों को जानते हो ? कुछ तीव्र वासनाएँ मन में उत्पन्न होती हैं । - धन-संपत्ति की वासना, -- पत्नी-पुत्रादि की वासना, - यशःकीर्ति की वासना, - शरीर आरोग्य की वासना... ये वासनाएँ मन को सुख-शान्ति का अनुभव नहीं करने देती हैं। इन वासनाओं में से एक भी वासना मन में जगती है, तीव्र-तीव्रतर बनती है, तब मनुष्य को, जीवात्मा को अशान्त-बेचैन कर देती है । हम मध्यस्थ दृष्टि से संसार को देखें, तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगी। ___ - एक भाई का शरीर निरोगी है, सुशील पत्नी है, समाज में मान है; परंतु धन-संपत्ति नहीं है । मैंने उसको दुःखी देखा है । - एक भाई धनवान है, शरीर निरोगी है, पत्नी है, यश है; परंतु संतान नहीं है, पुत्र नहीं है, मैंने उसको दुःखी पाया है । ___- एक भाई संपत्तिशाली है, पत्नी है, पुत्र है, शरीर अच्छा है; परंतु यश नहीं है, कीर्ति नहीं है, वह अपने आपको दुःखी समझता है । ___- एक भाई के पास धन-संपत्ति है, पत्नी-पुत्र है, यश है; परंतु शरीर रोगों से भरा हुआ है, वे अपने को दुःखी समझते हैं ! ये सारी वासनाएँ, मोह-विष में से उत्पन्न होती हैं । उन वासनाओं की पूर्ति करने के लिए मनुष्य सदैव प्रयत्नशील रहता है । अज्ञान से घिरा हुआ वह मनुष्य जानता नहीं है कि ये सारी वासनाएँ पुण्यकर्म के उदय से ही पूर्ण होती हैं ! अज्ञानता मनुष्य को गलत रास्ते पर भटका देती है । वासनाओं की पूर्ति करने में अशान्ति : इन वासनाओं की, इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए संसार के भ्रान्त जीव कैसे-कैसे गलत काम करते हैं, जानते हो न ? धन-संपत्ति की वासना : धन-संपत्ति प्राप्त करने अनीति, अन्याय, बेईमानी...तो करते ही हैं, पापमय शान्त सुधारस : भाग १ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापार करते हैं । शराब का धंधा, मांस नियति का धंधा, जुआघर (केसिनो) चलाने के धंधे...हिंसक साधनों का उत्पादन करने के धंधे... ऐसे अनेक घृणित धंधे करते हैं । कहिए, ऐसे बिजनेस करनेवालों को चित्त की शान्ति होती है क्या ? मन की प्रसन्नता होती है क्या ? ___ - कुछ लोग धन-संपत्ति पाने के लिए मंत्रजाप करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, तप-त्याग करते हैं... | यह सब करते हुए वे लोग मोह-विषाद से व्याकुल होते हैं । मैंने ऐसे लोगों के मुँह से विषादभरे शब्द सुने हैं – 'इतने वर्षों से भगवान की पूजा करता हूँ...परंतु सौ रुपये का भी बैंक-बेलेन्स नहीं बना पाया हूँ... इतने वर्षों से आयंबिल की ओली करता रहा हूँ...फिर भी बंबई में अभी १०x१० का कमरा भी ले नहीं पाया है। अभी तक नौ लाख नवकार मंत्र का जप कर लिया है, परंतु घर में न फोन आया है, न फ्रीज आया है, न टी.वी. आया है...फियाट की तो बात ही कहाँ ? ऐसे लोग जीवनपर्यंत मोह-विषाद के जहर से व्याप्त रहते हैं। कभी भाग्योदय हो...और सत्पुरुष का समागम हो जायं... और ऐसा शान्तसुधारस जैसा ग्रंथ सुनने को मिल जायं... तो संभव है कि मोह का जहर उतर जायं ! पुत्र-प्राप्ति की वासना : एक धनवान पुरुष इसलिए अशान्त और उद्विग्न रहता था, चूंकि उसको पुत्र नहीं था। लड़कियाँ थी, परंतु लड़का नहीं था ! भौतिक सुख के सभी साधन होते हुए भी वह अपने आपको दुःखी मानता था । लडका पाने के लिए उसने कितने सारे उपाय किये थे ? जितने कंकर उतने शंकर किये थे । कितने बाबाफकीरों के आसपास भटकता था ? कितना मंत्र-जाप करता था ? वासनापूर्ति करने की तीव्रता ने उसको पागल सा बना दिया था। ___ मैंने उसको पछा था: तु क्यों लडका पाने के लिए इतना व्यग्र और अशान्त है ? तेरे गाँव में...तेरे घर के पास में ही तने दुर्घटना नहीं देखी है ? उस महानुभाव को एक ही लड़का था न ? लाड़-प्यार में बड़ा हुआ था न ? गर्भ श्रीमंत था न ? ज्यों ज्यों लड़का बड़ा होता गया...त्यों त्यों अविनीत और उदंड बनता गया । माता-पिता का अपमान करने लगा। पढ़ाई पूर्ण नहीं की...व्यसनों का शिकार हुआ...पैसों की चोरी करने लगा...पिता की मृत्यु हो गई...माता के जेवर बेच दिये... शादी की...घर से भाग गया...पिता का घर बेच दिया...रास्ते पर भटकता हो गया... | लड़के से माता-पिता ने कौन-सा सुख पाया ? हाँ, लड़कियों । प्रस्तावना ACHARYA STARTERTAIEVINTAMANDIR २ ५ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने माता वह कुछ बोला नहीं । मेरी बात, क्या पता उसके मन में जँची होगी या नहीं । वासनाविवश मनुष्य हितकारी ज्ञानी पुरुषों की बात प्रायः मान नहीं सकता है । वह दुःखी और अशान्त ही बना रहता है । मोह - विषाद का विष उसके मन में फैलता जाता है । एक दिन उसके भावप्राण नष्ट हो जाते हैं... और वह दुर्गति में चला जाता है । यशःकीर्ति की वासना : ता-पिता को प्रेम दिया, दुःख में सहायता की.... i मोह - विषाद के विष का एक दारुण विकार होता है, यशःकीर्ति का, मानसम्मान का । धन-संपत्ति होने पर भी मान-सम्मान नहीं मिलता है तो मनुष्य अशान्त रहता है, बेचैन रहता है । मान-सम्मान और यशःकीर्ति पाने के उपाय वह खोजता रहता है ! वह पाने के लिए जो कुछ भी अच्छा-बुरा करना पड़े, वह करने के लिए तत्पर हो जाता है। दंभ और कपट करता है । हिंसा और चोरी भी करता है । वैसे दान भी देता है और परोपकार भी करता है । यह सब करने पर यदि लोग उसकी प्रशंसा करते हैं तो वह खुश होता है, थोड़ा अभिमानी बनता है, दूसरों का कभी-कभी तिरस्कार भी करता है । और यदि सब कुछ करने पर भी लोग उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं तो वह नाराज हो जाता है । उसकी निंदा करनेवालों के प्रति रोषायमान होता है । उनकी कटु आलोचना करता है । यह सब करने में उसका मन अति व्याकुल रहता है । न मन का सुख होता है, न मन की प्रसन्नता रहती है । यशः कीर्ति की तीव्र इच्छावाले लोग 'सत्ता' का सिंहासन प्राप्त करना चाहते I हैं | विधानसभा में या लोकसभा में जाना चाहते हैं । इसलिए चुनाव लड़ते हैं। चुनाव में लड़ते हुए कई गलत उपाय करते हैं । जीतने के लिए वे क्याक्या नहीं करते ? आप लोग अच्छी तरह जानते हो । न वे शान्ति पाते हैं, न परिवार को शान्ति दे पाते हैं । घोर अशान्ति के विषचक्र में वे फँस जाते हैं । शारीरिक आरोग्य की वासना : मोह - विषाद का विष मनुष्य को सही विचार नहीं करने देता है । वह नहीं समझने देता है कि धन-संपत्ति की प्राप्ति लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती है ! पत्नी... पुत्र... आदि की प्राप्ति भी अंतराय कर्म के क्षयोपशम से होती शान्त सुधारस : भाग १ २६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यश कीर्ति की प्राप्ति यशःकीर्ति नाम-कर्म के उदय से होती है और अपयशबदनामी होती है अपयश नाम-कर्म के उदय से ! शारीरिक आरोग्य की प्राप्ति शाता-वेदनीय कर्म के उदय से होती है और सभी रोगों का मूल अशाता-वेदनीय कर्म का उदय होता है ! मोह-विष से भ्रान्त बना हुआ मनुष्य, ये तात्त्विक विचार नहीं कर पाता है । वह अतात्त्विक-अयथार्थ विचार ही करता रहता है । जब शरीर रोगग्रस्त बनता है, अनेक औषधोपचार करने पर भी शरीर निरोगी नहीं बनता है, तब उसकी व्याकुलता बढ़ जाती है । उसको मृत्यु का भय सताने लगता है । रोगों से बचने के लिए कैसा भी अनुचित और हिंसा-प्रचुर उपाय करता है । पाप-पुण्य का विचार भी नहीं आता है । रोगग्रस्त स्थिति में यदि स्वजन-परिजन उसकी सेवा नहीं करते हैं, उसकी देखभाल अच्छी तरह नहीं करते हैं... तो वह रोष से, रीस से और क्रोध से भर जाता है । वह कटु वचन बोलता है, वह तीव्र आक्रोश करता है और तीव्र अशांति का भोग बन जाता है । मोह-विषाद के जहर का यह दुष्प्रभाव होता है । संसार में मोह-विषाद का जहर व्याप्त है, उस संसार में सुख हो ही नहीं सकता है, शान्ति मिल ही नहीं सकती है । सुख-शान्ति का एक ही उपाय - भावनाएँ : __ सभा में से : हम लोग संसार में ही है, संसार मोह-विष से व्याप्त है, तो फिर हम सुख-शान्ति कैसे पा सकते हैं ? महाराजश्री : भावनाओं से ! इस शान्तसुधारस ग्रंथ के श्रवण-मनन से । आप लोग सुख और शान्ति पा सको इसलिए तो इस ग्रंथ पर मुझे प्रवचन देने हैं । इस महाकाव्य को गाना है । मानसिक सुख-शान्ति पाने का एक और अद्वितीय उपाय है भावनाओं से आत्मा को भावित करने का ! कितना भी पुण्यकर्म का उदय होगा, कितने भी भौतिक सुख के साधन होंगे, परंतु भावनाओं का मन में चिंतन नहीं होगा, तो शान्ति नहीं मिलेगी ! एक बड़े साधुपुरुष हैं, बड़े तपस्वी हैं... परंतु मन में शान्ति नहीं ! हजारों लोग उनकी तपश्चर्या की प्रशंसा करते हैं, गुणगान गाते हैं... परंतु वे स्वयं में अशान्त हैं । जीवन की कुछ विषमताएँ उनको अशान्त बनाये रखती हैं ! चूँकि तप वे करते हैं, परंतु भावनाओं से आत्मा को भावित नहीं करते ! - - - - - प्रस्तावना २७ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक महात्मा को मैं जानता था, उनकी मृत्यु हो गई है, परंतु उनके जीवनकाल में अनेक उतार-चढ़ाव आये थे । उनका एक अनन्य भक्त था । २५ - ३० वर्षों से उनकी सेवा-भक्ति करता था, उसके गुणगान गाता था । परंतु एक दिन ऐसा आया... भक्त की कोई बात उस महात्मा ने नहीं मानी... और वह भक्त शत्रु बन गया । जिस महात्मा के वह गुण गाता था, अब वह निंदा करने लगा । चरित्र हनन करने लगा । परंतु वे महात्मा निराकुल रहे ! उनका मन अशान्त नहीं बना । एक शिष्य ने पूछा : 'गुरुदेव, वह आपका भक्त अब शत्रु बनकर घोर निंदा कर रहा है, आप उसकी गलत बातों का खंडन क्यों नहीं करते ?' उस महात्मा ने हँस दिया और कहा जैसे प्रशंसा शाश्वत् नहीं होती वैसे निंदा भी शाश्वत् नहीं होगी ! निंदा-प्रशंसा दोनों कर्मजन्य भाव हैं। उसमें हर्ष - शोक नहीं करने चाहिए । अज्ञानी जीव जो भूल करता है, ज्ञानी को वैसी भूल नहीं करनी चाहिए !' मोह का जहर, भावनाओं से उतर जाता है । इसलिए भावनाओं से भावित करना है अपने मन को, अपनी आत्मा को । प्रतिदिन भावनाओं का चिंतन करते रहना है । जब-जब संसार में कोई मोहजन्य विषमता पैदा हो, तब-तब आप अनुरूप भावना का चिंतन कर, मन को स्वस्थ रख सकते हो । एक श्रेष्ठी के विषय में गुरुजनों से सुना था कि वे प्रतिदिन जिनवाणी सुनने उपाश्रय में नियमित ९ बजे आ जाते । ९ बजे प्रवचन शुरु होता । दो महीने के बाद एक दिन वे श्रेष्ठी आधा घंटा देरी से आये और पीछे बैठ गये । प्रवचनकार आचार्यश्री ने उनको देख लिये । प्रवचन पूर्ण होने पर, जब वे श्रेष्ठी चरणस्पर्श करने गुरुदेव के पास आये, तब गुरुदेव ने पूछा : 'आज क्यों देरी हुई ? श्रेष्ठी ने कहा : 'गुरुदेव, एक मेहमान को बिदा देने गया था, इसलिए देरी हो गई ।' बड़ी गंभीरता से उन्होंने यह बात कही । गुरुदेव सोच में पड़ गये, कि पास खड़े हुए एक भाई ने गद्गद् स्वर में कहा : 'गुरुदेव, इनका इकलौता बड़ा बेटा... जो कि दुकान का सारा व्यवहार संभालता था, रात्रि में उसकी मृत्यु हो गई... सुबह में उसकी स्मशानयात्रा थी....:. गुरुदेव की आँखें भर आयी, परंतु वे श्रेष्ठी स्वस्थ रहे । उन्होंने पुत्र को भी घर में मेहमान माना था ! संयोग-वियोग का चिंतन किया था । 'स्वजन - परिजनों से मैं भिन्न हूँ, इस अन्यत्व - भावना से वे भावित बने थे । इसलिए वे पुत्र की मृत्यु से शोकमग्न नहीं बने, अस्वस्थ नहीं बने । आर्तध्यान नहीं किया । २८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाओं का यह अचिंत्य प्रभाव है । मोह-विषाद का जहर उतर जाता है । मोहजन्य वासनाएँ दूर हो जाती हैं । वासनापूर्ति की इच्छाएँ शान्त हो जाती हैं । यदि आप लोग यह चाहते हो तो शान्तसुधारस' ग्रंथ को अवश्य सुनें । नियमित रूप से सुनें । सुनने के बाद, रात्रि के समय चिंतन करें । मनन करें । दूसरे स्वजन, मित्रों के साथ भावनाओं के विषय में वार्तालाप करें। यह सब करने से धीरे-धीरे आपका मन मोह से मुक्त बनता जायेगा । आप शान्ति पाओगे, सुख का अनुभव करोगे । आज बस, इतना ही । प्रस्तावना २९ | Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : ३ : संकलना : * उपदेश : बुद्धिमानों को । * दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न । * भवभ्रमण को समझते हो ? * अनन्त सुख को समझे हो ? * अनन्त सुख पाने की तत्परता । * उपसंहार । PORDERनलाल Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि भव-भ्रमखेदपराङ्गमुखं, यदि च चित्तमनन्तसुखोन्मुखम् । श्रुणुत तत्सुधियः शुभ-भावनामृतरसं, मम शान्तसुधारसम् ॥३॥ हे बुद्धिमान् सज्जनों, यदि तुम्हारा चित्त भवभ्रमण की थकान से उद्विग्न हुआ हो और अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त करने तत्पर बना हो, तो शुभ भावना के अमृतरस से भरपूर भरा हुआ मेरा यह शान्तसुधारस' काव्य एकाग्र मन से सुनते रहो ।' यह उपदेश पवित्र बुद्धिमानों को : __उपाध्यायजी उनको अपना यह शान्तसुधारस' ग्रंथ सुनने के लिए कह रहे हैं कि जो सुधियः हैं । बुद्धिमानों को सुनने को कह रहे हैं, सुंदर-पवित्र बुद्धिवालों को सुनने का आमंत्रण दे रहे हैं । बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही है उन्होंने । उनको मूर्ख श्रोता नहीं चाहिए, उनको अल्पज्ञ श्रोता भी नहीं चाहिए, उनको मात्र बुद्धिमान श्रोता नहीं चाहिए, उनको चाहिए 'सुधियः' श्रोता ! पवित्र-निर्मल बुद्धिवाले श्रोता ! धर्मोपदेश, किसी न किसी एक अपेक्षा से दिया जाता है । जिस अपेक्षा से उपदेश दिया जाता हो, उस अपेक्षा को समझनेवाला श्रोता चाहिए । मूर्ख श्रोता, सामान्य बुद्धिवाला श्रोता, वक्ता की उस अपेक्षा को नहीं समझ सकता है । मलिन बुद्धिवाला श्रोता भी वक्ता के अभिप्राय को नहीं समझ पाता है, इसलिए वह अर्थ का अनर्थ कर देता है । इसलिए वक्ता को चाहिए कि वह श्रोताओं को पहचानें । श्रोताओं की बौद्धिक योग्यता को पहचानें । उनकी धार्मिक-साम्प्रदायिक मान्यताओं को पहचानें । श्रोताओं की बौद्धिक योग्यता समझकर उपदेश देने का होता है । उपदेश का विषय, उपदेश की भाषा...भी श्रोताओं की योग्यता के अनुसार होनी चाहिए। __ एक शहर में हम लोग गये । उपाश्रय के एक ट्रस्टी ने कहा : यहाँ थोड़े दिन पहले एक बड़े ज्ञानी मुनिराज आये थे, पंडित थे । उनका प्रवचन बहुत अच्छा था । हम लोग तो समझ भी नहीं पाये । उन्होंने सापेक्षवाद, नय, निक्षेप...वगैरह की बातें की...परंतु हम कुछ नहीं समझ पाये । थे बड़े विद्वान्...पंडित !' है न बुद्धिमान लोग ! जो विद्वान्, श्रोताओं नहीं समझ सके वैसा उपदेश दें...वे पंडित ! आपके पल्ले कुछ न पड़े, वैसा बोले, वे पंडित ! उपाध्यायजी वैसे श्रोता चाहते हैं कि जो निर्मल-पवित्र बुद्धिवाले हो ! जैन परिभाषा को जाननेवाले हो । जैन परिभाषा का ज्ञान श्रोताओं को होना आवश्यक है। जैसे पहले ही श्लोक में पंचाश्रव शब्द आया। पाँच आश्रव । यदि आश्रय प्रस्तावना Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द की परिभाषा का ज्ञान नहीं होगा तो क्या समझेंगे ? और, प्रवचन के दौरान पारिभाषिक शब्दों के अर्थ समझाते रहेंगे तो प्रवचन नीरस बन जायेगा। इसलिए श्रोता ऐसे चाहिए कि जिनको जैन पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान हो । इन्हीं को सुधियः कहे हैं । मान लो कि प्रवचन के दौरान परिभाषा को समझायें भी, परंतु जो बुद्धिमान होंगे, वे ही समझ पायेंगे । परिभाषा को समझना भी सरल नहीं होता । मंदबुद्धि लोग, अल्पबुद्धि लोग नहीं समझ सकते । भले ही वे उम्र में बड़े हो । उम्र में छोटे हों, परंतु जो बुद्धिमान लड़के होते हैं, वे पारिभाषिक शब्दों को अच्छी तरह समझ लेते हैं । इसलिए विशिष्ट तत्त्वज्ञान का उपदेश बुद्धिमानों को देना चाहिए । सामान्य धर्मोपदेश सभी को दिया जा सकता है । जिसमें अर्थ का अनर्थ होने की संभावना नहीं होती है । दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न : बुद्धिमानों को भी उपाध्यायजी दो प्रश्न पूछते हैं । बड़े महत्त्वपूर्ण हैं ये दो प्रश्न ! 'शान्तसुधारस सुनना है तो मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो ! __ पहला प्रश्न पूछते हैं : 'तुम्हारा चित्त, भवभ्रमण की थकान से उद्विग्न हो गया है क्या ? अब मुझे संसार में जन्म-मृत्यु नहीं पाना है, अनन्त परिभ्रमण से मैं थक गया हूँ... अब नहीं भटकना है संसार की चार गतियों में, ऐसा निर्णय किया है क्या ? __दूसरा प्रश्न पूछते हैं : अनन्त सुखमय मोक्ष पाने के लिए तुम्हारा मन तत्पर बना है क्या ?' 'अब तो मोक्ष ही पाना हैं - ऐसा मनोमन निर्णय कर लिया है क्या ? उपाध्यायजी का यह कैसा निःस्पृह भाव है ? 'मैंने कितना अच्छा संस्कृत महाकाव्य बनाया है, मैं लोगों को सुनाऊँ...लोग मेरी भरपूर प्रशंसा करेंगे...महाकाव्य का उच्च मूल्यांकन करेंगे...' वगैरह स्पृहा उनके मन में थी ही नहीं । अपनी कीर्ति का, अपनी प्रशंसा का कोई ध्येय नहीं था । वे तो स्पष्ट कहते थे -- तुम भवभ्रमण से थक गये हो ? तुम्हें अनन्त सुखमय मोक्ष पाने की तत्परता है ? तो ही आइये और शान्तसुधारस सुनिये । _ केवल टाइम पास करने के लिए सनना नहीं है, कर्णप्रिय लगता है, इसलिए नहीं सुनना है । महाराज साब बहुत अच्छा गाते हैं, सुनने में मजा आता है...' इस प्रकार श्रवणेन्द्रिय की तृप्ति के लिए नहीं सुनना है । इसलिए सुनना है कि शान्त सुधारस : भाग १ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवसंसार से चित्त की विरक्ति बढ़ाना है और अनन्त सुखमय मोक्ष की ओर चित्त की अनुरक्ति बढ़ाना है । संसार - विरक्ति और मोक्ष-अनुरक्ति की दृष्टि से शान्तसुधारस' का श्रवण करना है। शुभ भावनाओं का अमृतरस-पान करना है । इस ग्रंथ - श्रवण का कौन अधिकारी है, यह समझ गये न ? 'भवभ्रमण' को समझते हो ? आपको 'शान्तसुधारस' सुनना है न ? योग्यता प्राप्त कर सुनना है न ? सभा में से : ग्रंथकार जिस योग्यता की अपेक्षा रखते हैं, वह योग्यता तो हम में नहीं है... महाराज श्री : अभी योग्यता भले ही न हो, परंतु योग्यता पाना तो है न ? योग्यता पाने का प्रयत्न करेंगे तो योग्यता प्राप्त कर सकोगे । इसलिए सर्वप्रथम 'भवभ्रमण' को समझना होगा । अपनी आत्मा कब से और कहाँ-कहाँ भटकी है यह बात समझोगे तो तुम्हारा मन संसार - परिभ्रमण से नफरत करने लगेगा | संसारवास से विरक्त बनेगा । दूसरी बात यह सोचने की है कि 'हमारी आत्मा संसार की चार गतियों में क्यों भटक रही है ?' हम भटक रहे हैं, परंतु सोचते नहीं कि क्यों भटक रहे हैं ? क्या पाने के लिए भटक रहे हैं ? एक पुरुष थका हुआ निराश होकर बैठा था । उसको पूछा गया: 'भाई, तुम क्यो निराश होकर बैठे हो ?' वह कहता है : 'मेरा पुत्र खो गया है, उसको कितने दिनों सें खोज रहा हूँ... भटक रहा हूँ... गाँव-गाँव और वन-वन खोजा... भटका... परंतु लड़का नहीं मिला...अब निराश हो गया हूँ... थक गया हूँ...अब आशा छोड़ दी है...।' : दूसरा एक पुरुष निराशा के सागर में डूबा हुआ, शून्यमनस्क होकर बैठा था । उसको पूछा गया भाई, तुम क्यों निराश होकर बैठे हो ?' वह कहता है : 'इस शहर में बीस साल से आया हूँ... बहुत परिश्रम किया करता हूँ... परंतु पैसे नहीं मिलते | थोड़े रुपये मिलते हैं तो टिकते नहीं... दरिद्र का दरिद्र ही रहा हूँ । जितने बाजार हैं, सभी बाजारों में धंधा किया... मेहनत की... मजदूरी की ... परंतु कुछ नहीं मिला... क्या करूँ ? थक गया हूँ...! अब तो मौत की राह देखता हूँ...' वैसे “हमारी आत्मा परम सुख पाने के लिए अनन्त काल से, अनादिकाल से संसार की गतियों में भटक रही है, परंतु परम सुख नहीं मिला है । शाश्वत सुख नहीं मिला है । सुख मिलता है परंतु टिकता नहीं, चला जाता है । जैसा 1 प्रस्तावना ३३ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए वैसा सुख नहीं मिलता, सुखाभास मिलता है... परिणाम स्वरूप दुःख ही मिलता है । वास्तविक सुख खोजते खोजते थक गये... निराश हो गये...। अब इस संसार में सुख पाने के लिए नहीं भटकना है...। संसार में परम सुख, शाश्वत् सुख मिल ही नहीं सकता । क्षणिक सुखों के पीछे अब भटकना नहीं है ।" ऐसा कुछ मन में होता है क्या ? अनादि भूतकाल में ज्ञानदृष्टि से कभी गये हो ? नहीं गये हो न ? चलो, आज ले जाता हूँ अपने अनन्त भूतकाल में...। हम अनन्तकाल ‘अव्यवहार राशि की निगोद में रहे । वहाँ हम एकेन्द्रिय थे । मात्र स्पर्शनेन्द्रिय थी । चेतन होते हुए भी अचेतन जैसे... मूच्छित अवस्था में थे। जैसे जैसे संसार में से जीव मोक्ष में जाते रहे, हम अव्यवहार राशि की निगोद में से निकल कर 'व्यवहार राशि की निगोद में आते रहे। ऐसा शाश्वत् नियम है कि एक जीव मोक्ष में जाता है तब एक जीव अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आता है । अनन्तकाल यह सिलसिला चलता रहता है । - I निगोद - अवस्था में जीवों को अति दुःख होता है । सुख का स्पर्श लवलेश नहीं होता है । 'व्यवहार राशि की निगोद में भी दुःख ही दुःख होता है । हमारा संसार - परिभ्रमण निगोद से शुरू होता है । सर्वप्रथम हम एकेन्द्रिय थे । मूच्छित थे । दुःखी थे । बाद में 'बेइन्द्रिय' जीव बने थे । हमारी स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियाँ थी । मन तो होता ही नहीं । बिना मन जीव की स्थिति की कल्पना करना । फिर भी बेइन्द्रिय जीवों को सुख-दुःख की संज्ञा होती है । हम अनेक बार बेन्द्रिय जीव बने । जन्म-मृत्यु किये, बाद में तेइन्द्रिय जीव बने । स्पर्श, रस के बाद हमें घ्राणेन्द्रिय मिली । तीन इन्द्रियाँ मिली । तेइन्द्रिय जीव योनि में भी हमने अनेक जन्म-मृत्यु किये । दुःख सहते रहे और चउरिन्द्रिय जीवों की योनी में हमारा जन्म हुआ। स्पर्श, रस, घ्राण के बाद हमें चौथी चक्षुरिन्द्रिय मिली; परंतु मन नहीं मिला । चउरिन्द्रिय के जन्मों में भी दुख ही दुःख पाया । अनेक जन्म-मृत्यु करने के बाद पंचेन्द्रिय- योनि में हमारा जन्म हुआ । स्पर्श, रस, गंध, चक्षु के बाद हमें श्रवणेन्द्रिय मिली । कान मिले । परंतु मन नहीं मिला । पशु-पक्षी की योनि मिली । वहाँ पर भी हम दुःख ही दुःख भोगते रहे । बाद में हमें पाँच इन्द्रियों के साथ मन भी मिला । परंतु अविकसित मन, निर्बल मन । यहाँ तक, यानी एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक लाखों योनियों में जन्म ३४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण करते रहे, दुःख सहते रहे । ___ यह अपनी ही अनन्त जन्मों की कहानी है । कैसे-कैसे जन्म हमने पाये...कैसेकैसे घोर दुःख पाये ? ज्ञानदृष्टि से सोचना है । मन मिलने के बाद दुःख बढ़ने लगे । सुख के आभास मिलने लगे । - तिर्यंच-पंचेन्द्रिय की चार लाख योनि में जन्म-मरण किये, - मनुष्य की चौदह लाख योनि में भी जन्म-मरण किये, - नरक की चार लाख योनि में जन्म-मरण किये, और - देवों की भी चार लाख योनि में जन्म-मरण किये। हाँ, देवलोक में भी हमारे जीव ने देवत्व पाया था और वहाँ के श्रेष्ठ भौतिक सुख पाये थे, परंतु वे सुख भी शाश्वत् नहीं थे, वहाँ का जन्म समाप्त होने पर वहाँ के सुख भी समाप्त हो गये । सुख मिलने के बाद चले जाते हैं, तब जीव बहुत ज्यादा दुःखी होता है । वैसे एकेन्द्रिय अवस्था की कितनी योनियों में हमारे जीव ने कितने जन्ममरण किये हैं, जानते हो क्या ? - पृथ्वीकाय की सात लाख योनि है, - अप्काय की सात लाख योनि है, - तेउकाय की सात लाख योनि है, - वायुकाय की सात लाख योनि है, - प्रत्येक वनस्पतिकाय की १० लाख योनि है, और - साधारण वनस्पतिकाय की १४ लाख योनि है । इन सभी योनियों में हमारी आत्मा ने अनेक बार जन्म-मरण किये हैं। जरा शान्ति से सोचना । स्वस्थ दिमाग से सोचना । ऐसी समग्र जीवनसृष्टि में हम भटके हैं, घोर दुःख पाये हैं...और आज भी हम भटक रहे हैं । अभी तक ऐसा सुख नहीं मिला कि जो सुख शाश्वत् हो, अविनाशी हो। वैसे एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को सुख मिलता ही नहीं, सुखाभास थोड़ा सा मिल जायें तो ठीक है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को नरक में सुख का अंश भी नहीं मिलता । तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों को कुछ गाय, भैंस, हाथी-घोड़ा आदि कुछ पशुओं को छोड़कर अन्य पशुओं को प्रायः सुख नहीं मिलता है । पशु-पक्षियों को विशेषकर भयं ज्यादा रहता है । और जहाँ भय होता है वहाँ सुखानुभव नहीं हो सकता है । पक्षियों को भी भय सताता रहता है । पालतू पशु । प्रस्तावना ३५ । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षियों को परतंत्रता का दुःख होता है । पराधीनता बड़ा दुःख होता है न ? मनुष्यों को भी सुख कितना मिलता है ? ज्यादातर मनुष्य दुःखी ही होते हैं। थोड़े मनुष्य भौतिक दृष्टि से सुखी होते हैं, परंतु मानसिक दृष्टि से दुःखी होते हैं । भौतिक सुख क्षणिक और विनाशी होते हैं । वे सुख भी सभी प्रकार के नहीं मिलते हैं । मनपसंद नहीं मिलते हैं । कुछ अधुरे सुख मिलते हैं । प्राप्त सुख के साधन कभी भी चले जा सकते हैं । I प्रश्न : इस मनुष्य-जीवन पूर्ण होने पर पुनः क्या हम तिर्यंच योनि में ... विभिन्न योनियों में पैदा हो सकते हैं ? उत्तर : हाँ, इस जीवन में ज्यादा हिंसादि पाप करने पर हम नरक में, तिर्यंच गति में, निम्नतर मनुष्य गति में उत्पन्न हो सकते हैं । 'निगोद' में भी जा सकते हैं, यानी साधारण वनस्पतिकाय में उत्पन्न हो सकते हैं । अब मुझे आपसे पूछना है : इस प्रकार संसार में अनन्तकाल से जन्म-मरण करते हुए थके हो क्या ? अब इस प्रकार नहीं भटकना है, ऐसा आत्मसाक्षी से निर्णय कर लिया है ? संसार के प्रति निर्वेद पैदा हुआ है क्या ? उपाध्यायजी यह निर्वेद चाहते हैं आपसे । यदि आपके मन में निर्वेद होगा, तो 'शान्तसुधारस' सुनने में आप तल्लीन बन जाओगे । आपकी आत्मा संतृप्ति प्राप्त करेगी । इस महाकाव्य का एक-एक शब्द आत्मा को स्पर्श करेगा । अब आप समझ गये होंगे कि ग्रंथकार ने पहला प्रश्न क्यों पूछा है ? 'अनन्त सुख को समझे हो ? उपाध्यायजी ने दूसरा प्रश्न पूछा है : 'आपका चित्त अनन्त सुख पाने को तत्पर बना है ?' I अनन्त सुख ! बिना अन्त का सुख । ऐसा सुख कि जो एक बार मिलने के बाद चला नहीं जाये । नष्ट न हो । कभी वह सुख कम न हो, ज्यादा न हो । परिपूर्ण सुख हो । वह सुख मिलने के बाद कभी कोई अन्य सुख की अपेक्षा ही नहीं रहे । अनन्त सुख कहो या पूर्ण सुख कहो ! वैसा सुख मिल जाने पर प्राप्त करने को कुछ भी शेष नहीं रहता है । 1 अनन्त सुख के साथ अनन्त आनन्द जुड़ा हुआ होता है । पूर्णानन्द... पूर्ण सुख... ... पाने की आपके चित्त में इच्छा पैदा होनी चाहिए । तत्परता उत्पन्न होनी चाहिए | 'मुझे पूर्णानन्दी होना है, मुझे पूर्ण सुख ही चाहिए, अपूर्ण सुख नहीं चाहिए,' ऐसा आपका दृढ़ निर्णय होना चाहिए । ३६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदृष्टि खुलने पर ही यह बात बन सकती है । जब तक ज्ञानदृष्टि नहीं खुलती है तब तक संसार के क्षणिक और विनाशी सुखों की तृष्णा जगती रहेगी । वे सुख पाने की दीनता बनी रहेगी । क्षणिक-विनाशी वैषयिक सुखों की तृष्णा कृष्णसर्प जैसी है । कृष्णसर्प काटता है तो कैसी वेदना होती है ? वैषयिक सुखों की तृष्णा वैसी ही वेदना देती है । इसलिए संसार के वैषयिक सुखों की तुष्णा को समाप्त करनी होगी। यह कार्य ज्ञानदृष्टि से ही हो सकता है । ज्ञानदृष्टि वैषयिक सुखों के भीतर दुःख का दर्शन करवाती है । जैसे वैज्ञानिक दृष्टि, पानी में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन का दर्शन करवाती है । वैसे ही वैषयिक सुखों में दुःखदर्शन होगा, उन सुखों की तृष्णा नष्ट हो जायेगी । वैसे सुख नहीं मिलने पर दीनता नहीं रहेगी। ज्ञानदृष्टि आपको अनन्त सुख पूर्ण सुख, पूर्णानन्द पाने के लिए प्रेरित करेगी। इसलिए वैषयिक सुखों का त्याग करने के लिए तत्पर करेगी। ___ भगवान महावीर स्वामी के समय में अनेक राजाओं को, अनेक श्रेष्ठियों को...अनेक अमात्यों को ज्ञानदृष्टि जाग्रत हुई थी और उन्होंने अपने विपुल वैषयिक सुख-साधनों का त्याग कर दिया था। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद भी, उनके धर्मशासन में यह सिलसिला चलता रहा है । ज्ञानदृष्टि खुलने पर हजारों...लाखों स्त्री-पुरुषों ने सभी वैषयिक सुखों का त्याग कर दिया है। - राजा दशार्णभद्र, राजा उदयन वगैरह राजाओं ने ज्ञानदृष्टि खुलने पर राजवैभव का पूर्णतया त्याग कर साधुजीवन का स्वीकार कर लिया था न ? - श्रेष्ठी शालिभद, श्रेष्ठी धनकुमार, श्रेष्ठी अवंती सुकुमाल वगैरह ने करोड़ों रुपयों की संपत्ति का त्याग कर और रूप-सौन्दर्यवती पलियों का त्याग कर साधुजीवन स्वीकार कर लिया था न ? २५०० वर्षों का इतिहास पढ़ोगे तो पढ़तेपढ़ते आपकी ज्ञानदृष्टि खुल जायेगी । __ - कई राजारानियों ने, कई राजकुमारियों ने, कई श्रेष्ठीपत्नियों ने और कई श्रेष्ठीकन्याओं ने विपुल सुख-वैभव का त्याग इसलिए कर दिया था, चूंकि वह संपत्ति-वैभव शाश्वत् नहीं था, क्षणिक था। शाश्वत् को पाने के लिए क्षणिक का त्याग करना अनिवार्य होता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि शाश्वत् सुख, अनंत सुख पाने की तत्परता जाग्रत होने पर क्षणिक छट जाता है, विनाशी का विसर्जन हो जाता है । अपूर्णः पूर्णतामेति । अपूर्ण हो जाना यानी खाली हो जाना । क्षणिक-विनाशी सुख छूट जाने पर आत्मा खाली हो जाती है । पर प्रस्तावना 883333333333 BE ३७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पृहा, पर-तृष्णा छूट जाने पर आत्मा खाली हो जाती है । खाली आत्मा अनंत सुख से भर सकती है । खाली-अपूर्ण आत्मा पूर्ण सुख से भर सकती है । अनन्त सख पाने की तत्परता : जिन लोगों के पास आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता है, जो लोग आत्मज्ञान पाये नहीं है, जिनको आत्मा के स्वाभाविक और वैभाविक स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वे लोग यदि मोक्ष पाने की ही बात करते हैं तो वह रटी हुई बात होती है । तोते को जैसे राम-नाम रटाया जाता है और वह राम...राम बोलता है, वैसी बात होती है मोक्ष की । मोक्ष के स्वरूप का ज्ञान नहीं और मोक्ष पाने की बात करना! कितनी बुद्धिहीन बात है ! आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ज्ञान नहीं है, वैभाविक स्वरूप में रमणता है और मोक्ष की बात करता है । उसको शर्म भी नहीं आती । अनन्त सुख को समझे बिना, वह पाने की तत्परता मन में उठती ही नहीं है । आत्मा का स्वयं का जो सुख है वह अनंत सुख ही है, पूर्णानन्द ही है । कर्मजन्य सुख आत्मा का स्वयं का नहीं है । भले ही देवराज इन्द्र का सुख हो, या चक्रवर्ती राजा का सुख हो । ___ चक्रवर्ती राजाओं ने क्यों अपने सारे सुख छोड़कर साधुता का स्वीकार कर लिया था ? भरत चक्रवर्ती, सनत्कुमार चक्रवर्ती, शान्तिनाथ चक्रवर्ती...वगैरह चक्रवर्ती राजाओं ने 'ये सुख हमारे निजी स्वाभाविक सुख नहीं हैं...ये सारे सुख कर्मजन्य हैं, वैभाविक हैं... यह समझे हुए थे, और 'अनन्त शाश्वत् सुख ही आत्मा का स्वाभाविक सुख होता है । वह एक बार पा लेने पर...पुनः पाना नहीं पड़ता है, चूंकि वह चला जाता नहीं है । निजी सुख एक बार ही पाना पड़ता है । पा कर भोगते रहो । अशरीरी-अरूपी बन कर भोगते रहो ! कितना भी वह सुख भोगों, सुख कम नहीं होगा और आत्मा कभी थकेगी नहीं । चूँकि अनंत सुख के साथ अनन्त शक्ति भी आत्मा को प्राप्त हो जाती है । अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन प्रगट हो जाते हैं । सब कुछ अनन्त...शाश्वत्...अविनाशी प्राप्त होता है । वह अनन्तं पाने की इच्छा आपके मन में जाग्रत हुई है क्या ? यह इच्छा जाग्रत होने पर यह शान्तसुधारस ग्रंथ सुनने में आप आनन्द का अनुभव करोगे । आंतर सुख का अनुभव करोगे । ग्रंथकार उपाध्यायजी महाराज श्रोताओं से यह अपेक्षा रखते हैं । 'शान्तसुधारस सुनने की योग्यता का निर्णय उन्होंने इस प्रकार किया है - आपका चित्त 'भवभ्रमखेदपराङ्गमुखं और अनन्तसुखोन्मुखम्' होना चाहिए । तभी आप शान्त सुधारस : भाग १ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तसुधारस' ग्रंथ सुन सकते हो। प्रश्न : ग्रंथ सुनने में भी योग्यता चाहिए क्या ? उत्तर : हाँ, योग्यता चाहिए । आत्मविशुद्धि का श्रेष्ठ लक्ष्य लेकर इस ग्रंथ की रचना की गई है । मात्र जनरंजन के लिए रचना नहीं की गई है । एक साधुपुरुष की, एक महर्षि की यह रचना है । उनको श्रोताओं से धन की अपेक्षा नहीं है, प्रशंसा की अपेक्षा नहीं है । उनको इन दो बातों की अपेक्षा है । मन को भवभ्रमण से पराङ्गमुख करो, अनन्त सुख के सन्मुख करो । उपसंहार : उपाध्यायजी इस तीसरे श्लोक में तीन बातें बताते हैं । सर्वप्रथम वे श्रोताओं को 'सुधियः' कहते हैं । यानी वे श्रोताओं को अच्छी बुद्धिवाले चाहते हैं । अच्छी यानी निर्मल बुद्धिवाले । जो वक्ता के अभिगम को अच्छी तरह समझ सके । दूसरी बात यह होती है कि कवि को, महाकवि को काव्यज्ञ और काव्यप्रिय श्रोता प्रिय होते हैं । शान्तसुधारस महाकाव्य है । शास्त्रीय रागों में इसकी रचना हुई है, तो काव्यपाठ करनेवाले महाकवि का उल्लास बढ़ता है । । दूसरी बात उन्होंने बतायी है : श्रोता भवभ्रमण से थका हुआ...विरक्त चाहिए । जिनको भवभ्रमण से उद्वेग नहीं हुआ है, उनके लिए यह ग्रंथ सुनना विशेष अर्थ नहीं रखता है । अब मुझे संसार की चार गतियों में भटकना नहीं है, जन्म-मरण नहीं करना है, इस प्रकार निर्णय कर लिया हो, ऐसा विरक्त पुरुष चाहिए इस ग्रंथ के श्रोता । तीसरी बात विनयविजयजी ने कही है : जो मनुष्य अनन्त सुख पाने के लिए, पूर्णानन्द पाने के लिए तत्पर बना हो, वह मुमुक्षु ही इस ग्रंथ का श्रोता चाहिए । अनन्त सुख की ओर जिसकी दृष्टि खुल गई हो । यह शान्तसुधारसं ग्रंथ मुझे आपको सुनाना है। आपको कैसी योग्यता संपादन करनी होगी, आप समझ गये होंगे । यदि ऐसी योग्यता नहीं है अभी, परंतु ग्रंथ सुनते-सुनते योग्यता प्राप्त हो जायेगी, तो भी चलेगा । भवविरक्ति और मोक्षानुरक्ति - ये दो बातें आ जाये तो भी यह जीवन सफल हो जायेगा । दृढ़ निश्चय के साथ यदि श्रवण करोगे, तो आशा है कि ये दो बातें आप प्राप्त कर लोगे। आज बस, इतना ही। प्रस्तावना Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : ४ । सकलना * श्रोता : पवित्र मनवाले * बारह भावनाएँ हृदयस्थ करें । मोहमूढ़ता के दुष्परिणाम - अनित्य को नित्य मानना - अशरण होते हुए निर्भय मानना - आत्मतत्त्व का अज्ञान - परचिंता - शरीर की अपवित्रता नहीं देखना - आश्रवों से अज्ञात - संवर का अज्ञान - निर्जरा से अनभिज्ञ - धर्म के प्रति उदासीनता - १४ राजलोक का चिंतन नहीं - बोधि की अप्राप्ति * एक डाकू की कहानी : सच्ची घटना Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमनसो मनसि श्रुतपावना, निदधतां द्वयधिका दश भावनाः । यदिह रोहति मोहतिरोहिता-द्भुतगतिर्विदिता समतालता ॥४॥ श्रोता : पवित्र मनवाले : उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' ग्रंथ की प्रस्तावना में कह रहे हैं : हे पवित्र मनवाले सज्जनों ! सुनने मात्र से अन्तःकरण को पावन करनेवाली बारह भावनाओं को तुम्हारे चित्त में स्थापित करें । इससे एक बड़ा लाभ तुम्हें होगा ! मोह से आच्छादित बनी हुई समता-लता, पुनः नवपल्लवित होगी । मोह का आच्छादन दूर होगा। उपाध्यायजी ने श्रोताओं को कैसा सुंदर संबोधन किया है – 'सुमनसो! पवित्र मनवाले ! उन्होंने श्रोताओं के मन की कौन-सी पवित्रता देख ली होगी? पवित्रता देखे बिना तो वे कैसे कहते ? उन्होंने कहा है, इसलिए मानना पड़ेगा कि उन्होंने श्रोताओं के मन में पवित्रता देखी है ! हमें तो अनुमान ही करना होगा । पहला अनुमान तो यह है कि उन्होंने श्रोताओं में धर्मश्रवण की अभिरुचि देखी थी । एक धर्मगुरु के पास मनुष्य जाता है, धर्म की बातें सुनने जाता है । संसार की आधि-व्याधि-उपाधि से मुक्त होने जाता है... यह बात, उसके मन की पवित्रता का सबूत है । धर्मश्रवण की अभिरुचि सामान्य बात नहीं है, साधारण बात नहीं है, एक विशिष्ट गुण है । गुणानुरागी उपाध्यायजी, इस विशिष्ट गुण का विशिष्ट मूल्यांकन करते हैं । इस गुणवालों को वे पवित्र मनवाले कहते हैं; यह सर्वथा उचित लगता है। दूसरा अनुमान यह है कि वक्ता, श्रोताओं को श्रवण-अभिमुख करने के उपाय करता है । अनेक उपाय होते हैं । एक उपाय यह है कि श्रोताओं को प्रेम से संबोधित करो ! भले, श्रोता का मन पवित्र न हो, परंतु पवित्र बनाने के लिए कहना पड़ता है पवित्र ! लड़का अच्छा नहीं है, फिर भी माँ अपने लड़के को कहती है : मेरा बेटा अच्छा है !' क्यों ? इसलिए कि वह अपने लड़के को अच्छा बनाना चाहती है। तीसरा अनुमान यह है कि साधुपुरुष, श्रोताओं को अच्छे शब्दों में संबोधित करते हैं । आगम ग्रंथों में वैसे संबोधन पढ़ने में आते हैं - 'हे देवाणुप्पिय... हे महानुभाव...' इत्यादि ! वैसे उपाध्यायजी ने यहाँ श्रोताओं के लिये सुमनसों शब्द का प्रयोग किया है । शब्द बहुत अच्छा है । आत्मनिरीक्षण के लिए प्रेरित । प्रस्तावना ४१ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है यह शब्द । क्या मेरा मन पवित्र है ? निर्मल है ? आध्यात्मिक जागृति में आत्मनिरीक्षण उपयोगी तो है ही, अनिवार्य होता है। __ मन सर्वथा निर्मल रहे, यह संभव नहीं है । कुछ बातों को लेकर मन पवित्रनिर्मल रह सकता है । वैसी एक बात है तत्त्व-श्रवण की अभिरुचि ! तत्त्वश्रवण करना, सभी मनुष्यों के लिए संभव नहीं होता । कम लोग ही तत्त्व-श्रवण करने की इच्छा रखते हैं । दुनिया में ज्यादा लोग विकथा-श्रवण के ही अभिलाषी होते हैं । सुमनसों संबोधन ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त नहीं है । आप लोग जो यहाँ शान्तसुधारस सुनने आ रहे हो, उनके लिए यह संबोधन उपयुक्त है । आपका मन अच्छा है, इसलिए आप शान्तसुधारस' सुनने आ रहे हो । अथवा, शान्तसुधारस सुनते-सुनते आपका मन पवित्र बनेगा । निर्मल बनेगा ! बस, आपका दृढ़ प्रणिधान होना चाहिए कि 'मुझे मेरा मन पवित्र बनाना है । शान्तसुधारस' का प्रतिदिन श्रवण करते रहो । निर्मल बनेगा ही। बारह भावनाओं को हृदयस्थ करें : उपाध्यायजी कहते हैं कि बारह भावनाओं को अपने चित्त में स्थापित करें । बारह भावनाओं को सुनने मात्र से हृदय पवित्र होता है । ये बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं : अनित्यत्वाशरणे भवमेकत्वमन्यताम् । अशौचमाश्रवं चात्मन् ! संवरं परिभावय ॥ कर्मणो निर्जरां धर्म-सूक्ततां लोकपद्धतिम् । बोधिदुर्लभतामेता भावयन् मुच्यसे भवात् ॥ १. अनित्य, २. अशरण, ३. संसार, ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशुचि, ७. आव, ८. संवर, ९. कर्म निर्जरा, १०. धर्मसुकृत, ११. लोकस्वरूप और १२. बोधिदर्लभ भावना । ये बारह भावनाएँ हैं । इन सभी भावनाओं को विस्तार से समझाना है । उपाध्यायजी ने एक-एक भावना के विषय में श्लोक और गेय काव्यों की रचना की है । संस्कृत भाषा में इन काव्यों की रचना रसप्रचूर है । अद्वितीय है। उपाध्यायजी चाहते थे कि हर मुमुक्षु आत्मा इन भावनाओं को हृदयस्थ करें । गद्य की बजाय पद्य-काव्य, हृदय को शीघ्र स्पर्श करता है । काव्य हृदय में जल्दी प्रवेश कर पाता है । इसमें भी जो काव्य रसमय होता है, जिस काव्य | ४२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में शब्द-लालित्य होता है, भावों की गहराई होती है, वह काव्य हृदयस्थ हो जाता _ 'भावनाओं का विषय शास्त्रीय है, धार्मिक है, आध्यात्मिक है, ऐसे विषय को मनुष्य के हृदय तक पहुँचाने का श्रेष्ठ माध्यम काव्य है. गेय काव्य है । शान्त-सुधारस भिन्न-भिन्न रागों में निबद्ध महाकाव्य है । विविध शास्त्रीय रागों में निबद्ध है । इसलिए इसको गा सकते हैं...गाते-गाते दिव्य भावों में लीन हो सकते हैं । क्लेशमय, दुःखमय दुनिया को भूल सकते हैं । शान्ति, समता और समाधि की अनुभूति कर सकते हैं । मोहमूढ़ता के दुष्परिणाम : सदैव याद रखना है कि यह दुनिया क्लेशमय है और दुःखमय है । चूंकि समग्र जीवसृष्टि पर राग-द्वेष और मोह का प्रगाढ़ आवरण छाया हुआ है । रागीद्वेषी और मोहान्ध जीव कैसे सुख-शान्ति और समता-समाधि पा सकता है ? नहीं पा सकता है ! राग-द्वेष और मोह के कारण जीवात्मा - ___ * अनित्य को नित्य मानता है । शरीर, आयुष्य, रिद्धि, सिद्धि और संपत्ति, पाँच इन्द्रियों के विषय-सुख, मित्र-स्त्री-स्वजनों का संगम सुख.... यह सब अनित्य, क्षणिक होते हुए भी नित्य मानकर जीता है। * बड़े-बड़े सम्राट, देव-देवेन्द्र, चक्रवर्ती... ये सभी मृत्यु के आगे अशरण होते हैं, फिर भी मोहाकुल मनुष्य अपनी अशरणता का विचार नहीं करता है । अशरण होते हुए भी अपने तेज से, प्रताप से, पुरुषार्थ से, धनवैभव से अभिमान करता रहता है। * मोहाक्रान्त मनुष्य को संसार भयानक वन नहीं दिखता है । लोभ का दावानल नहीं दिखता है । विषय-तृष्णा मृगजल जैसी नहीं लगती है । अनन्त चिन्ताओं से घिरा हुआ रहता है, मन-वचन-काया में निरंतर विकार उत्पन्न होते रहते हैं, कदम-कदम पर आपत्तियों के गहरे खड्डे में गिरता रहता है, फिर भी वह संसार से विरक्त नहीं बनता है । कर्मों के कुटिल बंधनों से बंधा हुआ जीवात्मा दिक् भ्रान्त बन कर भटक रहा है... फिर भी वह अपने आपको स्वाधीन-स्वतंत्र समझता है ! वह सोच ही नहीं सकता है कि वह अनादि भवसागर में अनन्त काल से भ्रमण कर रहा है । मोहवश...अज्ञानवश वह संसार में जो संबंधों के परिवर्तन होते हैं, उन परिवर्तनों को समझ सकता ही नहीं है । जन्म के परिवर्तन के साथ । प्रस्तावना ४३ | Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधों के परिवर्तन होते हैं, जैसे कि पुत्र पिता बनता है, पिता पुत्र बनता है, माता पुत्री बनती है, पुत्री माता बनती है, मित्र शत्रु बनता है, शत्रु स्वजन बनता है .... यह परिवर्तन मोहान्ध जीव नहीं देख सकता है, नहीं समझ सकता है । * मोहासक्त जीव आत्मतत्त्व को नहीं समझ सकता है । मैं आत्मा हूँ... ज्ञान-दर्शन मेरे गुण हैं, आत्मा के अलावा सब मात्र ममत्व है, व्यर्थ है... कल्पना है,' यह परम सत्य का आभास भी मोहान्ध जीव को नहीं होता है । वह तो, जो अपना नहीं होता है, उसको अपना मानने की मूर्खता करता है । परभाव की लालच में डूबा हुआ रहता है । इन्द्रियजन्य आवेगों में परवश रहता है। जो परायी वस्तु होती हैं, उनको अपनी मान कर वह विविध पीड़ाओं को निमंत्रित करता है । I 1 * मोहासक्त अविवेकी जीव परचिंता करता रहता है, परचिन्ता कर वह स्वयं दुःखी होता है । आत्मा से भिन्न जड़-चेतन द्रव्यों का विचार करता हुआ वह कभी उन्मत्त होता है, कभी उदास होता है, कभी प्रसन्न होता है, कभी नाराज होता है, कभी हर्ष से नाचता है, तो कभी शोक से आक्रंद करता है । वह नहीं समझ सकता कि क्या अपना है, क्या पराया है ? वह कभी सोच ही नहीं सकता है कि उसने नरक गति में और तिर्यंच गति में कैसे-कैसे घोर दुःख पाये हैं ? वह काटा गया है, उसके शत- सहस्र टुकड़े हुए हैं, वह जलाया गया है.... मारा गया है... अनंत यातनाएँ उसने भोगी हैं... परंतु मोहमूढ़ता उसे सोचने नहीं देती । वह * मोहाच्छादित बुद्धिवाला मनुष्य अपने शरीर के भीतर देख नहीं सकता है । भीतर में जो मल-मूत्र है, हड्डियाँ और मांस-मज्जा है... गंदगी है... वह नहीं देख सकता है । शरीर की यह अशुद्धि, मलीनता... कभी भी, कैसे भी दूर नहीं हो सकती है यह बात मोहासक्त मनुष्य को कोई समझा सकता नहीं है । वह तो पुनः पुनः स्नान कर शरीर को स्वच्छ करने का प्रयत्न करता रहता है। चंदन का विलेपन कर शरीर को सुगंधित करता रहता है ! वह समझता ही नहीं कि शरीर की अशुचि पानी से या चंदन से दूर होती ही नहीं है । वह नहीं समझ पाता है कि शरीर अपनी स्वाभाविक दुर्गंध छोड़ता नहीं है । शरीर को कितना भी सुशोभित करो, श्रृंगार सजाओ, हृष्ट-पुष्ट करो.... परंतु वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा । शरीर स्वयं तो मलिन है ही, उसके संपर्क में आनेवाले पवित्र पदार्थों को भी वह गंदा कर देता है ! ऐसे शरीर में पवित्रता की कल्पना करना ही बड़ी अज्ञानता है । मूढ़ता है। मोहमूढ़ मनुष्य शरीर के शान्त सुधारस : भाग १ ४४ - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय में सदैव व्यग्र बना रहता है । उसको समता - सुधा का स्वाद कैसे आ सकता है ? * मोहमूढ़ मनुष्य नहीं समझता है कि वह प्रतिसमय विविध आश्रवों से भरा जा रहा है। आश्रवों से यानी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग और प्रमादों से वह अस्थिर - चंचल और गंदा बना है। कौन समझाये उसको कि आश्रव प्रतिक्षण तुझे कर्मों से भर रहा है । जब आश्रवों को ही नहीं समझता है तो फिर आश्रवद्वारों को रोकने की तो बात ही कहाँ ? वह मोहान्ध जीव नहीं समझता है आश्रवों की गतिविधि को । नहीं जानता है आश्रवों के ४२ प्रकारों को । आश्रवों को रोके बिना समत्व कैसे पाया जा सकता है ? * मोहासक्त मनुष्य को आश्रवद्वारों को बंद करने की बात कौन समझाये ? वह आंतरदृष्टि से समालोचन कर ही नहीं सकता । 'संवर' तत्त्व वह समझ नहीं सकता है । इन्द्रियों के, विषयों के एवं असंयम के आवेगों को वह दबा नहीं सकता है, नियंत्रित नहीं कर सकता है। नहीं वह सम्यकत्व को जानता है, न वह मिथ्यात्व की दारुणता को पहचानता है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान करता रहता है...। आर्त- रौद्रध्यान की भयानकता को वह जानता नहीं है । न वह क्षमानम्रता की विशेषता जानता है, न सरलता और निर्लोभता के महान् लाभ जानता है । वह मन-वचन-काया के अशुभ योगों में, अशुभ प्रवृत्तियों में उलझा हुआ रहता है । दुर्गति के गलत रास्ते पर वह चलता रहता है । * जिस प्रकार मोहासक्त जीव आश्रव और संवर को नहीं समझता है, वैसे वह 'निर्जरा' को भी नहीं समझता है । कभी-कभी वह तप कर लेता है परंतु 'मुझे कर्मों का नाश करना है, वह बात वह नहीं समझता है। तप करने से मेरी प्रसिद्धि होगी, मुझे यश मिलेगा... मुझे मूल्यवान भेट मिलेगी... ऐसी तुच्छ इच्छाओं से वह तप करता है । ज्यादातर मोहांभ मनुष्य तो शरीर के व्यामोह के कारण तप करते ही नहीं ! उनका आनन्द खाने-पीने में होता है । दिन-रात वे खाते रहते हैं, भक्ष्य - अभक्ष्य खाते रहते हैं । तप के प्रभावों को वे लोग मानते ही नहीं । तप की वे हमेशा उपेक्षा करते रहते हैं । कर्म... कर्मनाश... कर्मनिर्जरा जैसे शब्द वे जानते ही नहीं ! मोह का यह दुष्प्रभाव है I I * मोह से आक्रान्त मनुष्य धर्म के प्रति भी उदासीन होता है। धर्म के प्रति उसके हृदय में श्रद्धा नहीं होती, प्रेम नहीं होता । वह धर्म के सुंदर प्रभावों को जानता नहीं है, मानता नहीं है । धर्मभावना से प्रेरित होकर न वह दान देता है, प्रस्तावना ४५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न वह शील का पालन करता है, न वह तप करता है और न वह अच्छे विचार करता है । मोहाधीन मनुष्य को असत्य प्रिय होता है, क्रोध अच्छा लगता है, मानसम्मान की चाह रखता है, लोभ का संग करता है । उसको कपट-क्रिया प्रिय होती है, वह अब्रह्मसेवन करता है, ब्रह्मचर्यपालन उसे उच्छा नहीं लगता है। न वह संयम को उपादेय मानता है । * मोहाधीन मनुष्य को यह कहा जाय कि धर्म के प्रभाव से सूर्य और चन्द्र, इस विश्व पर उपकार करने प्रतिदिन उदित होते हैं और भयानक ताप से संतप्त धरा को शीतलता देने के लिए मेघ बरसते हैं, तो वह हँसता है ! सत्य का अस्वीकार कर देता है ! वह यह भी नहीं मानता कि धर्म के प्रभाव से ही समुद्र पृथ्वी को डूबा नहीं देता है और सिंह वगैरह हिंसक पशु मानवसृष्टि का नाश नहीं करते हैं ! वह यह भी नहीं मानता कि मनुष्य के लिए अंतिम शरण धर्म ही है ! __ * मोहासक्त मनुष्य को कहा जाय कि तुम चौदह राजलोक का चिन्तन करो।' वह कब और कैसे करेगा लोकस्वरूप का चिंतन ? उसके चित्त में तो वैषयिक चिंतन चलता रहता है, आर्त-रौद्रध्यान का चिंतन चलता रहता है ! न उसको अधोलोक में आयी हुई सात नरक से मतलब होता है, न ऊर्ध्वलोक के देवलोकों से संबंध होता है । नहीं वह मध्यलोक के असंख्य द्वीप-समुद्रों में रुचि रखता है । मोहाक्रान्त मनुष्य की अभिरुचि लोकस्वरूप के विषय में होती ही नहीं है । लोक में ६ द्रव्य हो या न हो, कृत्रिम हो या अकृत्रिम हो, आदि-अंत रहित हो या सहित हो ! ऐसे लोगों को मनःस्थिरता से कोई मतलब नहीं होता ! फिर वह लोकस्वरूप का चिंतन क्यों करेगा ? * प्रगाढ़ गोदान्धकार से व्याप्त जीवात्मा 'बोधि' कैसे प्राप्त कर सकता है ? वह समझता ही नहीं कि बोधि क्या बात है ? न वह बोधि के प्रभावों को जानता है, न वह बोधि का स्वरूप जानता है ! निगोद के अंधकारमय कूप में... प्रतिसमय जन्म-मृत्यु की परंपरा में अति दुःखी जीवों को भावों की शुद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ? सूक्ष्म निगोद में से निकल कर बादर स्थावरत्व प्राप्त करें, तो भी त्रसत्व प्राप्त करना दुर्लभ होता है । उसमें भी पंचेन्द्रिय होना, पप्ति प्राप्त करना, संज्ञा होना... यह सब अति मश्किल होता है । बाद में मनुष्य-जीवन पाना और दृढ़ आयुष्य पाना सरल नहीं होता। मनुष्य-जीवन पाकर मूर्ख मनुष्य महामोह में...मिथ्यात्व में और मायाकपट में उलझ जाता है और पुनः संसार के अपध कूप में गिर जाता है । मनुष्य शान्त सुधारस : भाग १ ४६ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में सन्मार्ग पाना, सन्मार्ग पर श्रद्धा होना और उस सन्मार्ग पर चलना, मोहान्ध मनुष्य के लिए दुष्कर होता है । वह आत्मबोध पा नहीं सकता । एक डाकू प्रशान्त मनुष्य बनता है : जब तक जीवात्मा मोहाक्रान्त होता है तब तक उसके मन में समत्व नहीं आता है । आत्मा में तो सहज भाव से समता पड़ी हुई है, परंतु मोहदशा ने उसको दबा कर रख दी है । यदि आपको वह समता पानी है, तो मोहदशा को मिटाना होगा। इन बारह भावनाओं के अभ्यास से मोहदशा मिट सकती है । अथवा इन भावनाओं को हृदयस्थ करनेवाले किसी महात्मा के परिचय से मोहदशा दूर हो सकती है। __ अभी-अभी मैंने ऐसी ही एक सत्य घटना पढ़ी है | आपको सुनाता हूँ वह रोमांचक घटना । यह घटना एक डाकू के जीवन की है । घटना एक जंगल में घटी है ! आप तो सज्जन लोग हैं न ? जरा तुलना करना इस घटना को सुनकर ! गुजरात-सौराष्ट्र के सीमा प्रदेश पर बजाना स्टेट था। उस स्टेट के २४ गाँव थे । उसमें 'पीपली' नाम का गाँव है । उस समय की यह बात है जब बजाना का नवाब जीवनखान था। नवाब जत जाति का था। जत जाति मुसलमान होती है । जत कौम बहादुर और लड़ायक होती थी। पीपली गाँव में माधोजी नाम का जत मुसलमान था । माधोजी की पाँच हाथ की ऊँचाई थी । बलिष्ठ शरीर था। चोरी करना, मारामारी करना, लड़ाई-झगड़ा परता... रसके काप थे । व्यभिचारी था, मांसाहारी था । ४०/४५ वर्ष की उम्र होगी । बजाना स्टेट के २४ गाँवों में वह कुख्यात डाकू था। दूर-दूर जाकर वह चोरी कर, प्रभात में वह पीपली आ जाता । वैसे वह समृद्ध था। अच्छा पक्का घर था । गायें थी, भैंसे थी और माणकी नामकी लक्षणवंती घोड़ी थी। उसकी पत्नी भी खानदान घराने की थी । माधोजी के मुँह में कभी रामनाम नहीं था, रहेमान का नाम भी नहीं था। पीपली और बजाना के बीच ६ मील का अन्तर है । बीच में एक तालाब है । वह घंटीयाली तलावडी के नाम से प्रसिद्ध है ! उस तालाब के आसपास बबूल के वृक्ष थे । वृक्षों की घटा थी। उस जगह एक दिन शैव संप्रदाय के दिगंबर बाबाओं ने मुकाम किया। सौ-सवासौ बाबालोग होंगे । शरीर पर भस्म और गले में तुलसी की माला । ललाट में तिलक और हाथ में बड़ा चिमटा । चिमटा ही उनका शस्त्र ! बीच में अखंड अग्नि । साथ प्रस्तावना ४७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में तीन हाथी थे, बीस ऊँट थे, पच्चीस घोड़े थे, तंबू थे और १३० वर्ष की आयुष्य के वयोवृद्ध महंत थे ! सर पर बड़ी जटा थी, लंबी दाढ़ी थी, शरीर कौपीन था, बड़ी-बड़ी आँखें थी और आंखों में से तेज धारा बहती थी । केवल दूध का आहार लेते थे । श्री रामनाम का अखंड जाप करते थे । उनका तंबू अलग था, उनकी अग्नि भी अलग थी । __ मध्यरात्रि का समय था । पीपली का माधोजी घर से निकला । उसको मालुम हो गया था कि इन नंगे बाबाओं की जमात में एक लक्षणवंती तेजन घोड़ी है । वह घोड़ी की चोरी करने उधर पहुँचा । तेजन घोड़ी की अनेक विशेषताएँ होती हैं । वह घोड़ी गुरुमहंत के तंबू के पास मजबूत रस्सी से बाँधी हुई थी । उस घोड़ी की चोरी करने माधोजी वहाँ पहुँचा । वह जमीन पर सो गया और साँप की तरह जमीन पर सरकने लगा। घोड़ी की ओर आगे बढ़ने लगा। वृक्षों की घटा थी। प्रगाढ़ अंधकार था । माधोजी घोड़ी के पास पहुंचा था । पाँच-सात हाथ दूर होगा, और घोड़ी ने उसको देख लिया ! घोड़ी ने जोर से हण...ण...ण...ण... की आवाज लगाई । घोड़ी की आवाज सुनकर महंत जाग्रत हो गये। उन्होंने घोड़ी की ओर सरकते हुए माधोजी को देख लिया। वे सारी परिस्थिति को समझ गये । दूसरी ओर से पड़ाव को रक्षा करनेवाले दो महाकाय नंगे बाबा भी घोड़ी की आवाज सुनकर उसकी तरफ दौड़ते आये । परंतु महंत ने उनको वापिस अपनी जगह जाने का आज्ञा दे दी। वे चले गये । महंत खड़े हुए । महंत ने दूसरी आवाज लगाई माधोजी को। 'बच्चा , इधर आ जा ! उस गंभीर और प्रभावशाली आवाज ने माधोजी की सारी शक्ति को हर लिया। जिस प्रकार मांत्रिक, गारुडी एक ही आवाज से महामणिधर नागराज को बाँध लेता है वैसे महंत की आवाज सुनते ही माधोजी खड़ा हो गया। महंत की दूसरी आवाज आयी – बेटे, घबरा मत, इधर आ जा!' माधोजी महंत के तंबू के पास गया । तंबू के द्वार पर महंत खड़े थे । पूरे शरीर पर भभूत लगी थी। सर पर बड़ी जटा थी। आँखों में तेज था, करुणा थी ! महंत ने माधोजी के कंधे पर हाथ रखा और बोले : क्या तुझे यह घोड़ी चाहिए ? जिनका मुख देखने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं, जिनके स्पर्श से पूर्वकालीन कर्मों का क्षय हो जाता है और जिनका वचन सुनने से मन का मोह मिट जाता | ४८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, ऐसे सत्पुरुष का संयोग पूर्वोपार्जित पुण्य से मिलता है । माधोजी को वैसे सत्पुरुष मिले । उनकी वाणी, स्पर्श और दृष्टि तीनों माधोजी पर गिरे ! माधोजी ने उत्तर नहीं दिया। वह महंत की ओर एकटक देख रहा था। महंत ने पुनः धीर-गंभीर आवाज में कहा : बच्चा, कब तक यह पामर मनुष्य का काम करता रहेगा? तेरे पास भी ऐसी ही माणकी घोड़ी है न ? फिर भी तुझे तष्णा सता रही है न ? अच्छा, तो ले जा घोडी को...छोड ले । परंतु माधोजी तो बूत जैसा ही खड़ा रहा । प्रभात का चन्द्र पृथ्वी पर अपनी किरणों का अमृत बरसा रहा था । वयोवृद्ध महंत अपने पवित्र अंतरात्मारूप चन्द्र द्वारा वाणी और दृष्टि से माधोजी के ऊपर अमृत बरसा रहे थे और माधोजी की आत्मा के ऊपर से मोह-माया के आवरण उतार रहे थे । उन्होंने माधोजी को पूछा : तेरा नाम माधोजी है न ?' माधोजी ने अपना मस्तक झुकाकर हाँ कह दिया। महंत और जोर से हँसने लगे-बोलने लगे : 'माधोजी ! माधव, मेरा माधव ! माधव ! मोहपाश क्यों छूटे ? महंत ने अपना दाहिना हाथ लंबा किया । अपने हाथ में माधोजी का हाथ लिया । उसको अपने तंबू में ले गये । अग्नि की धूनी में से राख लेकर माधोजी के ललाट में लगायी और एक काले रंग की गोल वस्तु लेकर उसके मुँह में रख दी। अपने हाथ पर ग्यारह रुद्राक्ष की जो माला बंधी हुई थी, वह माधोजी के दाहिने हाथ पर बाँध दी और धीर-गंभीर आवाज में उन्होंने माधोजी को कहा - जाओ बेटे, तप करो। यह जन्म तेरा अंतिम जन्म है। परमात्म-स्वरूप में तेरा लय हो! इतना बोलकर, महंत ने माधोजी का हाथ पकड़ा, तालाब के किनारे पर ले गये। पीपली गाँव की ओर खड़ा रखकर, उसकी पीठ पर एक धब्बा लगा दिया और माधोजी पीपली की ओर चलने लगा। उसका मोह का आवरण टूट गया था। जरा सोचें । माधोजी गया था घोड़ी की चोरी करने । और वहाँ उसको एक भारतीय संत पुरुष का संपर्क हो गया ! वे भी करुणावंत संत ! डाकू को साधु बनाने की भावनावाले वे संत थे ! उस संत का कैसा अनुपम व्यक्तित्व होगा । प्रस्तावना Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि माधोजी जैसा डाकू, जो कि सभी महा व्यसनों में फँसा हुआ था, वह संत के प्रभाव में आ गया। उसके हृदय पर संत का प्रभाव छा गया। संत के स्पर्श ने लोहे को सोना बना दिया। उस माधोजी का मोहावरण छिन्न हो गया । उसको अब संसार के किसी भी पदार्थ पर ममत्व नहीं रहा । इस घटना को लिखनेवाले थे अहमदाबाद मणीनगर के वैद्य जादवजी नरभेराम शास्त्री । शास्त्रीजी माधोजी से मिले थे । माधोजी का गाँव पींपली, शास्त्रीजी का भी गाँव था। शास्त्रीजी ने जो बातें लिखी हैं, अपने अनुभव लिखे हैं, वे अनुभव आपको बताऊँगा । मोह का आवरण टूटने पर माधोजी ने कैसी अपूर्व समता - समाधि पायी थी.... वह बताऊँगा । आज बस, इतना ही । ५० शान्त सुधारस : भाग १ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलना : समत्व पाने का निर्णय । डाकू माधोजी निर्मोही बना । अपूर्व और असाधारण बात । मौन कैसे सरल हुआ ? चार बातों का ममत्व टूटना चाहिए स्वजनों का परिजनों का वैभव-संपत्ति का शरीर का निमित्त और उपादान का तत्त्वज्ञान * दुनिया से कोई मतलब न हो ! उपसंहार "" शान्त सुधारस प्रवचन : ५ — - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमनसो मनसि श्रुतपावना निदधतां द्वयधिका दश भावनाः । यदिह रोहति मोहतिरोहिता-द्भुतगतिविदिता समतालता ॥४॥ समत्व पाने का निर्णय : उपाध्यायश्री विनयविजयजी कहते हैं : बारह भावनाओं को हृदयस्थ करो। सुनने मात्र से ये भावनाएँ अंतःकरण को पावन करती हैं । और मोह से आच्छादित समता-लता पुनः नवपल्लवित होगी । मोह का आच्छादन दूर होगा । आपको भीतर में यदि समता पाने की, समंताभाव जाग्रत करने की तीव्र इच्छा जगी होगी और आत्मभाव को पावन बनाने की भावना पैदा हुई होगी तो ही आप मोह का आवरण दूर करने का प्रयत्न करेंगे । बारह भावनाओं का श्रवण करेंगे। 'मुझे समत्व पाना है, कुछ भी हो जायं... मुझे समताभाव में रहना है। यह निर्णय होना चाहिए अपने हृदय में । मुझे समत्व का सुख पाना है ! अब मुझे कषायजन्य सुखाभास नहीं चाहिए। ऐसा आत्मसाक्षिक दृढ़ संकल्प करना होगा ! ऐसे संकल्प के बिना समत्व पाना मुश्किल होगा। असंभव होगा। चूंकि अनादिकाल से जीव कषायजन्य सुखाभासों में ही भ्रमित हो, भटक रहा है । समत्व पाने का प्रयत्न ही नहीं किया है । मोह का आवरण दूर करने के उपाय ही नहीं किये हैं। आत्मा के ऊपर मोह के आवरण प्रगाढ़ बने हुए हैं । मोह के आवरण हटाये बिना सुख-शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती । डाकू माधोजी का मोह दूर हुआ : अपने घर आकर माधोजी घर के बरामदे में शान्ति से बैठ गया। जो माधोजी एक क्षण भी शान्ति से बैठ नहीं सकता और एक क्षण भी स्थिरता नहीं होती ऐसे माधोजी चुपचाप बैठ गया थे । सूर्योदय होने पर, उनकी पत्नी ने उनके कंधे पकड़ कर हिलाये और बोली : उठिये, इस प्रकार मूढ़ बनकर क्यों बैठे हो ? क्या काम करके आये हो ? माधोजी मौन रहा । पत्नी ने दूसरी बार बुलाने का प्रयत्न किया... तीसरी बार प्रयत्न किया। सर पर से पाघ उतार ली । सामने आकर देखती है। माधोजी की आँखें आकाश की ओर थी, वे आकाश में टकटकी लगाकर देख रहे थे । माधोजी की पत्नी घबरा गई और चिल्ला कर बोली : इनको कुछ हो गया है... कोई भूत... स्त्री की आवाज सुनकर आसपास के लोग इकट्ठे हो गये । सब ने माधोजी को अपने-अपने ढंग से बुलाने का प्रयत्न किया, परंतु माधोजी नहीं बोला । बोला नहीं और अपनी जगह से हिला भी | ५२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं । वह सभी लोगों को एकटक देखता रहा । न हर्ष, न शोक, न मान, न अपमान, न मेरा, न तेरा, न सुख, न दुःख... ऐसी स्थिति हो गई माधोजी की। ___ एक-दो घंटे में सारे गाँव में लोगों को मालुम हो गया कि माधोजी को कोई भूत लग गया है । वह न बोलता है, न खाता है, न पीता है !' छोटा गाँव था पीपली । लोग जंतरमंतर करने लगे । दोरा-धागा करने लगे। पीर, जति, फकीर... भुआ आने लगे ! परंतु सभी के उपाय निष्फल जाने लगे। कुछ जति-लोगों ने सोचा कि माधोजी का यह सब ढोंग है । उसको वे लोग मारने लगे... लकड़ी से मारने लगे... फिर भी माधोजी बोलता नहीं है, खाना माँगता नहीं है । जो सामने आता है उसके सामने एकटक देखता रहता है । कोई उसके सामने थाली में रोटी रखता है तो दो टकडे खा लेता है, पानी पी लेता है । इसके अलावा लोगों के साथ वैसे जीता है कि जैसे किसी के साथ किसी प्रकार का संबंध ही न हो । निर्विकारी, निष्कामी बन कर जीता है । एक वर्ष तक ऐसा चलता रहा । किसी का कोई उपाय काम नहीं आया । उसकी पत्नी का भी मोह टूट गया । पत्नी घर में से जेवर, पैसे वगैरह लेकर अपने मायके चली गई । घर में अब अकेला माधोजी रह गया । आसपास के लोग माधोजी के घर में आते और जो कुछ हाथ में आता वह ले जाते ! घर खाली हो गया । माधोजी के शरीर पर मात्र दो वस्त्र रह गये । जो लोग माधोजी के घर में से वस्तु उठाकर ले जाते और माधोजी के सामने देखते, माधोजी उसके सामने अट्टहास करते । जैसा पागल मनुष्य का हास्य होता है वैसा हास्य होता । जड़भरत का हास्य ! जैसा हास्य उनके गुरु-महंत का होता था, वैसा माधोजी का हास्य होता था। ___ लोग माधोजी के घर के द्वार उखाड़ कर ले गये । छप्पर तोड़ कर ले गये । घर की मात्र दीवारें खड़ी रह गई । माधोजी वैसी जगह में पड़े रहते थे। कोई दयावान पुरुष... कोई मित्र, स्नेही थाली में रोटी-सब्जी लाकर माधोजी के सामने रखते तो वे खा लेते और तालाब में से पानी पी लेते । ___ मध्यरात्रि के समय माधोजी बाहर आते और अट्टहास करते । गाँव में सोये हुए लोग जग जाते... | गाँव के बाहर आकर वे दूसरी बार अट्टहास करते और चलते जाते । तीन मील चल कर वे उस घंटीयाली तलावड़ी के किनारे पर जाते कि जहाँ उसके गुरु का मुकाम था। गुरुचरण से जो पृथ्वी पावन हुई थी । जहाँ पर माधोजी की मोहान्धता दूर हुई थी और समत्व की प्राप्ति हुई प्रस्तावना Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। माधोजी वहाँ जाकर पृथ्वी की रज लेते और अपने मस्तक पर रखते । आँखों में से अश्रुधारा बहती... अंत में अट्टहास करते और वापस पींपली लौटते 1 यह नित्यक्रम आठ वर्ष तक चलता रहा। जब माधोजी के वस्त्र गंदे हो जाते, पसीने से दुर्गंधमय हो जाते, वस्त्रों में जू पड़ जाती, सर में से भी जू जमीन पर गिरती तो माधोजी उठाकर सर में रख देते... और हँसते । शरीर के ऊपर के वस्त्र फट जाते... तब गाँव के सज्जन लोग नये दो वस्त्र सिलवाकर, माधोजी को पहना देते । माधोजी को अब दिन-रात का भान नहीं रहता था । न किसी से प्रीत थी, न किसी से वैर था । गाँव में रहने पर भी वे गाँव से न्यारे थे । सुख - दुःख का कोई भेद नहीं रहा था । ऐसी स्थिति में माधोजी ने आठ वर्ष बिता दिये थे । तब इस प्रसंग के लेखक वैद्य जादवजी नरभेराम शास्त्री, पींपली पहुँचते हैं । अब मैं उनके ही शब्दों में आगे की कथा कहता हूँ । I 'मैं उस गाँव में गया। गाँव के प्रवेशद्वार के पास ही मेरा घर था | प्रवेशद्वार को गुजराती में 'झांपों दरवाजा कहते हैं । गर्मी के दिनों में मैं दरवाजे के पास ही खाट डालकर सो जाता था । प्रथम रात्रि में ही मैंने माधोजी का अट्टहास सुना । मैं तुरंत जग गया । मैं खड़ा हुआ । उसके पास गया, उसको देखा... मैंने मान लिया कि वह सचमुच अवधूत था, योगी पुरुष था । हमारी आँखें मिली । एक-दूसरे को पहचान लिया । अब माधोजी मध्यरात्रि के समय जब गाँव के बाहर जाते, तब प्रवेशद्वार में मेरी खटिया के पास आकर खड़े रहते, मेरे सामने एकटक देखते रहते... मैं भी जग जाता... वे मंद-मंद मुस्कराते और चले जाते । आठ वर्ष से वे बोले नहीं 1 थे । गाँव के लोग माधोजी को पागल मानते । माधोजी पूरे जगत को पागल मानते हुए अपने मार्ग पर चल रहे थे । परंतु उनको जैसे विश्राम की प्रतीक्षा थी वैसा विश्राम गाँव के प्रवेशद्वार पर मिल गया और मुझे कई वर्षों से जैसे पुरुष की अपेक्षा थी वैसा पुरुष मिल गया ! दो महीने तक हमारा इस प्रकार मौन मिलन होता रहा । मैंने उनको बुलाने का उपाय सोचा। मैं उनसे बात करना चाहता था । मैंने एक उपाय सोच लिया । रात्रि के समय, जहाँ दरवाजे के पास मैं सोता था, वहाँ पर लालटेन जलाकर मैं तुलसी - रामायण का अयोध्याकांड पढ़ने लगा । प्रतिदिन माधोजी रात्रि में वहाँ आकर बैठने लगा । श्रीराम का वनवास, अयोध्यावासियों का कल्पांत, भरत का रुदन ... वगैरह का मैं गुजराती भाषा में I 1 शान्त सुधारस : भाग १ ५४ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन करता । माधोजी की आँखों में से अविरत अश्रुधारा बहती रहती । कथा पूर्ण होने पर माधोजी चला जाता । इस प्रकार मध्यरात्रि का हमारा मिलन चलता रहा । लंकाकांड पूर्ण हुआ । राम वापस अयोध्या आये । गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को राजसिंहासन पर आरूढ़ किये, अभिषेक किया। उसी रात में माधोजी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे मेरे ही घर में ले गया । पुस्तक और लालटेन लेकर मैं घर में गया । आषाढ़ महीने की शुक्ला नवमी थी। माधोजी ने आठ वर्ष और सात महीने के बाद मुँह से आवाज दी और मुँह में से काले पाषाण का शालिग्राम बाहर निकाला । मुझे बताते हुए बोले - 'देख ले यह गुरुप्रसादी !' शालिग्राम और ११ रुद्राक्ष की माला को मैंने दो हाथ जोड़कर भावपूर्वक प्रणाम किया । माधोजी को भी मैंने प्रणाम किया। माधोजी ने शालिग्राम मुँह में रख दिया, माला हाथ पर बाँध ली, अद्भुत अट्टहास किया और चल दिये । उस दिन के बाद हमारी मुलाकात घर में होने लगी । कथा पूर्ण होने पर मैं उनको कुछ प्रसाद देता, वे प्रसन्नता से खाते । धीरे-धीरे उनको मेरी मुमुक्षता पर विश्वास हुआ और माधोजी अपने दुष्कृत्यों की कथा मुझे सुनाने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने चोरी और व्यभिचार के दुष्कृत्य मुझे सुनाये । अनेक प्रसंग सुनाये। बाद में घंटीयाली तलावड़ी के ऊपर सद्गुरु का संपर्क कैसे हुआ... वह कहानी भी सुनायी । गुरुदेव की बात करते-करते वे द्रवित हो जाते और आँसू बहाते । उनको तुलसी - रामायण सुनने में आनंद आता । मैं धीरे-धीरे सरल ग्रामीण भाषा में सुनाता । वे संपूर्ण निरक्षर थे । बस, सुनते रहते । बार-बार वे पाँच पांडवों की कथा कहने का आग्रह करते । मैं वह कथा उनको सुनाता । उन्होंने मुझे कहा था 'अपनी इस ज्ञानगोष्ठि की बात किसी को कहना नहीं । मैंने उनकी मृत्यु तक यह बात किसी को नहीं कही थी । एक वर्ष तक उनके साथ मेरा सहवास रहा था । उनके जीवन में किसी प्रकार का दूसरा परिवर्तन नहीं आया था । वे वैसे ही निश्चल, निष्काम और निर्द्वद्व रहे थे । - जिस दिन मुझे गाँव छोड़कर जाना था, मैंने उनको कहा था 'माधोजीभाई, अब मैं जाऊँगा ।' सुनकर वे हँसे थे । उन्होंने मुँह में से शालिग्राम निकालकर मुझे दर्शन कराये। मैंने दंडवत् प्रणाम किये। वापस उन्होंने मुँह में शालिग्राम रख दिया, अट्टहास किया और चले गये ! जैसे उनका और मेरा कोई संबंध ही न हो वैसे निर्लेप बनकर चले गये । - प्रस्तावना ५५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह वर्ष तक वे जड़भरत की तरह जीवन जीये और देह छोड़ दिया। अपूर्व और असाधारण बात : ___ मोह का आवरण ट जाने के बाद कितना अपूर्व समत्व माधोजी को प्राप्त हुआ था ! वैसे वे निरक्षर थे, अनपढ़ थे, फिर भी समत्व का वैभव कितना महान् था ? - धन-माल लेकर पत्नी चली गई। - लोगों ने घर का छप्पर भी नहीं छोड़ा। - घर में न कपड़ा रहा, न बिछोना रहा, न कुछ खाने को रहा । सब कुछ चला गया... फिर भी समत्व नहीं गया ! किसी के प्रति भी रोष, रीस या क्रोध नहीं आया ! यह क्या सामान्य बात है ? नहीं, यह असाधारण और अपूर्व बात है। - लोगों से कुछ भी माँगना नहीं, भोजन भी नहीं माँगना ! - किसी से बात नहीं करना, वह भी बारह वर्ष तक ! समता को व्यापक अर्थ में समझना होगा ! न राग, न द्वेष - इसको कहते हैं समता ! माधोजी पागल नहीं बन गये थे ! शून्यमनस्क नहीं बन गये थे । मौन धारण करने के लिए ही उनके मुँह में गुरु ने शालिग्राम-पत्थर रखा था । जिह्वा पर विजय पाने का ही वह उपाय था । पत्नी धन-माल लेकर चली गई, तो पत्नी के ऊपर क्रोध नहीं आया, दुर्भाव नहीं आया ! दुःख में निकट का स्नेही चला जाये तो क्या होता ? जरा स्वस्थ दिमाग से सोचो । मात्र कहानी सुनकर चले नहीं जाना । यह सत्य घटना है...। इस कलियुग में घटी हुई घटना है... एक डाकू-चोर-व्यभिचारी पुरुष के जीवन की घटना है ! आप तो सज्जन हो न? सदाचारी और समझदार हो न? कहिए, इस प्रकार पत्नी चली जाय तो क्या हो जाय ? सभा में से : भयंकर क्रोध ! महाराजश्री : लोग घर में लूट मचाये तो ? सभा में से : तुरंत पुलिस स्टेशन पर फोन ! महाराजश्री : शरीर में भूत...डाकिनी...शाकिनी आयी है...ऐसा समझकर ओझा वगैरह मारने लगे तो ? सभा में से : हम डंडा लेकर मारने लगे ! अथवा बचने के लिए भाग शान्त सुधारस : भाग १ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायें ! मन में रोष...प्रतिकार की तीव्र इच्छा... वगैरह आये बिना रहे नहीं ! यह तो बात है । समता की बात करना सरल है, जीवन में समता से जीना मुडिकल है। सभा में से : असंभव लगता है ! महाराजश्री : सद्गुरु के अनुग्रह से असंभव भी संभव बन जाता है ! मुश्किल काम भी सरल बन जाता है ! मोह का आवरण टूट जाना चाहिए ! बाद में सब कुछ संभव है, सरल है, सुकर है । मौन कैसे सरल हुआ ? दूसरी बात है मौन की । माधोजी ने बारह वर्ष तक मौन धारण किया था । आप बारह दिन भी मौन रह सकते हो ? नहीं न ? माधोजी ने दुनिया से सभी संबंध तोड़ दिये थे! पत्नी चली गई और स्नेही-स्वजन-मित्र वगैरह विमुख हो गये ! अब किस से बात करना ? जिनका चार बातों से संबंध टूट जाता है उनको किसी से बोलने की आवश्यकता नहीं रहती है । - स्वजनों से संबंध टूट जायें, - मित्र, स्नेही, परिचितों से संबंध कट जायें, -- वैभव-संपत्ति-दौलत से ममत्व टूट जायें, और - शरीर से ममत्व का संबंध नहीं रहे... । तो मौन रहना सरल बन सकता है । ये चारों बातें माधोजी में नहीं थी क्या ? चारों बातें थीं । वे इस दुनिया से अब किसी प्रकार का संबंध बाँधना नहीं चाहते थे । शरीर से भी ममत्व जोड़ना नहीं चाहते थे । जो टूट गया सो टूट गया... । ___ कहिए, आप लोग तो श्रावक हैं न ? समकित दृष्टि हैं न ? इन चार बातों में से कौन-सी बात है जीवन में ? सभा में से : एक भी नहीं है ! महाराजश्री : फिर भी अभिमान कितना ? किस बात को लेकर अभिमान कर रहे हो ? इनमें से एक भी बात नहीं होने पर भी अभिमान कर सकते हो ? आप नहीं चाहते हो फिर भी स्वजन आप से मुँह मोड़ लें, तो आपके मन में क्या होगा ? आप नहीं चाहते, फिर भी मित्र वगैरह परिजन आप से संबंध तोड़ दें, तो क्या होगा ? आप नहीं चाहते फिर भी संपत्ति चली जायें, तो क्या प्रस्तावना Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा ? जरा शान्ति से सोचना । स्वस्थ दिमाग से सोचना । यदि समता पाना है तो यह चार प्रकार का मोह तोड़ना ही पड़ेगा । चारों बातों का ममत्व टूटना चाहिए : यदि इन चार बातों का ममत्व नहीं टूटता है तो मौन नहीं रह सकता है 1 समता नहीं आ सकती है। चार में से एक बात का भी मोह रहता है, तो भी समता नहीं टिकती है । मैंने ऐसे कई प्रकार के लोग देखे हैं । कुछ उदाहरण देकर बताता हूँ । नाम सही नहीं बताऊँगा । 1 एक मुनि थे। मुनि थे इसलिए स्वजन - परिजन और वैभव - संपत्ति के तो त्यागी थे ही! परंतु शरीर तो था ही! मुनि का नाम तत्त्वविजयजी समझना । उनको शरीर पर मोह था, ममत्व था । जब शरीर अस्वस्थ होता... वे विचलित हो जाते। एक दिन उनके शिष्य ने उनकी सेवा में उपेक्षा कर दी, तो तत्त्वविजयजी का क्रोध आसमान छूने लगा और शिष्य के सर पर डंडा मार दिया। वे समता नहीं रख पाये । - एक महानुभाव को स्वजन - परिजन और शरीर से लगाव बहुत कम था, परंतु धन-संपत्ति से तीव्र लगाव था । धन-संपत्ति के विषय में तीव्र राग-द्वेष करते । हिंसा करवाते और असत्य भी बोलते । उनके मन में सदैव अशान्ति बनी रहती । - मैं एक सज्जन को पहचानता हूँ । उनको धन-संपत्ति से लगाव नहीं है, शरीर से भी लगाव नहीं है... परंतु स्वजनों से अति लगाव है । स्वजनों में भी पत्नी से ज्यादा लगाव है । इसलिए वे हमेशा अशान्त - परेशान रहते हैं ! चूँकि उतना लगाव पत्नी को पति के प्रति नहीं है । - एक मुनि हैं। उनको इन चारों बातों से लगाव नहीं है; परंतु नाम से, कीर्ति से... यश से भारी लगाव है ! जरा भी किसी ने जाने-अनजाने में अपमान कर दिया अथवा निंदा कर दी... तो वे अशान्त हो जाते हैं । क्रोधी हो जाते हैं । उनका समताभाव चला जाता है । उन्होंने ज्ञान और तपश्चर्या को यश-कीर्ति का साधन बना दिया है ! वे अपने ज्ञान और तप से समता नहीं पा रहे हैं । कषायों को बढ़ाते हैं ! I निमित्त और उपादान का तत्त्वज्ञान : सभा में से: माधोजी के जीवन परिवर्तन में, हृदय - परिवर्तन में मुख्य निमित्त शान्त सुधारस : भाग १ ५८ -- Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो वे महंत ही थे न ? महाराजश्री : हाँ, वे ही निमित्त थे । परंतु निमित्त तभी असर करता है, जब उपादान योग्य होता है । उपादान की योग्यता परिपक्व होती है । यदि माधोजी का उपादान (आत्मा) योग्य नहीं होता, परिपक्व नहीं होता तो महंत का निमित्त कोई असर नहीं करता । 'निमित्त और उपादान का तत्त्वज्ञान समझने जैसा है । इस तत्त्वज्ञान को समझनेवाले कभी निराश नहीं होते और कभी कर्तृत्व का अभिमान नहीं होता ! मान लो कि मैंने किसी व्यसनी व्यक्ति को उपदेश दिया और उसने व्यसन का त्याग कर दिया । यदि मैं निमित्त-उपादान का तत्त्वज्ञान जानता हूँ तो मुझे अभिमान नहीं होगा कि मैंने... मेरे उपदेश से उसने व्यसनों का त्याग कर दिया ! मैं यह समझंगा कि उसका उपादान योग्य था, इसलिए मैं निमित्त बन गया । वैसे मैंने बहुत अच्छा उपदेश दिया, फिर भी उस व्यक्ति ने व्यसनों का त्याग नहीं किया, तो मैं निराश नहीं होऊँगा अथवा उस व्यक्ति पर मुझे नफरत भी नहीं होगी। मैं समझूगा कि उसका उपादान (आत्मा) योग्य नहीं था, परिपक्व नहीं था, इसलिए वह उपदेश ग्रहण नहीं कर सका। आपकी अच्छी बात भी, सच बात भी आपका स्वजन या मित्र-स्नेही नहीं मानता है, तो आपको क्या होता है ? या तो गुस्सा आता होगा ? या तो निराशा होती होगी ? गुस्सा नहीं करना, निराश भी नहीं होना । उपादान की योग्यता नहीं होती है तो उसके ऊपर अच्छे निमित्त का भी असर नहीं होता है । निमित्तउपादान की यह बात आप अच्छी तरह समझ लो । आर्त-रौद्रध्यान से बच जाओगे। चित्त स्वस्थ रहेगा । राग-द्वेष कम हो जायेंगे । समताभाव बना रहेगा। दुनिया से कोई मतलब न हो ! विशिष्ट ज्ञानी पुरुष उपादान की योग्यता-अयोग्यता को अच्छी तरह पहचान लेते हैं। योग्यता दिखती है, तभी वे उपदेश देते हैं, अन्यथा नहीं। उस वयोवृद्ध शैवमार्गी महंत ने माधोजी की योग्यता देख ली होगी। तभी उसको उपदेश दिया और शालिग्राम तथा माला दी । ऐसे कई पापी जीव, भीतर से योग्य होने पर, उपादान की योग्यता होने पर, सत्पुरुषों की कृपा के पात्र बन जाते हैं और उनका अच्छा जीवन-परिवर्तन हो जाता है । प्रस्तावना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छा जीवन-परिवर्तन तभी होता है, जब मोह का बंधन टूटता है । चारों प्रकार के मोह का बंधन टूट जाता है, तब सर्वप्रथम मनुष्य में समत्व आ जाता है । दुनिया के प्रति उदासीनता आ जाती है । दुनिया स्वप्नवत् दिखने लगती है । विचारों की दुनिया बदल जाती है । विचारों में नहीं रहते हैं विकार, नहीं रहती है उत्तेजना । विचार- धारा अन्तर्मुखी बन जाती है । बाह्य जगत से उसका संबंध टूट जाता है । उपाध्यायजी ने इसी ग्रंथ के अंतिम काव्य में जो बात लिखी है - परिहर परचिन्ता परिवारम् चिन्तय निजमविकारम् रे... वह बात बन जाती है। परपदार्थों की चिंताओं को छोड़ दे और अपने अविकारी स्वरूप का चिंतन कर | मोह का बंधन टूटने पर ही यह बात बनती है । माधोजी के अंतिम १२ वर्ष के जीवन में यही बात बनी थी न ? अपने ही स्वरूप में मस्त रहे थे । दुनिया की कोई परवाह नहीं की । जिसको जो मानना हो मानें ! पागल मानना हो तो पागल माने और जड़भरत मानना हो वह जड़भरत माने । दुनिया से कुछ लेना -देना ही नहीं था ! दुनिया से कुछ मतलब ही नहीं था। हमें तो दुनिया से मतलब है ! लेना-देना है ! दुनिया हमें सज्जन माने... सत्पुरुष मानें... ऐसी हमारी इच्छा होती है । उपसंहार : ग्रंथकार उपाध्यायजी बारह भावनाओं का श्रवण करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि ये ऐसी भावनाएँ हैं कि जिनका श्रवण करने मात्र से मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है । मोहवासना दूर होने पर समताभाव प्रगट होता है । महत्त्व की बात है मोहवासना को मिटाने की । मूलभूत बात उन्होंने यहाँ कह दी है । इसके पहले जो बात उन्होंने 'यदि भवभ्रमखेद... वाली कही है, वह बात भी तभी संभव हो सकती है जब मोहवासना दूर होती है । वैराग्य और मोक्षप्रीति, मोहवासना टूटे बिना संभव ही नहीं है । __ हालाँकि ये बारह भावनाएँ ऐसी हैं और उपाध्यायजी ने इस प्रकार गेय काव्यों में रची हैं कि सुननेवालों की मोहवासना नष्ट हो ही जायें ! परंतु सुननेवालों का उपादान योग्य होना चाहिए । निमित्त (यह ग्रंथ) तो श्रेष्ठ है ही ! योग्य-सुयोग्य ६० शान्त सुधारस : भाग १|| Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपादान पर इस निमित्त का असर होगा ही । यानी उनकी मोहवासना मिटेगी ही । सभा में से : उपादान की योग्यता परिपक्व करने के लिए क्या-क्या करना चाहिए ? महाराजश्री : तीन काम करने चाहिए । तीनों समय (सुबह-दोपहर-शाम) प्रतिदिन चार शरण (अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म) का स्वीकार करें, दुष्कृत्यों की आत्मसाक्षी से निंदा करें और सुकृत्यों की अनुमोदना करें । इन तीन बातों को विस्तार से समझना हो तो पंचसूत्र ग्रंथ का विवेचन पढ़े । बहुत अच्छा ग्रंथ है । उपादान की योग्यता परिपक्व करने के लिए ये तीन बातें अवश्य कर्तव्य विशेष बातें आगे करेंगे। आज बस, इतना ही। AI प्रस्तावना ६१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : ६ |: संकलन : आर्त-रौद्रध्यान आग है आर्तध्यान रौद्रध्यान विषय लोलुपता विषयलोलुपी प्रेत बना विषयलोलुपी कर्तव्यनिष्ठ नहीं तात्याटोपे : एक घटना वज्रस्वामी : एक प्रसंग विवेकशोभा उपसंहार . -71 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरौिद्र-परिणामपावक-प्लुष्टभावुक विवेक सौष्ठवे । मानसे विषयलोलुपात्मनां क्व प्ररोहतितमां शमाङ्कुरः ॥ ५ ॥ उपाध्याय श्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस की प्रस्तावना में कह रहे हैं : आर्तध्यान और रौद्रध्यान के क्रूर विचार आग जैसे हैं । वह आग सुंदर विवेक की शोभा को जला देती है । जिसके हृदय में विवेक की शोभा जल गई है वैसे विषयलोलुपी मनुष्यों के हृदय में समता का अंकुर कैसे प्रगट हो सकता है ? आर्त-रौद्रध्यान आग है : __ जो जलाती है उसे आग कहते हैं । अनेक प्रकार की आग होती है । जो मकान, वस्त्र, लकड़ी, घास वगैरह को जलाती है, वह विश्व प्रसिद्ध आग है । इस आग को सभी लोग जानते हैं, समझते हैं । दूसरी आग होती है वचन की आग, वाणी की आग । कट, कठोर, कर्कश वचन आग जैसे होते हैं । दूसरों के मन को जलाते हैं और कभीकभी वैसे वचन दूसरों को जला देते हैं, जलकर मनुष्य आत्महत्या कर लेते हैं । कोई वैसे कटु वचन सुनकर जलते नहीं, जलकर मर नहीं जाते, परंतु चित्त में भयानक जलन महसूस करते हैं । ___ तीसरी आग होती है विचारों की । जो मनुष्य को स्वयं को जलाती है । कुछ वैसे दुष्ट विचार होते हैं, जो चित्त को जलाते रहते हैं । चित्त की शान्ति को, चित्त की प्रसन्नता को, चित्त के विवेक को जलाते हैं । भीतर से मनुष्य स्वयं जलता है। आर्तध्यान : एक वैसी आग है आर्तध्यान की। यहाँ ध्यान शब्द का प्रयोग दुष्ट विचारों के विषय में हुआ है । तीव्र कोटि के दुष्ट विचार आर्त-ध्यान कहे जाते हैं । आर्तध्यान में वैसे विचारों का प्रवेश है कि आप लोग सुनकर चकरा जाओगे ! हाँ, हम ही हम विचार करते हैं, अपने ही विचारों से हम जलते हैं, फिर भी हम अपने विचारों को पहचानते नहीं ! मुख्य रूप से चार प्रकार का आर्तध्यान बताया गया है - - इष्ट के संयोग के विचार, - इष्ट के वियोग के विचार, - अनिष्ट के संयोग के विचार, - अनिष्ट के वियोग के विचार । प्रस्तावना ६३ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जो इष्ट होता है, प्रिय होता है वह हमें मिले - इस विषय में मनुष्य सोचता रहता है । जो इष्ट और प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति, मनुष्य के पास होती है, वह उसके पास बनी रहे, यह भी सोचता रहता हैं । इस चिंतन में, ऐसे विचारों में प्रायः हिंसा, असत्य, चोरी, अनीति, अन्याय... वगैरह पापों का समावेश हो ही जाता हैं | इष्ट और प्रिय वस्तु या व्यक्ति सहजता से नहीं मिलता है तो मनुष्य गलत रास्ते से पाने का प्रयत्न करता है । भरत चक्रवर्ती को बाहुबली का राज्य मांगने पर नहीं मिला, बाहुबली ने भरत की आज्ञांकितता नहीं मानी तो भरत युद्ध करने तत्पर हो गया था न ? युद्ध यानी हिंसा ! कुछ वर्ष पूर्व अमरीका ने इराक पर आक्रमण कर दिया था न ? कैसा भयानक युद्ध हुआ था ? क्यों ? अमेरिका इराक पर अपनी सत्ता चाहता था ! जैसे राष्ट्रीय स्तर पर यह होता है, वैसे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसा होता है । इष्ट और प्रिय के संयोग की इच्छा करना और प्राप्त इष्ट और प्रिय की रक्षा के विचार करना, आर्तध्यान नही है । 1 २. दूसरा प्रकार है आर्तध्यान का, इष्ट और प्रिय के वियोग के विचार । मनुष्य के पास जो इष्ट और प्रिय होता है, मनुष्य नहीं चाहता कि वह चला जायें, नष्ट हो जायें । प्रिय वस्तु हो या प्रिय व्यक्ति हो । मनुष्य ऐसी चिन्ता कर दुःखी होता है ! एक भाई इसलिए दुःखी था, अशान्त था, चूँकि उसको अपना एकलौता बेटा प्रिय था ! और वह नहीं चाहता था कि उसका वियोग हो ! उसकी मृत्यु हो.... अपहरण हो... वगैरह ! पुत्र नहीं था तब भी दुःखी था, पुत्र प्राप्त होने पर भी दुःखी है । प्रिय के विरह का भय दुःखी करता है । वैसे एक भाई को भाग्य से १० लाख रुपये मिल गये । वैसे वह दरिद्र था, दुःखी था । १० लाख मिलने के बाद भी वह दुःखी है । ये रुपये चले गये तो ? दुनिया में धन चले जाने की घटनायें बनती रहती हैं, जब वह सुनता है, अखबार में पढ़ता है, तो अशान्त बन जाता है। आर्तध्यान अशान्त बनाता ही है। आर्तध्यान करनेवाले अज्ञानी मनुष्य के पास तत्त्वज्ञान तो होता नहीं ! तत्त्वज्ञान के बिना शान्ति मिलती नहीं ! सत्ताधीश अपनी सत्ता के वियोग की कल्पना से दुःखी होता है, धनवान् अपनी संपत्ति चले जाने की कल्पना से दुःखी होता है, प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी प्रतिष्ठा चली जाने की कल्पना से दुःखी होता है, - माता-पिता अपने प्रिय संतान के वियोग की कल्पना से दुःखी होते हैं, बच्चा अपना प्रिय खिलौना चला न जायें, इसलिए चिंतित रहता है, ६४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नौकर अपनी नौकरी चली न जायें, इसलिए चिंतित रहता है । ___ यह सब आर्तध्यान है ! ऐसा आर्तध्यान मनुष्य के मन में चलता रहता है न ? छोटी-बड़ी वस्तु के विषय में, मित्र-स्नेही के विषय में ऐसा आर्तध्यान चलता रहता है । बस, यह आर्तध्यान की आग भीतर में जलाती रहती है ! यदि भीतर में नहीं जलना है तो आर्तध्यान मत करो। प्रिय-इष्ट के संयोग-वियोग के विचार नहीं करें। ३. इष्ट की तरह अनिष्ट भी होते हैं, अप्रिय भी होते हैं । मनुष्य के जीवन में कुछ अनिष्ट - अप्रिय लगा हुआ होता है ! नहीं चाहता है, फिर भी अप्रिय होता है । उसका वह वियोग चाहता है ! यह अप्रिय चला जायें तो अच्छा ! यह अनिष्ट चला जायें तो अच्छा! ऐसी इच्छा चलती रहती है। कुछ उदाहरणों से बात समझाता हूँ - - पति को पत्नी अनिष्ट है, अप्रिय है, वह पत्नी का वियोग चाहता है, - पत्नी को पति अप्रिय है, वह पति का वियोग चाहती है, - सेठ को नौकर अप्रिय है, वह नौकर को निकालना चाहता है, - लड़के को माता-पिता अप्रिय हैं, वह अलग करना चाहता है, - किसी को घर अनिष्ट लगता है, घर छोड़ना चाहता है... इस प्रकार कई छोटी-बड़ी वस्तुएँ होती हैं, जो छोड़ना चाहता है, छोड़ नहीं सकता है ! कुछ व्यक्तियों को छोड़ना चाहता है, छोड़ नहीं सकता है । छोड़ने के लिए या छूटने के लिए जो जो विचार करता है, वह आर्तध्यान होता है । और आर्तध्यान भीतर में जलन-आग पैदा करता है । शान्ति को, विवेक को जला देता है। ४. मनुष्य अनिष्ट-अप्रिय की कल्पना करता रहता है। कभी कुछ अनिष्ट होगा तो ? अप्रिय होगा तो? ऐसी कल्पनायें करना भी आर्तध्यान है । मनुष्य करता रहता है ऐसी कल्पनायें ! - पैसे चले जायेंगे तो? - शरीर में रोग पैदा होंगे तो ? - स्वजन छोड़कर चले जायेंगे तो ? - चोरी हो जायेगी तो? - कोई कलंक आ जायेगा तो ? प्रस्तावना ६५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे विचार भी आर्तध्यान हैं । ऐसे विचार मन की शान्ति को नष्ट करते हैं। ऐसे विचार मन की प्रसन्नता को जला देते हैं । ऐसे विचार विवेक को जला देते हैं । रौद्रध्यान : __ आर्तध्यान से बढ़कर रौद्रध्यान होता है । हिंसा के, मृषा के, चोरी के, मैथुन के, परिग्रह के तीव्र पाप विचार रौद्रध्यान होता है । जिस मन में आर्तध्यान और रौद्रध्यान चलता रहता है उस मन में शुभ भावनायें नहीं रहती हैं । शुभ भावनायें पैदा ही नहीं होती हैं। रौद्रध्यान बहुत ही खतरनाक है । घोर अशान्ति तो पैदा करता ही है, साथ साथ घोर पापकर्म बँधवाता है। उन पापकर्मों को भोगने के लिए नरक में जाना पड़ता है । घोर असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं वहाँ । वर्तमान जीवन में अनेक प्रकार की तीव्र अशान्ति और परलोक में तीव्र कोटि के दुःख । असंख्य वर्ष तक घोर शारीरिक - मानसिक पीड़ा भोगनी पड़ती है । इसलिए रौद्रध्यान से बचते रहो। रौद्रध्यान की प्रचंड आग से बचकर जीना है । पहला रौद्रध्यान है हिंसाविषयक । तीव्र वैरभावना से प्रेरित होकर जीव की हिंसा करने के सतत विचार करना रौद्रध्यान है । जीव छोटा हो या बड़ा ! मारने के इरादे से उसे मारते हैं... अथवा मारने का सतत विचार चलता रहता है । वैसे मृषावाद के सतत विचार भी रौद्रध्यान होता है । सतत झूठ बोलने के विचार मनुष्य करता रहता है, तब वह रौद्रध्यान बन जाता है । मषावाद की तरह मैथुन-अब्रह्म सेवन के सतत विचार भी रौद्रध्यान होता है । रौद्रध्यान की यह आग सर्वभक्षी होती है । जीवन का सब कुछ जला देती है। कुछ भी नहीं बचता... सिवाय राख... भस्मीभूत बने गुणों की राख । राख में से समता के अंकर कैसे पैदा हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । इसलिए आर्तध्यान और रौद्रध्यान से बचना हैं । दोनों दुर्ध्यान की जननी : विषय लोलुपता : शायद आपके मन में प्रश्न पैदा होगा कि मन में क्यों - किस वजह से आर्तध्यान और रौद्रध्यान पैदा होते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इसी श्लोक में उपाध्यायजी ने दे दिया है ! जो जीवात्मा विषय लोलुपी होता है उसके मन में आर्त-रौद्रध्यान पैदा होते हैं । मानसे विषय लोलुपात्मनाम् । पाँच इन्द्रियों के असंख्य विषय होते हैं । उन विषयों की आसक्ति ही दुर्ध्यान शान्त सुधारस : भाग १ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I की जननी होती है । किसी भी विषय की इच्छा, अभिलाषा, कामना... पैदा होती है... कि आर्तध्यान शुरू हो जाता है । और वह विषय पाने के लिए हिंसा के, मृषा के, चोरी के विचार चलते रहते हैं कि रौद्रध्यान शुरू हो जाता है । I इस विषयलोलुपता के कारण ही मनुष्य के जीवन में संघर्ष बढ़ता है। मनुष्य के जीवन में मानसिक तनाव की वृद्धि हो रही है । इसका प्रभाव, मस्तिष्क के माध्यम से समग्र शरीर पर पड़ता है । मनोभावों का उत्तेजनात्मक प्रभाव हृदयगति, रक्तपात, रक्तनलिकाओं के व्यास में परिवर्तन, रक्त के रासायनिक परिवर्तन के रुप में होता है । जिसकी परिणति 'हार्ट एटेक', 'कारडिएक एरिथमिया', 'इसेन्शियल हाइपरटेंशन', 'एंजाइना पेक्टोरिस' तथा 'माइग्रेन' के रूप में होती है । एक व्यापारी भावनात्मक उतार-चढ़ाव के साथ ही चिंतित रहता था । कुछ समय बाद उसे उच्च रक्तचाप की बीमारी हो गई । मनोवैज्ञानिकों ने उसे अपने दृष्टिकोण को बदलने तथा अपने को आध्यात्मिक उत्थान के रचनात्मक प्रयास मे लगने की सलाह दी । देखा गया कि कुछ दिनों के बाद ही उसे उच्च रक्तचाप से मुक्ति मिल गयी । 1 U.S.A. में प्रतिवर्ष आधे से ज्यादा मृत्यु हृदयरोगों से होती है । चिकित्सकों के अनुसार ४५ से ६५ वर्ष की उम्र में २५ प्रतिशत मृत्यु 'सायकोसोमेटिक कोरोनरी आर्टरी' रोगों के कारण होती हैं । कुछ विदेशी डॉक्टरों ने अपनी खोजों में पाया है कि भावनात्मक संवेगों का रक्त के जमाव की गति से सीधा संबंध है । 'ब्लड़ बेंक' में रक्तदाताओं को तीन श्रेणियों में बाँटा गया। जो शान्त मनस्थिति के थे उनके रक्त जमने की दर ८ से १२ मिनट थी, जो भयभीत थे उनके रक्त के जमाव का समय ४ से ५ मिनट था तथा जो अत्याधिक चिंतित तथा भयभीत थे, उनका १ से ३ मिनट था । हृदयाघात में मृत्यु का कारण खून का थक्का जम जाना होता है । जो एक थ्रॉम्बस या इम्बालिस्म के रूप में होता है । थक्का बनने की प्रक्रिया रक्त के रासायनिक परिवर्तन पर निर्भर करती है । जिस पर मानसिक तनाव का सीधा प्रभाव होता है। अच्छी तरह समझना कि यह मानसिक तनाव आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यान से उत्पन्न होता है । विषयलोलुपी जीवों को मानसिक तनाव रहेगा ही ! मनोविकारों से रहित मन की स्थिति शरीर को निरोगी रखने में महत्वपूर्ण भूमिका है । इस तथ्य को विश्व के मूर्धन्य चिकित्साशास्त्री भी अनुभव कर चुके प्रस्तावना ६७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । जिन्हें स्वस्थ, प्रसन्न और निरोगी रहना हो उन्हें चाहिए कि वे पहले अपने मन को नियंत्रित संयमित करें । मनोवैज्ञानिक भी निंदा, चुगली, इर्ष्या, द्वेष, क्रोध, आवेश आदि के प्रसंगों से बचने की सलाह देते हैं । मन के भटकाव को रोकने की बात करते हैं। अनेकों झगड़ें, झंझट और वैमनस्य से भी बचने को कहते हैं । बचने का एक ही श्रेष्ठ उपाय है विषयलोलुपता का त्याग ! विषयलोलुपी प्रेत बना : 1 विषयलोलुपता की वजह से एक साधु-संन्यासी कैसे प्रेत बना, इसकी एक ऐतिहासिक घटना बताता हूँ । बिहार राज्य में हेमंतपुर नाम की कभी बहुत शानदार रियासत थी । अब तो उसके ध्वंसावशेष ही रह गये हैं । इन खंडहरों में से कभी कभी एक क्षीण कायावाले साधु की मूर्ति आसमान में उड़ती दिखायी पड़ती है । और खंडहर के भीतर प्रवेश करने पर यह भी प्रतीत होता है कि इस में कोई आदमी रहता है। पानी का भरा घड़ा, बुहारी, मटका आदि वस्तुएं न जाने किसकी रखी हुई हैं ! कहते हैं कि वहाँ के राजा साहब जब सिंहासनारूढ़ थें तब उनकी प्रेरणा से, उस साधु ने तांबे से सोना बनाने का प्रयोग किया था। पूरा होने से पूर्व ही वह गलती से कढ़ाई में गिरकर प्राण गवाँ बैठा था । साधु की आत्मा को इस असफलता पर बड़ा क्लेश हुआ। वह अभी तक प्रेतरूप में उस खंडहर में घुमता देखा जाता है ! विषयलोलुपी मनुष्य कर्तव्यनिष्ठ नहीं रह सकता : विषयलोलुपता के कारण कामना, लालसा और वासना की संकीर्ण परिधि में ही सामान्यतया मनुष्य- मन का चिंतन घूमता रहता है । ज्ञानी पुरुषों ने इसे ही पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकेषणा कहकर इससे उबरने को कहा है । आत्मोत्कर्ष के मार्ग में यही प्रधान बाधायें हैं । ईन एषणाओं के कारण, विषयलोलुपता के कारण ही लोग राग-द्वेष, कलह - कटुता वगैरह में जकड़े रहते हैं । ऐसे लोग विशिष्ट कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते हैं । इस विषय में एक ऐतिहासिक प्रसंग बताता हूँ : सन् १८५७ के स्वतंत्रतासंग्राम की एक महत्वपूर्ण घटना 'तात्याटोपे के जीवन से संबंधित है । 'अजीजान' नाम की एक नर्तकी सेनापति तात्याटोपे की ओर आसक्त हो गयी। उसने तात्या का मन जीतने के लिए आकर्षणों का जाल बिछा दिया । वे उसके T ६८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की बात भाँप गये । उन्होंने एक दिन अजीजान से कहा : मेरे जीवन का एक ही ध्येय है । अंग्रेजों को भारत-भूमि से मार भगाना । यदि सचमुच तुम मुझे प्यार करती हो तो मेरे इस श्रेष्ठ लक्ष्य में तुम्हें समर्पित होना पड़ेगा। अजीजान तैयार हो गई। किन्तु समर्पण इतनी सरल प्रक्रिया नहीं है कि उसे योंही निबाहा जा सके। अजीजान ने अपनी सारी संपत्ति स्वाधीनता संग्राम में लगा दी । स्वयं को गुप्तचर सेवाओं में समर्पित किया। अजीजान को भयंकर कपट एवं आपत्तियों का सामना करना पड़ा। किन्तु वह ध्येय के प्रति अविचल बनी रही ! सच्चे प्रेम की पवित्रता ने उसके हृदय की वासनाओं धो दी थी । एक नर्तकी का मन विषयलोलुपता से मुक्त हुआ तो उसने कितना महान् कर्तव्य निभाया ? एक प्रसंग वज्रस्वामी के जीवन का : ऐसी ही, परंतु आध्यात्मिक – धार्मिक घटना, भगवान महावीर स्वामी के धर्मशासन में आचार्यश्री वज्रस्वामी के जीवन में घटी थी । वज्रस्वामी ज्ञानी थे, दैवी शक्ति के धारक थे और अति रूपवान थे । उस समय, एक नगर में एक श्रेष्ठी कन्या रुक्मिणी ने मनोमन संकल्प किया था कि मैं शादी करूँगी तो वज्रस्वामी के साथ करूँगी । उसके पिता श्रेष्ठी धनावह करोडपति थे। लडकी अति प्यारी थी । उसकी इच्छा पूर्ण करने का निर्णय किया । वे पिता - पुत्री नहीं जानते थे कि जैन साधु शादी नहीं करते हैं, स्त्री को छूते भी नहीं हैं । जब वज्रस्वामी उस नगर में पहुँचे कि जहाँ धनावह श्रेष्ठी रहते थे, धनावह को और उसकी पुत्री रुक्मिणी को मालुम हुआ कि वज्रस्वामी नगर के बाहर उद्यान में रुके हैं । श्रेष्ठी, पुत्री एवं करोडों की संपत्ति लेकर वज्रस्वामी के पास जाते हैं । वज्रस्वामी को नम्रता से प्रणाम कर धनावह कहते हैं : हे सत्पुरुष, यह मेरी पुत्री रुक्मिणी है । उसने जब से आप की प्रशंसा सुनी है तब से आपके साथ शादी करने का संकल्प किया है । मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी पुत्री का स्वीकार करें और इस संपत्ति का भी स्वीकार करें। - वज्रस्वामी ने मधुर वाणी में कहा : महानुभाव, हम जैन साधु हैं । हम शादी नहीं कर सकते । हमें ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना होता है । हमारा जीवनध्येय आत्मा की मुक्ति का है। कर्मबंधनों से आत्मा को मुक्त करने के लिए हम भीतरी संघर्ष कर रहे हैं। जब आत्मा मुक्त होगी, तब पूर्ण सुख की प्राप्ति होगी। हे श्रेष्ठी, तुम्हारी पुत्री का मेरे प्रति यदि विशुद्ध प्रेम है तो, जिस मुक्तिमार्ग पर मैं चल रहा हूँ, उस मार्ग पर वह भी चले । परंतु मुक्तिमार्ग पर चलने के लिए विषयलोलुपता का मन-वचन-काया से त्याग करना पड़ता है । प्रस्तावना Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुक्मिणी ने कहा : 'हे महात्मन्, मैं आप के साथ मुक्तिपथ पर ही चलूँगी । परंतु मैं तो अज्ञानी हूँ, अबोध हूँ, आपको ही मुझे मुक्ति मार्ग पर चलाना होगा।' वज्रस्वामीजी ने रुक्मिणी को दीक्षा दी । रुक्मिणी साध्वी बन गई। दर्शनज्ञान - चारित्र की आराधना में लीन बनी । उस ने श्रेष्ठ समता सुख पाया । विवेक - शोभा सुरक्षित रखो : अपनी बात है हृदय में समता- अंकुर प्रगट करने की । हृदय में विवेक होता है तो ही समता - अंकुर प्रगट होता है। आर्त- रौद्रध्यान विवेक को नष्ट कर देते हैं, इसलिए समता पैदा नहीं हो पाती । इसलिए उपाध्यायजी कहते हैं विवेकशोभा को सुरक्षित रखो । वह शोभा तभी सुरक्षित रहेगी, जब आर्त- रौद्र ध्यान नहीं करोगे । गंदे, दुष्ट और अधम विचारवाला मनुष्य अविवेकी बन जाता है । संसारव्यवहार में भी अविवेकी • मर्यादा भ्रष्ट बन जाता है। करीबन् ४० वर्ष पुरानी एक घटना मुझे याद आती है । बंबई में हमारा चार्तुमास था । मैं गौचरी लेने गया था । एक घर में मैने पैर रखा और अटक गया। पिता जमीन पर पड़ा था और पुत्र लातें मार रहा था । मैं भिक्षा लिये बिना निकल गया। लड़का शरमा गया। मेरे साथ पीछेपीछेमौन चलता रहा । उपाश्रय आया । मैं भी उसके साथ एक शब्द भी नहीं बोला था । उपाश्रय में आने के बाद वह मेरे सामने रो पड़ा । बोला : मैं पापी हूँ । मुझे भयंकर क्रोध आया... मैने अपने पिता को... । वह रोता रहा । वह विवेक भ्रष्ट हुआ था न ? विवेक तो पितृभक्त, मातृभक्त बनने की प्रेरणा देता है । वह तो पितृद्वेषी बन गया था ! चूँकि उसके मन में आर्तध्यान आ गया था ! फिर वह समता कैसे रख सकता था ? 1 एक साधु अपने गुरुदेव के साथ क्रोधावेश में औद्धत्यपूर्वक बोल रहे थे । गुरुदेव मौन हो सुन रहे थे । सांधु की अनुचित इच्छा गुरुदेव कैसे पूर्ण कर सकते थे ? कुछ समय बोलने के बाद वह साधु अपनी जगह आकर बैठ गया । मैं भी वहीं पर बैठा था । बोलने वाले साधु मेरे से बड़े थे । उपाश्रय में स्तब्धता छा गयी थी। मैं आधे घंटे के बाद खड़ा हुआ और उस साधु के पास गया । इशारे से उनको एक कमरे में ले गया । हम बैठे । मैं मौन रहा । उस साधु ने ही कहा : आज रोष में... क्रोध में मैने गुरुदेव की आशातना कर दी। मैंने विनय - विवेक खो दिया। मुझे मेरी भूल महसूस होती है। मैने कहा : 'गुरुदेव से क्षमा माँगो । प्रायश्चित्त करो। आप तो ज्ञानी हो...। उन्होंने कहा : 'ज्ञानी नहीं हूँ, घोर अज्ञानी हूँ... अशान्त हूँ... अपराधी हूँ... । ७० शान्त सुधारस : भाग १ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद में उन्होंने गुरुदेव से क्षमा माँगकर प्रायश्चित्त किया था। मैंने सोचा था - उस साधु की विवेक - शोभा नष्ट हुई थी आर्तध्यान से । क्रोध - रोष - गुस्सा.... आता है आर्तध्यान से । वह साधु शोभाविहीन हो गया था । मनुष्य की शोभा विवेक से होती है, विनय से होती है । वह शोभा बनाये रखने के लिए आर्तध्यान से बचते रहो । प्रिय अप्रिय की कल्पना से मुक्त रहो । इष्ट - अनिष्ट की कल्पना से मुक्त रहो । उपसंहार : उपाध्यायजी महाराज बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं – विषयलोलुपी मनुष्य के मन में समता - अंकुर कैसे पैदा हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है । विषय लोलुपता ही आर्तध्यान है । पाँच इन्द्रियों के असंख्य विषय होते हैं। किसी भी विषय की इच्छा, स्पहा, तृष्णा पैदा होने पर आर्तध्यान शरू हो जाता है । विषय राग से कषाय उत्पन्न हो जाते हैं । कषाय बढ़ने पर रौद्रध्यान आ जाता है। मन जब विषय - कषाय से भर जाता है. फिर समता समाधि कहाँ रहेंगे? समता – अमृत का पान कैसे हो सकता है ? वह तो घोर अशान्ति का विषपान ही करता रहेगा । अनंत जन्मों में जीव ने ऐसे विषपान ही किये हैं। यदि इस जीवन में ज्ञानद्रष्टि खुल जायें... तो समता का अमृतपान कर सकते हो । वह तभी संभव हैं, जब विषयलोलुपता दूर हो । विवेक शोभा अखंड़ित हो । विषयलोलपता नष्ट होने पर विवेक शोभा अखंड रहेगी ही। चूंकि विषयलोलुपता नहीं रहने पर आर्तध्यान नहीं रहता है, आर्तध्यान नहीं रहने पर रौद्रध्यान भी नहीं रहता है । विषयलोलुपता मिटाने के लिए विषयों के विषय में चिंतन कर निर्णय करें कि - - विषय नाशवंत हैं, क्षणिक हैं, - विषयों का राग घातक होता है, - विषयभोग विषभोग जैसे हैं, - विषयभोगों से कभी भी आत्मा को तृप्ति नहीं होती है । इस प्रकार विषयों की अनिष्टता के पुनः पुनः विचार करने से विषयों के प्रति वैरागी बनोगें । विरक्त बनोगें। विषय लोलपता नहीं रहेगी । आर्तध्यान नहीं रहेगा। विवेकशोमा बनी रहेगी और समता-अंकुर हृदय में जन्म लेगा ! आज बस, इतना ही - । प्रस्तावना ७१ ।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : ७ | : संकलना : भावनाओं का स्थान : अन्तःकरण धर्मक्रियाओ के साथ धर्मध्यान मोक्ष के द्वार पर भीड़ : एक उपनय कथा स्वर्ग और नरक का आधार : मनुष्यमन एक योगी : एक वेश्या सुख और आनन्द कहाँ है ? एक उपनय कथा मन इर्ष्या आदि दोषों से ग्रस्त क्यों ? मन उलझा है, सुख-दुःखों में उपसंहार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्याशयं श्रुतकृतातिशयं विवेकपीयूषवर्षरमणीयरमं श्रयन्ते । सद्भावनासुरलता न हि तस्य दूरे, लोकोत्तरप्रशमसौख्यफलप्रसूति ॥६॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' की प्रस्तावना में कहते हैं : उसी अन्तःकरण में ये शुभ-सुंदर भावनायें रहती हैं कि जो अन्तःकरण सम्यग् ज्ञान के अभ्यास से उन्नत बना हो और विवेक-अमृत की वृष्टि से मृदु एवं सुशोभित बना हो । ग्रंथ की प्रस्तावना के ७-८ श्लोक में उन्होने बारह भावनाओं के नाम बताये हैं : अनित्यत्वाशरणते भवमेकत्वमन्यताम्, अशौचमाश्रवं चात्मन, संवरं परिभावय ॥७॥ कर्मणो निर्जरां धर्मसूक्ततां लोकपद्धति, बोधिदुर्लभतामेतां, भावयन् मुच्यभ सेवात् ॥८॥ १. अनित्यभावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४. एकत्व भावना, ५. अन्यत्व भावना, ६. अशुचिभावना, ७. आश्रवभावना, ८. संवरभावना, ९. कर्मनिर्जरा भावना, १०. धर्मसुकृत भावना, ११. लोकस्वरुप भावना और १२. बोधिदुर्लभ भावना। भवप्रपंच से मुक्त होने के लिए, प्रतिदिन ईन भावनाओं से पुनःपुनः भावित होते रहो ! भावनाओं का स्थान अंतःकरण : __ भावनाओं का उत्पत्ति स्थान अन्तःकरण है, चित्त है । इसलिए अन्तःकरण शुद्ध, मृदु और सुशोभित रहना आवश्यक है । चित्त में आर्त और रौद्र विचार नहीं आने चाहिए, नहीं रहने चाहिए । परंतु जब तक मनुष्य दौड़ता रहता है, कोई धन के पीछे, कोई यश के पीछे, कोई पद-प्रतिष्ठा के पीछे... कोई स्वर्ग के पीछे... तब तक आर्त-रौद्र विचारों से चित्त मुक्त नहीं रह सकेगा। चाहे मनुष्य मंदिरों में जायें या तीर्थों की यात्रा करें ! मनुष्य का जीवन ऐसी दौड़ में ही पूर्ण हो जाता है, हाथ में कुछ आता नहीं है । इसलिए पहले यह सोच लो कि कहाँ जाना है ? क्या पाना है ? किस लिए जाना है ? और, यह भी सोच लेना चाहिए कि जहाँ पहुँचना चाहते हैं, जो प्राप्त करना चाहते हैं, उसके लिए जीवन में इतना श्रम उठाना, इतनी मुश्किलियाँ सहना योग्य-उचित है क्या ? प्रस्तावना Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना सोचे-समझे दौड़ते रहेंगे तो वहाँ पहुँचकर मालुम होगा कि यह पाने के लिए दौड़ना आवश्यक नहीं था । और वास्तव में जहाँ पहुँचना चाहते थे, वहाँ पहुँचे ही नहीं हैं ! जहाँ थे वहीं पर हैं ! ऐसी भूले अपने जीवन में नहीं हो, इसलिए सावधान रहना चाहिए । अन्यथा जीवन निरर्थक पूरा हो जायेगा । आयुष्य बहुंत अल्प है, शक्ति मर्यादित है और समय बहुत कम है, इसलिए सजगता के साथ जीना होगा । सभी दौड़ रहे हैं... मन से दौड़ रहे हैं, तन से दौड़ रहे हैं ! मुझे लगता है यह सब अंधी दौड़ है । कोई गंतव्य को जानता ही नहीं ! सब भागे जा रहे हैं... हम भी भागते जा रहे हैं ! न मन की चिंता है, न तन की चिंता है ! __जो कुछ पाना है, वह अपने भीतर ही है, अपने अंतःकरण में है । अंतःकरण को शुद्ध, मृदु और सुशोभित करना है । वहाँ ही आत्मा से परमात्मा तक की प्राप्ति होती है । शान्ति से परम शान्ति वहाँ प्राप्त होती है। इसलिए उस अन्तःकरण में भावनाओं को विकसित करना है । विवेक-अमृत की वर्षा से ही यह काम हो सकेगा। यही विवेक है कि धन-यश-पद-प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना बंध करके, जहाँ हैं वहाँ स्थिर बन कर, ध्यानमग्न होकर अपने भीतर में देखें ! भीतर में अशुभ...तुच्छ...असार विचारों का कचरा दिखाई दें, तो उस कचरे को बाहर फेंक दो और चित्त के उपर शुभ भावनाओं की अमृत वर्षा करते चलो ! अनित्य भावना से लगाकर बोधि-दर्लभ भावनाओं की ओर मैत्री भावना से माध्यस्थ्य भावनाओं की अमृत वर्षा करते रहो! आप का चित्त, आप का अन्तःकरण प्रसन्न, शीतल और आनन्दपूर्ण बन जायेगा । धर्मक्रियाओं के साथ धर्मध्यान आवश्यक : ___ आप अपने चित्त के प्रति केन्द्रित बनें । मात्र बाह्य धर्मक्रियायें करके, संतोष न मान लें । बीते हुए अनन्त जन्मों में धर्मक्रियायें अनन्त बार की, परंतु हमारा मोक्ष में प्रवेश नहीं हुआ ! हम संसार में ही भटक रहे हैं, जन्म-मृत्यु करते रहे हैं । इस विषय में एक उपनय - कथा सुनाता हूँ। ___ एक बार मोक्ष के द्वार पर बड़ी भीड़ जमी थी । सभी मनुष्य थे। सब को मोक्ष में जाना था, परंतु द्वाररक्षक द्वार नहीं खोल रहे थे ! कुछ पंड़ितों ने, विद्वानों ने आगे आकर बोला : हम ज्ञानी है, हमने हजारों शास्त्र पढे हैं, हजारों-लाखों लोगों को धर्मोपदेश दिया है... हमें मोक्ष में जाना है, द्वार खोलो । एक द्वारपाल ने कहा : | ७४ शान्त सुधारस : भाग २ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यहाँ शास्त्रों का मूल्य नहीं है, अनुभवज्ञान का मूल्य है, यहाँ जनोपदेश का मूल्य नहीं है, स्वोपदेश का मूल्य है ! आप को मोक्ष में प्रवेश नहीं मिलेगा !' ___ भीड़ में से कुछ कृशकाय तपस्वी मनि-संन्यासी आगे आये और कहा - हमने एक-एक, दो-दो महिने के उपवास किये हैं, कई वर्षों से शरीर को कष्ट दिये हैं, कई कष्टदायी व्रत-नियमों का पालन किया है, हमारे लिए मोक्ष का द्वार खोलने की कृपा करें ।। एक द्वारपाल ने कहा : यह जानना पडेगा कि यह तप, त्याग और व्रत-नियमों का पालन तुमने किस भावना से किया था ? तुम्हारे मन में यश-प्रतिष्ठा और मान-सन्मान पाने की इच्छा तो नहीं थी ? स्वर्ग के सुख पाने के लिए तो यह सब नहीं किया था ? मात्र तपत्याग और व्रत-नियमों का पालन करने वालों को मोक्षद्वार में प्रवेश नहीं मिलता है । तुमने धर्मक्रियायें की, परंतु मन में धर्मध्यान नहीं किया था । इसलिए यहाँ से लौट जाईये। __भीड़ कुछ कम हुई, तो कुछ लोग आगे आये और बोले : हमने हमारा समग्र जीवन परोपकार करने में बिताया है, इसलिए हमें मोक्ष में प्रवेश मिलना चाहिए । एक द्वारपाल ने कहा : आपने दूसरे जीवों पर उपकार किये होंगे, परंतु यहाँ मात्र उपकारों की क्रिया का महत्व नहीं है, यह देखना पड़ेगा कि आपने दूसरे जीवों के प्रति मैत्रीभाव, करुणाभाव, प्रमोदभाव, उपेक्षाभाव रखे थे क्या ? जीवमैत्री के बिना किये हुए जीवोपकारों का यहाँ मूल्य नहीं है ! भीड़ चली गई, परंतु सब के पीछे एक मनुष्य खड़ा था, उसको द्वारपालने पूछा : भाई, तूं यहाँ क्यों आया है ? उसने कहा : मुझे मालुम नहीं... कौन मुझे यहाँ ले आया ! मेरे पास कुछ नहीं है । न शास्त्रज्ञान है, न मैने तप किया है, न त्याग किया है । व्रत नियमों का भी पालन नहीं किया है... । यह सब करने के लिए मेरे में शक्ति ही नहीं थी ! हाँ, किसी जीव के साथ मेरी शत्रुता नहीं थी, किसी के साथ मैने बुरा व्यवहार नहीं किया, सभी के प्रति मेरे हृदय में प्रेम है और इस दुनिया के प्रति मझे कोई ममत्व-लगाव नहीं है । परंतु इतने मात्र से इस मोक्षद्वार में प्रवेश पाने की मेरी योग्यता सिद्ध नहीं होती। इसलिए कृपाकर मुझे नर्क का द्वार बताइये। प्रस्तावना Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारपालों ने उसके लिए मोक्षद्वार खोल दिया । यह उपनय कथा है। इस कथा में अभिप्रेत जो सत्य है, उस सत्य का स्वीकार करना है । मात्र धर्मक्रिया से संतोष नहीं मानें, धर्मध्यान की महत्ता समझें । १२ भावनायें धर्मध्यान के आलंबन हैं । चित्त में एक भी भावना का चिंतन चलता रहेगा तो वह धर्मध्यान होगा ! और तब आप का चित्त दर्पण जैसा स्वच्छ और निर्मल होगा । उस चित्त में परमात्मा का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखायी देगा । अपना चित्त जितना सरल, निर्दोष और निर्मल होगा, उतना विश्व भी स्पष्ट और स्वच्छ दिखायी देगा । भीतर में सुख और आनंद बढ़ता जायेगा । स्वर्ग और नरक का आधार : मनुष्य-मन : इसलिए उपाध्यायजी कहते हैं: मनुष्य के मन का परिवर्तन, परिपूर्ण परिवर्तन आवश्यक है । शारीरिक परिवर्तन या वस्त्र - परिवर्तन का विशेष मूल्य नहीं है । चित्त में, अन्तःकरण में क्रान्ति होना महत्त्वपूर्ण है। आंतरिक परिवर्तन के बिना, बाह्य परिवर्तन होता है, संन्यास भी ले लेता है मनुष्य, परंतु वह आत्मवंचना ही होती है। इसी द्रष्टि से ही तो दुःखों से पराभूत होकर अथवा सुखों के प्रलोभनों से आकर्षित होकर लिया हुआ संन्यास हेय माना गया है, व्यर्थ माना गया है ! ज्ञानद्रष्टि से यानी आंतर-विचार क्रान्ति से लिया हुआ संन्यास ही यथार्थ होता है । बाह्य भौतिक सुख-भोगों की व्यर्थता का बोध होने पर ही चित्त में संन्यास का, चारित्र का अवतरण होता है। एक कहानी से यह बात स्पष्ट होगी । शायद आप लोगों ने यह कहानी सुनी भी होगी, परंतु आज मैं जिस संदर्भ में कह रहा हूँ, उस संदर्भ में समझना । एक नगर में एक ही दिन दो मृत्यु हुई । एक योगी की मृत्यु हुई, और एक वेश्या की मृत्य हुई। दोनों एक ही दिन, एक ही समय इस संसार से बिदा हुए । दोनों के घर आमने-सामने थे। एक-दूसरे के घर में क्या हो रहा है, दोनों जानते थे। दोनों जीये भी साथ और मरे भी साथ ! परंतु एक आश्चर्यकारी घटना ऐसी घटी कि जो यमदूत उनकी आत्माओं को लेने आये थे, उनमें से एक यमदूत वेश्या को लेकर स्वर्ग की ओर जाने लगा और दूसरा यमदूत योगी को लेकर नरक की ओर जाने लगा । योगी ने यह देखा और यमदूतको पूछा : भैया, तुम्हारी कोई भूल तो नहीं हो रही है ? वेश्या की जा तूं मुझे भूल से नरक में ले जा रहा है ! यह कैसा अन्याय ? कैसा अंधेर ?' उस यमदूत ने कहा : 'हे महानुभाव, हमारी कोई भूल नहीं है, कोई अन्याय नहीं है, कोई अंधेर नहीं है । ७६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगी ने पृथ्वी की ओर देखा तो उसके मृतदेह को पुष्पहारों से सजाया गया था और देह की अंतिम यात्रा बड़ी शान से निकल रही थी । जब कि उस वेश्या के मृतदेह को उठानेवाला भी कोई नहीं था। उसकी लाश घर से बाहर रास्ते की एक ओर पड़ी हुई थी। कुत्ते और गीध उस मृतदेह की मेजबानी उड़ा रहे थे । मजा लूट रहे थे । यह देखकर योगी बोला : हे यमदूत, तुम से तो ज्यादा ये पृथ्वी के लोग न्यायपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं । देखो और कुछ समझों, तुम कैसी भूल कर रहे हो !' ___ यमदूत ने कहा : पृथ्वी के लोग मात्र इतना ही जानते हैं कि जो बाहर दिखता है । उनकी दृष्टि शरीर से ज्यादा गहरी पहुँच नहीं पाती है । प्रश्न शरीर का नहीं है, मन का है ! शरीर से तुम संन्यासी थे, परंतु तुम्हारे मन में क्या था ? क्या तुम्हारा मन वेश्या के घर में हो रहे सुंदर नाच-गान और आनंद से आकर्षित नहीं रहता था ?' मेरा जीवन कितना नीरस व्यतीत हो रहा है और यह वेश्या कैसा मजा ले रही है ? तुम यह सोच रहे थे। परंतु तुम्हे मालुम है कि वेश्या की मानसिक स्थिति कैसी थी ? वह वेश्या तो तुम्हारे संन्यासी – जीवन में जो शान्ति और अपूर्व आनन्द दिखता था, वह पाने के लिए विचारों में खोयी हुई रहती थी ! रात्रि में जब तुम भजन गाते तब और प्रातःकाल में जब मधुर-मंगल श्लोक गाते तब वह वेश्या प्रभुमय बन जाती और भावविभोर हो आँसू बहाती थी। एक ओर तुम संन्यासी होने के अहंकार को पुष्ट करते थे, दूसरी ओर वह वेश्या अपने पापी जीवन के पश्चात्ताप से विनम्र होती जा रही थी । तुम तुम्हारे ज्ञान से गर्वित होते जा रहे थे, वह वेश्या अपने अज्ञान के बोध से सरल और शुद्ध होती जा रही थी । परिणाम स्वरुप तुम्हारा व्यक्तित्व अहंकारपूर्ण बना और वेश्या का व्यक्तित्व अहंकारशून्य बनता रहा । वेश्या के चित्त में नहीं था अहंकार, नहीं थी वासना । मृत्यु के समय उसका चित्त परमात्मा की प्रार्थना में लीन था । संन्यासी मौन हो गया । कहने का तात्पर्य यह है कि परम सत्य की प्राप्ति मात्र बाह्य धर्मक्रियाओं से नहीं होती है । बाह्य धार्मिक आचरण से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता है । आध्यात्मिक उन्नति भीतर में होती है । आंतरिक चेतना - केन्द्र को पकड़ना होगा । भावनाओं के निरंतर मनन-मंथन से आंतरिक चेतना केन्द्र खुलता है । और अपूर्व आत्मानन्द की अनुभूति होती है । ७७ | प्रस्तावना Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख और आनन्द कहाँ है ? उपाध्यायजी महाराज कहते हैं : 'सम्यग् ज्ञान के अभ्यास से उन्नत और विवेकअमृत की वृष्टि से सुशोभित एवं मृदु बने हुए अंतःकरण में ये सुंदर भावनायें रहती हैं । और ये भावनायें ही अलौकिक सुख और आनन्द पैदा करती हैं । इसका अर्थ समझे आप लोग ? सुख और आनन्द भीतर में अन्तःकरण में खोजने के हैं, भीतर में पैदा करने के हैं, बाह्य विश्व में नहीं ! ये भावनायें ही भीतर में सुख और आनन्द पैदा करती हैं ! इसलिए जो प्रबुद्ध मनुष्य सदैव ईन भावनाओं के माध्यम से विचार-चिंतन-मनन करता रहता है, वह सदैव सुखी और आनन्दित रहता है ! वह कभी दुःखी और अशान्त नहीं रहता यह बात, एक कथा कहकर समझाऊँगा । एक दिन गाँव में प्रभात होते ही एक आकाशवाणी सुनाई दी । ऐसी आकाशवाणी - दिव्य घोषणा किसी ने कभी नहीं सुनी थी । घोषणा कौन कर रहा है, कहाँ से हो रही है, वह मालुम नहीं पड़ता था । परंतु घोषणा के शब्द स्पष्ट थे । 'है संसार के लोगों, परमात्मा की ओर से आप को एक अमूल्य भेंट दी जाती है । तुम्हारे दुःखों से मुक्त होने का एक अमूल्य अवसर दिया जाता है । आज मध्यरात्रि में, आप अपने सभी दुःखों की गठरी बांधकर नगर के बाहर छोड़ दें और जो सुख, जितना सुख चाहिए, उसकी गठरी बांधकर सूर्योदय से पहले नगर में ले आयें । एक रात के लिये पृथ्वी पर कल्पवृक्ष आनेवाला है, इसलिए कोई प्रमाद नहीं करें। जिस गठरी में दुःख होगा, उस गठरी में सुख आ जायेगा । बिना भूल किये, आज रात में सुखी बन जाओ !' ये शब्द सभी लोगों को सुनायी दिये । बार बार यह घोषणा होती रही । सूर्यास्त तक होती रही । लोगों को घोषणा पर श्रद्धा हो गई। कौन वैसा मूर्ख होगा कि जो ऐसा स्वर्ण-अवसर गंवा दे ? और, संसार में ऐसा कौन है कि जो दुःखी नहीं है और ऐसा कौन है कि जिस को सुख पाने की कामना नहीं है ? सभी लोग अपने-अपने दुःख याद कर गठरी बाँधने लगे। सभी को एक ही चिन्ता थी कि एक भी दुःख गठरी में बाँधना रह नहीं जायें ! मध्यरात्रि होने पर गाँव के सभी घर खाली हो गये ! हजारों स्त्री-पुरुष एक कतार में अपनेअपने दुःखों की गठरी उठाये गाँव के बाहर जा रहे थे। सभी ने दूर दूर जाकर दुःखों की गठरियाँ फेंक दी । वापस लौटते समय सभी अपने-अपने सुखों की गठरी बाँधने लगे । याद ७८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर-कर जो जो सुख चाहिए थे, सभी बाँध लिये । सभी जल्दी में थे । सूर्योदय पहले गाँव में पहुँचना था। सभी को एक ही चिंता थी कि कोई सख गठरी में बाँधना रह न जायें ! सुख असंख्य थे और समय अल्प था ! फिर भी हो सके उतनी सुखों की कल्पना कर, उन सभी को बाँधकर...जल्दी जल्दी लोग सूर्योदय पहले घर वापस लौटे। ___ वापस आने पर सभी ने बड़ा आश्चर्य देखा । अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । झोपडी की जगह महल बन गये थे ! सब कुछ स्वर्णमय बन गया था। सुखों की जैसे वर्षा हो रही थी। जिसने जो चाहा था वह सब, सभी को मिल गया था ! __परंतु एक नया आश्चर्य खड़ा हो गया था। सब कुछ मिलने पर भी किसी के चेहरे पर आनंद नहीं था ! चूँकि सभी को अपने पड़ौसी का सुख ज्यादा लगता था और वही बात दुःखी कर रही थी ! पुराने दुःख दूर हो गये थे, नये दुःख पैदा हो गये थे ! दुःख बदल गये थे । नयी चिंतायें सवार हो गई थी । मनुष्य मन तो वैसे ही इर्ष्याग्रस्त रहा था । दूसरों का सुख उनको दुःखी कर रहा था, दूसरों के दुःख उनको खुश कर रहे थे । हालाँकि दूसरा कोई दुःखी नहीं रहा था, परंतु दूसरा कोई दुःखी न हो, तो स्वयं को सुख कैसे मिलता ! __उस गाँव में एक वृद्ध संन्यासी था । वह दुःख छोड़ने और सुख बांधने गाँव के बाहर नहीं गया था । उसके पास कुछ था ही नहीं ! हालाँकि लोगों ने उसको बहुत समझाया था। घोषणा के अनुसार अवसर खोने जैसा नहीं था, परंतु वह वृद्ध योगी नहीं माना था । उसने तो सभी को हंसते हंसते कहा था : जो बाहर है वह सुख नहीं है, आनंद नहीं है, जो आनंद मेरे भीतर है, उसको खोजने बाहर क्यों जाऊँ ? मैने मेरे अन्तःकरण में ही आनन्द देखा है और पाया है ! यह सुनकर लोगों ने उस योगी को पागल माना था, महामूर्ख माना था। लोगों के घर महल बन गये थे । हीरे और मोती पत्थर की तरह रास्ते पर पड़े थे । इतनी समृद्धि होने पर भी उनके मुख पर खुशी नहीं थी, आनन्द नहीं था। तब उस योगी ने लोगों को हंसते हंसते कहा : क्या अभी भी तुम लोगों को तुम्हारी भूल समझ में नहीं आयी ? सुख और आनंद कहाँ है, समझ नहीं आता ? सुख और आनन्द तुम्हारे अनासक्त अन्तःकरण में है । तुम्हारे स्वयं में ही सुख और प्रस्तावना ७९ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद भरे पड़े हैं !' मन इर्ष्या आदि दोषों से ग्रस्त क्यों ? जब तक भावनाओं से, 'अनित्य' 'अशरण' आदि भावनाओं से, मैत्री - प्रमोद आदि भावनाओं से मन शुभ और शुभ्र नहीं बनता है तब तक मन में इर्ष्या, द्वेष, मोह, आसक्ति, दंभ, प्रपंच आदि असंख्य दोष रहनेवाले ही हैं । कोई मनुष्य तुम्हें शत्रु लगता है कारण ? मैत्री भावना नहीं है ! किसी मनुष्य के प्रति इर्ष्या होती है कारण ? प्रमोदभावना नहीं है ! किसी मनुष्य के प्रति घृणा होती है कारण ? करुणाभावना नहीं है ! किसी जीव के प्रति द्वेष होता है कारण ? माध्यस्थ्य भावना नहीं है ! किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति ममत्व होता है क्यों ? अनित्य भावना नहीं है ! - — - - - - — निर्भय होकर दुष्कृत्य करते हो क्यों ? अशरणभावना नहीं है ! संबंधों के बंधनों में बंधे हो क्यों ? संसार - भावना नहीं है ! अनेकों में सुख लगता है क्यों ? एकत्व भावना नहीं है ! दूसरों को अपने मान कर दुःखी हो क्यों ? अन्यत्व भावना नहीं है ! अपना शरीर प्रिय लगता है क्यों ? अशुचि भावना नहीं है ! पाप-पुण्य कर्मों के विचार नहीं आते हैं क्यों ? आश्रव-भावना नहीं है ! कर्मबंध नहीं करने का विचार नहीं आता है क्यों ? संवर भावना नहीं है । तप करने के विचार नहीं आते हैं क्यों ? कर्म निर्जरा भावना नहीं है ! - धर्म पुरुषार्थ करने की इच्छा नहीं होती है क्यों ? धर्मसुकृत भावना नहीं है ! अनन्त जीवसृष्टि का चिंतन नहीं करते हो क्यों ? लोक स्वरुप भावना नहीं है । बोधि नहीं है ! यदि ये सारी भावनायें अंतःकरण में हो, तो इर्ष्या, द्वेष, मोह, आसक्ति, दंभ, प्रपंच आदि दोष रह सकते हैं क्या ? दोषों से मुक्त होने के लिए, मन को, चित्त को, अंतःकरण को दोषरहित करने का एक ही उपाय है, भावनाओं का पुनःपुनः चिंतन | ८० 1 सम्यक्त्व पाने की इच्छा नहीं होती है क्यों ? बोधि दुर्लभ भावना शान्त सुधारस : भाग १ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन उलझा है बाह्य सुख-दुःखों में : __इर्ष्या वगैरह दोषों का कारण है सुख-दुःख की कल्पनायें । बाह्य सुख-दुःख की कल्पनायें ही इर्ष्या वगैरह दोषों को पैदा करती है । इस विषय में एक अच्छी कहानी है । अभी आपने जो कहानी सुनी, वैसी ही है यह कहानी, परंतु थोड़ा सा अंतर है। एक बार एक गाँव में आकाशवाणी हुई। दिव्य घोषणा हुई । परम कृपानिधि परमात्मा तुम्हारे दुःख जानते हैं । तुम लोग किसी न किसी बात को लेकर दुःखी हो, यह बात परमात्मा को मालुम है । तुम्हें अपने से दूसरे लोग ज्यादा सुखी लगते हैं, इसलिए एक अच्छी व्यवस्था की गई है : कल शाम को, तुम सभी तुम्हारे सुखों का और दुःखों की गठरी बाँधकर, गाँव के बाहर एक विशाल तंबू है, उस तंबू में टाँग देना । फिर शान्ति से वहाँ बैठ जाना । तुम्हारी गठरी बराबर ध्यान में रखना । जब तंबू में प्रकाश हो तब, जिस मनुष्य को तुम ज्यादा सुखी मानते हो, उसकी गठरी उठा लेना । उसमें जो सुख-दुःख होंगे वह तुम्हारे हो जायेंगे । सूर्योदय होने पर घर पर चले जाना। ___ आकाशवाणी के अनुसार सभी ने अपनी अपनी गठरियाँ उस तंबू में टाँग दिये । बाद में सोचने लगे : किसकी गठरी लेंगे ? जिसकी गठरी लेंगे, उसमें सुख के साथ दुःख भी जायेगा । किस के दुःख कैसे होंगे, क्या पता ? दूसरों के दुःख अपने लिए तो अनजान ही होते हैं । अपने दुःख ही अच्छे !' 'Known Devil is better than the unknown Devil.' हमें निश्चित रुप से मालुम हो कि हम से कोई ज्यादा सुखी और कम दुःखी है, उसकी ही गठरी लेना चाहिए । यदि ज्यादा दुःखवाला पोटला हाथ में आ गया तो क्या होगा ?' इतने में तंबू में रोशनी हुई । सभी ने खड़े होकर अपनी अपनी ही गठरी उठायी। जाने हुए दुःख ज्यादा अच्छे होते हैं । सुख तो क्षणभंगुर होते हैं । समय जाने पर जिस में सुख प्राप्ति की कल्पना बाँधी थी, वह भी दुःख देने लगता है । सुख और दुःख मात्र मन की कल्पना होती है । मन यदि उसमें ही उलझा हुआ रहता है तो आध्यात्मिक विकास-यात्रा नहीं होती है । बारह भावनाओं का और मैत्री आदि चार भावनाओं का चिन्तन नहीं हो पाता है । इसलिए सुख-दुःख को प्रस्तावना Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने-अपने कर्मों के उदय पर छोड़कर, मन को भावनाओं के चिंतन में जोड़ना ही श्रेयस्कर है । उपसंहार : आज इस ग्रंथ की प्रस्तावना के आठ श्लोकों का विवेचन पूर्ण करता हूँ । प्रस्तावना में ग्रंथकार उपाध्यायजी महाराज ने भावनाओं की उपादेयता अच्छी तरह समझायी है । भावनाओं की मनुष्य जीवन में कितनी आवश्यकता है, यह अब ज्यादा समझाना जरुरी है क्या ? आप विद्वान हो, आप उग्र तपस्वी हो, आप परमात्म भक्त हो आप श्रावक हो या साधु हो, आप कितने भी कायाकष्ट सहन करते हो, परंतु यदि आपके अंतःकरण में भावनायें नहीं है, तो आप शांति, समता और समाधि प्राप्त नहीं कर सकते । दुष्ट विचारों से, गंदे विचारों से आप बच नहीं सकते । आर्तरौद्र, विचार आग जैसे हैं, यह आग 'विवेक' को जला देती है । विषय लोलुपता बनी रहती है, फिर समता कैसे अंकुरित हो सकती है ? सम्यग्ज्ञान के अभ्यास से मन को उन्नत करते रहो और विवेक- अमृत की वृष्टि से अन्तःकरण को मृदु-कोमल और सुशोभित करते रहो ! ऐसे अन्तःकरण में भावनायें रहेंगी और अलौकिक 'प्रशमसुख का अनुभव कराती रहेंगी । आप सभी ऐसे अनुत्तर प्रशम सुख का अनुभव करते रहो यही मंगल कामना । आज बस, इतना ही ८२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : ८ अनित्य भावना - १ शरीर की अनित्यता शरीर का संबंध आयुष्य के साथ आयुष्य की चंचलता जीवन से लगाव नहीं रखना संपत्ति की अनित्यता मालवपति मुंज इन्द्रियों के वैषयिक सुख 'पुद्गल गीता' : चिदानन्दजी संबंध : स्वप्न, इन्द्रजाल तत्त्वविजयजी का एक काव्य उपसंहार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यायश्री विनयविजयजी, पहली अनित्य भावना को 'पुष्पिताग्रा' छंद में गाते हैं : वपुरिवपुरिदं विदभ्रलीलापरिचितमप्यतिभङ्गुरं नराणाम् । तदतिभिदुरयौवनाविनीतं भवति कथं विदुषां महोदयाय ? ॥७॥ शरीर की अनित्यता : उपाध्यायजी सर्वप्रथम शरीर की अनित्यता बताते हैं । क्यों कि जीवात्मा को सब से ज्यादा शरीर के उपर प्रेम होता है । शरीर, अपना शरीर सब से ज्यादा प्रिय होता है । राग का, ममत्व का, आसक्ति का मुख्य केन्द्र शरीर होता है ! 'शरीर कहें देहं कहें काया कहें या तन' कहें... सभी एकार्थक शब्द हैं । शरीरप्रेम, देहममत्व, काया-माया अथवा तन-आसक्ति... कुछ भी कहो अर्थ एक ही है। और यह शरीर प्रेम ही सभी पापों का, सभी दुष्कृत्यों का मूल कारण है । यह काया की माया ही अशान्ति, क्लेश और संतापों की जननी है ।। __ अज्ञानी मनुष्य, मूढ़ जीवात्मा शरीर को ही आत्मा मानता है । 'देहात्मभाव में ही जीता है । शरीर विनाशी है और आत्मा शाश्वत् है, अविनाशी है, यह सत्य उसने पाया नहीं होता है। इसलिए वह कभी शरीर की विनाशिता, क्षणभंगुरता, अनित्यता का विचार नहीं करता है ! जैसे कि शरीर शाश्वत् हो, अविनाशी हो, वैसा समझकर वह जीता है ।। ___ आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य अपनी आँखों से अनेक शरीरों को जलते हुए देखता है, जमीन में गड़ते हुए देखता हैं... पशुओं का भक्ष्य बनते देखता है, फिर भी वह अपने शरीर की करूणान्तिका का विचार नहीं करता है । और जब वह क्षण सामने आती है, शरीर को विनाश-क्षण आती है तब वह भयभीत हो जाता है, घबरा जाता है । अति दुःख का अनुभव करता है । किसी मासूम बच्चे की मृत्यु देखकर, किसी तरूण की या युवक की मृत्यु देखकर, यह शरीर पानी के बुलबुले जैसा क्षणभंगुर है, ऐसा विचार क्यों नहीं आता है ? भले ही शरीर यौवन के उन्माद से उन्मत्त हो, बलवान् हो, फिर भी एक क्षण में क्या वह मिट्टी में नहीं मिल जाता है ? संसार में ऐसे द्रश्य क्या नहीं दिखायी देते हैं ? फिर भी मूढ़ जीवात्मा का शरीर-मोह टूटता नहीं है ! यह बड़ा आश्चर्य है ! इसलिए ज्ञानी पुरुषों ने सर्वप्रथम 'शरीर की अनित्यता, शरीर की क्षणभंगुरता शान्त सुधारस : भाग १ ८४ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतायी है। शरीर का संबंध आयुष्य के साथ : शरीर का बना रहना, जीवात्मा की इच्छा पर निर्भर नहीं है, जीवात्मा का जितना 'आयुष्य' होगा, उतनी ही शरीर की स्थिति होती है । शरीर की स्थिति कहें या जीवन की स्थिति कहें ! और, आयुष्यं कर्भ है, आयुष्य-कर्म पूर्वजन्म में बाँधकर ही जीव जन्मता है । उसको मालुम नहीं होता है कि वह कितने दिनों का, कितने महिनों का, कितने वर्षों का आयुष्य लेकर यहाँ जन्मा है ! आयुष्य पूर्ण होने पर जीवन पूर्ण हो जाता है, शरीर का नाश हो जाता है ! आयुष्य अचानक पूर्ण हो जाता है, शरीर का नाश हो जाता है ! आयुष्य अचानक पूर्ण हो सकता है, इसलिए शरीर भी अचानक नष्ट हो जाता है... इसी कारण शरीर को क्षणभंगुर कहा है और आयुष्य को चंचल' कहा है ! समुद्र की जलतरंगों जैसा चंचल बताया है । वायु की सरसराहट से समुद्र की जलतरंगें कैसी चंचल बन जाती हैं ? कभी देखना... और उसमें आयुष्य की चंचलता का दर्शन करना। उपाध्यायजी ने वैसा दर्शन करके ही गाया है - आयुर्वायुतरत्तरंगतरलं, लग्नापदः संपदः, सर्वेऽपीन्दिय-गोचराश्चटुलाः संध्याभरागादिवत् । मित्र-स्त्री-स्वजनादिसंगमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपमं, तत्कि वस्तु भवे भवेदिह मुदा-मालम्बनं यत्सताम् ॥ २ ॥ आयुष्य की चंचलता : ___ जब तक शरीर के साथ आयुष्य का संबंध रहता है, तब तक जीवन' बना रहता है । यही तो जीवन है ! शरीर और आयुष्य के संबंध पर जीवन निर्भर है । शरीर, आयुष्य पर निर्भर है ! और आयुष्य चंचल है ! अस्थिर है ! इसलिए शरीर अस्थिर, अनित्य है और इसी वजह से हमारा जीवन अस्थिर, चंचल और विनाशी है ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने अंतिम उपदेश में कहा है : 'असंखयं जीवियं मा पमायए । जीवन असंस्कृत है । यानी जब जीवन टूटता है, समाप्त होता है, तब किसी भी प्रकार उस को बचाया नहीं जा सकता है । कोई बचा नहीं सकता है। अनित्य भावना Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन से लगाव नहीं रखना है : जो चंचल हो, अस्थिर और अनित्य हो, उससे लगाव नहीं रखना चाहिए । लगाव जैसे नहीं रखना है, वैसे गर्व-अभिमान भी नहीं करना है ! शरीर का अप्रतिम रूप, शरीर का अतुल बल... भी अस्थिर और अनित्य होता है । उस पर भी कभी अभिमान नहीं करना है । शरीर का, जीवन का, धार्मिक-आध्यात्मिक विकास में उपयोग करना है, परंतु अभिमान नहीं करना है । यह शरीर, यह जीवन कभी भी धोखा दे सकता है । यदि उस पर लगाव होगा, ममत्व होगा तो दुःखी दुःखी हो जाओगे । इसलिए सर्वप्रथम शरीर - जीवन की प्रतिदिन क्षणिकता, अनित्यता का चिंतन करने को कहा है । 1 शरीर की, आयुष्य की और जीवन की क्षणिकता, अनित्यता समझाने के लिए दूसरे मुनि - कवियों ने भी कुछ काव्यों की रचनायें की हैं। वैसे एक मुनि - कवि जयसोम ने गाया है — किहाँ लगे धुँओं धवलहरा रहेजी, जल - परपोटो जोय, आऊखु अथिरतिम मनुष्यनुं जी, गर्व म करशो कोय, जे क्षणमां खेरु होय... अतुल बल सुवर जिनवर जिस्याजी, चक्री हरिबल जोड़ी, न रह्या एणे जुग कोई थिर थई जी, सुरनर भूपति कोड़ी... अनित्यता का द्रष्टांत देते हुए कवि ने कहा है : धवलता को हरनेवाला धुँआ कब तक रहता है ? और पानी के बुलबुले भी कितना समय टिकते हैं ? जीव का आयुष्य वैसा क्षणिक है इसलिए अभिमान नहीं करें। क्षणमात्र में शरीर राख (खेरु) हो जायेगी, तुम्हारा गर्व नष्ट हो जायेगा। अतुल बलवाले इन्द्र और तीर्थंकर भी संसार में स्थिर नहीं रह पाये, चक्रवर्ती और बलदेव भी स्थिर नहीं रहे ! देवदेवेन्द्र, राजा और सम्राट क्रोड़ों की संख्या में हो गये... वे भी आयुष्य पूर्ण होने पर चले गये... तुझे भी एक दिन जाना है, इसलिए आयुष्य शरीर और जीवन के विषय में अभिमान मत कर । अनित्यता का चिंतन करते रहने से अभिमान ८६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होगा, वैसे लगाव भी नहीं रहेगा । इसी प्रकार उपाध्यायश्री सकलचंद्रजी ने भी अनित्यादि भावनाओं को काव्य में उतारी हैं । बहुत भावपूर्ण काव्यरचना की है, सुनिए अनित्य भावना का प्रारंभ उन्होंने किस प्रकार किया है ।। मुंझ मा, मुंझ मा, मोहमां मुंझ मा. शब्द वर रुप रस गंध देखी; अथिर ते अथिर तुं, अथिर तनु जीवितं, समज मन, गगन हरि-चाप पेखी... ? हे आत्मन, तूं श्रेष्ठ वैसे शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श को देखकर (शरीर की पाँच इन्द्रियों के विषयों को) उन में मोहित न हो ! मोहित न हो ! क्यों कि वे सभी पौद्गलिक भाव अस्थिर हैं, अनित्य हैं ! तूं भी अस्थिर है, तेरा जीवन और तेरा शरीर भी अस्थिर है ! वर्षाकाल में संध्या के समय गगन में इन्द्रधनुष्य को देखना और उसमें तेरे शरीर की एवं जीवन की अनित्यता... क्षणभंगुरता देखना !' संपत्ति की अनित्यता: ___ आयुष्य, शरीर और जीवन की अनित्यता बताकर उपाध्यायजी संपत्तिओं की भी चंचलता बताते हैं । लग्नापदः संपदः ऋद्धि-सिद्धि और संपत्ति, विपत्तिओं के बादल से आच्छादित हैं । वे कहते हैं: संपत्ति होगी तो विपत्ति आयेगी ही ! दूसरी कोई आपत्ति आये या नहीं, भय की आपत्ति तो आती ही है ! और, संपत्ति सदाकाल के लिए मनुष्य के पास रहती भी नहीं है ! सकलचन्द्रजी ने कहा है - लच्छी सरिय-गति परे एक घर नवि रहे, देखतां जाय प्रभुजीव लेती, अथिर सवि वस्तुने काज मूढो करे जीवड़ो पापनी कोड़ी केती... मुंझ मा. राच मत राजनी ऋद्धिशुं परिवर्यो अंते सब ऋद्धि विसराल होशे... ऋद्धि साथे सवि वस्तु मूकी जते दिवस दो-तीन परिवार रोशे... मुंझ मा. । अनित्य भावना ८७ ! Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिता के प्रवाह की तरह लक्ष्मी-संपत्ति एक घर में, एक स्थान में नहीं रहती है । जैसे नदी का जल बहता रहता है, स्थान बदलता रहता है । संपत्ति उसके स्वामी का ( मालिक का) जीव लेकर जाती है । अर्थात् लक्ष्मी चली जाने पर कई लक्ष्मीपति के प्राण भी चले जाते हैं । 1 ऐसी अनित्य- अस्थिर वस्तुओं के लिए मूर्ख जीव कितने पाप बाँधता है ? अनेक प्रकार के पाप कर के वह संपत्ति पाने का प्रयत्न करता है । हे आत्मन्, तुझे राजऋद्धि प्राप्त हुई हो तो भी राचना मत, खुश नहीं होना । क्यों कि एक दिन वह राजऋद्धि नष्ट होनेवाली है । अथवा राजऋद्धि और परिवार को छोड़कर तुझे जाना पड़ेगा, तेरी मृत्यु हो जायेगी। दो-चार दिन परिवार रूदन करेगा... बाद में तुझे भूल जायेगा !' मालवपति मुंज : जयसोम मुनि, धन-संपत्ति को पाने की तरंगे जैसी कहते हैं और संध्या के रंग जैसी बताते हैं : 'धन-संपद पण दीसे कारमी जी, जेहवा जल - कल्लोल ।' मुंज सरिखे मागी भीखड़ी जी राम रह्या वनवास, इणे संसारे सुख-संपदा जी जिम संध्या- राग विलास...' जिस प्रकार संध्या के रंग आकाश में स्थिर नहीं होते, देखते-देखते विलीन हो जाते हैं, वैसे संसार में सुख-संपति देखते-देखते चली जाती है । इस बात को पुष्ट करने कवि ने दो प्राचीन द्रष्टांत दिये हैं। एक है मालवपति राजा मुंज का और दूसरा श्री रामचन्द्रजी का । ८८ मालवदेश का राजा मुंज पराक्रमी था, विद्वान् भी था । परंतु एक दिन राजा तैलप ने उसको युद्ध में हरा दिया और उसको बाँधकर अपनी राजधानी में ले गया । कारावास में डाल दिया। परंतु जब मुंज ने कारावास से भागने की योजना बनायी, योजना राजा तैलप की बहन मृणालिनी को बता दी । क्यों कि मृणालिनी से उसका प्रेम हो गया था और उसको वह अपने साथ ले जाना चाहता था । मृणालिनी ने मुंजकी योजना राजा तैलप को बता दी ! तैलप राजा ने मुंज के हाथों पैरों में बेड़ियाँ डाल दी और हाथों में भिक्षापात्र पकड़ाया । अपनी नगरी शान्त सुधारस : भाग १ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में घर-घर उसको भिखारी के रुप में फिराया और बाद में हाथी के पैरों के नीचे कुचलवा दिया । मुंज का कहाँ रहा राज्य ? कहाँ गया शरीर-बल ? कहाँ रहा सुख-वैभव ? सब कुछ नष्ट हो गया । दूसरा द्रष्टांत दिया है श्री रामचंद्रजी का । मुहूर्त निकला था राज्याभिषेक का और चले गये वनवास में । राज्य, वैभव और संपत्ति त्याग कर, जंगलों में फिरते रहे। __ धनसंपत्ति, राज्य संपत्ति और सुखसंपत्ति की अनित्यता, अस्थिरता और विनश्वरता बताकर, उस संपत्ति के उपर मोह नहीं रखने का उपदेश दिया है । मोहमूढ़ नहीं बनने की प्रेरणा दी है। इन्द्रियों के वैषयिक सुख : ___ इन्द्रियों के प्रिय वैषयिक सुखों की अनित्यता बताते हुए उपाध्यायजी ने कहा 'सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाः सन्ध्याभरागादिवत् ।' संध्या के क्षणिक रंगों जैसे पाँच इन्द्रियों के विषय सुख हैं । - वैषयिक सुखों से इन्द्रियाँ कभी तृप्त नहीं होती, - विषयों की प्रियाप्रिय की कल्पनायें बदलती रहती हैं, - प्रिय विषय की प्राप्ति पुण्यकर्म के अधीन होती है, - प्रिय विषय पुण्यकर्म देता है, पापकर्म छीन लेता है ! - प्रिय विषय अप्रिय बन जाता है, अप्रिय विषय प्रिय बन जाता है । __ कभी ऐसा भी होता है कि प्रिय विषय प्राप्त होते हैं, परंतु इन्द्रियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती है ! इन्द्रियाँ विषयभोग नहीं कर सकती हैं । - मधुर शब्द सुनने के साधन हैं (रेडिओ, टी.वी. वगैरह) परंतु कान बहरे हो गये हो ! बहरापन आ गया हो । - सुंदर द्रश्य, सुंदर रूप... सौन्दर्य के साधन उपलब्ध है, परंतु आँखों में अंधापन ___आ गया हो । अथवा आँखें रोगग्रस्त हो गई हों। - मनोहर बाग हो, बगीचा हो, इत्र हो, सेंट हो...सुगंधी अनेक पदार्थ हो, परंतु नाक ही बिगड़ गया हो ! नाक को सुगंध-दुर्गंध का अनुभव ही न हो ! - खाने के स्वादिष्ट भोजन हो, पेय – पदार्थ हो, परंतु जीभ ही स्वादहीन हो गई हो अथवा जीभ को लकवा-रोग लग गया हो ! । अनित्य भावना ८९ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श के, प्रिय स्पर्श के विषय मिले हों परंतु शरीर की चमडी ही 'सेन्सलेस' अनुभवरहित हो गई हो, किसी प्रकार का प्रिय अप्रिय स्पर्श का अनुभव ही नहीं हो ... ! विषयों की अनित्यता के साथ इन्द्रियों की भी अनित्यता का, चंचलता का चिंतन करना चाहिए । यह चिंतन जीवात्माको विषयलोलुप नहीं होने देगा । योगी चिदानन्दजी ने 'पुद्गल - गीता में विषय सुखों के उपभोग के भयानक परिणाम बताये हैं : पुद्गलिक सुख सेवत अहनिश, मन- इन्द्रिय न धावे, जिम घृत मधु आहूति देतां, अग्नि शान्त न थावे ॥ जिम जिम अधिक विषय सुख सेवे, तिम तिम तृष्णा दीपे, जिम अपेय जल पान किया थका, तृषा कहाँ किम छीपे ? पुद्गलिक सुखना आस्वादी एह मरम नवि जाणे, जिम जात्यंध पुरुष दिनकरनुं तेज नवि पहिचाणे || इन्द्रियजनित विषयरस सेवत वर्तमान सुख ठाणे, पण किंपाक तणां फलनी परे, नवि विपाक तस जाणे ॥ फल किंपाक थकी एक ज भव, प्राण हरण दुःख पावे, इन्द्रियजनित विषयरस ते तो, चिहुं गति में भरमावे || एवं जाणी विषयसुख सेंती विमुख रूप नित रहिये, त्रिकरण योगे शुद्धभाव धर, भेद यथारथ लहिये ॥ पाँच इन्द्रियों के विषय - सुख 'अनित्य' हैं, ऐसा कहकर ज्ञानी पुरुष जीवों को विषय सुखों से आसक्ति तोड़ने की प्रेरणा देते हैं । विषय सुख भोगने जैसे नहीं हैं - इस बात को अच्छी तरह समझाते हुए योगी श्रीचिदानन्दजी ने कहा है * रात-दिन विषय सुख भोगने पर मन और इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होती हैं ! जिस प्रकार अग्नि में घी और मधु की आहूति डालने पर अग्नि शान्त नहीं होती, परंतु विशेष प्रज्वलित होती है । * जैसे जैसे ज्यादा विषयसुख जीव भोगता है, वैसे वैसे तृष्णा बढ़ती है। जिस प्रकार समुद्र का पानी पीने से तृषा शान्त नहीं है परंतु बढ़ती है । * परंतु जिन जीवों को विषय सुखों में ही मजा आ गया होता है वे लोग इस मर्म को नहीं जानते । जिस तरह जन्मांध मनुष्य सूर्य के प्रकाश को पहचान शान्त सुधारस : भाग १ ९० - Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं सकता, देख नहीं सकता। * इन्द्रियजन्य वैषयिक सुखपान करनेवाला, सुखपान करते समय नहीं समझता है कि वह किंपाकफल खा रहा है ! किंपाकफल खाने में मीठा होता है, परंतु परिणाम मृत्यु होती है ! * परंतु किंपाकफल खाने से एक बार ही प्राणहरण का दुःख पनुष्य पाता है, जब कि इन्द्रियजनित विषयसुख भोगने से चारों गति में अनेक बार जन्म मृत्यु के दुःख पाता है । * विषय सुखों की इस वास्तविकता को जान कर, उन सुखों से विमुख रहना चाहिए । मन-वचन-काया से शुद्ध-पवित्र भावों को धारण करें। विषयानन्द और आत्मानंद का भेद यथार्थ रूप में समझ लः । संबंध स्वप्न; इन्द्रजाल : इन्द्रियों के विषय सुखों की अनित्यता और भयानकता बताने के बाद, उपाध्यायश्री विनयविजयजी संबंधों की अनित्यता बताते हैं - 'मित्र-स्त्री-स्वजनादिसंगमसुखं स्वप्नेन्द्रजालोपमम् ।' 'मित्र-स्त्री-स्वजनों के संयोग का सुख स्वप्न जैसा है अथवा इन्द्रजाल जैसा संसार में यदि कोई व्यापक बंधन है तो यह संबंधों का है ! जीव का जन्म होते ही माता का संबंध निश्चित हो जाता है । माता के लिए पुत्र या पुत्री का संबंध बन जाता है । वैसे ही पिता का संबंध बन जाता है । यह माता, यह पिता,' यह संबंध स्नेह से, राग से दृढ होता जाता है । थोड़ें बडें होने पर मित्रों का संबंध बनता है । मित्रों के साथ खेलने से, फिरने से, खाने - पीने से वह संबंध भी पक्का बनता जाता है । फिर यौवन आने पर जब शादी होती है तब पति-पत्नी का संबंध बनता है । परस्पर स्नेह-राग-मोह बढ़ने से यह संबंध भी दृढ़ होता है । इस प्रकार भाई-बहन का संबंध, भाई-भाई का संबंध, चाचामामा का संबंध....संबंधों की जाल विस्तृत होती जाती है । संबंधों के साथ, संबंधों को निभाने के लिए कुछ कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य होता है । संबंध अच्छे बनाये रखने के लिए कुछ आदान-प्रदान करना पड़ता है । यदि उसमें कुछ कम-ज्यादा होता है तो संबंध बिगड़ता है । संबंधों में धीरे धीरे स्वार्थ-तत्त्व का प्रवेश होता है, तब संबंध दुःखदायी बनते हैं । | अनित्य भावना Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबंधों में दंभ और कपट मिल जाते हैं, तब उसके कटु-परिणाम आते हैं । जब तक माता-पुत्र का, पति-पत्नी का, भाई-भाई का, भाई-बहन के संबंध निःस्वार्थ रहते हैं तब तक वे संबंध पवित्र माने गये हैं । इस द्रष्टि से मातृदेवो भव, पितृदेवो भव...' कहा गया है, परंतु उन्ही संबंधो में स्वार्थवृत्ति आ जाती है तब द्वेष दंभ, इर्ष्या आदि दोष संबंधों का असार-निःसार बना देते हैं । तत्त्वविजय' नाम के एक मुनि - कवि ने एक काव्य लिखा है - केहना रे सगपण ? केहनी माया ? केहनी मज्जन-सगाई रे, सज्जन-वर्ग कोई साथ न आवे, आवे प्रा) कमाई रे.............१ माझं माझं सौ कहे प्राणी तारी कोण सगाई रे ? आप स्वारथ सहुने वहालो, कुण मन्नार कुण माई रे ?..........२ चुलणी उदरे ब्रह्मदत्त आयो जुओ मात सगाई रे, पुत्र मारण ने अग्नि ज कीधी, लाग्वनां घर निपजाई रे............३ काष्टपिंजरमां घालीने मारे, शमन यही दोडे थाई रे, कोणिके निज तात ज हणीयो, तो किहाँ रही पुत्र सगाई रे ?..४ भरत-बाहुबली आपे लडीया, आये सज्ज थाई रे, बार वरस संग्राम ज कीधो. तो किहाँ रही भ्रातृ-सगाई रे ? ...५ गुरु उपदेशथी राय प्रदेशी, सुधो समकित पाई रे, स्वारथवश सुरकान्ता नारी, मार्यो पियु विष पाई रे...........६ निज अंगजना अंगने छेदे, जुओ राहु केतु कमाई रे, सह-सहुने निज स्वारथ वहालो, कुण गुरु, कुण भाई रे ? .....७ सुभूम-परशुराम ज दोई माहोमांहे वेर बनाई रे, क्रोध करीने नरके पहोंच्या, किहाँ गई तात-सगाई रे ? ..........८ चाणक्ये तो पतन साथे कीधी मित्र सगाई रे, मरण पाम्यो ने मनमां हरख्यो, किहाँ रही मित्र सगाई रे ?......९ इस काव्य को समझे न ? संबंधों की अनित्यता, निःसारता समझने के लिए इतने द्रष्टांत पर्याप्त नहीं हैं क्या ? • माता और पुत्र के संबंध की असारता बताते हुए उन्हों ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती और उसकी माता चुलणी का द्रष्टांत दिया है। माताने पुत्र को मारने के लिए लाक्षागृह में आग लगायी थी। शान्त सुधारस : भाग १ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता और पुत्र के संबंध की निःसारता, अनित्यता बताते हुए कवि ने राजा श्रेणिक और राजकुमार कोणिक का द्रष्टांत दिया है । पुत्रने पिता को कारावास में डाला था और रोजाना चाबुक से मारता था । पति और पत्नी के संबंध की दारुणता बताते हुए कवि ने राजा प्रदेशी और रानी सूर्यकान्ता का द्रष्टांत बताया है। रानी ने राजा को जहर देकर मार डाला था । पिता-पुत्र के संबंध की निःसारता बताते हुए राहु-केतु की कहानी बतायी है । अपने पुत्र के ही अंगों का छेदन करनेवाले पिता को पिता कैसे कहें ? सम और परशुराम परस्पर शत्रु बने, दोनों नरक में गये । चाणक्य और पर्वत मित्र बने । पर्वत की मृत्यु होने पर चाणक्य खुश हुआ था ! मित्र का संबंध कैसा असार ? कवि कहता है - कोई किसी का सगा नहीं है, सभी को अपना स्वार्थ है ! कौन सज्जन और कौन दुर्जन ? स्वार्थ ही सज्जन को दुर्जन बनाता है और स्वार्थवश दुर्जन सज्जन होने का दंभ करता है ! उपसंहार : इस प्रकार आज छह प्रकार की अनित्यता की बात की १. शरीर की अनित्यता, २. आयुष्य की अनित्यता, ३. जीवन की अनित्यता ४. संपत्ति धन दौलत की अनित्यता, वैषयिक सुखों की अनित्यता, और ५. ६. संबंधों की अनित्यता. - इन छह बातों के प्रति भीतर से विरक्त बनकर जीना है। यदि विरक्त बनकर जीना सीख लिया तो आनन्द ही आनन्द पाओगे । क्लेश, संताप और उद्वेग मुक्ति मिल जायेगी । आज बस, इतना ही अनित्य भावना — ९३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : ९ अनित्य भावना संकलना : संतों का उदासीन भाव परिवर्तन : द्रव्यात्म + और भावात्मक • परिवर्तनशील पदार्थों के साथ प्रेम नहीं २ शरीर एक मठ ज्ञानानन्द का पद • स्वजन परिजनों में परिवर्तन मूढ़ जीव का मोह प्रबुद्ध आत्मा की मनःस्थिति • प्रबुद्ध मनुष्य की यौवन के प्रति दृष्टि यौवन को सार्थक करनेवाले Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतों का उदासीन भाव : उपाध्याय श्री विनयविजयी 'अनित्यभावना में ६ बातों की अनित्यता बताकर एक प्रश्न पूछते हैं : तत्किं वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ?' इस संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है कि जो सज्जनों को, संतो को हर्ष प्रदान करें ? ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जिस से संतों को हर्ष हो ! मैं सताम् का अर्थ संतपुरूष करता हूँ । संतपुरूष वे होते हैं जो आत्मज्ञानी होते हैं । जड़ और चेतन का भेद जिन्हा ने जाना होता है । आत्मा और पुद्गल का भेदज्ञान जिह्नों ने पाया होता है । इसलिए संसार में संतपुरूष हर्ष-शोक से मुक्त हो, उदासीन भाव में रहते है । श्री चिदानन्दजी ने कहा है - धन्य धन्य जग में ते प्राणी, जे नित रहत उदास, शुद्धविवेक हिये में धारी, करे न पर की आस. संसार में उदासीन भाव से जीना सरल नहीं है, इसलिए उदासीन भाव से जीनेवाल संतों को चिदानन्दजी धन्यवाद देते हुए कहते हैं धन्य ! धन्य !' यह बात तभी घटती है, जब भीतर में शुद्ध विवेक का उदय होता है । यानी चेतन - अचेतन का भेदज्ञान स्पष्ट रूप से उद्भासित होता है । ___ शरीर, आयुष्य, जीवन, संपत्ति, वैषयिक सुख, स्वजन परिवार इत्यादि के प्रति, मोहित नहीं होता है, वैसे उद्विग्न भी नहीं होता है । राग और द्वेष रहित उदासीन स्थिति बनी रहती है । ऐसी उदासीन स्थिति पाना विद्वानों के लिए भी मुश्किल होती है, इस बात को गाते हुए निराशा के सुर में विनयविजयजी कहते हैं : प्रातभ्रातरिहावदातरुचयो ये चेतनाऽचेतना, द्रष्टा विश्वमनः प्रमोदविदुरा भावाः स्वतः सुन्दराः । तांस्तत्रैव दिने विपाकविरसान् हा नश्यतः पश्यत श्चेतः प्रेतहतं जहाति न भवप्रेमानुबन्धं मम ॥ मैं जानता हूँ, देखता हूँ कि जो चेतन-अचेतन पदार्थ, प्रभात में शोभायमान होते हैं, मन को प्रसन्न कर देनेवाले होते हैं, आह्लादक व आकर्षक होते हैं, वे ही पदार्थ संध्या के समय निरस, निस्तेज और अनाकर्षक बन जाते हैं ! यह प्रत्यक्ष देखने पर भी मेरा प्रेतहत मन, मूढ़ मन उन पदार्थों का प्रेम... मोह... राग छोड़ता नहीं है... यह बड़ी दुःख की बात है । __ अनित्य भावना Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्योदय से सूर्यास्त तक जड़-चेतन पदार्थों में जो परिवर्तन आता है, वह परिवर्तन की प्रक्रिया को उपाध्यायजी ने देखी है । परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं : द्रव्यात्मक और भावात्मक । परिवर्तन : द्रव्यापक और भावात्मक : - सुबह पुष्प खिलता है शाम को कुम्हला जाता है, - सुबह का स्नान शरीर शाम को गंदा हो जाता है, - सुबह में जो वस्त्र सुंदर दिखते हैं, शाम को मैले दिखते हैं, - सुबह का प्रिय भोजन, शाम को अप्रिय लगता है... ये सब द्रव्यात्मक परिवर्तन कहे जाते हैं। - सुबह में प्रिय शब्द सुनानेवाले स्वजन, शाम को अप्रिय शब्दों की वर्षा करते - सुबह में जिन के प्रति स्नेह होता है, शाम को उनके प्रति द्वेष हो जाता है। सुबह में जिन के प्रति दुर्भाव होता है, शाम को उनके प्रति सद्भाव पैदा हो जाता है ! ये सब भावात्मक परिवर्तन कहे जाते हैं। जिन का रूप, रस और गंध बदलता रहता है और जिन का राग-द्वेष और मोह आदि भाव बदलते रहते हैं... ऐसे जड़ चेतन पदार्थों के प्रति प्रेम नहीं होना चाहिए। प्रेम परिवर्तनशील पदार्थ के प्रति नहीं होना चाहिए, शाश्वत् के साथ प्रेम होना चाहिए । अनित्य - परिवर्तनशील पदार्थ के साथ प्रेम टिकता नहीं है, टूट जाता है । शाश्वत् के साथ किया हुआ प्रेम टूटता नहीं है ! इसीलिए परमात्मा से प्रेम करना है ! क्योंकि परमात्मा शाश्वत् है ! परंतु वासना के प्रेत से आहत मन, अनित्य और परिवर्तनशील पदार्थों के साथ ही प्रेम करता है ! ऐसे मन को कैसे समझाना ? । ___ उपाध्यायजीने चेतः प्रेतहतं कहा है । प्रेत यानी भूत, प्रेत यानी व्यंतर ! भूतप्रेत कहते हैं न ? जिस को भूत-प्रेत लग जाता है वह विवेकशून्य व्यवहार करता है। उसमें स्वयं की समझदारी नहीं रहती है । ज्यादातर, भूत-प्रेत, निर्बल और चंचल चित्तवालों को ही जल्दी लगते हैं । उपाध्यायजी को शंका हो गई कि क्या मेरे चित्त को भूत-प्रेत लग गया है ? अन्यथा प्रत्यक्ष परिवर्तन पानेवाले पदार्थों के प्रति मेरा मन प्रेम क्यों करता है ? | ९६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थों की अनित्यता बताते हुए शामल भट्ट ने कहा है - जे जायुं ते जाय, जेह फूल्युं ते खरशे, भर्यु तेह ठलवाय, चड्युं ते तो उतरशे, लीलुं ते सुकाय, नवं ते जूनुं थाशे, आवरदावश सर्व, काल सहु को ने खाशे. जो जनमता है उसका नाश होता है, जो खिलता है वह झड जाता है, जो भरा हुआ होता है वह खाली हो जाता है, जो चढ़ता है वह उतरता है, जो हरा होता है वह सुखता है और जो नया होता है वह जीर्ण होता है... सब कुछ अपनी मर्यादा में है । काल-महाकाल सर्वभक्षी होता है । पदार्थों के परिवर्तन की कितनी अच्छी बात कही है कवि ने ? परिवर्तनशील पदार्थों के साथ प्रेम नहीं : - पहले शरीर की परिवर्तनशीलता का विचार करें । १. शिशु-अवस्था, २. बाल्य-अवस्था, ३. तरूण अवस्था, ४. युवावस्था ५. प्रौढावस्था ६. वृद्धावस्था. ___ अवस्थाओं के अनुरुप मन के भावों का और शरीर की क्रिया-कर्मों का भी परिवर्तन देखने में आता है न ? - कभी शरीर निरोगी होता है, कभी शरीर रोगग्रस्त होता है, - कभी शरीर सुंदर होता है, वही शरीर अकस्मात में कुरूप भी हो जाता है । - कभी शरीर ठंड़ा होता है, कभी गर्म होता है ! ऐसे शरीर पर भरोसा रख कर, क्यों उसके उपर प्रेम करना ? एक कविने कहा है - ___क्या तन मांजता रे, एक दिन मिट्टी में मिल जाना.... ज्ञानानन्द ने शरीर को मठ' की उपमा देकर, और आत्मा (अवधू) को उस | अनित्य भावना 38533883333333333333898 १७ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मठ में सोया हुआ देख कर कहा है : अवधू ! क्या सोता इस मठ में ? इस मठ का है कवण भरोसा ? पड़ जाये चटपट में... अवधू. ९८ पानी किनारे मठ का वासा कवण विश्वास ए तट में ? अवधू. छिन में ताता, छिन में शीतल रोग शोक बहुं मठमें... अवधू. घंटी फेरी आटो खायो खरची न बांधी ते वट में... अवधू. सोता सोता काल गमायो अब हु न जाग्यो तू घट में... अवधू. इतनी सुन निधि संयम मिलकर ! ज्ञानानन्द आये घट में... 3 ..अवधू. सोयी हुई... प्रमाद में सोयी हुई आत्मा को जगाने के लिए, कितनी अच्छी प्रेरणा दी है ज्ञानानन्दजी ने ? शरीर रूप मठ के उपर विश्वास रख कर, निश्चित बन कर आत्मा सोयी है, यह देखकर कवि आत्मा को संबोधित कर कहते हैं : इस काया के मठ में क्या निश्चित होकर सोया है आत्मन् ! इस काया के मठ का भरोसा नहीं है, यह कभी भी गिर सकता है, क्योंकि मृत्यु - नदी के ( पानी के ) किनारे पर बसा है यह मठ ! किनारा कभी भी ढह सकता है... और यह काया का मठ कभी गरम होता है, कभी शीतल... कभी भी धराशायी हो सकता है ... (इस लिए जाग... नींद का त्याग कर ) शान्त सुधारस : भाग १ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तूने मात्र खाने का काम किया, मुसाफरी लंबी है... तूने साथ में पाथेय नहीं लिया ? ( रास्ते में क्या खायेगा ? ) - कितना सोचा ? मनुष्य जन्म को व्यर्थ गँवाया ? अभी तक नहीं जागा भीतर में ? हे चेतन ! इतना सुनकर जाग जा ! तेरे घट में ज्ञानानन्द भर जायेगा ! स्वजन - परिजनों में परिवर्तन : जिस प्रकार शरीर की अवस्थायें परिवर्तनशील हैं, वैसे स्वजन - परिजन भी परिवर्तनशील होते हैं । कुछ उदाहरण से समझाता हूँ । बच्चा छोटा होता है तब माता-पिता को प्रिय होता है, जब वह बड़ा होता है और माता-पिता का कहा नहीं मानता है, माता-पिता की सेवा नहीं करता है तब उसी लड़के के प्रति माता-पिता रोष करते हैं I जिस लड़के को माता-पिता के प्रति प्रेम होता है, शादी के बाद प्रायः मातापिता के प्रति प्रेम नहीं रहता । मनमुटाव, आपस में झगड़ा होता है और लड़का माता-पिता से अलग हो जाता है । पति-पत्नी के बीच प्रारंभ काल में प्रेम होता है, बाद में आपस में प्रायः रोजाना क्लेश... अनबन... झगड़ा शुरू हो जाता है । दो मित्रों के बीच जब स्वार्थ आ जाता है तब प्रेम की जगह शत्रुता आ जाती है । स्वजन परिजनों का स्नेह प्रायः स्वार्थजन्य होता है । जब तक एक दूसरे के स्वार्थ पुष्ट होते हैं तब तक प्रेम रहता है, जब स्वार्थपूर्ति नहीं होती है तब स्वजन - परिजन बदल जाते हैं । शत्रुतापूर्ण व्यवहार करते हैं । - स्वजन - परिजनों के संबंध ऐसे परिवर्तनशील होते हुए जानते है, फिर भी उनके प्रति मूढ़ मन आसक्त रहता हैं । उनका ममत्व टूटता नहीं हैं । एक वृद्धाश्रम में हम गये थे । वृद्धाश्रम में उस समय मात्र ५-७ वृद्ध पुरूष अनित्य भावना ९९ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I थे । उनको सब प्रकार की सुविधायें उपलब्ध थी । मैने उनको पूछा : यहाँ तुम्हें शान्ति मिली है न ? शान्ति से धर्म आराधना होती है न ? उन्हों ने कहा : बार बार घर - स्वजन - परिवार याद आता है, मन में राग-द्वेष होते हैं ।' जिस परिवार ने, जिन स्वजनों ने इन वृद्धों को, उनके ही घरों में से निकाल दिये थे, आश्रम में भेज दिये थे, जो स्वजन उन का मुँह देखना भी नहीं चाहते... उन स्वजन - परिजनों के प्रति अभी भी उन वृद्धों को ममत्व था ! प्रेम था ! ऐसा प्रेम करनेवाले मन को 'प्रेतहत' नहीं कहें तो क्या कहें ? जो मन प्रेतहत नहीं होता है, जो मन मूढ़ नहीं होता है, जो मन ज्ञानविज्ञान से वासित होता है, वह तो पहले से ही संसार के पदार्थों को परिवर्तनशील समझ लेता है, वैषयिक सुखों को दुःखदायी समझ लेता है और उनका त्याग कर संयममार्ग पर, चारित्रमार्ग पर चल देता है । वैषयिक सुखों को एवं स्वजन परिजनों का त्याग कर देता है । वह इंतजार नहीं करता है कि जब विषयसुख चले जायेंगे, जब स्नेही - स्वजन मुँह मोड़ लेंगे, जब शरीर और इन्द्रियाँ अशक्त हो जायेंगी... तब संसार का त्याग करेंगे ! जब वैसी स्थिति का निर्माण होगा, तब प्रेतहत मन की तृष्णा, ममता द्रढ़ हो गयी होगी ! अपने हृदय में परिवार आदि सभी वैभवों का बार बार विचार कर, व्यर्थ मोहित होता रहता है ! इसी द्रष्टि से उपाध्यायजी महाराज ने कहा है : मूढ जीव का मोह : मूढ मुह्यसि मूढ मुह्यसि मुधा, १०० विभवमनुचिन्त्य हृदि सपरिवारम् । कुशशिरसि नीरमिव गलदनिलकम्पितं, विनय जानीहि जीवितमसारम् ॥ 'उपाध्यायजी अपने स्वयं को संबोधित करते हुए कहते है : 'विनय, तू जीवन को असार जान, निःसार जान । क्योंकि जीवन क्षणिक है... अति अल्पकालीन है और चंचल है । घास के पत्ते पर रहे हुए जलबिंदु जैसा है। पवन का एक झोंका आने पर वह जलबिंदु गिर जाता है, वैसे महाकाल का एक धक्का लगने पर जीवन समाप्त हो जाता है। इसलिए जीवन के प्रति, वैभवों के प्रति, शरीर और स्वजनों के प्रति व्यर्थ मोहित मत हो । अपने हृदय में ईन क्षणिक पदार्थों के विचार कर व्यर्थ राग-द्वेष करता है । तेरी यह मूढ़ता है । शान्त सुधारस : भाग १ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने मन का अनुशासन करते हैं विनयविजयजी । अपने मन को फिटकारते हैं । 'तू मूढ़ है... तू मूढ़ है...' ये शब्द घोर फिटकार के हैं । हे मन तुझे लानत है... कि तू सांसारिक वैभवों का बारबार बिचार करता है... जो वैभव क्षणिक जो क्षणिक... विनाशी... क्षणभंगुर होता है... उसका विचार ही नहीं करना चाहिए। उस पर ममत्व ही नहीं बाँधना चाहिए । क्षणिक के साथ ममत्व बाँधना मूढ़ता है । मूर्खता है । __ हाँ, जिस शरीर के साथ जीना है, जिस परिवार के साथ जीना है, जिन पौद्गलिक विषयों का भोग-उपयोग करना है, जिस वैभव-संपत्ति के साथ जीना है - उनके साथ ममत्व नहीं बाँधना है ! उनके साथ प्रेम नहीं करना है । उन पर विश्वास नहीं करना है। प्रश्न : बड़ा मुश्किल लगता है ! उत्तर : मुश्किल को सरल बनाने के लिए तो भावनाओं से भावित होना है ! भावनाओं के माध्यम से, अनित्य-भावना के सहारे मुश्किल काम भी सरल बनेगा । प्रयोग करके अनुभव करें । अनुभव कर के देखें । प्रबुद्ध आत्मा की मनःस्थिति : __बाहर से तो शरीर आदि क्षणभंगुर पदार्थों के साथ ही जीना होगा, परिवर्तन भीतर में, अन्तःकरण में लाना है । क्रान्ति वैचारिक करती है । - जब शरीर रोगग्रस्त हो, शस्त्राहत हो, - जब संपत्ति चली जायें, कम हो जायें, - जब स्वजन मुँह मोड़ लें, पराये बन जायें, - जब मित्र शत्रु बन जायें... उस समय आपका मन अशान्त, संतप्त और उद्विग्न नहीं बनना चाहिए... बस, इतना ही परिणाम चाहिए अनित्य भावना के चिंतन का । जिस समय मूढ, अबुध और मूर्ख मनुष्य रोता है, घोर दुःख अनुभव करता है, उस समय अनित्यभावना का चिंतक प्रबुद्ध मनुष्य स्वस्थ रहता है, प्रसन्न रहता है । * कोई उसको पूछता है : आपका शरीर इतना रोगग्रस्त हो गया है... हमें बहुत दुःख होता है। वह कहता है : शरीर रोगग्रस्त होना ही था, मैं जो हूँ, पूर्ण निरोगी हूँ । मैं | अनित्य भावना १०१ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखी नहीं हूँ, आप भी दुःखी नहीं हो । * कोई आश्वासन देते हुए कहता है : आपको व्यापार में बहुत बड़ा नुकसान आया... करोड़-दो करोड़ रूपयों का नुकसान हुआ ऐसा सुना है, सुनकर दुःख हुआ। वह कहता है : आप की सहानुभूति के लिए आभार ! वैसे मैंने संपत्ति को मेरी मानी ही नहीं थी । संपत्ति को सदैव चंचल, अनित्य मानता रहा हूँ, इसलिए मैं संपत्ति जाने पर भी स्वस्थ हूँ, प्रसन्नचित्त हूँ। मुझे दुःख नहीं है ! * कोई सहानुभूति जताता हुआ कहता है : मुझे जानकर बड़ा दुःख हुआ कि आप को अकेले छोड़कर लड़के अलग हो गये । वृद्धावस्था के प्रारंभ में परिवार से दूर रहना बड़ा दुःखदायी होता है ! वह कहता है : मित्र, स्वजनों के संबंध मैंने अनित्य ही माना था और मानता हूँ ! जैसे जलयान में अथवा वायुयान में अनेक मुसाफिर इकट्ठे होते हैं, जब अपनी अपनी जगह आती है, तब मुसाफिर उतर जाते हैं, चल देते है ! हम भी सभी भवयात्रा के मुसाफिर हैं ! मुसाफिरों का संबंध स्थायी नहीं रहता, क्षणिक होता है... अल्प कालीन होता है ! पुत्रों का, पत्नी का, भाई-बहनों के संबंध वैसे अनित्य होते हैं, वे चले गये, मुझे कोई दुःख नहीं है । मैंने संबंधों को कभी स्थायी नहीं माने । मैने स्वजनों से ममत्व नहीं बांधा ! इसलिए मुझे कोई दुःख नहीं है। * कोई आकर दुःख व्यक्त करता है : आपने जिस मित्र को बहुत सहायता दी थी, गिरे हुए को उठाया था, मैं जानता हूँ, उसने आप को ही धोखा दिया... आप को ही गिराने की चेष्टा की... जानकर बहुत दुःख हुआ। वह कहता है : मेरे दोस्त, मेरे बाह्य व्यवहार से तुमने मान लिया था कि उसको मैं मेरा मित्र मानता था, उसके साथ मेरा लगाव था ! नहीं, उसको मैने सहायता की थी मात्र करूणा से, उसको ऊँचा उठाने का काम किया था, एक साधर्मिक समझ कर ! परंतु मैने कभी उसके प्रति-उपकार की अपेक्षा नहीं रखी थी और जैसी तुम समझते हो, वैसी मैत्री का संबंध भी नहीं जोड़ा था । मेरी मैत्री तो संसार के सभी जीवों के साथ है । वैसे उसने मुझे धोखा नहीं दिया है, धोखा देनेवाले मेरे कर्म ही हैं ! वैसे उसने धोखा दिया, तो भी क्या हो गया ? वैषयिक सुख चले गये न ? मैने वैषयिक सुखों को क्षणभंगुर माने हैं ! __ पश्य भंगुरमिदं विषयसुखसौहृदं शान्त सुधारस : भाग १ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्यतामेव नश्यति सहासं, एतदनुहरति संसारस्पं रया ज्जलदजलबालिका रुचि विलासम् ॥२॥ देखो, सोचो, वैषयिक सुखों का संबंध क्षणभंगुर है । चकमा देकर, छलना कर वह संबंध चला जाता है । इस संसार की माया बिजली की चमक जैसी चंचल होती है। प्रबुद्ध मनुष्य की यौवन के प्रति द्रष्टि : सामान्य मनुष्य, अबुध मनुष्य विषयसुखों को भोगने का अच्छा समय यौवन काल को समझता है ! यौवनकाल में पाँचों इन्द्रियों के भरपूर वैषयिक सुख भोगे जा सकते है -' ऐसी द्रढ़ मान्यता होती है । इस में भी स्त्री-पुरुष का संगमसुख ही केन्द्र में होता है । यौवन के प्रारंभ में ही सेक्स की वृत्ति जाग्रत होती है । वह वृत्ति, पुरूष को स्त्री की ओर और स्त्री को पुरूष की ओर आकृष्ट करती है । युवावस्था में स्त्री-पुरूषों के भीतर विषय वासना का आवेग प्रबल होता है । उस आवेग पर कंट्रोल करना, संयम रखना, बहुत कठिन काम होता है। इसलिए वे यौवन को ही अनित्य क्षणभंगुर कुत्ते की पूँछ जैसा वक्र बताकर, समझाकर, यौवन के उन्माद को शान्त करने का उपाय करते हैं ! वे कहते हैं : हन्त हतयौवनं पुच्छमिव शौवनं कुटिलमति तदपि लघु द्रष्टनष्टम् । तेन बत परवशाः परवशाहतधियः कटुकमिह किं न कलयन्ति कष्टम् ? ॥३॥ सच, कुत्ते की पूँछ जैसा कुटिल-वक्र है यौवन ! देखते ही देखते वह (यौवन) नष्ट हो जाता है । यौवन के सेक्सी आवेग में पुरूष स्त्री को परवश हो जाता है, उसकी बुद्धि कुंठित हो जाती है...वह विषयों के उपभोग (सेक्स) की कटुता... उसके दुःखपूर्ण परिणाम को नहीं समझ पाता है ? उपाध्यायजी को आश्चर्य होता है ! परंतु यौवन की यह वास्तविकता है । यौवन में सेक्सी आवेग उतना प्रबल होता है कि जो बुद्धिमानों की, धार्मिकों की बुद्धि को भी कुंठित कर देता है । जवानी परिणामों का विचार करने प्रायः सक्षम नहीं होती है । वास्तविकता के विचार भी, उन्मत्त यौवनकाल में करना असंभव सा होता है। | अनित्य भावना १०३ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और, यौवन में पुरूष को स्त्री का आकर्षण, समागम की तीव्र अभिलाषा... स्वाभाविक होती है । वैसी ही बात स्त्री के लिए होती है । स्त्री को पुरुष का आकर्षण प्रबल रहता है । और जब जिसका आकर्षण होता है वह मिल जाता है तब दोनों एक-दूसरे के वश हो जाते हैं। एक-दुसरे के बिना रह नहीं सकते हैं । यौवनकाल में काम-पुरूषार्थ ही प्रधान बन जाता है । ___ ग्रंथकार-काव्यकार उपाध्यायजी को तो युवकों को इतना ही समझाना है कि "तुम्हारा यौवन ज्यादा टिकनेवाला नहीं है... क्षणिक है ! कुछ वर्ष ही टिकनेवाला नहीं है, इसलिए यौवन पर भरोसा मत रखो । - यौवन में भी शरीर रोगग्रस्त बन सकता है और भोग भोगने में अशक्त बन __ सकता है । - यौवन में भी मौत आ सकती है, जीवन समाप्त हो सकता है, - यौवन में प्रिय पात्र का वियोग हो सकता है, - यौवन में निराशा, हताशा घिर आती है... मन डिप्रेशन में डूब जाता है... __ तब भोगसुख भोगे नहीं जा सकते हैं । यौवन व्यर्थ लगता है । यौवन को सार्थक करनेवाले यौवन में भोगसुखों का त्याग कर, विरक्त बनकर ब्रह्मचर्य का महाव्रत लेनेवाले महामानवों को याद किया करें, तो यौवन में भी भोगवृत्ति पर संयम आ सकता * काकंदी का धन्यकुमार * राजगृही के शालिभद्र * उज्जयिनी के अवंतीसुकुमाल, * राजकुमार मेघकुमार * रामायण के सुकोशलकुमार * रामायण के राजकुमार वज्रबाहु * मृगापुत्र * नंदिषेण * जंबूस्वामी * स्थूलभद्रजी, * गजसुकुमाल... १०४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मदनब्रह्म कुमार... बहुत बड़ी सूचि है युवानों की, जिन्हों ने यौवन को अंकुश में रखा था । आत्मानुशासन कर ब्रह्मचर्य के महाव्रत को पाला था । यौवन को सार्थक किया था। यह है ज्ञानी-प्रबुद्ध पुरूषों का यौवन विषयक अभिगम ! वर्तमान में...पश्चिमी सभ्यता की छाया में यौवन में कैसी विकृतियाँ प्रविष्ट हो गई हैं और यौवन को बर्बाद कर रही है, इस विषय की चर्चा आगे करूँगा, आज बस, इतना ही - । अनित्य भावना । अनित्य भावना 8833638588 १०५ १०५ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १० अनित्य भावना - संकलना : कामविकारों की प्रबलता रूपविजयजी का एक काव्य कामवासना का उद्भवस्थान काम पुरुषार्थ • पंडित वाचस्पति मिश्र ( भामती) सही और गलत जीवनद्रष्टि • सेक्स विषयक पश्चिम की विकृत विचारधारा • फ्रोइड़ और एरिक फ्रोम उन्मार्गगामी मानसशास्त्र भौतिकवादी सभ्यता के नुकशान • कामवृत्ति का अभिगम उपसंहार ३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदपि पिण्याकतामंङ्गमिदमुपगतं भुवन- दुर्जयजरापीत - सारम् । तदपि गतलज्जमुज्झति मनोनांगिनां, वितथमति - कुथित मन्मथ - विकारम् ॥ कामविकारों का प्राबल्य बताते हुए उपाध्याय श्री विनयविजयजीने कहा है : जरा से सत्वहीन और क्षीण देहवाले जीवों का निर्लज्ज मन, जो कि इस जगत में अति दुर्जय है, कामविकारों का त्याग नहीं करता है, यह कितनी शर्म की बात है ! कामविकारों की प्रबलता : यौवन तो कामवासना का क्रीडा - काल ही होता है, परंतु वृद्धावस्था में भी कामवासना छूटती नहीं है । मन कामवासना में रममाण रहता है ! यह बात सभी ज्ञानी पुरूषों को शर्मजनक, लज्जास्पद और धिक्कारपात्र लगी है । वृद्धावस्था का वर्णन करते हुए एक संस्कृत भाषा के कवि ने कहा है गात्रं संकुचितं, गति विगलिता, दंताश्च नाशं गता, दृष्टि भ्रस्यति, रूपमेव हसते, वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः, पत्नी न सुश्रूयते, धिक् कष्टं हा जराभिभूत पुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ।। वृद्धावस्था में शरीर संकुचित हो जाता है यानी शरीर पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, गति - आगति स्खलित हो जाती है, दाँत गिर जाते हैं, आँखें धुंधली हो जाती है, निःस्तेज हो जाती हैं, रूप- लावण्य घटता जाता है, मुँह से लार टपकती है, बंधुजन उसकी आज्ञा नहीं मानते, पत्नी भी उसकी सेवा नहीं करती है, पुत्र भी उसकी अवज्ञा करता है... इसलिए जरावस्था से पराभूत पुरूष को धिक्कार हो ! चूँकि ऐसी करूणास्पद स्थिति में भी उसका मन कामवासना का त्याग नहीं करता है । कामवासना वृद्ध नहीं होती है । वृद्धावस्था को गुजराती भाषा में 'घड़पण' कहते हैं । इस 'घडपण' के उपर, उपाध्यायश्री विनयविजयजी के ही शिष्य रूपविजयजी ने एक काव्य लिखा है, बहुत अच्छा है, सुनें घड़पण कां तुं आवीओ ? तुज कोण जुए है वाट ? तुं सहुने अलखामणो रे, जेम मांकड़ भरी खाट अनित्य भावना १०७ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घड़पण कोणे मोकल्युं ? जाय, गति भांगे तुं आवतां रे, उद्यम उठी रे दांतड़ला पण खरी पड़े रे, लार पड़े मुखमांय..........घड़पण. बल भांगे आंखो तणुं रे, श्रवणे सुण्युं नवि जाय, तुज आवे अवगुण घणा रे, वली धोली होय रोमराय .. घड़पण. केड़ दुःखे, गुड़ा रहे रे, मुखमां श्वास न माय, गाले पड़े करचली रे रुप शरीरनुं जाय... रे.... जीभलड़ी पण लड़थड़े रे, आण न माने कोय, घेर सहुने अलखामणो रे, सार न पूछे कोय.... दिकरा तो नासी गया रे, बहुओ दिये रे गाल, दिकरी नावे ढुंकड़ी रे, सबल पड़यो छे जंजाल... काने तो धाको पडी रे, सांभले नहींय लगार, आँखे तो छाया वली रे देखी शके न लगार............. उंबरो तो डुंगर थयो रे, पोल थई परदेश, गोली तो गंगा थई रे, तमे जुओ जराना वेश... घड़पणमां व्हाली लापशी, घडपणमां व्हाली भींत, घड़पणमां व्हाली लाकड़ी, तुमे जुओ घड़पणनी रीत... घड़पण. घड़पण तुं अकह्यागरुं, अण तेड़युं म आवीश, जोबनीयुं जग वहालु रे, जतन हुं तास करीश... कोई न वंछे तुजने रे, तुं तो दूर वसाय, विनयविजय उवज्झायनो रुपविजय गुण गाय... घड़पण. यह वर्णन वृद्धावस्था का है। ऐसी अवस्था में भी कामवासना प्रबल हो सकती • घड़पण. . घड़पण. है । और नपुंसक वेद । पुरूष को पुरूष वेद १०८ - - . घड़पण. • घड़पण. ********* कामवासना का उद्भव स्थान : कामवासना (सेक्सीवृत्ति) चारों गति के जीवों में होती है, परंतु सब से ज्यादा कामवासना मनुष्य को होती है ! कामवासना जाग्रत होती है, मोहनीय कर्म से । मोहनीय कर्म के अंतर्गत तीन वेद-कर्म होते हैं। पुरूष वेद, स्त्री वेद ..... ....... .घड़पण. घड़पण. ...... मोहनीय कर्म का उदय होता है तब स्त्री के प्रति शान्त सुधारस : भाग १ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर्षण होता है, स्त्री-उपभोग की वासना उठती है । - स्त्रीको स्त्रीवेद – मोहनीय कर्म का उदय होता है, तब पुरूष के प्रति आकर्षण होता है, पुरूष-उपभोग की वासना जाग्रत होती है । - जिसको नपुंसक-वेद-मोहनीय कर्म का उदय होता है, उसको स्त्री और पुरूष, दोनों के उपभोग की वासना जगती है । मोहनीय कर्म का उदय प्रबल होता है तब कामवासना भी प्रबल होती है । उस प्रबल कामवासना को उपशान्त करने का मनोबल सभी मनुष्यों में नहीं होता है, वासना से परवश हो जानेवाले ही ज्यादा लोग होते हैं । इस कामवृत्ति का समावेश ऋषि-मुनियों ने काम-पुरूषार्थ' में किया है। काम-पुरुषार्थ : भारतीय संस्कृति में कामवृत्ति की ओर देखने की सम्यग् दष्टि और समुचित समझदारी रही हुई है । इस संस्कृति में कामवृत्ति को गहराई से और समग्रता से समझने का और मानवोचित उर्चीकरण का घनिष्ठ प्रयास हुआ है । कामपुरूषार्थ का विज्ञान विकसित हुआ है । परंतु वर्तमान में कामवृत्ति - विषयक अज्ञानता और विकृत समझदारी का आक्रमण समाज पर हो रहा है । ऐसे समय में हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को यथार्थ रूप में समझ लेनी चाहिए । अन्यथा आज का सेक्स एक्सप्लोझन (सेक्स-विस्फोट) सब कुछ नष्ट कर देगा। ___ कामवृत्ति एक प्रबल उर्जा है, प्राणशक्ति है । कामवृत्ति एकान्ततः तिरस्कृत नहीं है । भारतीय संस्कृति का अभिगम सामान्यतया ऐसा रहा है कि कामानंद के लिए प्राण शक्ति का व्यय मर्यादित और संयमित रखकर, उसे भावना और प्रज्ञा के विकास हेतु एवं समाधि के ब्रह्मानंद के लिए उपयोग में लिया जायें। सष्टि में व्याप्त चेतन - तत्त्व के साथ तादात्म्य साधन से ब्रह्मानन्द की अनुभूति होती है। ऐसी अनुभति जिस को होती है उसको कामानंद का आकर्षण कलासर्जन के कार्य में निमग्न वैज्ञानिक, चिंतक या कलाकार, कामानंद से उच्चतर सर्जनात्मक आनंद की अनुभूति करता है तब उसको दूसरा कोई सान-भान नहीं रहता है ! पंडित वाचस्पति मिश्र : इस विषय में पंडित वाचस्पति मिश्र का एक द्रष्टांत सुनाता हूँ । हालाँकि यह प्रसिद्ध कहानी है, फिर भी यहाँ प्रस्तुत होने से कहता हूँ। उन्होंने भामती नामका एक अप्रतिम ग्रंथ लिखा था । १६ वर्ष तक इस ग्रंथरचना अनित्य भावना १०९ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वे निमग्न हो गये थे। शादी के बाद तूर्त ही कार्य में वे लग गये थे । प्रतिदिन पत्नी समय पर भोजन लाती, संध्या होने पर दीपक जलाती, परंतु पंडितजी को सिवाय ग्रंथ रचना, और कोई भान नहीं था । जब ग्रंथरचना पूर्ण हुई, शाम को पत्नी दीया लेकर आयी, पंडितजी ने उसके सामने देखा और पूछा 'सुंदरी, तू कौन है ?' 'मैं आप की धर्मपत्नी हूँ... रोजाना शाम को दीया लाकर मैं रखती हूँ । वाचस्पति मिश्र लज्जित हो गये । १६ वर्ष तक उस स्त्री ने उनकी और उनके ग्रंथ की मूक सेवा की थी। पंडितजी नतमस्तक हो गये । पत्नी का नाम भामती था, उन्होने ग्रंथ का नाम 'भामती' रख दिया । ग्रंथ पत्नी को समर्पित किया । पंडितजी अपनी ज्ञानोपासना में निमग्न थे । अपनी समग्र प्राणशक्ति, निःशेष उर्जा, उसी में समाविष्ट हो गई थी । वह उनका सहज ब्रह्मचर्य था ! उनका वह सहज इन्द्रियनिग्रह था । सही और गलत जीवनद्रष्टि : मूल प्रश्न है जीवन विषयक द्रष्टि का, फिलोसोफी का, जीवनदर्शन का । एक द्रष्टांत से यह बात समझाता हूँ । अपने महान् पूर्वजों ने हिमालय, गिरनार, आबू, शत्रुंजय, सम्मेतशिखर जैसे पहाड़ों पर, गिरिप्रदेशों में जहाँ जहाँ रमणीयता देखी वहाँ-वहाँ देवमंदिर बनाये, यात्राधाम बनाये ! जब कि अंग्रेज भारत में आये, उन्होंने वहाँ 'हिल - स्टेशन' बनाये ! मंदिर के साथ मंदिर के सहचारी भाव आये, हिल स्टेशन के साथ हिल स्टेशन के सहचारी भाव आये ! यात्राधामों ने अपना पवित्र वातावरण खड़ा किया, हिलस्टेशनों ने अपनी दुनिया खड़ी कर दी ! हिल स्टेशन ने वहाँ की प्रजा को विलास से स्वच्छन्दी एवं आमोद-प्रमोद से गंदी - मलिन बना दी । यह जो अंतर है, भेद है, वह जीवन के प्रति अभिगम का, द्रष्टि का अंतर है । 1 वैसे ही सेक्स के प्रति जो अभिगम है, उस में भी जीवन द्रष्टि ही, जीवनदर्शन महत्त्वपूर्ण रहा है । भारतीय संस्कृति में, कहा गया है - 'धर्मार्थकामेभ्यो नमः ।' वात्सायन ने अपने 'कामसूत्र' के मंगलाचरण में धर्म-अर्थ- काम पुरूषार्थ को नमस्कार किया है । कामशास्त्रो में स्वस्थता है, पुख्तता है और परिपक्वता है । उस में द्रष्ट्रि एकांगी नहीं है, सर्वांगी है। खयाल समग्र जीवन का है । वात्सायन 'कामशास्त्र' की रचना कर रहे थे, कामानंद किस तरह पाना, उसका ११० शान्त सुधारस : भाग १ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र बना रहे थे, परंतु इस ग्रंथ की रचना का प्रयोजन क्या था ? प्रेरणा कौन सी थी ? तदेतत् ब्रह्मचर्येण... यानी ब्रह्मचर्य का पालन परम समाधि में चित्त को एकाग्र कर, लोकयात्रा के लिए मैने इस कामसूत्र नाम के ग्रंथ की रचना की है । इस से राग-काम बढ़े, वैसी इसकी रचना नहीं है । धर्म-अर्थ और काम, तीनों पुरूषार्थ का पोषक यह शास्त्र है । इस शास्त्र का तत्त्वज्ञ, जितेन्द्रिय ही होता है । इन्द्रिय सुख का यह शास्त्र, इन्द्रियों का गुलाम बनने के लिए नहीं, स्वामी बनने के लिए, मित्र बनने के लिए है । रचना करनेवाले ऋषि ने इन्द्रिय सुख के नशे में शास्त्र रचना नहीं की है, परंतु संपूर्ण स्वस्थता से, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एवं चित्त की समाधि - अवस्था में कामशास्त्र की रचना की है ! ऐसी स्वस्थता और परिपक्वता, पश्चिम की सभ्यता में रूढ़ बनी हुई सेक्स विषयक मान्यताओं में एवं शास्त्रों में बिल्कुल देखने में नहीं आती है । ईन में सर्वांगी द्रष्टि का अभाव दिखता है । सेक्स विषयक पश्चिम की विकृत विचारधारा : __ पश्चिम के देशों में जो कामशास्त्र व सिद्धान्त बनाये गये, उन में मात्र अर्थ और काम, दो पर ही ध्यान रहा, धर्म और मोक्ष-पुरूषार्थ की कल्पना भी उनको नहीं थी । संभव है कि धर्म और मोक्ष की बात को फालतू समझकर, उसकी उपेक्षा कर दी गई । पश्चिम के कामशास्त्रों की, सिद्धान्तों की रचना करनेवाले कुछ लोग तो कंडिशन्ड मानसवाले, संकीर्ण खयालवाले और स्वयं जातीय विकृति से उत्पीडित थे। कहते हैं कि पश्चिम में सेक्सोलोजी की नींव डालनेवाला हेवलोक एलिस स्वयं, कुछ विशेष जातीय व्यवहारों में एब्नोरमल था । इस सेक्स के विषय में जिसको पश्चिम में और पूर्व में भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं वह फ्रोइड भी बहुत स्वकेन्द्री था, स्वच्छन्दी मनोवृत्तिवाल, अति महत्वाकांक्षी, विरोधियों के प्रति असहिष्णु और प्रशंसा से खुश होनेवाला था। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पश्चिम के सभी कामशास्त्र एवं सिद्धांतों का ध्येय जितेन्द्रियता सिद्ध करने का तो नहीं ही था । फ्रोइड ने दुर्भाग्य से अपना संपूर्ण ध्यान कामवृत्ति पर ही केन्द्रित कर दिया था । यत्र-तत्र-सर्वत्र उसको कामवृत्ति ही दिखायी दी ! सभी मानवीय संबंधों में, उसने डायरेक्ट' अथवा 'इन्डायरेक्ट', जाग्रत या सुषुप्त दशा में, जातीय-यौन वृत्ति का ही प्रतिपादन किया। उसने वहाँ तक तक दिया कि पिता को पुत्री ज्यादा प्रिय होती है और | अनित्य भावना ११९ | Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माता को पुत्र ज्यादा प्रिय होता है, उस में भी यह कामवृत्ति और विजातीय आकर्षण ही कारण होता है 1 फ्रोइड़ कहता है छोटे बच्चों में भी जातीय भूख होती है ! इसलिए तो वह अपने निकट से निकट स्त्री-माता की ओर यौन आकर्षण का अनुभव करता है !' फ्रोइड़ के ऐसे सिद्धान्त का खंडन करते हुए, प्रसिद्ध मानसशास्त्री एरिक फ्रोम' ने कहा है : 'फ्रोइड एक ओर माता के स्नेह का, मनुष्य की इच्छा का स्वीकार करता है, तो दूसरी ओर इनकार कर देता है ! माता और पुत्र की स्नेह-वृत्ति को यौन वृत्ति बताकर वह सच्चे अर्थ का इनकार कर देता है । फ्रोइड़ माता को उसके पवित्र स्थान से पदभ्रष्ट कर, उसकी जातीय वासना का एक साधन बना देता है, वेश्या में बदल देता है !' फ्रोइड़ द्रढ़ता से मानता था कि प्रेम कामवृत्तिजन्य विजातीय संबंध ही होता है । स्त्री - पुरूष की पारस्परिक द्रष्टि भी काममूलक ही होती है ।' यह तो एक अत्यंत अनर्थकारी और भयानक तत्त्वज्ञान बन जाता है । इस मान्यता के अनुसार तो स्त्री-पुरूष के बीच नर-नारी के अलावा दूसरा कोई संबंध संभवित ही नहीं रहता ! नर-नारी के बीच यौन संबंध के अलावा दूसरी सभी संबंध असंभव ही बन जाते हैं । यह मान्यता फ्रोइड़ की, संकीर्ण, नादान और अविचारी है । संपूर्ण अपरिपक्व है । संस्कृति की विध्वंसक है । फ्रोइड़ के विषय में एक बार विनोबाजी ने कहा था अभी अभी फ्रोइड़ का शास्त्र चला है कि कामवासना को दबाना नहीं चाहिए ! यह बात समझ में नहीं आती । हम यदि वासना को नहीं दबायें तो क्या हम ना से दब जायें ? अपनी वासना को मनुष्य समझें और उसका शमन - दमन करें, वही योग्य है । कामवृत्ति के दमन से मानसिक अस्वस्थता पैदा होती हैं, यह बात बहुत प्रचलित हो गई है, परंतु कामवृत्ति को अमर्याद रूप से बढ़ने देना भी मनोरूग्णता काही प्रकार है । ज्ञानी महर्षि ही नहीं, गणमान्य मनोविश्लेषक एरिक फ्रोम जैसे भी कहते हैं : 1 — 'फ्रोइड़ के नाम से ऐसा मनाया जाता है कि यदि तुम अपनी यौन वृत्तिओं को दबा कर रक्खोगे तो उस से मानसिक अस्वस्थता पैदा होगी । इस पश्चिमी सभ्यता में ऐसी मान्यता प्रचलित बनी है कि 'तुम्हारी हर इच्छा को तूर्त ही संतुष्ट ११२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करो!' आधुनिक मनुष्य के विकृत मानस की यह बात है, परंतु इसका परिणाम क्या आयेगा? आल्डस हक्स ली ने 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड में कहा है : इसका परिणाम पक्षाघात में आयेगा, आखिर मनुष्य अपना हो नाश करेगा । वास्तविकता का वर्णन करता हुआ एरिक फ्रोम कहता है – इन सभी कामवासनाओं को, आर्थिक अभिगम से सनम उत्तेजित की जाती हैं । इस वासना की भूख, कृत्रिमता से पैदा की जाती योन भूख भी ज्यादातर नैसर्गिक नहीं होती है, उसको कृत्रिम ढंग से उत्तेजित की जाती है । आज मनुष्य के पशुवत् लक्षणों पर ज्यादा महत्व दिया जाता है । _ 'यौन सुख ही सर्वोच्च सुख है और अबाधित यौन सुख मनुष्य को सुखशान्ति देगा, ऐसी मान्यता, वर्तमानकालीन मानसशास्त्र ने रूढ़ कर दी है, यह सर्वथा अनुचित है, उन्मार्ग गामिनी है। इतना ही नहीं स्वच्छंद यौन सुख मनोरूग्णता में ही परिणत होता है । इससे तो मनुष्य की स्वस्थता और मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है । ऐसे विपरीत परिणाम, आज पश्चिमी समाज में स्पष्ट दिखायी देते हैं। __ महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को यौन प्रतिबंधों से मुक्त कर देने से वह सख-शान्ति और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त कर लेगा - यह अनुमान सर्वथा गलत सिद्ध होता है । याद रखो कि यौन सुख ही मनुष्य को एक मात्र आवश्यकता नहीं है, मनुष्य की दूसरी अनेक मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकतायें भी होती हैं, जो कि ज्यादा महत्त्व की होती है । यदि वे आवश्यकताएं पूर्ण नहीं होंगी तो मानासक रूग्णता पैदा होगी । आज पश्चिमी देशों की होस्पिटल में आधे से ज्यादे पलंग शारीरिक नहीं, मानसिक रोगियों से भरे पड़े हैं । अब तो भारत में भी मन के रोगी बढ़ रहे हैं । मेंटल होस्पिटलें बढ़ती जा रही हैं । पश्चिम में किशोरों के एवं युवानों की आत्माहत्या का प्रमाण बढ़ गया है । इस से मनोवैज्ञानिक चिंतित हो गये हैं। इस तरह सभी मानव संबंधों में यौन वृत्ति का ही प्राधान्य देखना भी विकृत द्रष्टि है । प्रेम, मृदुता, तादात्म्य, सहानुभूति, उष्मापूर्ण कोमल व्यवहार वगैरह पवित्र मानवीय अनुभूतियाँ होती हैं । इन को यौन वृत्ति के साथ जोड़ना मूर्खता है । सब कुछ सेक्स के चश्मे से देखना जैसे कि फैशन हो गया है । महापुरूषों के मृदु-प्रेमपूर्ण व्यवहारों में भी ऐसे छिद्रान्वेषी संशोधन किये जा रहे हैं ! परंतु वह मात्र व्यर्थ बौद्धिक व्यायाम है ! | अनित्य भावना ११३ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वास्तव में तो कामवृत्ति का प्रेम, मदता, आत्मीयता वगैरह से भरपूर मानवीय व्यवहारों में रूपान्तर करना, मनुष्य के लिए अच्छा पुरूषार्थ है । कामवृत्ति का ऊर्वीकरण करना चाहिए । ऐसा उध्वीकरण नहीं होगा तो स्थूल कामवृत्ति ही अति बलवान् होती रहेगी, यह पर्वसामान्य अनुभव है। उन्मार्गगामी मानसशास्त्र : ___ कामवृत्ति के ऊर्वीकरण के विषय में वर्तमान मानसशास्त्रियों का ध्यान रहा ही नहीं है । उन्होंने न्याय, संयम, आत्मोन्नति जैसे उच्चतम तत्त्वों को सर्वथा भूला दिये हैं । एरिक फोम जैसे थोड़े मनोवैज्ञानिकों ने, मानवस्वभाव की उध्वंसंभावनाओं के उपर आधारित 'objective ethics' (वस्तुनिष्ठ नीतिशास्त्र) की बातें कही, तो उसको अवैज्ञानिक कहकर, उपेक्षित कर दी ! युग' जैसे मनोवैज्ञानिक ने कहा कि मानव स्वभाव में कामवृत्ति जितना ही प्रभाव Religious function का (धार्मिक वृत्ति का) रहा है, उसको भी अवैज्ञानिक कह दिया और महत्वहीन बनाया। इसकी कड़ी आलोचना करते हुए एरिकफ्रोम कहता है - आज का मानस शास्त्र, मनुष्य के विकास के लिए गंभीर खतरा बन गया है । मानसशास्त्र का बिझनेस करनेवालों ने मौज-मजा उपभोग और सत्त्वहीनता का जो नया धर्म फैला रक्खा है, उस के वे धर्मगुरू बन गये हैं । मनुष्य का एक साधन के रूप में उपयोग करने में वे निष्णात बन गये हैं । पश्चिम का आधुनिक मानसशास्त्र भौतिकवाद का ढोल पीटनेवाला बन गया है। मनुष्य के जीवन में आत्मा, धर्म, नैतिकता वगैरह का कोई स्थान ही नहीं रहना चाहिए - ऐसी भौतिकवादी मान्यता के उपर ऐसे उन्मार्गगामी मानसशास्त्र ने शास्त्रीय मुहर लगा दी है। भौतिकवादी सभ्यता के नुकशान : पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता ने, विज्ञान के नाम आत्मा, धर्म, नैतिकता वगैरह पवित्र तत्त्वों को मूलतः उखाड़कर फेंक दिये । मानवजात से अनेक प्रकाशदीप छीन लिये। मनुष्य ने पारलौकिक सत्ता और दिव्यता.की संभावनाओं के खयाल गँवा दिये । पहले तो जीव को इश्वर का - परमात्मा का एक अंश मानते थे, और जीवन में उच्चतम साधना कर परमात्मा स्वरूप प्राप्त करने का लक्ष्य था, परंतु अब मनुष्य संपूर्णतया अपने पार्थिव अस्तित्व के साथ जुड़ गया है । इस पृथ्वी पर सब सुख-सुविधायें और आनंद-प्रमोद प्राप्त करने का ही मुख्य ध्येय बन गया। शान्त सुधारस : भाग १ | ११४ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बोन्ड रसेल ने कहा है : इस भौतिकवाद ने विश्व में से इश्वर को एक व्यक्ति के रूप में हकाल दिया है, इतना ही नहीं, एक आदर्श के रूप में परमात्मा - तत्त्व को भी भूला दिया है । इस परमात्म-तत्त्व के प्रति तो मनुष्य की मूलभूत निष्ठा रही हुई थी। मनुष्य के पास कोई भी आंतरिक रक्षा कवच नहीं रहा । भौतिकवादी विचारधारा पर आधारित नये नये शास्त्र बने और नये नये सिद्धान्त बने । ऐसी एक रूढ़ मान्यता बन गई कि मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी है, कामुक है और तीव्र स्पर्धा मानव स्वभाव के मूलभूत तत्त्व हैं । इसलिए आधुनिक शास्त्रों के आधार दिये जाने लगे! कामवृत्ति का अभिगम बदलना होगा : भारतीय समाज के उपर पश्चिम के सेक्स-विस्फोट का प्रबल आक्रमण हुआ है । उस का प्रतिरोध करना अति आवश्यक है । सेक्स के क्षेत्र में रूढ़ बनी हुई बहुत सी मान्यताओं को मूल से बदलना होगा । परिवर्तन करना अनिवार्य ___ जहाँ शोषण द्वारा, प्रलोभन द्वारा, दबाव के द्वारा, बलात्कार द्वारा एवं धन द्वारा यौन सुख भोगा जा रहा है, उसको तो यौन सुख भी नहीं कहा जा सकता, वह तो अहंतृप्ति का, पाशवी बलप्रदर्शन का एवं विकृत मानसिक तृप्ति का सुख होता है । अब तो भद्र समाज के नाम पर जात जात के वल्गर, अभद्र स्वरूप सामने आये हैं ! जैसे सेक्स टुरीझम, सेक्स-सर्विस, सेक्स-वर्कर, कोल गर्ल्स, कम्फर्ट गर्ल्स, की-क्लब वगैरह कामानन्द के प्रकार नहीं हैं क्या ? ___ आज विशेष रूप से युवा वर्ग को भिन्न भिन्न प्रकार की करामतों से, मुक्त यौन जीवन के नाम फुसलाकर गलत मार्ग पर ले जाया रहा है । ऐसी स्थिति में ढोल बजाकर समझाना पड़ेगा कि यह मुक्त यौन जीवन की बातों में मनुष्य का न तो सांस्कृतिक विकास है, न तो आत्मोन्नति है, नहीं कामानन्द की प्राप्ति है । यह तो मनुष्य का सर्वतोमुखी अधःपतन है । नये युवा-समाज को कहना होगा कि वासना को, सेक्स को सिर पर नहीं चढ़ाना है । घोड़े को अपने पर स्वार नहीं होने देना है । घोड़े पर खुद सवार हुए बिना यात्रा आनंदमयी नहीं बन सकती । यौन वृत्ति को उसके प्रोपर प्लेस पर उचित स्थान पर स्थापित करें। पश्चिमी सभ्यता ने मनुष्य को स्वच्छंद पशुतुल्य बना दिया है । मनुष्य को सेक्स की कठपुतली बना दिया है । आज मनुष्य सेक्स को नहीं भोगता है, | अनित्य भावना Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेक्स मनुष्य को भोगता है । मनुष्य को नचाता है । मनुष्य जैसे कि 'सेक्स' के कारागार में कैद हो गया है । कारागार को इतना सुंदर बना दिया गया है कि मनुष्य को कैद होने का एहसास हो न हो ! इस कारावास को लोहे की सलारवाएँ नहीं होती, कैदी के हाथ-पाँव में बेड़ी नहीं होती, परंतु इन्द्रिय सुख की भरपूर सुविधाओं के साथ मनुष्य 'सेक्स के पंजे में नजरकैद है ! अद्रश्य जंजीरों से बंधा हुआ है । उपसंहार : आज 'कुथितमन्मथविकारम्' के विषय में विस्तार से इसलिए चर्चा की है, क्यों कि आज स्कूल-कोलेजों में 'मानस शास्त्र' के नाम, काम विकारों को बढ़ाया दिया जा रहा है । तरूण और युवान गलत मार्ग पर भटक रहे हैं । इस में T.V. और सिनेमा ने तो सर्वनाश करने का निर्णय कर लिया हो, ऐसा लगता है । बाल, तरूण, युवक सभी कामवासना से बचो - यही मंगलकामना । आज बस, इतना ही और वृद्ध ११६ - शान्त सुधारस : भाग १ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N शान्त सुधारस) प्रवचन : ११ अनित्य भावना - ४ : संकलना : • सर्वं क्षणिकम् । • एक साधु को चक्रवर्ती का सुख भा गया धर्म का अवमूल्यनः धर्मप्राप्ति नहीं द्रौपदी को पाँच पति क्यों ? वैषयिक सुखों का आकर्षण संबंधों की निःसारता धन-लक्ष्मी की अस्थिरता • लक्ष्मी का संचय नहीं करें एक सम्राट, एक धनपति नरकगति की वेदनायें उपसंहार Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यायश्री विनयविजयजी, अनित्य भावना को 'भैरव' राग में गाते हुए आगे बढ़ते हैं : सुखमनुत्तरसुरावधि यदतिमेदुरं कालतस्तदपि कलयति विरामम् । कतरदितरत्तदा वस्तु सांसारिकं स्थिरतरं भवति चिन्तय निकामम् ॥५॥ सर्वं क्षणिकम्, सर्वमनित्यम्, सर्वमस्थिरम्' सब कुछ क्षणिक है, सब कुछ अनित्य है, सब कुछ अस्थिर है ! 'अनुत्तर देवलोक' के देवों के सुख भी कालक्रम से नष्ट हो जाते हैं... जो कि असंख्य वर्ष के सुख होते हैं, तो फिर संसार की ऐसी कौन सी वस्तु है... जो स्थिर हो, शाश्वत् हो, नित्य हो ? स्वस्थता से इस विषय में पूर्ण विचार कर ! ___ संसार में सब से ज्यादा दीर्घकालीन सुख अनुत्तर देवलोक में होता है - ३३ सागरोपम काल का ! वैसे सब से ज्यादा दुख होता है सातवीं तमःतमःप्रभा नाम की नरक में ! वह भी ३३ सागरोपम काल क ! उस का भी कालक्रम से अंत आ जाता है। संसार में सख भी स्थिर नहीं हैं, दुःख भी स्थिर नहीं है । सब कुछ अस्थिर है, अनित्य है । ज्ञानद्रष्टि के परिप्रेक्ष्य में देखनी है विश्व स्थिति को । देवलोक के सुख भी नित्य-शाश्वत् नहीं हैं - इसलिए वे सुख पाने की भी इच्छा नहीं करनी है । जो अनित्य है, जो क्षणिक है... वैसे सुखों की इच्छा नहीं करनी है ! इच्छा भी नहीं करनी है, प्रयत्न और पुरूषार्थ भी नहीं करना है ! हाँ, विशिष्ट तपश्चर्या से इच्छित सुख की प्राप्ति दूसरे जन्म में होती है, परंतु वैसे सुख, सुख के साधन पाकर जीव सुख का अनुभव नहीं कर पाता है ! एक साधु को चक्रवर्ती का सुख भा गया ! मनुष्य का मन कितना चंचल है ! ज्ञान होते हुए भी, जानकारी होते हुए भी - चक्रवर्ती राजा का सुख भी क्षणिक है, अनित्य है, फिर भी कब मोह का बादल आत्मा पर छा जाता है, और जो तुच्छ होता है, असार होता है, उसकी इच्छा मन कर लेता है ! शास्त्रो में एक साधु की कहानी पढ़ी थी । एक तपस्वी साधु थे । घोर तपश्चर्या करते थे । ज्ञानी भी थे । उनको कीर्ति सुनकर चक्रवर्ती राजा अपनी रानी के साथ वंदन करने गया । मुनि के दर्शन | ११८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर, राजा-रानी भावविभोर हो गये। वंदन करने लगे। रानी की बंधी हुई केश की राशि खुल गई । स्त्री रत्न के सिर के बाल लंबे होते थे, और रानियाँ बाल कटवा कर बोब्ड़ हेयर नहीं करवाती थी ! रानी के लंबे बाल मुनि के चरण को छू गये । रानी ने तूर्त ही अपने बाल खींच लिये, वंदन पूर्ण कर, राजा - रानी चल दिये । परंतु मुनि के मन को रानी के केश का स्पर्श भा गया ! उनके मन में विचारों की परंपरा चली : 'जिस स्त्री रत्न के बालों का स्पर्श इतना सुखद है, उसके शरीर का स्पर्श कितना सुखद होगा ! ऐसा स्त्री रत्न चक्रवर्ती राजा को ही मिलता है ! मुझे ऐसे स्त्रीरत्न का स्पर्श चाहिए, इसलिए मुझे चक्रवर्ती राजा होना चाहिए । मेरी घोर तपश्चर्या से मैं चक्रवर्ती राजा बनने का स्वप्न सिद्ध कर सकता हूँ । उस साधु ने संकल्प किया : मेरी इस तपश्चर्या का यदि मुझे फल मिलेगा तो मुझे चक्रवर्ती राजा का पद मिलो !' इसको शास्त्रीय भाषा में 'नियाणा' कहते हैं । तीर्थंकरों ने नियाणा नहीं करने का उपदेश दिया है ! परंतु क्षणिक सुखों का राग-मोह, इस तरह नियाणा करवा देता है ! क्षणिक-अनित्य सुखों का प्रबल आकर्षण ऐसी भूल करवाता है ! इसलिए 'अनित्यभावना का पुनः पुनः चिंतन करते रहना है । धर्म का अवमूल्यन : धर्मप्राप्ति नहीं : दूसरे जन्म में उस साधु को चक्रवर्ती पद मिला, यानी वह चक्रवर्ती बना, परंतु चक्रवर्ती का भव समाप्त होने पर उस को नरक में जाना पड़ा । ऐसा एक शाश्वत् नियम है कि चक्रवर्ती राजा, यदि उत्तरावस्था में चक्रवर्ती पद का त्याग कर, साधु नहीं बन जाता है तो वह नरक में ही जाता है । साधु बन जाता है तो वह मोक्ष पाता है अथवा देवलोक में उत्पन्न होता है । __ क्षणिक सुखों के मोह से, वे सुख पाने के लिए धर्म का सौदा करनेवालों को वे सुख तो मिलते हैं, परंतु धर्म नहीं मिलता है ! चूंकि वह क्षणिक सुखों का उच्च मूल्यांकन करता है, धर्म का अवमूल्यन करता है ! धर्म को देकर वह क्षणिक सुखों को खरीदता है न ? ___ धर्म का सौदा कर पाये हुए सुखों में मनुष्य इतना मोहांध बन जाता है, इतना मोहमूढ़ बन जाता है कि उसको धर्म अच्छा ही नहीं लगता, उसके जीवन में धर्म होता ही नहीं । पापों से ही उसका जीवन भर जाता है । | अनित्य भावना ११९ ११९ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी को पाँच पति क्यों ? द्रौपदी को पाँच पति थे न ? वह पाँच पांडवों की पत्नी थी न ? क्यों उसको पाँच पति की पत्नी होना पड़ा ? जानते हो ? उस ने पूर्वभव में नियाणां किया था। पूर्वजन्म में वह साध्वी थी । शुद्ध संयमधर्म का पालन और घोर तपश्चर्या करती थी। __एक बार गुरूणी के मना करने पर भी, वह साधु पुरूषों का गलत अनुकरण करती हुई, रात्रि के समय नगर के बाहर कायोत्सर्ग - ध्यान करने गई । जहाँ वह खड़ी रही, उसके सामने, कुछ दूरी पर एक वेश्या का आवास था। आवास में रोशनी थी । वेश्या आवास के झरोखे में पाँच पुरूषों के साथ वार्ता-विनोद कर रही थी। दृश्य बड़ा आकर्षक था । उस साध्वी की निगाह उस द्रश्य पर पड़ी ! धर्मध्यान रूक गया; वेश्या के विचार मन में शुरू हो गये । पाँच पुरूषों के साथ उसकी जो क्रीड़ा देखी, मन में भा गई ! उसने सोचा : मुझे भी ऐसा जन्म मिले... पाँच-पाँच पुरूषों का प्यार मिले तो कितना अच्छा ! मैने शास्त्रों में सुना है कि तपश्चर्या से मनोवांछित मिलता है । मैं मेरी तपश्चर्या का यही फल मांग लूँ तो ?' और उस साध्वी ने पाँच पुरूषों का सुख मिले वैसा स्त्री का अवतार मांग लिया ! दूसरे जन्म में वह साध्वी द्रौपदी हुई ! वैषयिक सुखों का आकर्षण खतरनाक : साध्वी जीवन से उसको वेश्या के जीवन ज्यादा अच्छा लगा! ब्रह्मचारी जीवन से उसको विषयभोग का जीवन ज्यादा प्रिय लगा ! मन से उसका स्खलन हो गया । तपश्चर्या का सौदा कर लिया ! कितनी बड़ी भूल कर दी साध्वी ने ? मन में वैषयिक सुखों का आकर्षण पैदा ही नहीं होने देना चाहिए । इसलिए - १. वैषयिक सुखभोग के द्रश्य नहीं देखें, २. शृंगारिक बातें, गीत वगैरह नहीं सुनें, ३. वासनाओं को उत्तेजित करें वेसी किताबें नहीं पढ़े। साधुजीवन की मर्यादायें वैसी ही हैं कि जहाँ ईन तीन बातों का सहजता से पालन हो सकता है। - साधु को गाँव-नगर में या जंगल में पृथ्वी पर द्रष्टि रख कर चलना होता है । ध्यान भी, नासिका के अग्र भाग पर द्रष्टि स्थिर कर करना होता है । | १२० । शान्त सुधारस : भाग १ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - साधु को वैसे शृंगारिक बातें, गीत वगैरह सुनना निषिद्ध ही होता है, और - वैसी गंदी, सेक्सी किताबें पढ़ने की नहीं होती हैं । ___ यदि साधु-साध्वी ईन मर्यादाओं का द्रढ़ता से पालन करें तो उसका अधःपतन नहीं हो सकता है । और यदि पालन नहीं करता है तो मानसिक अधःपतन तो होगा ही ! वैषयिक सुखों का आकर्षण बड़ा खतरनाक होता है । संबंधो की निःसारता : उपाध्यायजी, सांसारिक विषयों की अस्थिरता की बात करने के बाद अब संबंधों की निःसारता बताते हुए कहते हैं : यैः समं क्रीडिता, ये च भृशमीडिताः यैः सहाकृष्महि प्रीतिवादम् । तान् जनान् वीक्ष्य बत भस्मभूयंगतान्, निर्विशंकाः स्म इति धिक् प्रमादम् ॥६॥ जिन स्नेही - स्वजन और मित्रों के साथ बहुत खेले, जिन के साथ स्नेहसभर बातें करते रहे, जिन की प्रशंसा करते रहे... उन के मृत देह को स्मशान में जलते देखते हुए... देह को भस्मीभूत हुआ देखते हुए भी हमें जीवन की नश्वरता का, संबंधों की क्षणिकता का विचार नहीं आता है - तो यह हमारा कैसा घोर प्रमाद है ? धिक्कार है हमारे प्रमाद को... । ___ कभी ऐसा भी होता है कि प्रियजनों के मृतदेह की भस्म, हवा से उड़कर... मार्गों पर भी आ जायें और हम जब उस मार्ग से गुजरें तब वह भस्म हमारे पैरों तले आ जायें ! हमें कभी विचार आया कि हमारे स्वजनों की भस्म हमारे पैरों तले कुचलते चल रहे हैं ! स्वजनों को, मित्रों को, स्नेहीजनों को, उन की मृत्यु के बाद मनुष्य प्रायः शीघ्र भूल जाता है । निःशंक होकर विषयोपभोग में डूब जाता है, जैसे कि उसकी मृत्यु होनेवाली ही न हो! जिस शरीर से माता-पिता, बंधु, पुत्र, मित्र, पत्नी आदि से संबंध होता है, उन पर राग-मोह होता है, परंतु उन सभी स्वजनों की मृत्यु होने पर, उनके शरीर को जला दिये जाते हैं अथवा जमीन में गाड़ दिये जाते हैं, अथवा जंगली पशु उसका भक्ष्य कर जाते हैं । सब कुछ बिखर जाता है, क्या पता, कब उनका पुनः संबंध होगा? | अनित्य भावना १२१ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार वृक्ष की छाया में मुसाफिर विश्राम लेते हैं, वृक्ष की घटा में पक्षी विश्राम लेते हैं... बाद में वे सब अपने - अपने स्थान पर चले जाते हैं, वैसे परिवार भी एक वृक्ष जैसा है । अपने अपने आयुष्य के अनुसार जीव परिवार में, कुटुंब में रहते हैं, बाद में वे भिन्न – भिन्न गति में चले जाते हैं । इसलिए स्वजनों के साथ ममत्व बाँधना व्यर्थ है । स्वजनों के संबंध क्षणिक हैं, अनित्य स्वजनों के संबंध को अनित्य बताने के बाद, उपाध्यायश्री पुनः स्वजन संयोग और धन-लक्ष्मी के संयोग को इन्द्रजाल जैसे बताते हुए कहते हैं : __ असकृदुन्मिष्य निमिषयन्ति सिन्धूर्मिवत् चेतनाचेतनाः सर्वभावाः । इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसंगमाः तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावाः ॥७॥ समुद्र के तरंगों की तरह सभी सजीव-निर्जीव पदार्थ उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं। स्वजन और धन-लक्ष्मी के संबंध इन्द्रजाल जैसे हैं, फिर भी मूढ़ जीव उसमें आसक्त बनते हैं। धन-लक्ष्मी की अस्थिरता : शरीर, स्वजन, यौवन, संबंध, पाँच इन्द्रियों के विषय... इत्यादि की अनित्यता का चिंतन - विवेचन कर लिया, अब धन-लक्ष्मी की क्षणभंगुरता का, अनित्यता का चिंतन करना है । मनुष्य को आजकल, शरीर आदि से भी ज्यादा मोहासक्ति धन-संपत्ति में हो गई है । धन-संपत्ति के पीछे पागल बनकर मनुष्य दौड़ रहा है । उस धन-लक्ष्मी के विषय में शान्त चित्त से, स्वस्थ मन से कुछ सोचना आवश्यक है । नयी द्रष्टि से, ज्ञानद्रष्टि से चिंतन करना आवश्यक है । जो लक्ष्मी, जो संपत्ति, जो धन-दौलत, उत्कृष्ट पुण्यकर्म के उदय से चक्रवर्ती वगैरह सम्राट-राजाओं को मिलती है, उनके पास भी शाश्वत् काल नहीं रहती है, सदाकाल नहीं रहती है, तो फिर जिन का पुण्योदय नहीं होता, जो अभागी होते हैं, उन के पास कैसे रहेगी ? - कोई समझे कि मैं उच्च कुल में जन्मा हूँ, कई पीढ़ियों से संपत्ति चली आ __ रही है, अब कैसे जायेगी ? - कोई मानें कि मेरे में धैर्य है, वीर्य है, मैं कैसे लक्ष्मी को जाने दूँगा ? | १२२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मैं पंडित हूँ, विद्यावान् हूँ, मेरे से कौन धन छीन सकता है ? - मैं सैनिक हूँ, पराक्रमी हूँ, मैं कैसे संपत्ति को जाने दूँगा ? - मैं धर्मात्मा हूँ, धर्म से तो लक्ष्मी आती है, जायेगी कैसे ? - मैं रूपवान् हूँ, मेरा रूप देखकर दुनिया खुश होती है, फिर लक्ष्मी मुझे छोड़कर ___ कैसे जायेगी ? - मैं सज्जन हूँ, परोपकारी हूँ, लक्ष्मी मेरे पास ही रहेगी। ___ ये सारे विचार मिथ्या हैं, व्यर्थ हैं ! क्योंकि लक्ष्मी कहाँ भी, किसी के भी पास स्थिर नहीं रहती ! कत्थ वि ण रमइ लच्छी। आप कैसे भी हो... कुलवान् हो, पंडित हो, गुणवान् हो, शक्तिशाली हो, धर्मात्मा हो, पराक्रमी हो या रूपवान् हो... आपके पास लक्ष्मी सदाकाल रहनेवाली नहीं है। ___ यह लक्ष्मी जलतरंग की तरह चंचल है । जब तक तुम्हारे पास है, थोड़े दिन, थोड़े वर्ष... तब तक उस लक्ष्मी का सदुपयोग कर लो, भोग लो... अन्यथा उस का नाश तो निश्चित है ! कार्तिकेय स्वामी ने कहा है - ता भुंजिज्जउ लच्छी, दिज्जउ दाणं दयापहाणेण । जा जलतरंगचवला, दो-तिण्ण दिणाणि चिट्ठेइ ॥ या तो भोग लो, अथवा दयावान् होकर दान दे दो ! जलतरंग जैसी चंचल है लक्ष्मी... दो-तीन दिन टिकनेवाली ही है ! उस पर विश्वास मत करो । ममत्व से लक्ष्मी का संचय करते रहोगे तो, जब लक्ष्मी चली जायेगी तब दुःखी हो जाओगे। लक्ष्मी का संचय नहीं करें : लक्ष्मी का संचय नहीं करें । क्योंकि इससे - कषाय-भाव बढ़ता है, - मन की मलीनता बढ़ती है, - रौद्र ध्यान भी आ सकता है, - वैर-विरोध बढ़ता है, -- कृपणता से जगत में अपयश होता है । यदि लक्ष्मी का संचय नहीं करते हुए दान देते हो तो - - ममत्वभाव घटता है, - मन प्रसन्न रहता है, | अनित्य भावना 8368 १२३ १२३ | Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत में यश बढ़ता है, लक्ष्मी जाने पर भी दुःख नहीं होता है लक्ष्मी का ममत्व तोड़ने के लिए, भूतकालीन और वर्तमानकालीन दानवीरों को स्मृति में लाकर, उनकी अनुमोदना करते रहें । -- देश की आझादी के लिए अपना सारा धन राणा प्रताप के सामने रख देनेवाले श्रेष्ठी भामाशाह को याद करें । जब देश में दुष्काल पड़ा तब श्रेष्ठी जगडुशाह ने अपने अन्नभंडारों को सभी के लिये खोल कर रख दिये थे, उनको याद करें I राणकपुर में भव्य अद्वितीय मंदिर का निर्माण करने के लिए ९९ क्रोड रूपयों का व्यय करनेवाले धनाशा पोरवाड़ को याद करें । वैसे वर्तमान में प्रति वर्ष करीबन १ क्रोड़ रूपयों का सुकृत करनेवाले ऐसे कुछ धार्मिक ट्रस्ट हैं। जो जीवदया, मानवदया आदि के कार्य करते हैं । जो भी छोटा-बड़ा दान करते हैं, उनकी सराहना करते रहोगे, तो आप में भी दान देने की भावना जाग्रत होती । लक्ष्मी का संचय - संग्रह करने की इच्छा नहीं होगी - एक सम्राट, एक धनपति : एक सम्राट था, बहुत दान करता था, चारों दिशाओं में उसकी कीर्ति फैली हुआ थी । राजा की प्रजा, राजा के त्याग का, उसकी सादगी का, विनम्रता का गुणगान करती थी । परंतु उस कीर्ति व प्रशंसा से सम्राट का अभिमान और अहंकार बढ़ता गया । परमात्मा से और सद्गुरु से वह बहुत दूर हो गया था । सम्राट दान देता था, यश बढ़ता था, परंतु उसकी आत्मा डूबती जा रही थी । सम्राट की शाखायें फैलती जाती थी, परंतु उसकी जड़े, उसके मूल निर्बल होते जाते थे । दान करता था सम्राट, परंतु दानधर्म नहीं करता था ! उस सम्राट का एक मित्र था, उसके पास बहुत लक्ष्मी थी । उस समय का वह कुबेर ही था । उसकी सागर जैसी तिजोरी में चारों ओर से धन की नदियाँ आकर गिरती थी । परंतु जैसे सम्राट बड़ा दानी था, वैसे उसका धनपति मित्र बड़ा कंजूस था । एक पैसा भी किसी को देता नहीं था । सर्वत्र उसकी कंजूस के रूप में अपकीर्ति फैली थी । समय बीतता गया, सम्राट और उसका मित्र धनपति, दोनों वृद्ध हुए । सम्राट शान्त सुधारस : भाग १ १२४ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “मैं दानी हूँ इस अभिमान से उछल रहा था, धनपति 'मैं कोई सत्कर्म न कर सका, इस विचार से खिन्न मन से व आत्मग्लानि से पीड़ित था । अहंकार और आत्मग्लानि एक द्रष्टि से समान ही हैं। सम्राट अहंकार नहीं छोड़ता है, कंजूस आत्मग्लानि से मुक्त नहीं हो पाता है । दोनों दुःखी हो गये। परंतु धनपति के एक सद्गुरू थे । धनपति उनकी राय लेने गया । उसने सद्गुरू को कहा: "मैं अशान्त हूँ, जैसे कि आग में जल रहा हूँ, मुझे शान्ति चाहिए ।' - सद्गुरू ने पूछा : 'तेरे पास इतना धन-वैभव है, शक्ति सामर्थ्य है, फिर भी शान्ति नहीं है ?' धनपति ने कहा : मुझे अब अनुभव हो गया है कि धन में शान्ति नहीं है, धन की वजह से ही शान्ति नहीं है !' सद्गुरूने कहा : 'जाओ और अपनी सारी संपत्ति का दान कर दो। जिस से लक्ष्मी छीन ली हो, उस को वापस कर दो, जिसके पास लक्ष्मी नहीं हो, उसको दो... दीन-दरिद्र होकर मेरे पास आना ।' धनपति गया। सब कुछ दे दिया। कुछ भी उसके पास नहीं रहा, वह सद्गुरू के पास गया और कहा : 'आपके कहे अनुसार निर्धन होकर आप के पास आया अब आप ही शरण हैं । सद्गुरू ने कहा : 'तूं ने जिस संपत्ति का त्याग किया, उस त्याग के अभिमान का भी त्याग कर के आना, तब मुझे सच्ची शान्ति मिलेगी । तेरा मित्र सम्राट, बड़ा दानी होते हुए भी क्यों अशान्त है ? उसने लक्ष्मी का त्याग किया, परंतु त्याग के अभिमान का त्याग नहीं किया है ! इसलिए तुम दोनों 'दानाभिमान' से मुक्त बनो । परम शान्ति से तुम मृत्यु का वरण करोगे ! मृत्यु निश्चित है : यदि आप लक्ष्मी का त्याग स्वेच्छा से नहीं करोगे तो आपको स्वयं को लक्ष्मी का त्याग करके परलोक जाना होगा । महाकाल निरंतर जीवों को भक्ष्य बनाता ही जाता है ! वह कभी तृप्त नहीं होता है ! यही बात उपाध्यायजी कहते हैं कलयन्नविरतं, जंगमाजंगमं जगदहो नैव तृप्यति कृतान्तः । अनित्य भावना १२५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखगतान् खादतस्तस्य करतलगतैः न कथमुपलप्स्यतेऽस्माभिरन्तः ॥ ८ ॥ आश्चर्य ! स्थावर जंगम जगत का सदैव भक्षण करता हुआ काल कदापि तृप्त नहीं होता है । ऐसे काल के हाथों में हम भी आ गये हैं, हमको भी वह भक्ष्य बना लेगा ! कहने का मतबल यह है कि मृत्यु निश्चित है ! धन संपत्ति यहाँ रह जायेगी और जीव परलोक चला जायेगा ! धन-संपत्ति पाने के लिए, मन वचन काया से किये हुए पाप-हिंसा, असत्य, चोरी, बेइमानी वगैरह, जीव के साथ परलोक चलेंगे । और, पापों की गठरी के साथ जो परलोक जाता है, उसको कौन सी गति में जाना पड़ता है, वह आप जानते हो न ? सभा में से : नरक में ! महाराजश्री : फिर भी पापों की गठरी बाँधते जा रहे हो ? नरक के दुःखों से निर्भय हो गये हो क्या ? नरक की वेदनाओं को कभी याद करते हो ? नरक के दुःखों का लिस्ट आप के बेडरूम में अथवा ड्रोईंगरूम में रखा करो। नरक में जाना यानी कोई बगीचे में नहीं जाना है ! हिटलर के 'गेस चेम्बर' से भी बहुत ज्यादा भयंकर नरक है । 'गेस चेम्बर' में एक बार मौत हो जाती है, जब कि नरक में पुनः पुनः घोर दुःख सहना पड़ता है ! नरकगति की वेदनायें : सभा में से : नरक में कैसी वेदनायें होती हैं ? महाराजश्री : वहाँ १० प्रकार की क्षेत्र वेदना होती है । १. आहार्य पुद्गलों का बंधन : प्रति समय आहारादि पुद्गलों के साथ जो बंधन होता है, वह प्रदीप्त अग्नि से भी अति भयंकर होता है । - २. गति : गधे की चाल से भी नारकों की चाल अति अशुभ होती है । तप्त लोहे की भूमि पर पैर रखने से जो वेदना होती है, उससे बहुत ज्यादा वेदना, नरक की जमीन पर चलने से होती है । ३. संस्थान : जिस पक्षी के पंख कट गये हों, वह कैसा लगता है ? उससे ज्यादा खराब उनका संस्थान होता है । १२६ ४. भेद : भित्ति पर से जो पुद्गल गिरते हैं वे शस्त्र की धार से भी ज्यादा पीड़ाकारी होते हैं । शान्त सुधारस : भाग १ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. वर्ण : अंधकारमय, भयंकर और मलिन ! भूमिमात्र श्लेष्म, विष्टा, मूत्र, कफ वगैरह बीभत्स पदार्थों से लिप्त होता है । मांस, केश, हड्डियाँ, दांत और चमड़े से आच्छादित स्मशानभूमि जैसा होता है । ६. गंध : सड़े हुए पशुओं के मृतकलेवरों की दुर्गंध से भी ज्यादा दुर्गंध वहाँ होती है। ७. रस : अति कटु रस होता है । ८. स्पर्श : अग्नि और बिच्छू के स्पर्श से ज्यादा तीव्र होता है । ९. परिणाम : अति व्यथा करनेवाला होता है । १०. शब्द : सतत पीड़ाओं से करूण कल्पांत करते जीवों के स्वर जैसा वहाँ स्वर होता है । सुनने मात्र से दुःखदायी होता है । इसके अलावा, शीत की, उष्णता की, क्षुधा की, तृषा की, खाज की, परवशता की, ज्वर की, दाह की, भय की और शोक की वेदनायें तीव्र होती है । परमाधामी देवों की ओर से जो उत्पीड़न होता है, वह अलग से है । परस्पर जो काटाकाटी... मारामारी होती है, वह अलग से होती है ! उपसंहार : इसलिए ऐसे पाप नहीं करें कि जो पाप नरक में ले जाये । अनित्यभावना का चिंतन करते हुए - शरीर की अनित्यता, - आयुष्य की अनित्यता, - यौवन की अनित्यता, - विषयों की अनित्यता, - संपत्ति - लक्ष्मी की अनित्यता, और - संबंधों की अनित्यता का ___ चिंतन करते रहें। बुढ़ापे की पराधीनता का और महाकाल (मृत्यु) की भयानकता का चिंतन करते रहें । इससे कोई पाप तीव्रता से नहीं होगा। तीव्रता से कर्मबंध नहीं होगा । नरक आदि दुर्गति में जाना नहीं होगा। आज बस, इतना ही - | अनित्य भावना १२७ | Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १२ अनित्य भावना - ५ - - : संकलना : आत्मस्वरूप की पहचान कर लो ।। 'परमानन्द-पंचविंशति' में आत्मा की पहचान आत्मा शरीर में है । योगी ही आत्मदर्शन करते हैं । इसी जन्म में उत्सव मना लो । भीतर का उत्सव एकान्त में योगीपुरुष कैसे होते हैं ? प्रशमसुख' यानी मोक्षसुख मोक्ष यहीं पर है ! - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनित्य भावना का उपसंहार करते हुए उपाध्यायश्री विनयविजयजी गाते हैं । नित्यमेकं चिदानन्दयमात्मनो रुपमभिरुप्य सुखमनुभवेयम् । प्रशमरसनवसुधापानविनयोत्सवो भवतु सततं सतामिह भवेऽयम् ॥९॥ 'सब कुछ अनित्य, क्षणिक और क्षणभंगुर है, तब नित्य क्या है ? शाश्वत् क्या है ? आनन्दमय क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है : 'नित्य और चिदानन्दमय एक मात्र आत्मा है ! उस आत्मा के स्वरूप की पहचान कर लो और स्वाभाविक आत्मसुख का अनुभव करें । इस अनित्य भावना के चिंतन से 'प्रशमरस' उत्पन्न होगा भीतर में, उस प्रशम-रस का अभिनव अमृतपान करते रहो ! अपर्व आनंदोत्सव, परमानंदोत्सव तुम्हारे भीतर घटित होगा । ऐसा उत्सव सत्पुरुषों को इसी जन्म में प्राप्त हो ! आत्मस्वरूप की पहचान कर लो : .... 'जो अनित्य, क्षणिक है वैसे शरीर, यौवन, आयुष्य, वैषयिक सुख, स्वजनसंबंध, संपत्ति... की पहचान कर लो; उसका ममत्व, आसक्ति, राग-मोह छूट गया... अब ऐसे नित्य-शाश्वत् तत्त्व से ममत्व जोड़ना है कि जिससे भीतर में अपूर्व आनंदोत्सव घटित हो जायं ! परमानन्द की अनुभूति हो जायं । वैसा एक ही आत्मतत्त्व है । अपनी देह में ही वह आत्मतत्त्व रहा हुआ है ? भीतर में ही है । भीतर में देखने के लिए ध्यान आना चाहिए । जो ध्यान नहीं कर सकते वे अपने ही शरीर में रही हुई परमानन्दमय, निर्विकार, निरामय आत्मा को देख नहीं सकते । पहचान नहीं कर सकते । ध्यानमग्न योगीपुरुषों ने जो आत्मा की पहचान पायी है, वह इस तरह है - अनन्तसुखसंपन्नं, ज्ञानामृत-पयोधरं । अनन्तवीर्यसंपन्नं, दर्शनं परमात्मनः ॥ निर्विकारं निराहारं, सर्वसंगविवर्जितं । परमानन्दसंपन्नं - शुद्ध चैतन्यलक्षणम् ॥ आनन्दरूपं, परमात्मतत्त्वं समस्त संकल्पविकल्पमुक्तम् । | अनित्य भावना १२९ | Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - स्वभावलीना निवसन्ति नित्यं जानाति योगी स्वयमेव तत्त्वम् ॥ सदानन्दमयं शुद्धं निराकारं निरामयम् । अनन्तसुखसंपन्नं सर्वसंग - विवर्जितम् ॥ परमाह्लादसंपन्नं रागद्वेष- विवर्जितम् । सोऽहं देहमध्येषु, यो जानाति सः पंडितः ॥ आकाररहितं शुद्धं स्वस्वस्पे व्यवस्थितम् । सिद्धावष्टगुणोपेतं निर्विकारं निरामयम् ॥ तत्सदृशं निजात्मानं, परमानन्दकारणम् । संसेवते निजात्मानं, यो जानाति सः पंडितः ॥ 'परमानन्द - पंचविंशति में इस प्रकार आत्मा की पहचान करायी गई है। 'शरीर के भीतर रही हुई परम विशुद्ध आत्मा अनन्त सुखमय है, ज्ञानामृत से भरे बादल समान है, अनन्त शक्तिशाली है, इस प्रकार आत्मा का दर्शन करें 1 निर्विकार है, निराहार है, सभी प्रकार के संग - आसंग से रहित है । परमानन्द से परिपूर्ण है और शुद्ध चैतन्य स्वरूप है । " यह परम विशुद्ध आत्मतत्त्व आनन्दरूप है, सभी संकल्प - विकल्पों से मुक्त है । स्वभाव में लीन, ऐसे आत्मतत्त्व को योगीपुरुष स्वयमेव जानते हैं । सदैव आनन्दमय, शुद्ध, निराकार, निरामय, अनन्त सुखमय और सभी बंधनों से मुक्त है आत्मतत्त्व ! परम प्रसन्नता से परिपूर्ण, राग-द्वेष से रहित सोऽहम्' ऐसा मैं, देह में रहा हुआ हूँ जो जानता है वह विद्वान् है । आकार - रहित, शुद्ध, स्व-स्वरूप में रहा हुआ, सिद्ध परमात्मा के आठ गुणों से युक्त, निर्विकार और निरामय है, वह आत्मतत्त्व । उस सिद्धात्मा के समान अपनी आत्मा को जानता है, वह परमानन्द का कारण बनता है, निजात्मा को इस तरह जो जानता है वह पंडित - विद्वान् है । यह तो सात श्लोकों का अर्थ बताया। अब आत्मा के गुणों की क्रमशः सूचि १३० शान्त सुधारस : भाग १ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन लो, इससे शुद्ध आत्मा का अच्छा परिचय होगा । * अनन्त सुखमय * संकल्प-विकल्पों से मुक्त, * ज्ञानामृत से परिपूर्ण * स्वभावलीन * अनन्त शक्तिशाली * निराकार * निर्विकार * निरामय * निराहार * बंधनमुक्त * असंग * प्रसन्नता से परिपूर्ण * परमानन्द से पूर्ण * राग-देषरहित * शुद्ध चैतन्य-स्वरूप * सिद्धात्मा-सदृश * आनन्दरूप ऐसी आत्मा शरीर में है ! ___ ऐसी आत्मा अपने शरीर में रही हुई है ! परंतु ऐसी आत्मा को ध्यानहीनाः न पश्यति । जो मनुष्य ध्यानी नहीं है, वह नहीं देख सकता, जैसे जन्म से अंध व्यक्ति सूर्य को नहीं देख सकता । ध्यानी ऐसे योगीपुरुष ही देख सकते हैं । ऐसा ध्यान करना चाहिए, जिससे मन विलीन हो जायं और तत्क्षण शुद्ध आनन्दमय आत्मा का दर्शन हो जायं । तद्ध्यानं क्रियते भव्यं मनो येन विलीयते ।' शरीर के भीतर ही देखना है ! शरीर में व्याप्त होकर रही हुई आत्मा को देखना है । जिस प्रकार पाषाणों में सोना होता है, दूध में घी रहा हुआ है और तिल में तैल होता है, वैसे देह में आत्मा रही हुई है । जिस प्रकार लकड़ी में अग्नि शक्तिरूप से होती है वैसे यह आत्मा, स्वभाव से निर्मल, शरीर में रही हुई है । कहा गया है पाषाणेषु यथा हेम, दुग्धमध्ये यथा घृतं ।। तिलमध्ये यथा तैलं, देहमध्ये तथा शिवः ॥ काष्ठमध्ये यथा वह्निः शक्तिरूपेण तिष्ठति । अयमात्मा स्वभावेन देहे तिष्ठति निर्मलः ॥ योगी ही आत्मदर्शन करते हैं : शरीर का ममत्व, मोह तोड़ने के लिए जैसे शरीर में मांस, मज्जा, रूधिर, | अनित्य भावना Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष्टा... इत्यादि बीभत्स पदार्थों को देखना है, वैसे आत्मा से ममत्व जोड़ने के लिए इसी शरीर में रही हुई निर्मल, निराकार, निरामय, निर्विकार और निराहार आत्मा का दर्शन करना है । ध्यान से ही ऐसा दर्शन हो सकता है । ऐसा ध्यान वे ही सत्पुरुष कर सकते हैं, जिनको शुद्ध आत्मस्वरूप में विश्रान्ति प्रिय होती है, उसी में ही रमणता प्रिय होती है । महामुनि देवचंद्रजी ने गाया है - 'आतमतत्त्वालंबी रमता आतमराम, शुद्ध स्वरुपने भोगे, योगे जसु विसराम ।' सर्वप्रथम तो स्व-गुणों के चिंतन में मन निमग्न होना चाहिए । बाद में भीतर में रही हुई 'आत्मसत्ता' की ओर देखना है । परभाव से, पुद्गलभाव से मन को सर्वथा मुक्त करना होगा । है श्री देवचन्द्रजी ने कहा ऐसा योगीपुरुष 'स्वगुण - चिंतन - रसे बुद्धि घाले, आत्मसत्ता भणी जे निहाले । - - तेह समतारस तत्त्व साधे, निश्चलानन्द अनुभव आराधे ! समतारस की, प्रशमरस की अनुभूति करता है और निश्चल आनन्द, परमानन्द पाता है । यही योगीपुरुषों का उत्सव होता है ! जिन योगी पुरुषों की बुद्धि आत्मगुणों के चिंतन में चली जाती है और जिनको आत्मसत्ता ही दिखती है वे योगी अपने आत्मगुणों के आयुध ( शस्त्र) से कर्मों का नाश करते हैं, भरपूर कर्मनिर्जरा करते हैं । १३२ 'स्वगुण - आयुध थकी कर्म चूरे, असंख्यात गुण निर्जरा तेह पूरे !' जैसे जैसे कर्मनिर्जरा होती जाती है, वैसे वैसे आत्मा को अभिनव प्रशमसुख का अनुभव होता जाता है ! वही सत्पुरुषों का 'महोत्सव' होता है ! इसी जन्म में उत्सव मना लो ! योगी - ज्ञानी पुरुषों का उत्सव भीतर में घटित होता है । इस उत्सव का मजा वर्णनातीत... शब्दातीत होता है ! यानी इस प्रशमसुख की अभिनव अनुभूति शब्दों शान्त सुधारस : भाग १ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में बाँध नहीं सकते ! काव्य में गा नहीं सकते ! यह तो योगीपुरुषों का स्वयं का 'उत्सव' होता है । स्वयं का निजानंद होता है । मोक्षसुख तो दूर है, परंतु वैसा ही प्रशमसुख यहाँ अनुभव करते हैं । 'दूरे मोक्षसुखं, प्रत्यक्षं प्रशमसुखम् । जो साधक यहाँ, इस जन्म में प्रशमसुख का अनुभव नहीं कर सकते वे मोक्षसुख नहीं पा सकते । इसलिए इसी जन्म में प्रशमसुख का अमृतपान करते हुए आत्मोत्सव मनाने के लिए उपाध्यायजी प्रेरणा करते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी का उत्सव ऋतुओं के द्वारा प्रकट होता है, वृक्षों का उत्सव वसंत द्वारा और वसंत का उत्सव कोयल के कूजन द्वारा व्यक्त होता है । पुष्पों का उत्सव उनकी सुगंध से होता है। आकाश का उत्सव मौन द्वारा प्रकट होता है ! विद्या का उत्सव विवेक द्वारा व्यक्त होता है और योगीपुरुषों का, सत्पुरुषों का उत्सव प्रशमरस के अमृतपान के द्वारा प्रकट होता है । आत्मतत्त्व की अनुभूति होने पर योगीपुरुष, सत्पुरुष चिदानन्द से विभोर हो जाता है और गाने लगता है। : स एव परमं ब्रह्म, स एव जिनपुंगवः । स एव परमं चित्तं स एव परमो गुरुः ॥ स एव परमं ज्योतिः, स एव परमं तपः । स एव परमं ध्यानं, स एव परमात्मकम् ॥ स एव सर्वकल्याणं, स एव सुखभाजनम् । स एव शुद्धचिद्रूपं स एव परमः शिवः ॥ स एव परमानन्दः, स एव सुखदायकः । स एव परचैतन्यं स एव गुणसागरः || परमाह्लादसंपन्नं रागद्वेषविवर्जितम् । सोऽहं देहमध्येषु, यो जानाति सः पंडितः ॥ 'स एवं' यानी आत्मा, शरीर में रही हुई आत्मा । वह मेरी आत्मा ही परम ब्रह्म है, वही जिनेश्वर है, वही परम चित्त है और वही परम गुरु है । वही मेरी देहस्थित आत्मा ही परम ज्योति है, वही परम तप है, वही परम ध्यान है और वही परम आत्मा है ! अनित्य भावना १३३ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही आत्मा ही सर्वकल्याणरूप है और वही सुखभंडार है, वही शुद्ध चिद्रूप है और वही परम शिव है ! वही मेरा परमानन्द है, वही सुखदायक है, वही परम चैतन्य है और वही गुणसागर है ! वही मेरा परम आह्लाद है... वही वीतराग-वीतद्वेष है... सोऽहम्... सोऽहम्... सोऽहम्। मैं वही हूँ... मैं वही हूँ... मैं वही हूँ । __ यह प्रशमरस के अमृतपान से जो भीतर में उत्सव घटित होता है, उसका काव्य है, आनंदोर्मि का गीत है । चिदानन्द ही मस्ती में स्फूरित शब्दावली है ! आपको उत्सव... भीतर का उत्सव मनाना है ? तो आप बाहर के उत्सवों का मोह त्याग कर, भीतर में चले जायं । समग्रतया भीतर में चले जायं, कुछ १५/२० मिनिट के लिए, आधे घंटे के लिए... भीतर में स्थिर होकर, ये पाँच श्लोक गाइये । ज्योतिस्वरूप आत्मा की कल्पना कर, ये पाँच श्लोकों का गान करिये। भीतर का उत्सव एकान्त में: ___ यदि आप ऐसा आनन्द से भरपूर उत्सव मनाता चाहते हो, तो पहला काम रागी-द्वेषी लोगों की भीड़ से दूर जाना होगा । इसीलिए पहाड़ों पर अपने तीर्थ बने हैं। बीहड़ जंगलों में अपने तीर्थ बने हैं ! परंतु वर्तमान में तो वहाँ भी लोगों की भीड़ रहने लगी है ! इसलिए जहाँ लोग नहीं जाते हैं, बहुत कम लोग जाते हैं वैसे पहाड़ पर चले जाओ। जैसे कि तारंगाजी के ऊपर सिद्धशिला की गुफा में या कोटिशिला की गुफा में जाकर बैठे... अथवा गिरनार की कोई गुफा पसंद कर, वहाँ एकाध-आधा घंटा बैठो... और उत्सव मना लो ! अथवा राणकपुर के कोई निर्जन मंदिर में अथवा पहाड़ों... में जाकर बैठ जायं और उत्सव मना लो! __इस उत्सव में एकान्त और मौन चाहिए ही । वाणी का मौन और विचारों का मौन ! पुद्गलेष्वप्रवृत्तिस्तु योगिनां मौनमुत्तमम् !' पुद्गल भावों में मन की प्रवृत्ति नहीं होना, योगीपुरुषों का उत्तम मौन होता है। जब आपका मन, आपकी बद्धि आत्मभावों में ही लीन बनती है. फिर मन पुद्गल भावों में जायेगा ही कैसे ? अपनी प्राचीन परंपरा में साधक पुरुष, श्रावक हो या साधु हो, गृहस्थ हो या | १३४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संन्यासी हो, जिसको चिदानन्द का प्रशमानन्द का उत्सव मनाना होता था वे रात्रि के समय में नगर के बाहर शून्य घरों में, खंडहरों में... स्मशान में चले जाते थे । उनको वहाँ एकान्त मिलता था । वे रातभर वहाँ कायोत्सर्ग ध्यान में यही परमानन्द का परमाह्लाद का, परम ज्योति का उत्सव मनाते थे । वे 'सोऽहम्... सोऽहम्... सोऽहम्...' के नाद से झूमते थे । वे सिद्धस्वरूप का तादात्म्य पाकर परमानन्द की अनुभूति करते थे । 1 ऐसे श्रावक भी होते थे । सुदर्शन वगैरह के दृष्टांत अपने शास्त्रों में, आगमों में पढ़ते हैं । मुनि, योगी, साधुओं के तो अनेक दृष्टांत पढ़ने को मिलते हैं वे निर्भय होते थे । वे इन्द्रियविजेता होते थे । वे वीर और धीर होते थे ! भीतर का उत्सव ऐसे सत्पुरुष ही मना सकते हैं । ऐसे सत्पुरुष, जिस प्रकार एकान्तप्रिय और मौनधारी होते है, वैसे वे सहजरूप से तपस्वी होते थे । बिना आहार -पानी वे कई दिनों तक अपनी आराधना में निरत रह सकते थे । लोकसंपर्क से वे दूर रह सकते थे । चिदानन्द की मस्ती में खाना- पीना... उनको याद भी आता नहीं होगा ! वे तो अमृतपान ही करते रहते थे । 'प्रशमरस' का अमृतपान ! योगीपुरुष कैसे होते हैं प्रश्न : आप कहते हैं वैसे योगीपुरुष कैसे होते हैं ? उत्तर : आत्मध्यान करनेवाले और परमानंद का उत्सव मनानेवाले योगी १२ योग्यतावाले चाहिए । सुनें, वे योग्यताएँ बताता हूँ । ७. लययोग में तत्पर, १. स्थिर बुद्धिवाला, २. स्वाधीन, ८. वीर्यवान्, ३. विशाल हृदयवाला, ४. क्षमाशील, ५. वीर, ६. गुरुचरणपूजक, ऐसा साधक ही आत्मध्यान करने योग्य और अधिकारी होता है। ऐसा योगीपुरुष यदि अपनी आत्मा की, 'जिनस्वरूप' बनकर आराधना करते हैं, वे 'जिनस्वरूप' बन जाते हैं । महायोगी श्री आनंदघनजी ने कहा है : 'जिनस्वरूप थइ जिन आराधे अनित्य भावना ९. दयावान्, १०. सत्यवादी, ११. श्रद्धावान्, १२. योगाभ्यास में तत्पर । १३५ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते सही जिनवर होवे रे... अपनी आत्मा को जिनस्वरूप यानी परमात्मस्वरूप देखना और उस पर एकाग्र होना, उनके लिए ही संभव है कि जो अभी मैंने बताया वैसा व्यक्तित्ववाला हो! ___ श्री शान्तिनाथ भगवान की स्तवना करते हुए श्रीमद् आनन्दघनजी ने गाया मान-अपमान चित्त सम गणे सम गणे कनक-पाषाण रे, वंदक-निंदक सम गणे, इस्यो होय तुं जाण रे... शान्ति. सर्व जग जंतु ने सम गणे, सम गणे तुण-मणि भाव रे, मुक्ति-संसार बिहु सम गणे, मुणे भव-जलनिधि नाव रे... न मान-सन्मान उनके चित्त में रागजन्य चंचलता पैदा कर सकते हैं, न अपमान-तिरस्कार द्वेषजन्य चंचलता को जन्म दे सकते हैं । योगीपुरुष मानअपमान को समान मानते हैं । __उनके सामने स्वर्ण का ढेर हो या पाषाण के पहाड़ हो, इस योगी की ज्ञानदृष्टि में दोनों समान होते हैं। ___ कोई भक्त उनके चरणों में वंदना करें अथवा कोई उनकी निंदा करें, योगी तो वंदक और निन्दक - दोनों को समान समझता है ! न तो वंदक के प्रेम होता है, न निंदक के प्रति द्वेष होता है ! समग्र विश्व के सभी जीवों को योगीपुरुष समान रूप से देखता है । उनकी ज्ञानदृष्टि में नहीं होता है राजा-रंक का भेद, न श्रीमंत-गरीब का भेद ! समग्र जीवसृष्टि को समान रूप में देखते हैं, यानी हर आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में देखते हैं । सभी जीवों का विशुद्ध स्वरूप तो समान ही होता है । । उनके सामने घास हो या मणि-माणक हो, योगी के चित्त में कोई भेद नहीं होता। न घास के प्रति तुच्छता का भाव, न मणि-माणक के प्रति उत्तमता का भाव होता. है । ___ अरे, उनके मन में तो संसार और मोक्ष के बीच भी कोई भेद नहीं होता ! दोनों के प्रति समभाव ! यह है समताभाव, यह है प्रशमभाव ! इस समत्व का उत्सव योगी मनाते रहते हैं अपनी भीतर ! उत्सव मनाते हुए भावविभोर बनकर गाने लगते हैं आनन्दघनजी : १३६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अहो ! अहो ! हुँ मुजने कहुँ, नमो मुज ! नमो मुज... रे ! अपनी आत्मा का परमात्मस्वरूप, परमानन्दस्वरूप देख लिया... और वे अपनी ही आत्मा को नमस्कार करने लगे ! 'नमो मुज, नमो मुज !' बोलते हुए नाचने लगे ! इसी को कहते हैं योगी का उत्सव ! प्रशमभाव के अमृतपान का उत्सव ! प्रशमसुख यानी मोक्षसुख : उपाध्यायजी ने जिस 'प्रशमरस' के सुधापान के उत्सव की बात कही है.... वह बहुत ही रहस्यभूत और अद्भुत बात है। इस प्रशमरस' के विषय में महाज्ञानी भगवान उमास्वातीजी ने 'प्रशमरति ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में प्रशमसुख' को उन्होंने प्रत्यक्ष मोक्षसुख बताया है स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न व्ययप्राप्तम् ॥ २३७॥ 'स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं और मोक्ष का सुख तो अत्यंत परोक्ष है, जब कि प्रशमसुख प्रत्यक्ष है, स्वाधीन है और शाश्वत् है !' इस पृथ्वी पर, इस संसार में यदि मोक्षसुख चाहिए तो वह है प्रशम का सुख ! जिन आत्माओं के पास, जिन महात्माओं के पास यह 'प्रशमसुख' है, उन्हें स्वर्ग के सुखों की इच्छा नहीं रहती, उन्हें मोक्ष के सुख की भी तमन्ना नहीं होती ! वे तो 'मोक्षेऽपि अनिच्छः' होते हैं ! यह प्रशमसुख पाने के लिए किसी भी तरह की गुलामी नहीं करनी है, तुम्हारी ही अंतरात्मा में से वह सुख मिल जायेगा। मिलने के बाद उस सुख का अनुभव करने के लिये इन्द्रियों की परवशता भी नहीं होगी, चूँकि यह सुख इन्द्रियातीत होता है । आत्मा का सुख, आत्मा से ही, आत्मा को, आत्मा में महसूस करना है ! तुम चाहो जितना प्रशमसुख भोगो, वह कभी भी कम नहीं होने का ! यह सुख है ही कुछ ऐसा कि ज्यों ज्यों उसे भोगते चलें, त्यों त्यों वह बढ़ता ही रहता है ! इस प्रशमसुख की प्राप्ति होने पर, भौतिक-वैषयिक सुखों की इच्छा ही मृतप्रायः हो जाती है । अपूर्व एवं अद्भुत प्रशमसुख में डूबी हुई आत्मा मोक्षसुख की अनुभूति में गहरे उतरती है और भव्य उत्सव मनाती है ! अनित्य भावना १३७ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष यहीं पर है ! भगवान उमास्वातिजी ने आगे बढ़कर कहा है - निर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकार-रहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥ २३८ ।। 'जिन्होंने मद और काम को जीत लिया है, जो मन-वचन-काया के विकारों से मुक्त हैं, परपदार्थों की आशायें जिनकी नष्ट हो गई हैं, वैसे सुविहित योगी के लिए तो यहीं पर ही मोक्ष है ! तात्पर्य यह है - - मान-सन्मान की आशा छोड़ देना है, - आदर-सत्कार की अपेक्षा त्याग देना है, - प्रिय वचन की आशंसा झटक देना है, - अनुकूलताओं की उत्सुकता उखाड़ फेंकना है, और - किये हुए उपकारों के बदले की आशा नहीं रखना है । - मद और मदन पर विजय प्राप्त करना होगा । क्योंकि मन को आत्यंतिक रूप से अस्वस्थ बनानेवाले यदि कोई है तो ये मद और मदन है । मान और काम ! - वैसे, मनोविकारों को दूर करने पड़ेंगे । - वचन-विकारों को भी मूल से नष्ट करने होंगे । - काया के विकारों का भी मूलोच्छेद करना होगा । यह सब योगीपुरुष कर सकते हैं, और वे ही मोक्षसुख सदृश प्रशमसुख का अनुभव कर सकते हैं । इसी भव में प्रशमसुखानुभव का उत्सव होता रहता है ! भवतु सततं सतामिह भवेऽयम् ।' श्री विनयविजयजी ऐसी भावना व्यक्त करते हैं – “भवतु प्रशमसुख का अनुभव... उत्सव सतत चलता रहे ! होता रहे !' __ इसी जन्म में, अपने भी वैसा प्रशमसुख का अमृतपान करते रहें और उत्सव मनाते रहें - यही शुभ कामना । ___ आज बस, इतना ही - | १३८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १३ अशरणभावना - १ : संकलना : मृत्यु सर्वोपरि । - मृत्यु के सामने सभी अशरण । मदोन्मत्त नहीं बने । - मृत्यु सामने खड़ी है। गुणनिधान लोग भी चले जाते हैं। .. आयुष्यकर्म का विज्ञान समझें । द्वारिका जल जाती है। नियाणा क्या होता है ? श्रीकृष्ण की द्वारिका में घोषणा । भगवान नेमनाथ गिरनार पर ।। द्वैपायन मर कर अग्निकुमार देव बना । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये षट्खण्डमहीमहीनतरसा निर्जित्य बभ्राजिरे, ये च स्वर्गभुजो भुजोर्जितमदा मेदुर्मुदा मेदुराः । तेऽपि क्रूरकृतान्तवक्त्ररदनैर्निर्दल्यमानाहठादत्राणाः शरणाय हा दशदिशः प्रेक्षन्त दीनाननाः ॥७॥ अशरण भावना का प्रारंभ करते हुए उपाध्याय श्री विनयविजयजी कहते हैं : अपने अतुल पराक्रम से समग्र पृथ्वी पर विजय पानेवाले सम्राट, चक्रवर्ती और अपनी अजेय शक्ति से उन्मत्त एवं अपूर्व हर्ष से सर्वदा आनन्दित रहनेवाले देव-देवेन्द्र, जब उनके ऊपर निर्दय यमराज बलात्कार करता है और अपने तीक्ष्ण दांतों से उनको चीर डालता है, तब वे सम्राट, चक्रवर्ती, देव और देवेन्द्र, दीनहीन बन, अशरण स्थिति में चारों ओर देखते रहते हैं, उनको कोई बचा नहीं सकता! मृत्यु सर्वोपरि : अनन्त जन्मों से जीवों के साथ असंख्य वासनाएँ जुड़ी हुई हैं । आहार की वासना, भय की वासना, मैथुन की वासना और परिग्रह की वासना । ये चार प्रमुख वासनाएँ हैं। ये वासनाएँ जीवों को दुःखी करती हैं। इसलिए परम करुणावंत ज्ञानीपुरुषों ने वासनाओं पर विजय पाने का, वासनाओं को नष्ट करने का उपदेश दिया । वासनाओं के ऊपर भावनाओं से विजय पा सकते हैं । वासनाओं के ऊपर विजय पाने का श्रेष्ठ उपाय है भावनाएँ। __चार प्रमुख वासनाओं में से एक है भय की वासना । जन्म से मृत्यु तक जीव कुछ भयों के साथ जीते हैं । प्रिय के वियोग का भय और अप्रिय के संयोग का भय ! ये दो मुख्य भय होते हैं । स्वजन-परिजन, संपत्ति-वैभव, शरीर वगैरह प्रिय पदार्थ होते हैं । ये चले न जायं, नष्ट न हो जायं, चोरी न हो जायं... इस बात को लेकर मनुष्य भयाक्रान्त रहता है । वैसे जो अप्रिय वस्तु होती है, अप्रिय बातें होती हैं - रोग-शोक, स्वजनवियोग, दुर्जन-संयोग, वृद्धत्व और मृत्यु... इनसे भी मनुष्य भयभीत रहता है । भय से बचने के लिए वह कोई रक्षा चाहता है, कोई शरण चाहता है । जो उसकी भय से रक्षा करता हो, उसकी वह शरण चाहता है । हाँ, दूसरे सभी भयों से बचानेवाले, शरण देनेवाले फिर भी मिल जाते हैं संसार में, परंतु मृत्यु से बचानेवाले कोई नहीं होते हैं संसार में ! मृत्यु अनिवार्य होती है जीवों के लिए, १४० शान्त सुधारस : भाग १ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु का भय भी होता है निश्चित रूप से । मृत्यु जब सामने दिखती है, तब जीवात्मा अपने आपको अशरण पाता है, असहाय पाता है ! मृत्यु के सामने सभी अशरण : रोगों से बचानेवाले, शत्रुओं से बचानेवाले, आपत्ति से बचानेवाले मिल सकते हैं इस संसार में । वो भी यदि पुण्यकर्म का उदय हो तो ! अन्यथा नहीं । परंतु मृत्यु से, यमराज से बचानेवाला कोई नहीं है । तुम भले ही बड़े सम्राट हो, चक्रवर्ती हो, देव हो या देवेन्द्र हो, तुम्हारे पास बड़ी-विराट सेना हो, विशाल भूमिसेना हो, समुद्री सेना हो या आकाशी सेना हो... तुम मृत्यु से नहीं बच सकते हो । यमराज तुम्हें उठाकर ले जायेगा ! तुम जाना नहीं चाहते होंगे, तो भी बलात् ले जायेगा ! तुम दीन-हीन बनकर चारों ओर देखते रहोगे और वह ले जायेगा। तुम्हारे स्नेही-स्वजन-मित्र... सभी देखते रह जायेंगे और यमराज तुम्हें ले जायेगा । यह होती है अशरणता । उपाध्यायश्री सकलचन्द्रजी कहते हैं : __ माता-पितादिक टगमग जोता, यम ले जनने ताणी रे, मरण थकी सुरपति नवि छूटे नवि छूटे इन्द्राणी रे... को नवि शरणं, को नवि शरणं । प्यारभरी माता पास में हो, वात्सल्यभरे पिता पास खड़े हों, प्रेमपूर्ण पत्नी पास खडी हो, अनेक स्वजन और मित्र खड़े हो...सब देखते रह जाते हैं और यमराज जीव को उड़ाकर ले जाता है । मृत्यु से कौन बचता है ? न देवेन्द्र बचता है, न देवरानी छूटती है ! मृत्यु से बचानेवाली कोई शरण नहीं है । मदोन्मत्त नहीं बनें : मृत्यु सामने खड़ी है : . . तावदेव मदविभ्रममाली, तावदेव गुणगौरवशाली । यावदक्षमकृतान्तकटाक्षर्नेक्षितो विशरणो नरकीटः ॥२॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी कहते हैं : हे मनुष्य, तब तक ही तूं मदोन्मत्त है और गुणगौरवशील है, जब तक तेरे पर दुर्जय यमराज का क्रूर दृष्टिपात नहीं हुआ है । यमराज का क्रूर दृष्टिपात होने पर तुझे कोई नहीं बचा सकेगा। यदि आप प्रतिपल मृत्यु को सामने रखते हो, तो कभी भी, किसी भी बात का अभिमान नहीं होगा । अथवा, जब कभी संपत्ति का, यौवन का, बुद्धि का अशरण भावना १४१ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या ज्ञान वगैरह का अभिमान आ जायं, तब मृत्यु का क्षणिक चिंतन करते रहो, अभिमान नहीं रहेगा। गर्व विगलित हो जायेगा । कुछ ऐतिहासिक अथवा शास्त्रीय उदाहरण याद रखें, जब मन गर्वोन्मत्त बनें, तब उन उदाहरणों को याद करें। वैसे दो उदाहरण प्राचीनतम याद रखें । एक रामायणकालीन लंकापति रावण का, दूसरा महाभारतकालीन दुर्योधन का । दोनों अपनी अजेय शक्ति पर गर्वोन्मत्त थे, दोनों अपने कुकर्मों का विचार तक नहीं करते थे। दोनों ने परस्त्री को सताया था-एक ने सीताजी को, दूसरे ने द्रौपदी को । युद्ध में दोनों की मृत्यु हुई थी । सब कुछ यहाँ पड़ा रह गया और वे दुर्गति में चले गये । उनको कोई नहीं बचा पाये । न भाई बचा पाये, न पुत्र बचा पाये, न सेना बचा पाई । उनकी देह के साथ सारा अभिमान मिट्टी में मिल गया । दीन-अनाथ और अशरण बने । मृत्यु-यमराज उठा कर ले गया ! बल, बुद्धि, सत्ता और संपत्ति कुछ भी काम नहीं आया । इसलिए ग्रंथकार कहते हैं : अभिमान मत करो । मृत्यु के सामने तुम अशरण हो । जिस तरह जंगल में सिंह के पैरों के तले पड़ा हुआ मृग अशरण होता है, वैसे संसार में काल-महाकाल से ग्रसित जीव भी अशरण होता है । गुणनिधान लोग भी चले जाते हैं : __पापी लोगों को जिस तरह यमराज नहीं छोड़ता है, वैसे गुणवान लोगों को भी यमराज उठा कर ले जाता है । इस संसार में जीवों की नियति है जन्म और मृत्यु की । जन्म और मृत्यु के बीच जीवन होता है । जीवन, प्रत्येक जीव का जीवन, आयुष्यकर्म के साथ संबंधित होता है । आयुष्यकर्म समाप्त होने पर जीवन समाप्त हो जाता है । मृत्यु हो जाती है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है - आउक्खयेण मरणं आउं दाउण सक्कदे को वि । । । तम्ह देविंदो विय मरणा उण रक्खदे को वि ॥ 'आयुष्यकर्म के क्षय से मृत्यु होती है और आयुष्य किसी को कोई भी दे नहीं सकता, इसलिए देवराज इन्द्र भी अपने को मृत्यु से बचा नहीं सकता __स्वयं इन्द्र भी, अपने आप को मृत्यु से यदि बचा सकता होता तो वह सर्वोत्तम भोगोंवाला स्वर्गवास किसलिए छोड़ता ? अर्थात् इस जीवसृष्टि में कोई भी जीवात्मा अपना आयुष्य, एक क्षण भी बढ़ा सकता नहीं है । देव-देवेन्द्रों से पूजित | १४२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर परमात्मा भी अपना आयुष्य बढ़ा नहीं पाते ! एक क्षण भी बढ़ा नहीं पाते । श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने, देवराज इन्द्र की प्रार्थना होने पर कहा था न कि हे इन्द्र, आयुष्यकर्म मैं भी नहीं बढ़ा सकता ! आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर, भगवान महावीर स्वामी का, देशना देते देते निर्वाण हो गया था । आयुष्यकर्म का विज्ञान समझें : आयुष्यकर्म का मृत्यु के साथ संबंध है । चारों गति के जीवों के मृत्यु का संबंध आयुष्यकर्म के साथ होता है । प्रत्येक जीवात्मा, अपने आनेवाले जन्म का (मृत्यु के बाद) आयुष्यकर्म बाँध लेता है, निश्चित कर लेता है । कोई जीव देवगति का, कोई जीव मनुष्यगति का, कोई जीव तिर्यंचगति का, कोई जीव नरकगति का आयुष्यकर्म बाँध लेता है । मृत्यु के पहले आयुष्यकर्म बंध ही जाता है । आगामी जन्म का आयुष्यकर्म बंधने के बाद ही मृत्यु होती है । और, वर्तमान जीवन का आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर मृत्यु होती है । और हमारे पास वैसा ज्ञान नहीं है, दिव्य ज्ञान नहीं है कि हम जान सकें कि हमारा कितना आयुष्य शेष है ! और यह भी नहीं जान सकते कि हमने कौन सी गति का आयुष्यकर्म बाँध लिया है । आयुष्यकर्म के विषय में हम पूर्णतया अज्ञानी हैं । मात्र देव जान सकते हैं, क्योंकि वे अवधिज्ञानी होते हैं । __ आयुष्यकर्म कभी भी, किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है । इसलिए किसी भी समय मृत्यु हो सकती है । कोई भी शक्ति मृत्यु से बचा नहीं सकती है । अशरण भावना को एक सज्झाय में (काव्य में) कवि ने कहा है : चक्री सुभूम ते जलधिमां हार्यों खटखंड राज रे, बूडयो चरम जहाज रे, देव गया सवि भाज रे... लोभे गई तस लाज रे... बारह चक्रवर्ती हुए, इस अवसर्पिणी काल में । उनमें आठवाँ चक्रवर्ती हुआ सुभूम । सुभूम चक्रवर्ती ने इस भरतक्षेत्र के ६ खंड जीत लिये थे। फिर भी उसको संतोष नहीं हुआ। वह धातकीखंड के भरतक्षेत्र के दूसरे ६ खंड जीतने को चला। उसको पूरा लवणसमुद्र पार करना था। उसके पास चर्मरत्न था। अति विशालविराट चर्म के जहाज पर विशाल सेना लेकर, उसने प्रयाण किया । चर्म-जहाज को उठाकर हजारों देव चल रहे थे। सभी देवों को, जहाज को उठानेवाले सभी देवों को एक ही समय विचार आया कि यह चर्म-जहाज चक्रवर्ती के पुण्य से अशरण भावना Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलता है या हमारे उठाने से ? जहाज को छोड़ दें... देखें कि क्या होता है ?' सभी देवों ने जहाज को छोड़ दिया । जहाज लवणसमुद्र में डूबा ! चक्रवर्ती भी डूबा ! मरा और सातवीं नरक में चला गया । मरते समय उसके मन में देवों के प्रति घोर द्वेष पैदा हो गया होगा ! रौद्रध्यान आ गया होगा ! रौद्रध्यान में मरने से जीव को नरक में जाना पड़ता है । रौद्रध्यान में जीव नरकगति का आयुष्यकर्म बाँध लेता है । महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि सुभूम चक्रवर्ती का आयुष्य उस समय पूर्ण हो गया कि जब वह समुद्रमार्ग से जा रहा था ! जहाज वहन करनेवाले देव तो निमित्त मात्र थे ! आयुष्य पूर्ण होने पर उसकी मृत्यु निश्चित थी । चक्रवर्ती न स्वयं को बचा पाया, नहीं देव उसको मृत्यु से बचा पाये ! यह है जीवों की अशरणता । 'अशरणभावना' की सज्झाय में कवि ने आगे कहा है : द्वीपायन दही द्वारिका, बलवंत गोविंद राम रे, राखी न शक्या रे राजवी, मात-पिता-सुत धाम रे.... लोभे तस गई लाज रे... द्वारिका जल जाती है : महाभारतकालीन यह कथा बड़ी करुणान्तिका है । २२वें तीर्थंकर भगवान नेमनाथ के समय में घटी हुई यह घटना, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने मार्मिक ढंग से लिखी है। बलदेव और वासुदेव जैसे अति बलवान शलाका पुरुष, उत्तम पुरुष भी महाकाल के सामने कैसे अशरण ... असहाय... बन जाते हैं, यह बात इस कहानी के माध्यम से बताना है । बड़ी रोमांचक और करुण (ट्रेजेडी) कहानी है यह । आप एकाग्र चित्त से सुनना और जीवों की महाकाल के सामने जो अशरणता है वह महसूस करना । १४४ - भगवान नेमिनाथ द्वारिका के बाह्य उद्यान में पधारे थे। समवसरण में बैठकर भगवंत ने धर्मोपदेश दिया । उपदेश पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण ने विनय से भगवंत को पूछा : 'भगवन् इस द्वारिका का, यादवों का और मेरा नाश कैसे होगा ?' भगवंत ने कहा : 'कृष्ण, इन्द्रियविजेता और ब्रह्मचारी द्वैपायन ऋषि, द्वारिका को जला देंगे। उसमें तेरे माता-पिता और सभी यादव जलकर मरेंगे । मात्र तू और बलराम बचोगे तेरी मृत्यु तेरे भाई जराकुमार से होगी ।' I शान्त सुधारस : भाग १ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जराकुमार समवसरण में ही बैठा था । भगवंत के वचन सुनकर वह खिन्न हो गया। उसके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अपार स्नेह था। उसने सोचा : 'मैं श्रीकृष्ण का भ्राता हूँ। मैं उनका कैसे घात कर सकता हूँ । मैं द्वारिका में नहीं रहूँगा । उसने वनवास स्वीकार कर लिया। ___ द्वैपायन ऋषि, जो कि द्वारिका के पास रहते थे । उन्होंने भगवान नेमिनाथ की भविष्यवाणी सुनी । वे गहरे सोच में पड़ गये । उनके मन में द्वारिका से व यादवों से लगाव था। कृष्ण और बलराम से स्नेह था। उनका मन भी विक्षुब्ध हो गया। वे भी अपना आश्रम छोड़कर दूर-दूर गिरि गुफा में चले गये । श्रीकृष्ण ने भगवान से जान लिया था कि यह सारा अनर्थ शराब की वजह से होनेवाला है, मदिरा से होनेवाला है । उन्होंने अपने नगर में, संपूर्ण द्वारिका में मदिरापान का निषेध जारी कर दिया। द्वारिका में जितनी भी मदिरा थी, वह सारी की सारी मदिरा, कदंब वन में जो कादंबरी नाम की गुफा थी, उसके पास अनेक शिलाखंड थे, वहा डाल दी गई । उधर मदिरा की एक नदी सी बहने लगी। वह मदिरा, विविध वृक्षों के सुगंधी पुष्पों के संपर्क से ज्यादा स्वादिष्ट हो गई। वैशाख महिना था । एक दिन, कृष्णपुत्र शाबकुमार का एक सेवक उधर से गुजरा कि जहाँ मदिरा बह रही थी। उसे तृषा लगी थी, उसने वहाँ मदिरापान किया । मदिरा के स्वाद से वह हर्षित हुआ । उसने कुछ मदिरा भाजन में भर ली और छुपाकर शांबकुमार के पास ले आया। शांबकुमार ने मदिरापान किया। वह बहुत खुश हुआ । उसने सेवक से पूछा : ऐसी मदिरा त कहाँ से ले आया ? सेवक ने सारी बात बताई। दूसरे ही दिन शांबकुमार अनेक यादवयुवकों के साथ कादंबरी गुफा के पास गया । वहाँ उसने शिलाखंडों के बीच बहती हुई मदिरा की नदी को देखा ! वह हर्षोन्मत्त हुआ। उसने सेवकों से मदिरा मंगवाकर पीना शुरू किया। सभी ने पेट भरकर मदिरापान किया। सभी कुमार उन्मत्त बने । वहाँ से वापस लौटे । रास्ते में उन्होंने उस कदंब वन में द्वैपायन ऋषि को ध्यानस्थ अवस्था में खड़े हुए देखे । शांबकुमार द्वैपायन ऋषि को देखते ही बोला : यह तापस, हमारी द्वारिका . को और हमारे कुल को जलाकर मार देनेवाला है, इसलिए इसको ही मार डालें! यह मर जायेगा, फिर वह द्वारिका को कैसे जला देगा ? हमारे कुल को कैसे मारेगा ?' शांबकुमार की आज्ञा होते ही यादवकुमारों ने द्वैपायन ऋषि को मारना | अशरण भावना १४५ | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुरू किया। अत्यधिक शराब पीने से उन्मत्त तो थे ही...उन्होंने ऋषि को लातें मारी, मुष्ठीप्रहार किये, जमीन पर गिरा दिये । इतना मारा कि ऋषि मृतपायः हो गये । सभी यादवकुमार बाद में द्वारिका में अपने घरों में घुस गये ! । श्रीकृष्ण को यादवकुमारों का यह भयानक दुष्कृत्य मालुम हुआ । वे बहुत व्यथित हुए। उन्होंने सोचा : कुमारों ने वास्तव में यादवकुल का नाश करनेवाला दुष्कृत्य किया है । मुझे ऋषि के पास जाकर उनसे क्षमायाचना करनी ही होगी । ऋषि अत्यंत कोपायमान हुए होंगे । श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम को सारी बात बताई । वे भी दुःखी हुए । श्रीकृष्ण ने कहा : भैया, हमें द्वैपायन ऋषि के पास जाकर, उनसे क्षमायाचना करनी होगी। दोनों भाई द्वैपायन ऋषि के पास पहुँचे । उन्होंने द्वैपायन को देखा । द्वैपायन की आँखें क्रोध से लाल-लाल हो गई थी, जैसे दृष्टिविष सर्प की आँखें हो ! श्रीकृष्ण और बलराम ने ऋषि के चरणों में प्रणाम किया और विनय से उनके सामने बैठे। श्रीकृष्ण ने नम्रता से कहा : हे महर्षि, मेरे पुत्र मदिरापान से उन्मत्त थे, अंध बने थे। उन्होंने आपका बहुत बड़ा अपराध किया है । आपको बहुत कष्ट दिया है । वे अज्ञानी हैं, मोहान्ध हैं । आप ज्ञानी हैं, तपस्वी हैं, आप उनको क्षमा करें। आप क्रोध को शान्त करें...समता धारण करें । श्रीकृष्ण ने बहुत प्रार्थना की। द्वैपायन ने कहा : कृष्ण, तू मुझे उपदेश मत दें। जब तेरे पुत्रों ने मुझे मारा, मुझे मृतप्रायः कर दिया, उसी समय मैंने द्वारिका को, सभी यादवों के साथ जला देने का संकल्प किया है । तुम दोनों को जाने दूँगा द्वारिका के बाहर । इसलिए अब मुझे समझाने की आवश्यकता नहीं है । मैंने 'नियाणा' ही कर लिया है । नियाणा क्या होता है ? ___नियाणा का अर्थ जानते हो ? नहीं जानते हो। नियाणा बड़े उत्कृष्ट तपस्वी ही कर सकते है, सामान्य दुसरे नहीं । वैसे बडे तपस्वी लोग, किसी भी लालच से या रोष से अपनी तपश्चर्या का सौदा कर देते हैं । वे संकल्प करते हैं कि मेरी तपश्चर्या के फलस्वरूप मुझे ऐसी-ऐसी रिद्धि प्राप्त हो, सिद्धि प्राप्त हो ।' जैसे द्वैपायन ऋषि ने नियाणा किया कि मेरी तपश्चर्या के फलस्वरूप मैं द्वारिका को, सभी यादवों के साथ जला सकूँ...वैसी शक्ति मुझे प्राप्त हो !' * 'समरादित्यचरित्र' में अग्निशर्मा तापस ने नियाणा किया था कि “प्रति जन्म मैं गुणसेन राजा को मारनेवाला बनूँ !" | १४६ शान्त सुधारस : भाग । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्रौपदी ने पूर्वजन्म में नियाणा किया था जब वह साध्वी थी। उसने पाँच पति पाने का नियाणा किया था, इसलिए वह पाँच पांडवों की पत्नी बनी थी। * ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने पूर्वजन्म में जब वह साधु था, उसने चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न पाने का नियाणा किया था । घोर और उग्र तपश्चर्या से, तपस्वी जो चाहे वह उसे मिल जाता है । परंतु उस की वह तपश्चर्या उसको कर्मक्षय नहीं करवाती है और मोक्षप्राप्ति नहीं करवा सकती है । वह तपस्वी संसार में भटक जाता है । श्रीकृष्ण की द्वारिका में घोषणा : ___ जब द्वैपायन ने नियाणा की बात की, तब बलराम रोषायमान हो गये। उन्होंने श्रीकृष्ण को कहा : हे बंधु, इस संन्यासी को अब मनाना-समझाना व्यर्थ है। जिन के मुख, चरण, नासिका और हाथ टेढ़े होते हैं, जिनके होंठ, दांत और नासिका स्थूल होती हैं, जिनकी इन्द्रियाँ विलक्षण होती हैं और जो हीन अंगवाले होते हैं, वे कभी शान्ति नहीं पाते हैं । इनको क्या विशेष कहना ? भैया, सर्वज्ञ भगवंत का वचन मिथ्या नहीं होनेवाला है । जो होनेवाला है, वह होगा ही। बलराम श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर खड़े हुए । दोनों भाई निराश होकर वापस लौटे । दसरे दिन श्रीकृष्ण ने द्वारिका में घोषणा करवा दी : 'सभी नागरिक धर्म में विशेष रूप से तत्पर रहें। द्वारिका में सभी लोगों को द्वैपायन ऋषि के 'नियाणे की बात मालुम हो गई थी। इसलिए नगर में भय का वातावरण फैल गया था । लोगों ने तपश्चर्या और दान-शील की आराधना सच्चे भाव से शुरू कर दी थी। भगवान नेमनाथ गिरनार पर : उस समय भगवान नेमनाथ गिरनार पर पधारे । वहाँ देवों ने समवसरण की रचना की। श्रीकृष्ण सपरिवार, प्रभु की देशना सुनने समवसरण में गये । देशना सुनकर सभी श्रोता मोहनिद्रा त्याग कर जाग्रत बने । और यादवकुमार शांब, प्रद्युम्न, निषध, उल्मुक, सारण वगैरह ने विरक्त बनकर प्रभु के पास चारित्रधर्म स्वीकार किया, वे श्रमण-साधु बन गये । वैसे भी उनके मन में, द्वैपायन ऋषि को मारने का पश्चात्ताप भी था। उन कुमारों के कारण ही द्वैपायन ने द्वारिकादहन का नियाणा किया था न ? हालाँकि श्रीकृष्ण ने राजकुमारों को कुछ भी कहा नहीं था। परंतु | अशरण भावना १४७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान नेमिनाथ के उपदेश ने उनकी आत्मा को जाग्रत कर दी और वे साधु बन गये । उनके साथ साथ श्रीकृष्ण की रानियाँ रूक्मिणी, जांबवती वगैरह ने भी प्रभु के पास दीक्षा ले ली । श्रीकृष्ण ने प्रभु को पूछा : _ 'भगवंत, द्वैपायन द्वारिका का दहन कब करेगा ?' भगवंत ने कहा : कृष्ण, द्वैपायन आज से बारह वर्ष के बाद द्वारिका को जलायेगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण मन में सोचने लगे : समुद्रविजय वगैरह धन्य बन गये कि जिन्होंने पहले ही चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया, मैं ही धिक्कारपात्र हूँ कि मैं राजसुख में लुब्ध होकर . संसार में पड़ा रहा हूँ। . सर्वज्ञ भगवंत ने श्रीकृष्ण को कहा : कृष्ण, वासुदेव कभी चारित्रधर्म ले ही नहीं सकते हैं । क्योंकि वासुदेव जो होते हैं वे नियाणां से ही होते हैं । नियाणा से प्राप्त वासुदेवत्व, चारित्र नहीं लेने देता है । इतना ही नहीं, वासुदेव अधोगामीनरकगामी होते हैं । हे कृष्ण, मृत्यु के बाद तुम तीसरी वालुकाप्रभा' नाम नरक में जाओगे। यह सुनकर कृष्ण अति दुःखी हो गये । उनके मुँह पर अति ग्लानि छा गई। तब भगवंत ने कहा : हे वासुदेव, तुम दुःखी मत हो। तुम नरक का आयुष्य पूर्ण कर, इस भरतक्षेत्र में जन्म लोगे और तीर्थंकर बनोगे । कृष्ण ने पूछा : भगवंत, मेरे भ्राता बलराम की मुक्ति कब होगी ?' कृष्ण, मृत्यु के बाद बलराम ब्रह्मदेव लोक में देव बनेंगे । देव का आयुष्यकर्म पूर्ण होने पर वे मनुष्यजन्म पायेंगे । पुनः वे देव बनेंगे । वहाँ का आयुष्य पूर्ण होने पर इस भरतक्षेत्र में उत्सर्पिणी काल में मनुष्यजन्म पायेंगे । राजा बनेंगे और उस समय तुम तीर्थंकर बनोगे । तुम्हारे तीर्थ में ही वे दीक्षा लेंगे और मुक्ति पायेंगे। भगवंत ने जो भविष्यकथन किया, इससे कृष्ण कुछ आश्वस्त हुए । उन्होंने भगवंत को वंदना की । वे नगर में आये । पुनः उन्होंने नगर में घोषणा करवाकर लोगों को धर्मआराधना में विशेष रूप से प्रवृत्त किये। . द्वैपायन मरकर अग्निकुमार देव बना : द्वैपायन तापस उग्र तपश्चर्या करने लगा था । उसकी मृत्यु हुई, वह अग्निकुमार-निकाय में देव हुआ । पूर्वजन्म की दृढ़ की हुई वैरभावना जाग्रत हुई और वह द्वारिका में आया । उसने देखा तो द्वारिका के नगरजन विशेष रूप १४८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से तपश्चर्या कर रहे थे और परमात्मा की भक्ति कर रहे थे । धर्म के प्रभाव से वह नगर में कुछ भी उपद्रव नहीं कर सका । मन में रोष भरा हुआ था। वैर की अग्निज्वाला प्रज्वलित थी । वह ग्यारह वर्ष तक द्वारिका में रहा । इन्तजार करता रहा कि कब नगरजन प्रमादी बनें और धर्मआराधना छोड़कर पापाचरण करने लगे ! ___ जब बारहवाँ वर्ष आया, तब लोगों ने सोचा कि अपने तप के प्रभाव से द्वैपायन अपनी प्रतिज्ञा से भ्रष्ट होकर भाग गया लगता है । नगर जला नहीं, अपन भी जीवित हैं...अब चिंता की बात नहीं है। ऐसा सोचकर लोग मदिरापान करने लगे, अभक्ष्य खाने लगे और स्वच्छंद बनकर पापाचरण करने लगे। ... द्वैपायन तो (अग्निकुमार देव) छिद्र देख ही रहा था । उसको अवसर मिल गया । वह नाचने लगा। उसने तत्काल कल्पांतकाल जैसे उत्पात द्वारिका में उत्पन्न किये । लोगों को यमराज का तांडवनृत्य दिखाई दिया । आकाश में उल्कापात होने लगे । पृथ्वी काँपने लगी । ग्रहों में से धूम्र छूटने लगा। अंगारवृष्टि होने लगी । सूर्यमंडल में छिद्र दिखाई दिया । सूर्य और चन्द्र का ग्रहण होने लगा । महलों में लगी हुई पाषाण की पुतलियाँ अट्टहास्य करने लगी । चित्रों के देव हसने लगे। नगर में बाघ-सिंह जैसे हिंसक पशु फिरने लगे । बलराम का हल नाम का शस्त्र और श्रीकृष्ण का चक्र वगैरह आयुध नष्ट हो गये । और द्वैपायन ने-अग्निकुमार देव ने द्वारिका में आग लगा दी। विशेष बातें आगे करूँगा, आज बस इतना ही । | अशरण भावना भावना र १४९ १४९ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १४ अशरणभावना : संकलना द्वारिका जल रही है । माता-पिता को बचाने का प्रयत्न | ■ वसुदेव-देवकी - रोहिणी की मृत्यु । श्रीकृष्ण की घोर व्यथा-वेदना | ■ श्रीकृष्ण की मौत । ■ श्रीकृष्ण की अंतिम आराधना । जिनधर्म ही शरण | २ चारित्रधर्म ही शरण । बलराम का व्यामोह और दीक्षा । अनाथता - अशरणता और अनाथीमुनि । ■ अनाथीमुनि का आत्मवृत्तान्त । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतापैर्व्यापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितैर्गतं धैर्योद्योगैः श्लथितमथ पुष्टेन वपुषा । प्रवृत्तं तद्रव्यग्रहणविषये बान्धवजनै र्जने कीनाशेन प्रसभमुपनीते निजवशम् ॥३॥ उपाध्याय श्री विनयविजयजी कहते हैं : 'जब मनुष्य यमराज के बलात्कार का भोग बनता है तब उसका प्रताप नष्ट हो जाता है, उसका उदित तेज अस्त हो जाता है, उसका धैर्य और पुरुषार्थ विलय हो जाता है, पुष्ट शरीर शिथिल हो जाता है और उसके स्वजन, उसका धन-वैभव लेने के लिए प्रयत्नशील बन जाते हैं । मृत्यु के सामने मनुष्य सर्वथा दीन बन जाता है, यह है मनुष्य की घोर अशरणता !' यादवों से मरी हुई द्वारिका जल रही है : द्वैपायन, जो कि अग्निकुमार देव बना है, उसने श्रीकृष्ण का चक्र और बलदेव का हल - शस्त्र नष्ट कर दिये। उसने संवर्तक वायु प्रवर्तित किया । उस वायु से चारों दिशाओं में से तृण, काष्ठ वगैरह द्वारिका में भर गये। लोग जब चारों दिशाओं में भागने लगे तब अग्निकुमार उन लोगों को द्वारिका में पकड़कर लाया, दिशा - विदिशाओं में से वृक्षों को लाकर द्वारिका में डाले और सभी यादवों को द्वारिका में बंद कर दिये। बाद में द्वैपायन ने आग जलायी । समग्र द्वारिका जलने लगी । अग्निज्वालाएँ आकाश को छूने लगी । कृष्ण और बलराम का प्रताप नष्ट हो गया था, तेज अस्त हो गया था, धैर्य और पुरुषार्थ विलीन हो गये थे । वे अशरण - असहाय बनकर जलती हुई द्वारिका को देख रहे थे । माता-पिता को बचाने का प्रयत्न : 1 श्रीकृष्ण और बलराम ने वसुदेव, देवकी और रोहिणी को आग से बचाने के लिए रथ में बिठाये, परंतु द्वैपायन- देव ने रथ के अश्वों को स्तंभित कर दिये । अश्व एक कदम भी चल नहीं सके । श्रीकृष्ण ने रथ के आगे बलिष्ठ वृषभों को जोड़े। वृषभ - बैल भी स्तंभित हो गये। श्रीकृष्ण ने वृषभों को भी रथ से मुक्त कर दिये और वे दोनों भाई रथ को खींचने लगे । वहाँ रथ की धुरा टूट गई। फिर भी बड़ी मुश्किल से वे रथ को नगर के दरवाजे तक ले आये । उस समय नगर के दरवाजे बंद हो गये । माता-पिता चिल्लाने लगे 'हे राम, कृष्ण, हमारी रक्षा करो... हमें बचा लो...। द्वारिका जल रही थी, क्रोडों यादव १५१ अशरण भावना Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल रहे थे । घोर चित्कार सुनाई देता था । प्रलय का दृश्य रचा गया था। राम और कृष्ण माता-पिता को बचा लेने के लिए कृतनिश्चयी थे। उन्होंने लात मारकर नगर का दरवाजा तोड़ दिया । परंतु रथ के पहिये जमीन में फँस गये थे । राम और कृष्ण भरसक प्रयत्न करने लगे रथ को बाहर निकालने के लिए, परंतु निराश हो गये । उस समय द्वैपायन-देव ने वहाँ प्रकट हो कर कहा : 'अरे राम-कृष्ण, तम्हें यह क्या हो गया है ? मैंने तुम्हें कहा था कि द्वारिका में केवल तुम दो भाई ही बचोगे । तुम दोनों के अलावा कोई भी अग्नि से बच नहीं पायेगा । क्योंकि मैंने मेरा तप बेच दिया है...नियाणा कर दिया है...। वसुदेव-देवकी-रोहिणी की मृत्यु : देव के वचन सुनकर देवकी और वसुदेव ने कहा : 'अब तुम चले जाओ, तुम दो भाई जीवित रहोगे तो सभी यादव जीवित है । अब हमें बचाने का ज्यादा पुरुषार्थ मत करो। तुमने बहुत प्रयल किया, परंतु भवितव्यता बलवती और दुर्लंघ्य होती है। हम अभागी हैं, हमने भगवान नेमनाथ के पास चारित्रधर्म लिया नहीं...दीक्षा ली नहीं । अब हमें हमारे कर्मों का फल भोगना ही होगा। फिर भी बलरामकृष्ण वहाँ ही खड़े रहे । वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने आँखें मूंद ली और बोले : हमें जगद्गुरु भगवान नेमनाथ की शरण हैं । हम अनशन करते हैं । चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हैं । हे प्रभो, हम आपके शरणागत हैं । अरिहंत, सिद्ध, साधु और अर्हतकथित धर्म की शरण स्वीकार करते हैं । हम किसी के नहीं हैं, हमारे कोई नहीं हैं । इस प्रकार बोलकर वे श्री नवकारमंत्र के ध्यान में लीन बने । उस समय द्वैपायन ने उन पर अग्निवर्षा की। तीनों की मृत्यु हुई और वे देवलोक में उत्पन्न हुए। श्रीकृष्ण की घोर व्यथा-वेदना : बलराम के साथ श्रीकृष्ण द्वारिका के बाहर निकले । बाहर जो जीर्णोद्यान था, उस उद्यान में गये । वहाँ एक छोटी-सी पहाड़ी थी, उस पर खड़े होकर जलती हुई द्वारिका को देखने लगे। श्रीकृष्ण ज्यादा समय देख नहीं सके। उन्होंने बलराम को कहा : 'भय्या, मैं नपुंसक जैसा बन गया हूँ, धिक्कार है मुझे, मैं असहाय...अशरण बनकर मेरी द्वारिका को जलती हुई देख रहा हूँ । हे आत्मबंधु, जिस प्रकार मैं नगरी की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, वैसे उसको अब जलती | १५२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई देखने के लिए भी समर्थ नहीं हूँ । चले, यहाँ से चल दें। अब अपन कहाँ चलेंगे ?' जरा-सा चिंतन करें इस घटना पर। अपने आपको असहाय - अशरण महसूस करनेवाले श्रीकृष्ण के भव्य भूतकाल पर एक दृष्टि डालें । कभी... कहीं भी कृष्ण हारे नहीं, बचपन से अभी तक कहीं भी वे निराश नहीं हुए। वे दूसरों के सहारा बने थे, आज वे स्वयं असहाय बने हैं । जिनके प्रति उनको अत्यंत स्नेह था, लगाव था, वैसे माता-पिता को वे बचा नहीं पाये । उनके देखते-देखते वे आग में भस्मीभूत हो गये । श्रीकृष्ण को शिशुपाल की सभा में देखो, श्रीकृष्ण को युद्ध के मेदान पर अर्जुन के रथ में देखो। पांडवों की राजसभा में देखो...। उनकी स्मितसभर मुखमुद्रा को देखो... उनकी अँगुलि पर घुमते हुए चक्ररत्न को देखो ! उनके विराट स्वरूप को देखो... और आज दीन-हीन बने... निराशा से घिरे हुए श्रीकृष्ण को देखो ! आज उनका प्रताप, प्रभाव, शौर्य, साहस, बुद्धि... कुछ भी नहीं बचा। दोनों भाई उस उद्यान से चल पड़े... नैर्ऋत्य दिशा में पांडवों की नगरी की ओर चल पड़े। श्रीकृष्ण की मौत : बलराम के साथ जंगलों में से चलते-चलते वे कौशाम्बी नगरी के बाह्य वन में पहुँचे । ग्रीष्मकाल था, श्रम था, शोक था और पुण्यक्षय था, श्रीकृष्ण अत्यधिक तृषातुर हुए । उन्होंने बलराम को कहा: 'बंधु, अति तृषा से मेरा मुँह सुख गया है...इस वृक्षघटावाले वन में भी अब मैं एक कदम भी चलने में समर्थ नहीं ।' बलराम ने कहा : 'मेरे भाई, मैं अभी पानी लेने जाता हूँ । तुम इस वृक्ष के नीचे विश्राम करो, परंतु अप्रमत्त होकर बैठना, मैं अभी वापस आता हूँ ।' I बलराम पानी लेने गये । कृष्ण अति श्रमित हो गये थे । वे एक पैर के ऊपर दूसरा पैर चढ़ाकर, पीला वस्त्र ओढ़कर वृक्ष के नीचे सो गये । अल्प क्षणों में ही सो गये । बलराम ने जाते-जाते भी कृष्ण को एक क्षण भी प्रमाद नहीं करने को कहा था । इतना ही नहीं, उन्होंने वनदेवियों से प्रार्थना की थी: 'हे वनदेवियाँ, मेरा यह अनुज बँधु आपकी शरण में है, इसलिए इस विश्ववत्सल पुरुष की रक्षा करना।' परंतु भवितव्यता को कौन मिथ्या कर सकता है ? उसी जंगल में बारह वर्षों से जराकुमार रहता था । उसने व्याघ्रचर्म पहना था । हाथ में धनुष्य-बाण था, अशरण भावना १५३ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकारी बन गया था । फिरता-फिरता उस प्रदेश में आया कि जहाँ श्रीकृष्ण सोये थे । दूर से जराकुमार ने देखा...जिस प्रकार कृष्ण सोये थे, जराकुमार ने मृग की कल्पना की...मृग समझकर उसने तीर चला दिया । कृष्ण के चरणतल में तीर लगा। तीर लगते ही कृष्ण बैठ गये और बोले : अरे, मैं निरपराधी हूँ...मुझे किसने तीर मारा? आज दिन तक कभी भी अपना परिचय दिये बिना मेरे पर प्रहार नहीं किया है । इसलिए जिसने भी मुझे तीर मारा है वह अपना नाम और गोत्र कहें । ___ यह प्रश्न वृक्षघटा में रहा हुआ जराकुमार सुनता है । हालाँकि उसे अपनी .. भूल महसूस हुई, 'मैंने मृग समझकर तीर मारा, परंतु यह तो मनुष्य है !' कृष्ण का प्रश्न सुनकर वह बोला : मैं हरिवंशीय वसुदेव का पुत्र हूँ । जरादेवी मेरी माता है, मेरा नाम जराकुमार है । मैं श्रीकृष्ण का अग्रज हूँ। भगवंत नेमनाथ के वचन सुनकर मैं इस वन में आकर बारह वर्षों से रह रहा हूँ। मेरे हाथ से श्रीकृष्ण की मौत न हो...इस भावना से यहाँ रहता हूँ । बारह वर्षों में मैंने इस वन में किसी मनुष्य को नहीं देखा है। आप कौन हैं ?' ___ कृष्ण बोले : हे बंधु, तूं यहाँ आ जा । मैं ही तेरा अनुज कृष्ण हूँ। जिसके लिए वनवासी बना है । हे बंधु, तेरा बारह वर्ष का वनवास निरर्थक सिद्ध हुआ। यह सुनकर जराकुमार श्रीकृष्ण के पास आया । कृष्ण को देखते ही वह मूर्छित हो गया। मूर्छा दूर होने पर जराकुमार करुण रूदन करने लगा। बोला - 'मेरे प्राणप्रिय भ्राता, यह क्या हो गया ? आप यहाँ कैसे आ गये ? क्या द्वारिका जल गई? क्या यादवों का विनाश हो गया ? आपकी यह स्थिति देखते हुए मुझे लगता है कि भगवान नेमनाथ के वचन सिद्ध हुए हैं। श्रीकृष्ण ने सारा वृत्तांत सुनाया । जराकुमार रोते-रोते बोला : मेरे भ्राता, मैंने शत्रु जैसा काम किया है...मृग समझकर मैंने तीर चला दिया...। आप जैसे भ्रातृवत्सल, विश्ववत्सल महापुरुष को मैंने मारा, मुझे नरक में भी जगह नहीं मिलेगी । आपकी रक्षा की भावना से मैंने वनवास लिया, परंतु मैं नहीं जानता था कि विधि ने मुझे ही आपकी मृत्यु का निमित्त बनाया है । हे पृथ्वी, तू मुझे जगह दे, मैं इसी शरीर से नरक में चला जाऊँ । क्योंकि मेरे लिए भ्रातृहत्या का दुःख, सभी दुःखों से बड़ा दुःख है । अब यहाँ मुझे नरक से भी ज्यादा दुःख लगता है । जिस समय भगवान नेमनाथ ने भविष्यकथन किया था, उसी समय मुझे आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी। | १५४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकृष्ण ने जराकुमार को सान्त्वना देते हुए कहा : मेरे बड़े भैया, अब शोक नहीं करें । मेरे से, आप से और किसी से भी भवितव्यता का उल्लंघन नहीं हो सकता । यादवकुल में अब आप ही एक बचे हो । आप चिरकाल जीयें इसलिए अब एक क्षण का भी विलंब किये बिना आप यहाँ से चले जाओ। क्योंकि बलराम अभी पानी लेकर आयेंगे, वे क्रोध से तुम्हें मार डालेंगे । लो, मेरा यह कौस्तुभ रत्न और पांडवों के पास चले जाओ । उनको सत्य वृत्तांत सुना देना । मेरी ओर से सभी पांडवों से क्षमापना करना । श्रीकृष्ण की अंतिम आराधना : ___ जराकुमार ने श्रीकृष्ण के चरण में से तीर खींच लिया, कौस्तुभ रत्न लिया और वहाँ से चल दिया । जराकुमार के जाने के बाद, श्रीकृष्ण तीर के आघात से अत्यंत पीडित होते हुए भी उत्तराभिमुख होकर, अंजलि जोड़कर बोले : ___अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुभगवंतों को मन-वचन-काया से मेरा नमस्कार हो । विशेषरूप से भगवान नेमिनाथ को मेरा नमस्कार है कि जिन्होंने इस पृथ्वी पर धर्मतीर्थ की प्रवर्तना की। इतना बोलकर वे तृण के संथारे पर सो गये, जान पर चरण रखा, पीला वस्त्र ओढ़ लिया और चिंतन करने लगे : 'रूक्मिणी वगैरह मेरी रानियों को धन्य है, शांब, प्रद्युम्न वगैरह राजकुमारों को धन्य है कि जिन्होंने गृहवास का त्याग कर परमात्मा के चरणों में चारित्रधर्म ले लिया ! मुझे धिक्कार है कि मैं इस दुःखपूर्ण संसार में पड़ा रहा...!' इस प्रकार शुभ भावना भाते-भाते श्रीकृष्ण का शरीर भीतर से टूटने लगा। यमराज के सहोदर जैसा वायु शरीर में प्रकुपित हुआ। तीव्र तृषा, अत्यधिक शोक और प्रकुपित वायु ने श्रीकृष्ण के विवेक को सर्वथा नष्ट कर दिया। उनका मन अंतिम क्षणों में अशुभ-रौद्र ध्यान में चला गया : उस द्वैपायन ने मेरा घोर पराभव किया...फिर भी अभी यदि यहाँ आये तो क्षणमात्र में उसको मार डालूँ... रौद्रध्यान में उनकी मृत्यु हो गई । एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण हुआ । मरकर वे तीसरी नरक में चले गये ।। उपाध्यायश्री सकलचंद्रजी की सज्झाय याद आती है : हय गय पय रथ क्रोडे विंटया, रहे नित राणाराय रे, बहु उपाय ते जीवन काजे करता अशरण जाय रे... को नवि शरणं, को नवि शरणं, मरता कुणने प्राणी रे... | अशरण भावना १५५ | Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकृष्ण की कहाँ और कैसी मृत्यु हुई ? एक घोर-भयंकर जंगल में मृत्यु हुई । अपने ही भ्राता के द्वारा मृत्यु हुई । पास में कोई नहीं, बलराम भी नहीं ! कैसी अशरणता ? अशरणता का इससे बढ़कर कौन-सा दृष्टांत मिलेगा इस दुनिया में ? जिनधर्म ही शरण : चारित्रधर्म ही शरण : ग्रंथकार उपाध्यायश्री विनयविजयजी कहते हैं : स्वजनजनो बहुधा हितकामं प्रीतिरसैरभिरामम् । मरणदशावशमुपगतवन्तम्, रक्षति कोऽपि न सन्तम् । विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् । अनुसंधीयतां रे शुचितर चरण-स्मरणम् ॥७॥ विनय. 'हितकारी और प्रीतिपात्र सज्जन लोग, जब मृत्यु के महासागर में डूबते होते हैं. तब कोई भी स्वजन उनको बचा नहीं सकते । इसलिए हे आत्मन, तु महामंगलकारी जिनधर्म की ही शरण ले लें और अत्यंत निर्मल चारित्रधर्म का स्मरण कर । यह धर्म ही तुझे बचा सकेगा। कितनी सच्ची-वास्तविक बात कही है ग्रंथकार ने ? श्रीकृष्ण को मृत्यु से कोई नहीं बचा सका ! बलराम भी बचा नहीं पाये । वैसे बलराम को वासुदेव के ऊपर अनहद-अपार प्रेम होता है। श्रीकृष्ण भी प्रीतिपात्र युगपुरुष थे। लाखोंकरोड़ों जीवो के हितकारी थे, फिर भी वे बच नहीं पाये । बलराम का व्यामोह और दीक्षा : __बलराम पानी लेकर श्रीकृष्ण के पास आये, तब कृष्ण की मृत्यु हो चुकी थी। परंतु बलदेव मानने को तैयार नहीं थे कि कृष्ण मर गये हैं । ६ महीने तक श्रीकृष्ण को जीवित मानते हुए, उनके मृतदेह को उठाकर पृथ्वी पर फिरते रहे। उस समय बलराम का सारथि सिद्धार्थ, जो कि दीक्षा लेकर, संयम धर्म की अच्छी आराधना कर देव बना था, उसने अवधिज्ञान से देखा कि बलराम अत्यंत व्यथित हैं और कृष्ण को जीवित मानकर, उनका मृतदेह उठाकर फिर रहे थे । देव को याद आया कि मुझे बलराम ने दीक्षा की अनुमति देते समय मेरे से वचन माँग लिया था कि : तू चारित्रधर्म के प्रभाव से देवलोक में देव बने और जब मुझे आपत्ति आये तब तू आना और मुझे प्रतिबोधित करना । मुझे इस समय उनके पास जाना चाहिए और प्रतिबोध देकर, कृष्णमोह दूर कराकर, शान्त सुधारस : भाग १ १५६ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी आत्मा को जगानी चाहिए। सिद्धार्थ-देव मनुष्यरूप धरकर पृथ्वी पर आता है। अनेक उपाय कर बलराम को प्रतिबोध देता है । बलदेव का व्यामोह दूर होता है । सिद्धार्थ-देव अपना मूलरूप - देवरूप प्रगट करता है, अपना परिचय देता है । उसने कहा : मैं आपका सारथि सिद्धार्थ हूँ । दीक्षा लेकर, उसका पालन कर, मैं देव हुआ हूँ। आपने मेरे से वचन लिया था, उस वचन का पालन करने यहाँ आया हूँ। आपको प्रतिबोध देने का कर्तव्य मैंने निभाया है । हे पूज्य, भगवान् नेमनाथ ने कहा था कि जराकुमार से कृष्ण की मृत्यु होगी, वैसे ही हुआ है । सर्वज्ञवचन कभी भी मिथ्या नहीं होता है । श्रीकृष्ण ने जराकुमार को अपना कौस्तुभरत्न देकर पांडवों के पास भेजा है। बलराम ने देव को कहा : सिद्धार्थ, तुमने यहाँ आकर मुझे बोध दिया, बहुत अच्छा किया। परंतु भ्राता की मृत्यु से मैं अत्यंत व्यथित हूँ। अब मैं क्या करूँ ? मुझे मार्ग बताओ। सिद्धार्थदेव ने कहा : 'आप भगवान नेमिनाथ के विवेकी भ्राता हैं । आपके लिए अब चारित्रधर्म ही शरणभूत है । बलराम ने कहा : 'अच्छी बात है । संसार के प्रति मेरा मन विरक्त बना ही है । भ्राता के बिना संसार में रहना, मेरे लिए असंभव है । बलराम ने सिंधु और सागर के संगम पर जाकर, श्रीकृष्ण के देह का अग्निसंस्कार कर दिया । उस समय भगवान नेमिनाथ ने बलराम के चारित्र के भाव देखकर, एक विद्याधर मुनिवर को आकाशमार्ग से वहाँ भेजा । बलराम ने उस मुनिराज के पास दीक्षा ले ली । श्री जिनधर्मः शरणम् । शुचितरचरण-स्मरणम् । बलराम मुनि ने श्रीजिनधर्म की शरण ले ली और पवित्र चारित्रधर्म का पालन करने लगे। अनाथता-अशरणता और अनाथीमुनि : अब मैं इसी संदर्भ में अनाथीमुनि का वृत्तांत सुनाऊँगा, जो उत्तराध्यन-सूत्र में मिलता है और उत्तराध्ययन-सूत्र तो भगवान महावीर स्वामी की अंतिम देशना थी । यानी अनाथीमुनि की कहानी स्वयं भगवान महावीर ने सुनाई हुई है । १५७ अशरण भावना Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराजा श्रेणिक, राजगृहीनगरी के बाहर मंडितकुक्षी नाम के उद्यान में घूमनेफिरने आये थे । मंडितकुक्षी उद्यान नंदनवन जैसा सुंदर था। उस उद्यान में एक वृक्ष के तले बैठे हुए सुकोमल और समाधिमग्न युवा मुनि को देखा । मुनि को देखकर श्रेणिक राजा को बड़ा आश्चर्य होता है । वह सोचता है : इस मुनि का गौररूप, आकार वगैरह अपूर्व और अलौकिक है । इसके मुँह पर अद्भुत सौम्यता है, चमत्कारिक क्षमाभाव है और अद्वितीय निःस्पृहता दिखती है । राजा ने मुनिराज के चरणों में वंदना की, तीन प्रदक्षिणा दी और विनय से मुनिराज के सामने बैठा। __ मस्तक पर अंजलि रचाकर, राजा ने मुनिराज को प्रश्न पूछा : 'हे मुनि, आप तरुण हैं, युवक हैं, यह आपकी विषयभोग की उम्र है । इस उम्र में आप क्यों साधु बन गये ? कोई ऐसा कारण होगा, जिसकी वजह से आप साधु बने हो । मेरी जिज्ञासा है वह कारण जानने की । ___ मुनि ने राजा के सामने देखा । उसकी आँखों में झाँका और बोले : 'राजन, मैं अनाथ हूँ, अशरण हूँ । मेरा योग-क्षेम करनेवाला नाथ' मुझे मिला नहीं, कोई शरणदाता करुणावंत पुरुष मिला नहीं, कोई वैसा स्नेही-स्वजन-मित्र मिला नहीं, इसलिए यौवनकाल में मैं साधु बना ।। ___ मुनिराज की बात सुनकर राजा श्रेणिक हँसने लगे। उन्होंने कहा : हे आर्य, ऐसा ही है, तो मैं आपका नाथ बनूँगा । और यदि मैं नाथ बना तो आपको अनेक मित्र, स्वजन, स्नेही मिलेंगे। बस, आप वैषयिक सुख भोगते रहें और मनुष्यजन्म को सफल करें। यह सुनकर मनि के मुँह पर स्मित उभर आया। वे बोले : हे मगधाधिपति. तूं स्वयं अनाथ है, तूं मेरा नाथ कैसे बनेगा ?' अप्पणा वि अणाहोसि सेणिया मगहाविहा । अप्पणा अणाहो संतो कहं मे भविस्ससि ? ॥ __ वैसे भी श्रेणिक पहले ही मुनि के रूप-गुण से विस्मित था ही, परंतु जब मुनि के इस प्रकार वचन सुने तब वह अत्यंत विस्मित हुआ, अत्यंत संभ्रमित हुआ और बोला : ___ हे मुनि, मेरे पास हाथी, घोड़े और अंतःपुर है । मैं हजारों गाँव-नगरों का मालिक हूँ। मैं मनुष्ययोग्य विपुल भोग भोगता हूँ। मैं मगधदेश का शासक हूँ । अनेक शान्त सुधारस : भाग १ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामंत राजा मेरी आज्ञा मानते हैं। मेरे पास विपुल समृद्धि है, मेरा अद्वितीय ऐश्वर्य है । मेरे पास उत्कृष्ट संपत्ति है और प्रजाजनों की कामनाओं को पूर्ण करनेवाला मैं हूँ, फिर मैं अनाथ कैसे ? हे मुनि, जिसके पास कुछ भी नहीं होता है वह अनाथ कहलाता है । मैं सर्वसंपत्ति का नाथ हूँ, मैं अनाथ नहीं हूँ । हे आर्य, आप असत्य नहीं बोले। हे राजन्, मैंने किस अर्थ में, किस अभिप्राय से अनाथ' शब्द का प्रयोग किया है, यह संदर्भ आप नहीं जानते ! अनाथता और सनाथता के मूल कारण आप नहीं जानते । हे राजेश्वर, मैंने मेरे लिये जो अनाथ' शब्द का प्रयोग किया, उसका कारण आप सुनें, चित्त को स्थिर कर सुनें । अनाथीमुनि का आत्मवृत्तांत : मैं कौशंबीनगरी का निवासी था। मेरे पिता के पास कुबेर के समान संपत्ति थी। मैं जब युवावस्था में आया, तब एक सुंदर और गुणनिधान लड़की से मेरी शादी कर दी थी। मैं संसार के श्रेष्ठ सुख भोगता था । ___ एक दिन मेरी आँखों में तीव्र दर्द उत्पन्न हुआ। मेरे शरीर के भीतर सभी अवयवों में तीव्र दाह पैदा हो गया । संपूर्ण शरीर में जलन पैदा हो गई । जैसे कोई दुष्ट शत्रु कान-नाक वगैरह इन्द्रियों में तीक्ष्ण शस्त्र-प्रहार करे और जो पीड़ा हो, वैसी मेरी नेत्रवेदना थी। ___ कमर के बाहर और भीतर, वक्षःस्थल के बाहर और भीतर एवं मस्तक में मुझे घोर वेदना हो रही थी । एक क्षण भी मुझे चैन नहीं था। एक पल भी मुझे सुख नहीं था। मेरे पिता, मेरी माता, मेरी पत्नी, मेरे भाई-बहन... कोई भी मुझे मेरी इस घोर-तीव्र वेदना से बचा नहीं सकते थे। ___ मेरे अति पुत्रवत्सल पिता ने शास्त्रकुशल वैद्य बुलाये, औषध मंगवाये, अनेक परिचारक उपस्थित किये। वे वैद्यराज मेरी चिकित्सा करने लगे, परंतु मुझे रोगमुक्त नहीं कर पाये, यह मेरी पहली अनाथता थी । मेरे पिता का मेरे प्रति अगाध प्रेम था, वैद्यों ने मेरे लिए जो जो मूल्यवान् औषध मंगवाये, सभी औषध, सभी पदार्थ लाकर दिये, तो भी पिताजी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर पाये, यह मेरी दूसरी अनाथता थी । । ___ हे राजेश्वर, पुत्रवत्सल मेरी प्यारभरी माता, मेरे दुःख से अति शोकार्त बनी हुई थी, वह भी मुझे रोगमुक्त नहीं कर सकी, यह मेरी तीसरी अनाथता थी। अशरण भावना १५९ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे महाराजा, मेरे छोटे और बड़े भाई मेरे प्रति अत्यंत अनुरागवाले थे, वे भी मुझे रोगमुक्त – दुःखमुक्त नहीं कर पाये, मेरी यह चौथी अनाथता थी। __ हे मगधाधिपति, मेरी छोटी-बड़ी बहनें, जो मेरा दर्द देखकर रो रही थी, वे भी मुझे मेरी तीव्र वेदना से मुक्त नहीं कर पायी, यह मेरी पाँचवी अनाथता थी। __हे श्रेणिकराजा, मेरी रूपवती और पतिव्रता पत्नी, आँसु बहाती हुई मेरी छाती को भिगो रही थी, वह भी मेरा दुःख दूर नहीं कर सकी थी, यह मेरी छट्ठी अनाथता थी । मेरी पत्नी ने भोजन, स्नान, विलेपन, जलपान वगैरह त्याग दिया था । मेरे पास ही खड़ी रहती थी । मुझे छोड़कर एक क्षण भी दूर नहीं जाती थी...फिर भी मैं वेदनामुक्त नहीं हुआ, यह मेरी कैसी करुण अशरणता थी ? राजा श्रेणिक दत्तचित्त होकर अनाथीमुनि का वृत्तांत सुन रहे थे । उनको जीव की अनाथता का, अशरणता का ख्याल आ रहा था। उसने पूछा : हे मुनिवर, जब कोई औषध काम नहीं आया, तब आपके पिता ने क्या किया? आप रोगमुक्त कैसे हुए ? आज, बस इतना ही । | १६० शान्त सुधारस : भाग १ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १५ अशरणभावना ―――― ३ संकलना मृत्यु के सामने अशरणता । वृद्धावस्था के सामने अशरणता । उग्र रोगों के सामने अशरणता । ■ अनाथीमुनि का आत्मवृत्तान्त । अपने और दूसरों के नाथ कैसे बनें । संसार में जीव अनाथ अशरण । साधु भी अनाथ अशरण | कैसे ? संभूतमुनि: नियाणा, चक्रवर्ती, ७ वीं नरक | ■ संभूतमुनि का मानसिक पतन । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुरगरथेभनरावृत्तिकलितं दधतं बलमस्खलितम् । " हरति यमो नरपतिमपि दीनं मैनिक इव लघु मीनम् ॥ २ ॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् । प्रविशति वज्रमये यदि सदने, तृणमथ घटयति वदने । तदपि न मुञ्चति हत समवर्ती, निर्दयपौरुषनतीं ॥ ३ ॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् । विद्यामन्त्रमहौषधिसेवां, सृजतु वशीकृतदेवाम् । रसतु रसायनमुपचयकरणं, तदपि न मुञ्चति मरणम् ॥ ४ ॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् ॥ मृत्यु के सामने अशरणता : उपाध्याय श्री विनयविजयजी जीवात्मा की अशरणता बताते हुए फरमाते हैं : 'जिस प्रकार मच्छीमार छोटी-छोटी मछलियों को सरलता से पकड़ लेता है, वैसे यमराज अश्व-रथ- हाथी और पदाति सैन्य से सज्ज एवं अप्रतिम बलवाले राजाओं को पकड़ लेता है । भले ही वे राजा यमराज के सामने दीनता करते हों । महाकाल से बचने के लिए कोई मनुष्य वज्र के घर में छिप जायं अथवा मुँह में तृण लेकर उस यमराज के सामने अपनी हार मान ले, फिर भी वह निर्दय यमराज किसी को छोड़ता नहीं है । देवों को आधीन करनेवाले मंत्र, विद्याएँ अथवा औषधियों का प्रयोग करें, आप के शरीर को पुष्ट करनेवाले रसायनों का सेवन करें, फिर भी मृत्यु तुम्हें छोड़नेवाली नहीं है । वृद्धावस्था के सामने जीव की अशरणता : मृत्यु के सामने जीव की अशरणता अनाथता का यह अद्भुत वर्णन है । वैसे वृद्धावस्था' के सामने भी जीव की कैसी अशरणता है, उसका वर्णन भी सुनें : वपुषि चिरं निरुणद्धि समीरं पतति जलधिपरतीरम् । शिरसि गिरेरधिरोहति तरसा, तदपि स जीर्यति जरसा ॥ ५ ॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् । सृजतीमसितशिरोरुहललितं मनुजशिरः सितपलितम् । १६२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को विदधानां भूधनमरसं प्रभवति रोर्बु जरसम् ॥६॥ विनय विधीयतां रे श्रीजिनधर्मशरणम् ।। भले ही आप दीर्घकाल तक प्राणायाम करें, श्वासनिरोध करें, भले ही समुद्र के उस पार जाकर रहें, भले ही ऊँचे पहाड़ के शिखर पर जाकर रहे, परंतु एक दिन तुम्हारा इस देह का पिंजरा जीर्ण होनेवाला ही है ! यानी वृद्धावस्था आनेवाली श्याम केश से शोभित सिर को श्वेत कर देनेवाली और सुंदर शरीर को शुष्क कर देनेवाली जरा - वृद्धावस्था को रोकने में कौन समर्थ है ? कोई भी शक्तिमान नहीं है। वृद्धावस्था से बचने का एक ही मार्ग होता है । वृद्धावस्था के पूर्व ही यदि आयुष्य पूर्ण हो जायं, मृत्यु हो जायं तो बच सकते हो वृद्धत्व से । उग्र रोगों के सामने जीव की अशरणता : उद्यत उग्रस्जा जनकायः कः स्यात् तत्र सहायः ? एकोऽनुभवति विधुस्परागं, विभजति कोऽपि न भागम् ॥ . विनय ! विधीयतां रे श्रीजिनधर्मः शरणम् । जब मनुष्य के शरीर में उग्र रोग पैदा होते हैं, तब उसको कौन बचा सकता है ? कोई भी नहीं । राहु की पीड़ा अकेला चन्द्र ही सहन करता है, वैसे तुम्हार रोगों की पीड़ा तुम्हें अकेले को ही सहने की है। उसमें कोई भी हिस्सा नहीं बँटाता है। ___ यही बात, राजगृही के मंडितकुक्षी नाम उद्यान में अनाथीमुनि राजा श्रेणिक को अपने ही वृत्तांत से बता रहे थे। कल मैंने आपको यह वृत्तांत सुनाया था न ? उस पर आपने घर जाकर चिंतन-मनन किया था न ? याद रखना, ये प्रवचन भावनाओं के विषय में चल रहे हैं। पुनः पुनः चिंतन करना ही भावना है। अनित्यता का पुनः पुनः चिंतन करना है। अशरणता का बार-बार चिंतन करना है। तभी ये भावनाएँ आत्मस्पर्शी बनेंगी। मैं अशरण हूँ इस संसार में यह अनुभूति तब होगी। अनाथिमुनि का आत्मवृत्तान्त : राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में मुनिराज ने कहा : मैंने मेरे मन में सोचा, संकल्प किया कि इस तीव्र - विपुल वेदना से यदि एक बार मैं मुक्त हो जाऊँ तो क्षमावान बनानेवाली, इन्द्रिय और मन का विजेता बनानेवाली और अनारंभी । अशरण भावना १६३ | Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनानेवाली साधुता का स्वीकार कर लूँ ! सयं च जइ मुच्चिज्जा वेअणा विउला इसो । खंतो दन्तो निरारंभो पव्वइए अणगारिअं ॥ ३२ ॥ उत्तराध्ययन/अ-२० हे राजन्, इस प्रकार चिंतन करते-करते मुझे नींद आ गई ! कई दिनों से मुझे नींद नहीं आ रही थी। मैं निद्राधीन हो गया शुभ चिंतन के प्रभाव से । रात्रि पूर्ण होने पर मेरी वेदना नष्ट हो गई । मेरी आँखों की वेदना... मेरे शरीर का दाहज्वर... वगैरह सभी प्रकार का दर्द उपशान्त हो गया ! 1 राजेश्वर, प्रभात में मैंने मेरे माता-पिता वगैरह स्वजनों को मेरा संकल्प कह सुनाया। शुभ संकल्प का प्रभाव बताया। उनसे मैंने साधु बनने की इजाजत ली और मैं साधु बन गया । कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन और आरंभसमारंभ के त्यागवाली साधुता का पालन करने लगा । हे राजन्, तब मैं नाथ बना, सनाथ बना ! अपना नाथ बना, दूसरे जीवों का भी नाथ बना । श्री उत्तराध्ययन-सूत्र में कहा गया है : तओहं नाहो जाओ, अप्पाणो य परस्य य । सव्वेसिं चेव भूआणं तसाणं थावराण य ।। ३५ ।। अपने और दूसरों के नाथ कैसे बनें ? मुनिराज श्रेणिक को बता रहे हैं: राजन्, अणगार बनने के बाद मैं स्वयं का नाथ बना और त्रस - स्थावर सभी जीवों की रक्षा करनेवाला नाथ बना । राजन्, मैं अपने आपका नाथ कैसे बना, यह पहले बताता हूँ । अप्पा नई वेअरणी, अप्पा मे अप्पा कामदुहा धेणू अप्पा मे अप्पा कत्ता विकत्ताय दुहाणय सुहाणय । १६४ उ. अ. २० अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय- सुपट्ठिओ ॥ 'आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही वज्रकंटकोंवाला शाल्मली वृक्ष कूडसाल्मणी । नंदणं वणं ॥ है । आत्मा ही कामदुग्धा धेनु है और आत्मा ही नंदनवन है ! आत्मा ही सुखदुःख का कर्ता है, आत्मा ही मित्र है और आत्मा ही शत्रु है ।' जब तक जीव संसार में विषय-कषायों में मग्न रहता है, तब तक वैतरणी शान्त सुधारस : भाग १ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नदी रूप होता है । मैंने संसार का त्याग कर दिया, मैं अपने आपका नाथ बना ! मैने संसार के आरंभ-समारंभों का त्याग कर दिया, इसलिए मैं दूसरे जीवों का भी नाथ बना ! मैंने जब साधुता का स्वीकार कर लिया, मुझे कामधेनु मिल गई, नंदनवन मिल गया ! मैं चित्त का परम आनंद अनुभव करता हूँ, यही मेरी सनाथता है । मन-वचन-काया से मैं संयमधर्म का निरतिचार पालन करता हूँ, इसलिए मैं स्व-पर का नाथ बना हूँ। राजन्, स्व-पर का नाथ वही बनता है कि जो - - कर्मशत्रुओं का नाश करने के लिए तत्पर होता है । - इन्द्रियविजय करने के लिए प्रयत्नशील होता है । - मनोजय करने के लिए प्रतिक्षण जाग्रत रहता है। - घोर-वीर और उग्र तपश्चर्या करता है। - अपने महाव्रतों का दृढ़ता से पालन करता है । अनाथीमुनि में ये पाँचों बातें थी, इसलिए वे 'नाथ' बने थे। श्रेणिक में ये पाँच बातें नहीं थी, इसलिए वह अनाथ था । मुनि ने श्रेणिक को इस अर्थ में अनाथ कहा था। संसार में जीव अनाथ – अशरण है : संसार में जीव उग्र रोगों के सामने, वृद्धावस्था के सामने और मृत्यु के सामने तो अनाथ - अशरण है ही, परंतु इन बातों के अलावा आध्यात्मिक दृष्टि से भी जीव कैसे अनाथ और अशरण है, यह भी समझ लेना चाहिए। * जो जीवात्मा अरिहंत परमात्मा की, सिद्ध भगवंतों की, साधुपुरुषों की और केवलिप्रणीत धर्म की अवज्ञा करता है, उनकी आज्ञा नहीं मानता है, उनके प्रति श्रद्धावान् नहीं बनता है-वह अनाथ, अशरण होता है । * जो जीवात्मा क्रोध, मान, माया और लोभ करता रहता है; चार कषायों को पाप नहीं मानता है; वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह में लीन रहता है; इन पाँच महापापों को पाप नहीं मानता है; इन पापों के त्याग की भावना नहीं रखता है; वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा मन-वचन-काया को अशुभ योगों में, पापकार्यों में प्रवर्तित रखता है, शुभ योगों में नहीं जोड़ता है, वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य का त्याग नहीं करता अशरण भावना Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा रसगारव, ऋद्धिगारव और शातागारव में लीन रहता है, वह अनाथ - अशरण होता है। * जो जीवात्मा ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना और चारित्रविराधना करता रहता है, वह अनाथ – अशरण होता है । * जो जीवात्मा आर्तध्यान और रौद्रध्यान करता रहता है, धर्मध्यान नहीं करता __है, वह अनाथ - अशरण होता है । * जो जीवात्मा पाँच इन्द्रियों के विषयों में लुब्ध होता है, वह अनाथ – अशरण होता है । साधु भी अनाथ – अशरण : कैसे ? उत्तराध्ययन-सूत्र में अनाथीमुनि ने राजा श्रेणिक को साधु-श्रमण की भी अनाथता - अशरणता बतायी है ! समझने जैसी बातें हैं। यह अनाथता-अशरणता परलोक दृष्टि से बतायी गई है । अनाथिमुनि ने कहा : । * हे राजन, निर्ग्रन्थ धर्म की प्राप्ति होने पर भी निःसत्व मनुष्य अपने आचारपालन में शिथिल बनते हैं, वे स्व-पर की रक्षा करने में समर्थ नहीं होते हैं, यह उन जीवों की अशरणता है । * प्रव्रज्या लेने के बाद जो साधु प्रमाद की वजह से महाव्रतों का अच्छी तरह पालन नहीं करता है, आत्मानुशासन नहीं करता है, रसासक्त होता है, वह समूल राग-द्वेष का उच्छेद नहीं करता है, यह उसकी अशरणता है ।। * जो साधु पाँच समिति का पालन नहीं करता है, वह मोक्षमार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता है, यह उसकी अनाथता है । * जो साधु केशलुंचन करता है, परंतु संयमानुष्ठान नहीं करता है, तप और नियमों से भ्रष्ट होता है, वह अनाथ – अशरण बन संसार में परिभ्रमण करता रहता * जिसमें साधुता के भाव नहीं होते, जो साधुता के आचारों के पालन में शिथिल होते हैं, वे द्रव्यसाधु कहलाते हैं । द्रव्यमुनि असार होते हैं, निर्गुण होते हैं, वे सर्वत्र उपेक्षित होते हैं । वे ज्ञानीपुरुषों की दृष्टि में मूल्यहीन होते हैं । ऐसे द्रव्य मुनि सरल जीवों को ठगते हैं। वे अशरण बनकर संसार में भटकते * केवल उदरभरण के लिए जो साधुवेश धारण करते हैं, असंयमी होते हुए १६६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी संयमी कहलाते हैं, वे दीर्घकालपर्यंत नरकादि दुर्गति में विनिपात पाते हैं । * जिस प्रकार पीया हुआ जहर, गलत ढंग से पकड़ा हुआ शस्त्र, अविधि से की हुई मंत्रसाधना मनुष्य को मारती है; वैसे शब्दादि विषयों की लंपटता, द्रव्यमुनि का दुर्गति में पतन करवाती है । * जो द्रव्यमुनि लक्षणशास्त्र एवं स्वप्नशास्त्र का प्रयोग करता है, जो द्रव्यमुनि अष्टांग ज्योतिष का निमित्त एवं संतानादि के लिए प्रयोग करता है; इन्द्रजाल, जादू, मंत्र, तंत्र, विद्यारूप आश्रवों का सेवन करता है; उस द्रव्यमुनि को अनाथ - अशरण समझना। * मिथ्यात्व से आहत और उत्कृष्ट अज्ञान से वह द्रव्यमुनि शीलहीन बनकर, सदा दुःखी बनकर, तत्त्वविपरीतता पाकर, चारित्र की विराधना कर, सतत नरक-तिर्यंच योनियों में जन्म-मरण करता है । इस प्रकार साधु की विविध अनाथता - अशरणता बतायी है । अनाथ - अशरण बने हुए द्रव्यमुनि को दुर्गति में जाना ही पड़ता है । उसको कोई नहीं बचा सकता है, यह उसकी अशरणता है-अनाथता है । संभूतमुनि : नियाणा : चक्रवर्ती : सातवीं नरक : जब द्रव्यमुनि की अनाथता -- अशरणता की बात बतायी है, तब एक दृष्टांत सुनाकर उस बात को पुष्ट करता हूँ। वह दृष्टांत है ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का । कहानी वैसे तो विस्तृत है, परंतु मैं संक्षेप में बताऊँगा। क्योंकि मुझे तो जीव की अशरणता बताना है। ___ काशी में भूतदत्त नाम का चांडाल रहता था। बड़ा समृद्धिवाला था। उसके दो पुत्र थे : चित्र और संभूत । काशी का राजा था शंख । उसका मंत्री था नमुचि । एक बार नमुचि से बड़ा अपराध हो गया । राजा ने नमुचि को मार डालने के लिए भूतदत्त चांडाल को सोंप दिया । नमचि ने भूतदत्त को कहा : कैसे भी करके तू मुझे बचा ले। भूतदत्त ने कहा : यदि तूं मेरे दो पुत्रों को अच्छी शिक्षा दें तो मैं तेरी रक्षा करूँ । नमुचि मान गया । भूमिगृह में गुप्त रूप से नमुचि ने चित्र और संभूत को पढ़ाना शुरू किया । गीत-संगीत-नृत्य आदि कलाएँ भी सिखाने लगा। कुछ वर्ष तक यह उपक्रम चलता रहा । परंतु नमुचि का भूतदत्त की पत्नी के साथ संबंध हो गया । वे व्यभिचार-सेवन करने लगे । एक दिन भूतदत्त को यह पापलीला मालुम हो गई । उसने नमुचि को मार डालने का निर्णय | अशरण भावना १६७ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। चित्र-संभूत को मालुम हो गया कि उनके पिता नमुचि को मार डालनेवाले हैं। उन्होंने नमुचि को गुप्तमार्ग से भगा दिया । इधर नगरी में मदनोत्सव प्रवर्तित हुआ । नगरवासी लोग उद्यानों में जाने लगे । चित्र - संभूत भी गाते-गाते नगर में फिरने लगे । इतना कर्णप्रिय गीत वे गाते थे कि उनके आसपास लोगों की भीड़ लग गई। लोग प्रशंसा करने लगे । परंतु कुछ राजपुरुषों ने जाकर राजा को कहा: 'दो चांडालपुत्रों ने अपनी गीतकला से लोगों को आकर्षित कर लिया है और नगर को अपवित्र कर दिया है !' राजा ने उन दो चांडालपुत्रों को नगर के बाहर निकाल देने की कोतवाल को आज्ञा दे दी। परंतु कुछ दिनों के बाद चित्र और संभूत नकाब धारण कर पुनः नगर में घुमने लगे । गाने लगे । हजारों युवक उनकी गानकला से आकर्षित हुए। ये दो कौन गायक हैं ?' जिज्ञासा से युवकों ने उनका नकाब खींच लिया ! 'अरे, ये तो वे ही चांडालपुत्र हैं !' लोग उनको मारने लगे । 1 चित्र - संभूत नगर से बाहर चले गये । 'गंभीर' नाम के उद्यान में गये । एक वृक्ष के नीचे बैठकर वे सोचने लगे : 'अपनी हीन जाति होने की वजह से अपनी कला, अपना रूप, अपना कौशल्य वगैरह धिक्कारपात्र बन गये हैं । ऐसी धिक्कारपात्र अवस्था में जीने की बजाय मर जाना अच्छा है !' आत्महत्या करने की इच्छा से दोनों भाई दक्षिण दिशा में चले । चलते-चलते एक दिन वे दोनों भाई एक बहुत ऊँचे पहाड़ के पास पहुँचे। दोनों ने सोचा: 'इस पहाड़ के शिखर पर चढ़कर, वहाँ से गहरी खाई में गिरकर मर जायं। वे पहाड़ पर चढ़ने लगे । शिखर पर उन्होंने एक महामुनि को देखा। महामुनि कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े थे । मुनिराज के दर्शन करने से चित्र-संभूत के हृदय में आनंद हुआ। वे अपने दुःख - संताप भूल गये । उनकी आँखों में से हर्ष के आँसु बहने लगे। वे मुनिराज के चरणों में गिर पड़े। मुनि ने अपना ध्यान पूर्ण किया और पूछा : 'तुम कौन हो ? और यहाँ क्यों आये हो ?' चित्र-संभूत ने अपनी सारी कथा-व्यथा सुना दी । मुनिराज ने कहा : 'महानुभाव, आत्महत्या करने से तुम्हारे शरीर का नाश होगा, परंतु तुम्हारे पापकर्मों का नाश नहीं होगा । जब तक आत्मा के साथ पापकर्म लगे रहेंगे, तब तक दुःखों का अन्त आनेवाला नहीं है। दूसरे जन्म में और ज्यादा दुःख भोगने होंगे। फिर भी तुम्हें शरीर का त्याग करना ही है, तो तपश्चर्या करके शरीर का त्याग करो । तपश्चर्या से स्वर्ग और मोक्ष के सुख मिलते हैं। घोर - वीर और १६८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्र तपश्चर्या करने से यह दुर्लभ मानवजीवन सफल होगा। यह मानवदेह बहुत मूल्यवान है, उसका व्यर्थ ही नाश नहीं करना चाहिए । महामुनि की अमृतमयी वाणी सुनकर दोनों भाई के मन निर्मल बने, पवित्र बने । आत्महत्या करने का विचार छोड़ दिया । दोनों ने उस मुनिराज के पास श्रमण-धर्म का स्वीकार किया । दोनों भाई साधु बन गये । मुनिराज ने दोनों भाइयों को अच्छा अध्ययन कराया । वे दोनों ज्ञानी बने । तपस्वी बने । गुरुदेव की आज्ञा पाकर चित्रमुनि और संभूतमुनि गांव-नगर को पावन करते हुए हस्तिनापुर के बाह्य प्रदेश में पहुँचे । नगर के बाह्य उद्यान में दोनों मुनिवरों ने स्थिरता की और उग्र तप तपने लगे। एक दिन संभूतमुनि मासखमण (एक महीने के उपवास) के पारणे के लिए भिक्षा लेने नगर में गये । वहाँ उस नमुचि ने मुनिराज को देखा । नमुचि काशी से भागकर यहाँ हस्तिनापुर में आया था और चक्रवर्ती सनत्कुमार की राजसभा में मंत्री बना था । नमुचि ने संभूत को पहचान लिया । वह घबरा गया। उसने सोचा : यह संभूत - चांडालपुत्र मेरा पूर्ववृत्तांत यहाँ प्रगट कर देगा, इसलिए उसने अपने सेवकों को आज्ञा कर दी - इस साधु को मारकर नगर के बाहर निकाल दो। सेवकों ने जाकर मुनिराज को पकड़ा और मारने लगे । नमुाच देखता है । नीच और अधम पुरुष पर किये हुए उपकार सर्प को दूध पिलाने जैसा होता है। क्या नमचि नहीं जानता था कि चित्र और संभूत मुझे गुप्त रास्ते से भगाते नहीं तो उनका पिता - चांडाल मुझे मार डालता । मैंने उस आश्रयदाताजीवनदाता की पत्नी के साथ व्यभिचार-सेवन किया था । जानता था, फिर भी संभूति, जो कि मुनिवेश में था, उसको अपने सैनिकों के द्वारा मरवाता है। मनि बाह्य उद्यान में जाने लगे, परंतु सैनिकों ने जाने नहीं दिया। मारते रहे । तब अचानक मुनि के मुँह से तेजोलेश्या उत्पन्न हो गई । मुनि कोपायमान हो गये । मुँह में से अग्निज्वालाएँ निकलने लगी। जो सैनिक मार रहे थे, वे अग्निज्वालाओं में जलने लगे । नगरवासी लोग घबरा गये । नमुचि भी भयभीत हो गया । बात पहुँची सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास । चक्रवर्ती तत्काल मुनिराज के पास गये । मुनिराज को वंदना कर प्रार्थना की : हे भगवन, इस प्रकार रोष करना आप जैसे महर्षि को क्या उचित है ? सूर्य के किरणों से चन्द्रकान्त मणि तपता जरूर है, फिर भी अपनी शीतल कान्ति छोड़ता नहीं है । इन सेवकों ने आपका अपराध किया है, इसलिए उन पर क्रोध आना अशरण भावना १६९ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभव है, परंतु सत्पुरुषों का क्रोध, दुर्जनों के स्नेह जैसा क्षणिक होता है । वैसे तो सत्पुरुषों को क्रोध होता ही नहीं है, होता है तो दीर्घकाल तक रहता नहीं है, रहता है तो भी वह निष्फल जाता है । हे महामुनि, मेरी आप से प्रार्थना है आप कि क्रोध छोड़ दें। क्योंकि आप तो अपकारी और उपकारी के प्रति समदृष्टिवाले होते हैं। फिर भी मुनिराज की तेजोलेश्या शान्त नहीं हुई । बात उद्यान में चित्रमनि को मालुम हुई । वे तत्काल संभूतमुनि के पास आये और मधुर वाणी से संभूतमुनि को शान्त किया। राजा और प्रजा ने मनि को वंदना की। दोनों मनिराज उद्यान में लौटे । संभूतमुनि के हृदय में घोर पश्चात्ताप उत्पन्न हुआ । उन्होंने चित्रमुनि को कहा : मात्र आहार के लिए घर-घर फिरने से कष्ट पैदा होता है । आहार से शरीर का पोषण करने पर भी, परिणाम तो शरीर का नाश ही है । एक दिन शरीर नष्ट होनेवाला ही है । तो फिर योगी पुरुषों को शरीर और आहार की अपेक्षा ही क्यों रखनी चाहिए ? इसलिए अपने चारों आहार का त्याग कर अनशन कर लें। चित्रमुनि और संभूतमुनि ने अनशन-व्रत स्वीकार कर लिया। उधर चक्रवर्ती राजा ने साधु का पराभव करनेवाले नमुचि को पकड़ लिया । राजा ने कहा : 'पूज्य पुरुष की जो पूजा नहीं करता है, परंतु उनका हनन करता है, वह महापापी है । राजा ने नमुचि को रस्सी से बंधवाया और नगर के राजमार्गों पर घुमाया। बाद में उद्यान में मुनिराज के समक्ष उपस्थित किया । चक्रवर्ती ने दोनों मुनिराज को वंदना की और कहा : आप आज्ञा करें, आपका यह अपराधी है, क्या दंड करूँ? मुनिराज ने कहा : राजन, जो अपराधी होता है, वह स्वतः अपने पापकर्म का फल भोगता है । मुनिवरों ने नमुचि को बंधनमुक्त करवाया। राजा ने नमुचि को देशनिकाला दे दिया। संभूतमुनि का मानसिक पतन : चक्रवर्ती राजा, संभूतमुनि एवं चित्रमुनि के गुणों से आकर्षित हुआ था। वह अपने अंतःपुर की रानियों को लेकर मुनिवरों को वंदन करने आया । दोनों मुनि ने अनशन-व्रत स्वीकारा हुआ था। दोनों शान्त थे, स्वस्थ थे। चक्रवर्ती ने दोनों मुनिवरों को वंदना की । सुनंदा, जो कि चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न था, उसने भी हजारों रानियों के साथ भावपूर्वक वंदना की । परंतु वंदना करते समय सुनंदा के बालों की चोटी खुल गयी । वैसे भी स्त्रीरत्न के बाल बहुत लंबे होते हैं । १७० शान्त सुधारस : भाग १] Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल संभूतमुनि को छू गये । बालों का स्पर्श होते ही मुनि तत्काल रोमांचित हो गये । राजा अपने अंतःपुर की रानियों के साथ नगर में चला गया । ___ संभूतमुनि अपने मन का निग्रह नहीं कर सके । और वैसे भी कामदेव तो सदैव जीव का छिद्र देखता ही रहता है । संभूतमुनि ने सोचा : जिस स्त्रीरत्न के बालों का स्पर्श इतना सुखद है, मनभावन है, उसके शरीर का स्पर्श...सर्वांग शरीर का स्पर्श कितना सुखदायी होता होगा ? मुझे ऐसी रानी चाहिए । ऐसी रानी चक्रवर्ती राजा की ही होती है । मैं यदि मेरी तपश्चर्या का नियाणा कर दूँ, तो आनेवाले जन्म में चक्रवर्ती बन सकता हूँ और मुझे ऐसा स्त्रीरत्न मिल सकता ___संभूतमुनि ने अपने मन के विचार, नियाणा करने की इच्छा चित्रमुनि को कह सुनायी । चित्रमुनि ने कहा : तुम बहुत बड़ी भूल कर रहे हो । जो तपश्चर्या मोक्ष का फल देनेवाली है, उस तपश्चर्या से तुम मनुष्यलोक के बिभत्स वैषयिक सुख की कामना करते हो ? मत करो ऐसी कामना ! संसार में भटक जाओगे । क्या तुम नहीं जानते कि नियाणा कर, माँगा हुआ भौतिक सुख मिल तो जाता है, परंतु चारित्रधर्म नहीं मिलता है । भौतिक सुखों में मोहमूढ बनकर जीव दुर्गति में चला जाता है ? तुम ज्ञानी होकर ऐसी गंभीर भूल मत करो । ___ संभूतमुनि के मन पर प्रबल विषयेच्छा छा गयी थी । चित्रमुनि की प्रेरणा का कोई असर नहीं हुआ। संभूतमुनि ने नियाणा कर ही लिया। मैंने जो दुष्कर तप किया है, उस तप का यदि मुझे फल मिलने का हो तो मुझे आनेवाले जन्म में स्त्रीरत्न की प्राप्ति हो । मैं चक्रवर्ती राजा बनूँ ।' __ फिर भी, चित्रमुनि ने संभूतमुनि को कहा : तुम मिथ्या दुष्कृत देकर नियाणा छोड़ दो। मेरा कहा मानो । तुम जैसे ज्ञानी और तपस्वी मुनि के लिए यह नियाणा सर्वथा अनुचित है। परंतु संभूतमुनि ने नियाणा का त्याग नहीं किया। दोनों मुनि का आयुष्यकर्म पूर्ण होता है । मृत्यु होती है । दोनों की आत्मा पहले देवलोक में उत्पन्न होती है । आज, बस इतना ही। अशरण भावना १७१ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १६ अशरणभावना : ४ : संकलना : . दुःखों का मूल : ममत्व । संभूत मर कर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती । पूर्वजन्म के भाता--मुनि का मिलन । • ब्रह्मदत्त अंधा, मृत्यु, ७वीं नरक में । श्रेष्ठ शरणभूत चार तत्त्व । श्रद्धावान निर्भय होता है । नलराजा की रानी दमयंती । अभय-अद्वेष-अखेद । दुःखों में भी स्थिर मन से धर्मआराधना का रहस्य । शान्तसुधा का पान करें । शान्तसुधा यानी मोक्षसुख । शरणागति का भाव दृढ़ करें । उपसंहार । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरणमेकमनुसर चतुरंगं परिहर ममतासंगम् । विनय ! रचय शिवसौख्यनिधानं, शान्तसुधारसपानम् ॥८॥ विनय ! विधीयतां रे श्रीजिनधर्मःशरणम् । अनुसंधीयतां रे, शुचितरचरणस्मरणम् ॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस की दूसरी अशरणभावना का समापन करते हुए कहते हैं : हे आत्मन्, तू चार शरण स्वीकार कर ले : अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलिप्रणीत धर्म की शरण ले ले । ममता का संग छोड़ दे और शिवसुख के निधानस्वरूप शान्तसुधा का आस्वादन कर । तीव्र रोगों से, अनिवार्य वृद्धावस्था से और निश्चित मृत्यु से, इस दुनिया में बचानेवाला कोई नहीं है । नियति का स्वीकार करते हुए जीवात्मा को जीवन का ममत्व छोड़ देना चाहिए । जीवन के मोह से मुक्त होना चाहिए । दुःखों का मूल : ममत्व : जैसे जीवन में अशरणता है, वैसे जीवन ही अशरण है । मनुष्य अपने जीवन में कई बार अशरणता का अनुभव करता है । जहाँ जहाँ उसके बल, बुद्धि, शक्ति, संपत्ति...वगैरह शरणभूत नहीं बनते हैं, स्वजन-परिजन भी शरणभूत नहीं बनते हैं, वहाँ मनुष्य घोर दुःख का अनुभव करता है । मनुष्य को अपना जीवन प्रिय होता है, और जब वह जीवन को खतरे में देखता है, तब दुःखी हो जाता है । जब बचने का कोई मार्ग नहीं दिखता है तब वह मर जाने का, आत्महत्या कर देने का सोचता है । चित्र-संभूत दो भाई का जीवन इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण है। सर्वप्रथम, जब नगरवासी लोगों ने 'ये तो चांडाल है, ऐसा तिरस्कार कर मारा था, तब वे अपने आपको अशरण समझ कर मर जाने के लिए जंगल में चले गये थे । भाग्ययोग से उस पहाड़ पर उनको महामुनि मिल गये...और उन्होंने आश्वासन दिया। चांडालकुल को ध्यान में नहीं लेते हुए मुनिराज ने उन दोनों भाइयों को वात्सल्य से, करुणा से शरण दी और साधुपना दिया। दोनों भाइयों को नया जीवन मिला। पुनः हस्तिनापुर नगर में संभूतमुनि को, नमुचिमंत्री ने त्रास दिया । सैनिकों के सामने वे अशरण हो गये और जीवन का ममत्व ही टूट गया। दोनों भाईमुनियों ने अनशन स्वीकार कर लिया ! स्वैच्छिक मृत्यु का वरण कर लिया । अशरण भावना १७३ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परंतु चक्रवर्ती राजा की स्त्रीरत्न का ऐसा निमित्त मिला कि पुनः संभूतमुनि के मन में जीवन का ममत्व जाग्रत हो उठा ! सामान्य जीवन का ममत्व नहीं, चक्रवर्ती के जीवन का ममत्व पैदा हुआ ! चित्रमुनि ममत्व के बंधन में नहीं बँधे, संभूत बँध गये । उन्होंने नियाणा कर दिया । दोनों भाइयों का आयुष्य पूर्ण होने पर, दोनों देवलोक में देव हुए। देवत्व भी शाश्वत् नहीं होता है । देवों का भी आयुष्य होता है । आयुष्य पूर्ण होने पर देवभव छूट जाता है, मनुष्यभव में अथवा तिर्यंचभव में जन्म लेना पड़ता है । देव मर कर देवभव में जन्म नहीं ले सकता है, वैसे सीधा नरक में भी उत्पन्न नहीं हो सकता है । संभूत मर कर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती : __संभूत का देवभव का आयुष्य पूर्ण होता है और वह इस भरतक्षेत्र में कांपिल्यपुर में ब्रह्मराजा की रानी चुलनीदेवी के पेट में आता है । चुलनी ने १४ महास्वप्न देखे । चक्रवर्ती की माता १४ महास्वप्न देखती है । जब पुत्र का जन्म हुआ, उसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया । ब्रह्मदत्त बारह वर्ष का हुआ तब ब्रह्मराजा की मृत्यु हो गई । चक्रवर्ती होने के पहले ब्रह्मदत्त के जीवन में अनेक कष्ट आये, आपत्तियाँ आयी... परंतु उसका जीवनमोह प्रबल था, उसको वैराग्य होने का नहीं था । वह एक दिन चक्रवर्ती बना । नियाणा किया था न ? स्त्रीरत्न भी मिला। निमित्त पाकर उसको जातिस्मरण ज्ञान होता है । पूर्व के पाँच जन्म बतानेवाला जातिस्मरण ज्ञान होता है । उसने पूर्वजन्म के भ्राता चित्र को देखा । 'मेरा भाई मुझे कहाँ मिलेगा ?' चित्र के प्रति उसके हृदय में दृढ़ अनुराग था । चक्रवर्ती, चित्र को खोज निकालता है । चित्र का जीव, देवलोक का आयुष्य पूर्ण कर, इसी भरतक्षेत्र में पुरिमताल नगर में श्रेष्ठिपुत्र होता है । उसको भी जातिस्मरणज्ञान होता है, वह संसार से विरक्त होता है और चारित्रधर्म का स्वीकार कर लेता है। पूर्वजन्म के भ्राता को प्रतिबोध करने वे मुनि पुरिमताल नगर में आते हैं । वहाँ पर ब्रह्मदत्त का मिलन होता है । ब्रह्मदत्त पूर्वजन्म के भ्राता को मिलने पर अति हर्षसभर होता है, वंदना करता है और उपदेश सुनने मुनि के आगे विनय से बैठ जाता है । मुनिराज ब्रह्मदत्त को उपदेश देते हैं । हालाँकि वे जानते हैं कि इसने नियाणा करके चक्रवर्तीपना पाया है, इसलिए इसका जीवनममत्व, भोगासक्ति टूटनेवाली नहीं है, फिर भी एक कर्तव्य के नाते उन्होंने उपदेश दिया । | १७४ शान्त सुधारस : भाग १ १७४ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वजन्म के भ्राता - मुनि का मिलन : उपदेश : 'हे राजन्, यह संसार असार है, संसार में कुछ भी सारभूत नहीं है । सारभूत एकमात्र धर्म है । यह शरीर, लक्ष्मी-संपत्ति, स्वामित्व, स्नेही स्वजन सब कुछ चंचल है, अस्थिर है, विनाशी है । राजन्, तुमने बाहर के सभी शत्रुओं को तो जीत लिये, अब मोक्ष पाने के लिए अंतरंग शत्रुओं को भी जीत लो। जिस प्रकार राजहंस, पानी को छोड़कर क्षीर को ग्रहण करता है, वैसे तुम इस संसार को छोड़कर चारित्रधर्म का स्वीकार कर लो !' यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने कहा: 'हे मेरे आत्मतुल्य बंधु ! मेरे सद्भाग्य से मुझे आपके दर्शन मिले। यह राज्यश्री आप की ही है, आप स्वेच्छा से विपुल भोगसुख भोगें । तप का फल भोग है । भोगसुख मिलने के बाद अब आपको तप क्यों करना चाहिए ?' मुनिराज ने कहा : 'हे राजन्, मेरे घर में भी कुबेर जैसी संपत्ति थी, विपुल भोगसुख थे, परंतु मैंने उसको तृणवत् तुच्छ समझकर, भवभ्रमण का हेतु समझकर छोड़ दिये । हे राजन्, पुण्यकर्म का क्षय होने पर तुम देवलोक से इस पृथ्वी पर आये हो । यहाँ पुनः पुण्य क्षय होने पर अधोगति में जाना पड़ेगा । भोगसुख भोगने से पुण्यकर्म का क्षय होता है । राजन्, इस आर्यक्षेत्र में और श्रेष्ठ कुल में दुर्लभ मनुष्य जीवन मिला है। इस जीवन में भोगसुख नहीं भोगने हैं, भोगसुख त्याग कर, आत्मसुख पाना है ।' ब्रह्मदत्त के हृदय पर मुनि के उपदेश का कोई असर नहीं हुआ । असर होने का भी नहीं था । वह प्रतिबुद्ध नहीं हुआ । नियाणा के फलस्वरूप उसे चक्रवर्तीपना मिला था न ? उसको 'बोधि' की प्राप्ति होना असंभव होता है। मुनि ने ब्रह्मदत्त को अबोध्य समझ लिया । वहाँ से विहार कर अन्यत्र चले गये । ब्रह्मदत्त के प्रति मध्यस्थभाव धारण कर लिया । न राग, न द्वेष ! मुनिराज को कैवल्य की प्राप्ति होती है। शेष अघाती - भवोप्रगाही कर्मों का क्षय होने पर वे परमपद - मोक्ष पा लेते हैं । ब्रह्मदत्त अंध होता है : मृत्यु : सातवीं नरक में : ब्रह्मदत्त अपने स्त्रीरत्न के साथ विपुल भोगसुख भोगता है । तपश्चर्या का फल भोगता है । परंतु एक दिन एक चरवाहा, ब्रह्मदत्त की दोनों आँखें फोड़ डालता है ! एक ब्राह्मण ने चरवाहे के पास यह काम करवाया था, इसलिए उस ब्राह्मण अशरण भावना १७५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को तो परिवार सहित मरवा दिया, परंतु बाद में सभी ब्राह्मणों का वध करवा दिया । सोलह वर्ष तक रौद्रध्यान करता हुआ, ब्रह्मदत्त सातवीं नरक में चला गया । नरक में जाते हुए उस चक्रवर्ती को कोई बचा नहीं पाया । अशरणअनाथ बनकर वह नरकगामी बना । जीवन का मोह, जीवन का ममत्व कितना भयानक होता है ? इसलिए ग्रंथकार ने कहा : 'परिहरममतासंगम् ।' ममता - ममत्व - मोह का त्याग करने का उपदेश दिया । चार शरण का स्वीकार, वास्तव में वही मनुष्य कर सकता है, जो जीवन का ममत्व त्याग देता है । संसार के वैषयिक सुखों का मोह त्याग देता है । विश्व के चार श्रेष्ठ शरणभूत तत्त्व : वैसे तो प्रतिदिन, तीनों काल चार शरण अंगीकार करने के होते हैं : अरिहंते सरणं पवज्जामि । सिद्धे सरणं पवज्जामि । साहू सरणं पवज्जामि । केवली पन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि । अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म विश्व के ये चार श्रेष्ठ शरणभूत तत्त्व 1 हैं । जो जीवात्मा उनकी शरण में जाता है, शरण का स्वीकार करता है, वह परम शान्ति, परम सुख पाता है । — परंतु शरणभाव के पहले श्रद्धाभाव अपेक्षित होता है । पहले श्रद्धावान् बनना होगा । 'अरिहंत - सिद्ध-साधु और धर्म ही शरणभूत हैं, इनके अलावा कोई भी शरणभूत नहीं है इस विश्व में । इस प्रकार की श्रद्धा हृदय में दृढ़ होनी चाहिए | चाहे प्रलयकाल आ जायं अथवा शिव का तांडवनृत्य हो जायं, चाहे धरा काँपने लगे या आकाश में से आग बरसने लगे, निर्भय बनकर अरिहंत आदि ४ परमतत्त्व की शरण स्वीकार कर सकें । श्रद्धावान् निर्भय होता है : : वैसे निर्भय श्रद्धावान् आत्माओं के कुछ उदाहरणों की याद दिलाता हूँ पहला उदाहरण सीताजी का है । श्रीराम ने सीताजी का बीहड़ जंगल में त्याग करवा दिया था । उस समय उन्होंने श्री नमस्कार महामंत्र की शरण लेकर जीवन-मृत्यु के प्रति उदासीन वृत्तिवाले बने थे । जिस समय अयोध्या के बाह्य प्रदेश में सीताजी की अग्निपरीक्षा हुई थी, उस १७६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में समय भी सीताजी निर्भय होकर, श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण कर अग्निकुंड कूद पड़े थे । अपने सतीत्व-धर्म के ऊपर भी उनकी कैसी निःशंक श्रद्धा थी ! अग्निकुंड, पानी का कुंड बन गया था ! दूसरा उदाहरण नलराजा की रानी दमयंती का है । राजा नल ने दमयंती का जंगल में त्याग कर दिया था। एक असुर से दमयंती को मालुम हुआ था कि बारह वर्ष तक पति का वियोग रहनेवाला है । दमयंती ने कुछ अभिग्रहप्रतिज्ञाएँ मन में ले ली और एक गिरिगुफा में निवास कर लिया । वहाँ उसने मिट्टी की, भगवान् शान्तिनाथ की मूर्ति बनायी और पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवंत की पूजा करने लगी । दमयंती के हृदय में परमात्मा के प्रति अपूर्व शरणभाव था । 'वसंत' नाम के सार्थवाह ने गुफा के पास एक नगर बसा दिया था । वहाँ पर दमयंती के उपदेश से ५०० तापस प्रतिबोधित हुए थे । भगवान् शान्तिनाथ के भक्त बन गये थे । - एक दिन दमयंती गुफा के बाहर जंगल में परिभ्रमण कर रही थी, उस समय अचानक उसके सामने भयानक आकृतिवाली राक्षसी प्रगट हुई और बोली: मैं तुझे खा जाऊँगी !' दमयंती घबरायी नहीं, उसने आँखें मूँद कर बोला : यदि मैंने मेरे पति नल के अलावा किसी भी पुरुष का कामवासना से प्रेरित होकर विचार भी नहीं किया हो, तो मेरे इस सतीत्व के प्रभाव से और मेरे हृदय में रहे हुए आर्हत् धर्म के प्रभाव से यह राक्षसी शांत हो !' तत्क्षण राक्षसी शांत हो गई, दमयंती को प्रणाम किया और अदृश्य हो गई । दमयंती उसी वन में चलती - चलती आगे बढ़ी । उसको बहुत प्यास लगी थी । रास्ते में एक निर्जल नदी आयी । नदी में एक बूंद भी पानी नहीं था । दमयंती ने पंचपरमेष्ठि का स्मरण कर नदी में पैर से प्रहार किया और नदी में पानी उभर आया । जलपान कर दमयंती नदी के किनारे पर एक वृक्ष के तले बैठी । - • तीसरा प्रसिद्ध दृष्टांत सती सुरसुंदरी का है । राक्षसद्वीप के ऊपर उसका पति अमरकुमार, सुरसुंदरी का त्याग कर चला गया था । द्वीप पर अकेली सुरसुंदरी रह गई थी । समुद्र के किनारे पर जाकर उसने मध्यम सूर से श्री नवकारमंत्र का जाप शुरू किया था। उस समय उस द्वीप का अधिष्ठायक राक्षस वहाँ आता है और सुरसुंदरी को अपना भक्ष्य बनाने की इच्छा से उसकी ओर दौड़ता है । परंतु श्री नवकारमंत्र की ध्वनि सुनते ही शान्त हो जाता है। सुरसुंदरी को पुत्रीवत् १७७ अशरण भावना Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहता है । द्वीप के ऊपर रखता है और उसको सुखसुविधा देता है । बाद में तो सुरसुंदरी के जीवन में अनेक तूफान आते हैं, अनेक दुःख आते हैं, परंतु श्री नवकारमंत्र के अचिंत्य प्रभाव से और उसके सतीत्व-धर्म के प्रभाव से वह विघ्नों पर विजय पाती जाती है । विद्याधर राजा रत्नजटी के परिचय के बाद उसको अनेक प्रकार के सुख मिलते हैं... उसकी कीर्ति फैलती है और परिणामस्वरूप वह भवसागर को तैर जाती है । अभय - अद्वेष - अखेद : __ अरिहंत-सिद्ध-साधु और धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धाभाव प्रगट होने पर और शरणागति का दिव्य भाव उत्पन्न होने पर मनुष्य निर्भय बन जाता है । कैसे भी विघ्न आयें, आपत्ति आयें...वह निर्भय रहता है । अभय रहता है । दूसरा प्रतिभाव होता है अद्वेष का । उसको, दुःख देनेवाले जीवात्माओं के प्रति द्वेष नहीं होता है । उनके प्रति करुणा होती है, अथवा मध्यस्थभाव होता है । शत्रुता या वैरभाव नहीं होता है । तीसरा प्रतिभाव होता है अखेद का । दुःखों के सामने लड़ते हुए वह थकता नहीं है । परमार्थ-परोपकार आदि धर्मकार्य करते हुए वह थकता नहीं है । उसका मन कभी खिन्न नहीं होता है । उसके मुँह पर कभी निराशा के बादल घिर नहीं आते । दुःखों में भी स्थिर मन से धर्मआराधना का रहस्य : सुदर्शन शेठ की कहानी जानते हो न ? राजा ने जब सुदर्शन शेठ को सूली पर चढ़ाकर मार डालने की सजा सुनायी थी, उस समय सुदर्शन शेठ की पत्नी सती मनोरमा अपने घर में, परमात्मा की मूर्ति के सामने स्थिर मन से, कायोत्सर्गध्यान में खड़ी रह गई थी न ? अपना पति सूली पर चढ़ने जा रहा हो, उस समय पतिव्रता स्त्री स्थिर मन से, निर्भय होकर, परमात्मा के ध्यान में लीन हो सकती है क्या ? कभी सोचा है आप लोगों ने इस घटना के विषय में ? नहीं, क्योंकि इसके बारे में आप कभी सोचते ही नहीं, केवल सुनते रहते हो ! धर्म को सुनते हो और अधर्म का चिंतन करते हो ! फिर धर्म के रहस्यभूत तत्त्व कैसे जान सकते हो ? __महासती मनोरमा की श्रद्धा और शरणागति ने उसको निर्भय बनायी थी। अद्वेषी बनायी थी और अखिन्न बनायी थी। उसमें नहीं था भय, नहीं था द्वेष और नहीं था खेद । चित्त को अस्थिर-चंचल बनानेवाले ये तीन तत्त्व होते हैं न ? भय-द्वेष और खेद । अब समझे न मनोरमा कैसे कायोत्सर्गध्यान में लीन| १७८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलीन बनी थी ? जबकि उसके पति को सूली पर चढ़ाने के लिए ले जा रहे थे! दूसरी बात, जैसे मनोरमा ने श्रद्धा और शरणभाव के फलस्वरूप अभय, अद्वेष और अखेद - ये तीन विशेषताएँ पायी थी, वैसे उसके पति ने, सुदर्शन ने भी ये तीन बातें पायी थी ! सली पर चढने की सजा होने पर भी वे घबराये नहीं थे, उनके मन में रानी के ऊपर द्वेष नहीं आया था और खिन्नता से उसका मन भर नहीं गया था। तभी वे निश्चल मन से सूली पर चढ़ सके थे ! एकाग्र मन से वे श्री पंचपरमेष्ठि भगवंतों का ध्यान कर सके थे । मनोरमा भी स्थिर मन से परमात्मध्यान में लीन रह सकी थी। शान्तसुधा का पान करें : वही था उनका शान्तरस का पान ! मनोरमा के मन में शान्ति थी. समता थी, स्वस्थता थी। क्योंकि उसने अपने जीवन की सारी जिम्मेदारी पंचपरमेष्ठि को सौंप दी थी। परमात्मतत्त्व और गुरुतत्त्व को सौंप दी थी । धर्मतत्त्व को सौंप दी थी । अपने पर उसने तनिक भी भार नहीं रखा था। यही तो विशेषता होती है शरणागति के भाव की । प्रश्न यही है कि हम अपने दुःखों का भार, अशान्ति का भार...परमात्मतत्त्व को, परमेष्ठितत्त्व को सौंप सकते हैं क्या ? सौंपकर, निश्चित बन सकते हैं क्या ? जिस प्रकार श्रीपालचरित्रं में पढ़ते हैं कि समुद्र में प्रवास करते हुए धवलसेठ ने कपट से श्रीपाल को समुद्र में धक्का दे दिया था। श्रीपाल समुद्र में गिरते ही, उनके परम इष्ट सिद्धचक्रजी को याद करते हैं । उनके हृदय में सिद्धचक्र के प्रति अटूट-अखंड श्रद्धाभाव था, शरणागति थी । वे समुद्र में गिरे, जहाज तो समुद्र में आगे बढ़ गया। श्रीपाल की पलियाँ, श्रीपाल की विपुल संपत्ति...सब कुछ जहाज में था । मित्र के रूप में रहा हुआ धवलसेठ, श्रीपाल का गुप्त रूप से शत्रु ही था। श्रीपाल की पलियाँ, जो कि सभी राजकुमारियाँ थीं और श्रीपाल की संपत्ति, जो कि अपार-अपरिमेय थी...यह सब हड़पने के लिए ही उस दुष्ट धवल ने श्रीपाल को समुद्र में गिरा दिया था। परंतु धर्मो रक्षति रक्षितः । धर्म ने श्रीपाल की रक्षा की । वह एक बड़े मगरमच्छ की पीठ पर पड़ा। मगरमच्छ तैरता हुआ समुद्र के एक किनारे पर श्रीपाल को ले गया । किनारे पर उतरकर श्रीपाल एक वृक्ष के तले जा कर बैठे। उनके मन पर कोई चिन्ता का भार नहीं था । वे निश्चित थे । न कामिनी का भार था, न कंचन का भार था ! सारा । अशरण भावना १७९ | Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार उन्होंने 'सिद्धचक्र' को सौंप दिया था ! सिद्धचक्र उनकी श्रद्धा का केन्द्र था, शरणागति का केन्द्र था । उनके विश्वास पर वे निश्चित थे । वे निर्भय थे, उनके मन में धवलसेठ पर द्वेष भी नहीं था, नये जीवन से ऊब भी गये थे । संकट उनको थका नहीं सके थे । वे सदैव प्रसन्नचित्त से, शान्त मन से सिद्धचक्र की आराधना करते थे । यह कोई कल्पना की कथा नहीं है । यह वास्तविकता है। जो मनुष्य निःस्पृह, निर्ममत्व होकर जीता है और श्रद्धा एवं शरणागति के भावों को हृदयस्थ करता है, वह सदैव शान्ति का अमृतपान करता रहता है । शान्तसुधा यानी मोक्षसुख : शान्ति का अमृतपान, प्रशमरस का अमृतपान, यही इस संसार में मोक्षसुख का अनुभव है । 'प्रशमरति में भगवान उमास्वातीजी ने कहा है: दूरे मोक्षसुखं, प्रत्यक्षं प्रशमसुखम् ।' सिद्धशिला पर जो मोक्षसुख है, वह तो बहुत दूर है । यहाँ संसार में प्रशमसुख, शान्तसुधा का रसपान ही मोक्षसुख है । यदि यहाँ इस जीवन में मोक्षसुख का अनुभव करना है, तो शान्तसुधा का अमृतपान करते रहो । यह अमृतपान करने के लिए ममत्वरहित होकर, चार शरण स्वीकार करते रहो । शरणागति के भाव को हृदय में स्थिर करें । ममत्व - राग-द्वेष का थोड़े समय के लिए त्याग कर, स्थिर चित्त से स्थिर आसन से बैठकर निम्न प्रकार स्वाध्याय करें : शुद्ध परिणामने कारणे, चारनां शरण धरे चित्त रे, प्रथम तिहां शरण अरिहंतनुं जेह जगदीश जगमित्त रे चेतन, ज्ञान अजुवालीए. जे समवसरणमां राजता, भांजता भविक - संदेह रे, धर्मनां वचन वरसे सदा, पुष्करावर्त जिम मेह रे... चेतन. शरण बीजं भजो सिद्धनुं, जे करे कर्म चकचूर रे, भोगवे राज्य शिवनगरनुं ज्ञान - आनंद भरपूर रे... चेतन. साधुनुं शरण त्रीजुं धरे, जेह साधे शिवपंथ रे, मूल - उत्तरगुण जे वर्या, भव तर्या भाव निर्ग्रन्थ रे... चेतन. शरण चोथुं धरे धर्मनुं, जेहमां वर दयाभाव रे, जे सुखहेतु जिनवर कां, पापजल तरवा नाव रे... चेतन. १८० शान्त सुधारस : भाग १ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने 'अमृतबेल' की सज्झाय में इस प्रकार चार शरण स्वीकार करने का बताया है । शरणागति का भाव दृढ़ करने के लिए : शरणागति के भाव को हृदय में दृढ़ करने के लिए, प्राचीन गुजराती भाषा में श्री चिदानंदजी रचित सरल काव्य के कुछ अंश बताता हूँ, आप लोग कंठस्थ भी कर सकते हैं और प्रतिदिन स्वाध्याय कर सकते हैं। १. परमातम सोइ आतमा, अवर न दूजो कोय, परमातम कुं ध्यावते, एह परमातम होय । २. परमातम एह ब्रह्म है परम ज्योति जगदीश, ___पर-सुं भिन्न निहारीए, जोइ अलख सोइ इस। ३. जो परमातम सिद्ध में, सोही आतममांही, ___ मोह-मयल दृग लग रह्यो, तामें सूझत नाही । ४. आतम सो परमातमा परमातम सोइ सिद्ध, बीच की दुविधा मिट गई, प्रगट भई निज रिद्ध । ५. मैं ही सिद्ध परमातमा, मैं ही आतमराम, मैं ही ध्याता ध्येय को, चेतन मेरो नाम । ६. मैं ही अनंत सुख को धनी, सुख में मोही सोहाय, ___ अविनाशी आनंदमय, सोहं त्रिभुवनराय । ७. शुद्ध हमारो स्प है, शोभित सिद्ध समान, गुण अनंत करी संयुत, चिदानंद भगवान । ८. जैसो शिव पे तहि वसे, तेसो या तनमांही. निश्चय दृष्टि निहारतां, फेर रंच कछ नाही । ९. काहे कुं भटकत फिरे ? सिद्ध होने के काज, राग-द्वेषकुं त्याग दे, भाई, सुगम इलाज । १०.परमातम-पद को धनी, रंक भयो, दिल लाय, राग-द्वेष की प्रीति से, जनम अकारथ जाय । ११. राग-द्वेष के नासतें, परमातम परकास, राग-द्वेष के भासते, परमातम पद-नास । १२.लाख बात की बात यह, ताकु दियो बताय, जो परमातम-पद चहे, राग-द्वेष तज भाय ! १८१ । अशरण भावना Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. राग-द्वेष त्यागे बिनुं, परमातमपद नाही, कोटि कोटि तप-जप करे, सब अकारथ जाई । १४. देहसहित परमातमा, एह अचरिज की बात, राग-द्वेष के त्याग से कर्मशक्ति जरी जात । १५. राग-द्वेष कुं त्याग के, धरी परमातम ध्यान, युं पावे सुख शासवत भाई, इम कल्यान । ('परमात्म- छत्रीशी' में से) उपसंहार : — आज दूसरी अशरणभावना का विवेचन पूर्ण करता हूँ । जीवात्मा की हर जीवन में, हर गति में कैसी अशरण स्थिति है, यह बताकर, शरणभूत चार परमतत्त्व ही हैं. यह बात बतायी गई है । इस संसार में अशरण हूँ, मेरा कोई शरण नहीं हैं - ऐसा नहीं सोचना है। इस संसार में सच्ची शरण देनेवाले अरिहंत आदि चार परमतत्त्व हैं, इनके अलावा कोई शरण नहीं है । इस प्रकार सोचना है । 'श्री जिनधर्मः शरणम्' यह बार-बार 'अरिहंते सरणं पवज्जामि...' इत्यादि चार शरण बार-बार स्वीकार करने हैं । जब चित्त में शान्ति हो, तब दिन में सुबह, दोपहर और शाम, तीन समय शरणागति स्वीकारें । जब चित्त अशान्त हो, तब बार-बार शरणागति का स्वीकार करते रहें । शान्ति - समता - प्रसन्नता प्राप्त होगी । १८२ रटना है 1 शान्त सुधारस : भाग १ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : १७ संसार भावना - १ : संकलना : * भीषण है संसार * लोभ का दावानल लोभ से विनाश विषयलालसा : मृगतृष्णा * अभयकुमार और चार मुनिवर पत्नी का विश्वासघात : महाभयम् * धनद मुनिवर : अतिभयम् Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतो लोभः क्षोभं जनयति दुरन्तो दव इवोल्लसंल्लाभाम्भोभिः कथमपि न शक्यः शमयितुम् । इतस्तृष्णाऽक्षाणां तुदति मृगतृष्णेव विफला, कथं स्वस्थैः स्थेयं विविधभयभीमे भववने ? ॥७॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस' ग्रंथ में तीसरी संसारभावना का प्रारंभ करते हुए कहते हैं : “यह एक भयानक भव-वन है । घना - बीहड़ जंगल है । इस वन में लोभ का दावानल भड़क रहा है । उसे बुझाना शक्य नहीं है । लाभ-प्राप्ति की लकड़ियों से यह लोभ का दावानल और ज्यादा धधक रहा है । इधर मृगतृष्णा-सी विषयलालसा, जीवों को घोर पीड़ा दे रही है । ऐसे भीषण भव-वन में निश्चित होकर, आराम से कैसे रहा जा सकता है ?" भीषण है संसार : संसार को घने – बीहड़ जंगल की उपमा दी है ग्रंथकार ने । संसार की चार गतियाँ हैं : देवगति, मनुष्यगति, तियँचगति और नरकगति । चारों गतियों में दुःख है, अशान्ति है, क्लेश और संताप है । इसलिए संसार को भीषण-रौद्र जंगल की उपमा दी है और इस संसार में से शीघ्रातिशीघ्र बाहर निकल जाने की तीर्थंकरों ने प्रेरणा दी है । मुक्ति-मोक्ष पाने का उपदेश दिया है । परंतु संसार की दो गतियों में सुख के आभास दिखते हैं । देवगति और मनुष्यगति में जीवों को वैषयिक सुख, सुखरूप दिखते हैं ! जैसे रेत के प्रदेश में मृग को दूर से पानी का आभास होता है वैसे ! पानी नहीं होता है, फिर भी पानी दिखाई देता है मृग को, और वह पानी पीने के लिए दौड़ता रहता है । वैसे स्वर्ग और मनुष्यलोक में सुखाभासों को सुख समझकर जीव उन वैषयिक सुखों के लिए दौड़ते रहते हैं। __यही है सुखतृष्णा का दावानल ! सुख-लोभ का दावानल ! समग्र संसार में यह दावानल जल रहा है, भड़क रहा है । जैसे जैसे जीव को भ्रमणा के सुखों की प्राप्ति होती जाती है, दावानल में लकड़ियाँ (वैषयिक सुखप्राप्ति की) गिरती जाती हैं, वैसे दावानल की ज्वालाएँ जलती रहती हैं, बुझती नहीं हैं । ऐसे संसार में जीवात्मा को स्वस्थता, शान्ति, प्रसन्नता कैसे रह सकती है ? दावानल में फँसे हुए जीवों की अशान्ति, संताप और पीड़ा देखनी हो तो किसी जलते हुए घर में फँसे हुए लोगों को देखना ! शान्त सुधारस : भाग १ १८४ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I संसार के इस स्वरूप का चिंतन करना है । चिंतन करोगे तभी यह 'संसारभावना' बनेगी । तभी संसार का मोह, संसार की आसक्ति टूटेगी । संसारभावना का यही प्रयोजन है । इस ग्रंथ के प्रारंभ में ही ग्रंथकार ने 'नीरन्ध्रे भवकान ने...' संसार को भयंकर जंगल बताया है ! आश्रवों के बरसते बादल बताये हैं, जंगल में फैली हुई कर्मों की लताएँ बताई हैं, मोह का व्यापक प्रगाढ़ अंधकार बताया है । इस प्रकार संसारस्वरूप का दर्शन करवा कर ज्ञानीपुरुष जीवों को संसार से विरक्त बनाना चाहते हैं । मोहासक्ति तोड़ना चाहते हैं । भ्रमणा के सुखों से जीवों को मुक्त करना चाहते हैं । संसारभावना के पहले श्लोक में ग्रंथकार उपाध्यायजी ने संसार को दो उपमाएँ दी हैं : * संसार जंगल में दावानल सुलग रहा है, * संसार के रेगिस्तान में मृगतृष्णा मरीचिका दिख रही है । लोभ का दावानल और विषयतृष्णा की मृगतृष्णा ! ये दो बातें बताई हैं । इन दो बातों पर चिंतन करना है । - लोभ का दावानल : दावानल उसको कहते हैं जो कभी नहीं बुझता । जब तक जंगल में लकड़ियाँ होती हैं तब तक दावानल जलता ही रहता है । लकड़ियों के साथ जो छोटेबड़े जीव आग की लपटों में आ जाते हैं, वे भी जल कर मर जाते हैं। लोभतृष्णाआसक्ति दावानल जैसी है। संसार में जीवों की विषयासक्ति, वैषयिक तृष्णा... विषयों का लोभ कभी शान्त नहीं होता है । 'लाभ' की लकड़ियाँ लोभ के दावानल को प्रज्वलित रखती हैं। जैसे जैसे विषयलाभ होता जाता है वैसे लोभ बढ़ता जाता है । 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है : जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढ | I जैसे जैसे द्रव्यलाभ होता जाता है, वैसे वैसे लोभ बढ़ता जाता है । लाभ लोभवृद्धि का कारण है । इच्छाओं का कोई अन्त नहीं होता है । इच्छाएँ अनन्त होती हैं । 'उत्तराध्ययन सूत्र के कापिलीय - अध्ययन में, 'कपिल' नाम के केवलज्ञानी स्वयं अपना दृष्टांत देकर समझाते हैं कि इच्छाओं का अन्त नहीं होता । एक दासी से प्रेम हो गया था, उसको संतुष्ट करने के लिए थोड़ा सोना लेने कपिल राजा के पास गये थे... परंतु एक करोड़ स्वर्णमुद्राओं की प्राप्ति से संसार भावना १८५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी इच्छा पूर्ण नहीं हो पायी थी । उनकी आत्मा तो जाग्रत हो गई थी और वे इच्छाओं से मुक्त हो गये... संसार से मुक्त हो गये ! राजसभा में खड़े-खड़े वे केवलज्ञानी बन गये थे । लोभ से विनाश : परंतु जो आत्मज्ञानी नहीं होते हैं, लोभ उनका विनाश करता है ! उपनिषदों में एक कथा आती है । महापंडित 'कौत्स्य कालिन्दी नदी के तट पर बैठकर प्रतिदिन प्रवचन दिया करते थे । विषय चल रहा था 'लोभ से विनाश । पंडितजी स्वयं को लोभविजेता मानते थे। वैसे उनके सामने लोभ का कोई प्रसंग भी नहीं आया था । T नदी के गहरे पानी में एक मगरमच्छ रहता था । उसने सोचा कि यह पंडित अभिमानी, अपरिपक्व और आपबड़ाई करनेवाला है। उसने पंडित को बोधपाठ देना चाहा ! एक दिन नदी के किनारे से पंडित के आसन तक मगरमच्छ ने मोती बिखेर दिये । पंडित ने मोती देखे ! वे मोती इकट्ठे करने लगे । मोती इकट्ठे करते-करते वे किनारे तक पहुँच गये। किनारे पर मगरमच्छ उनका इन्तजार ही कर रहा था । उसने पंडितजी को प्रणाम किया और कहा 'कृपावंत, मैं तो जलचर प्राणी हूँ, आपके आसन तक आ नहीं सकता । इसलिए मोती डालकर आपको यहाँ तक बुलाया । आपके दर्शन कर धन्य हुआ । : मगरमच्छ की संपन्नता, उदारता और श्रद्धा देखकर कौत्स्य पंडित खुश हुए । आशीर्वाद दिये । मगरमच्छ ने कहा : 'गुरुदेव, आप करुणानिधान हैं । मेरी एक मनोकामना त्रिवेणीस्नान करने की है। मैंने मार्ग देखा नहीं है । क्या आप मुझे मार्ग दिखायेंगे ? आप मेरी पीठ पर बैठ जायें, आप मार्ग बताते जायेंगे, मैं तैरता जाऊँगा । त्रिवेणी संगम पहुँचकर, मेरे पास जो सहस्र मणियों का हार है, वह आपको ही देना है । 1 मगरमच्छ की बात सुनकर पंडितजी के मुँह में पानी आ गया ! सहस्र मणियों के हार की बात सुनकर वे ललचा गये । लोभ के पहले ही आक्रमण में पंडित का पांडित्य हवा में उड़ गया ! वे मगरमच्छ की पीठ पर बैठ गये । मगरमच्छ नदी के प्रवाह में तैरने लगा । मगरमच्छ ने पंडित को कहा : पंडितजी, आप रोजाना 'लोभ से विनाश का उपदेश देते हैं, वह उपदेश आप भूल गये न ?' उसने पंडित को पानी में डाल दिया और अविलंब उनको उदरस्थ कर गया । निगल गया ! १८६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयलालसा : मृगतृष्णा : 1 ग्रंथकार ने संसार को वीरान उज्जड़ जंगल की उपमा दी है। इसको जंगल कहने के बजाय रेगिस्तान कहना ज्यादा उचित होगा । रेगिस्तान में सूर्य तपता है, तब मृगजल दिखाई देता है । दूर-दूर मृगों को पानी से भरा सरोवर दिखता है । वह पानी पीने, तृषातुर मृग दौड़ते हैं । परंतु वहाँ पानी की जगह गरमगरम रेत मिलती है । पुनः वे मृग दूर-दूर देखते हैं, पानी का सरोवर दिखता है... पानी पीने उधर दौड़ते हैं, पर पानी नहीं मिलता है, गरम-गरम रेत मिलती है । यह सिलसिला दिनभर चलता रहता है, मृग भटकते रहते हैं, शाम को वे मर जाते हैं । विषयतृष्णा मृगजल जैसी है। जीवात्माएँ जन्म से मृत्यु तक विषयतृष्णा से भव- रेगिस्तान में भटकते रहते हैं । दूर से विषयों में सुख दिखाई देता है । विषय मिलने पर सुख नहीं, परंतु दुःख मिलता है । इस विषय में मैं आपको एक कहानी, जो कि बहुत रोमांचक है, सुनाकर व्याख्यान समाप्त करूँगा । अभयकुमार और चार मुनिवर : मगधसम्राट श्रेणिक के पुत्र और महामंत्री थे अभयकुमार । अभयकुमार को भगवान् महावीरस्वामी के ऊपर दृढ़ श्रद्धा थी । मगधदेश के महामंत्री होने पर भी वे अपना आत्मकल्याण नहीं भूलते थे । अनेकविध प्रवृत्तियाँ होने पर भी, समय निकाल कर, निवृत्त होकर वे धर्मध्यान करते रहते थे । उनको संसारत्यागी और विरागी मुनिवरों के प्रति आंतर- प्रेम होता था। कभी-कभी पौषधव्रत लेकर, वे रातभर मुनिवृंद के साथ रहते थे और पवित्र वातावरण का आनन्द पा थे । उनको पवित्र मुनिजीवन पसंद था और उनका ध्येय भी मुनिजीवन था । - एक दिन की बात है । अभयकुमार ने रात्रि - पौषध का व्रत लिया। पौषधशाला में श्री सुस्थितसूरिजी अनेक मुनिवरों के साथ बिराजमान थे। रात्रि का एक प्रहर व्यतीत होने पर, सभी मुनिवर निद्राधीन हुए, तब अभयकुमार ने धर्मध्यान शुरू किया । इतने में रात्रि की निरव शान्ति का भंग करता हुआ भयं ऐसा शब्द सुनायी दिया। अभयकुमार ने जिस तरफ से आवाज आयी थी, उस तरफ देखा । उपाश्रय में प्रवेश करते हुए एक मुनिराज के मुख से यह शब्द निकला था । अभयकुमार खड़े हुए और मुनिराज को विनय से पूछा : 'हे पूज्य, उपाश्रय में प्रवेश करते समय तो 'निसिही' बोलना होता है, आप 'भयं' बोले, भगवंत, यहाँ उपाश्रय में आपको किस बात का भय है ?' संसार भावना १८७ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिराज को कुछ संकोच हुआ। उन्होंने कहा : मंत्रीश्वर, अचानक ही मेरे मुँह से भयं शब्द निकल गया ! यहाँ उपाश्रय में कोई भय नहीं है। यह तो मेरी पूर्वावस्था की, गृहस्थावस्था की एक घटना स्मृतिपथ में आयी... और मेरे मुँह से भयं शब्द निकल गया । हे मुनिवर, आपकी पूर्वावस्था की सत्य घटना क्या आप मुझे सुनायेंगे ? मुनिराज ने कहा : अवश्य सुनाऊँगा । हम उपाश्रय के बाह्य भाग में बैठे ! शिवमुनि और अभयकुमार उपाश्रय के एकांत भाग में जाकर बैठे । निरव शांति थी। आत्माओं की पवित्रता थी, प्रसन्नता थी। स्वच्छ आकाश था। चंद्र की चाँदनी पृथ्वी पर बरस रही थी। मुनिराज ने अपने जीवन की रोमांचक कथा सुनाना शुरू किया। ___ मंत्रीश्वर, मेरा जन्म उज्जयिनी नगरी में हुआ था । हम दो भाई थे । शिव और दत्त । हमारा परिवार निर्धन था । हम दोनों भाई बड़े हुए । निर्धनता का, दरिद्रता का दुःख हमसे सहा नहीं गया । हमने धनार्जन के लिए दूसरे देशप्रदेश में जाने का निर्णय किया । हम सौराष्ट्र में पहुँचे । वहाँ हमने बहुत धन कमाया । घर वापस जाने को तैयार हुए । हमने सभी रुपयों का जवाहिरात खरीद लिया । यानी हीरा, रत्न, मोती वगैरह ले लिया और एक पोले बांस में भर दिया । बांस को लकड़ी की तरह उठाकर हमने चल दिया । बांस भारी हो गया था। इसलिए कभी मैं उठाता, कभी मेरा भाई दत्त उठाता । जब मैं बांस उठाता तब मेरे मन में एक पापविचार आ जाता था - यदि मैं इस दत्त को मार डालूँ तो संपूर्ण धन मेरा हो जायं ! हम चलते रहे । रास्ते में पानी का सरोवर आया । हमने सरोवर का पानी पिया और स्नान भी कर लिया । वहाँ पुनः मुझे वह दुष्ट विचार आया - इस सरोवर में दत्त को ड्रबो , और मैं अकेला संपत्ति का मालिक बन जाऊँ ! मैं विह्वल बन गया, मेरा मन चंचल हो गया। मैंने मेरे छोटे भाई दत्त की ओर देखा । उसका निर्दोष चेहरा देखते ही मेरे दुष्ट विचार के प्रति घोर घृणा पैदा हो गई । 'अरे, इस तुच्छ धन के लोभ से मेरे छोटे भैया को मैं मार डालूँ क्या ? नहीं, नहीं, इस धन की वजह से ही मुझे ऐसा अधम-पापविचार आता है... इसलिए यह धन ही नहीं चाहिए !' मैंने वह बांस उस सरोवर में फेंक दिया । मेरा भाई दत्त तत्काल खड़ा हो गया... और बोला : अरे भाई, तुमने यह क्या कर दिया ? पूरा धन पानी में डाल दिया ?' | १८८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैंने दिल खोलकर सारी बात कह दी । उसने मेरी बात सुनने के बाद कहा : जब मैं वह बांस उठाकर चलता था तब मेरे मन में भी ऐसा ही पापविचार आता था । तुमने अच्छा किया। अर्थ ही अनर्थ का मूल होता है ! हम लोग पुनः निर्धन हो गये । परंतु अब हमें निर्धनता का दुःख नहीं था । क्यों कि स्वेच्छा से संपत्ति का त्याग करने पर दुःख नहीं होता है । मंत्रीश्वर, हम दोनों भाई घर पहुँचे । दूसरी ओर एक अजीब सी घटना घटी। जिस बांस को हमने सरोवर में फेंक दिया था, उस बांस को एक मगरमच्छ निगल गया था । वह मगरमच्छ, एक मच्छीमार की जाल में फंस गया और मच्छीमार उसको अपने घर ले गया। ___ हम लोग मांसाहारी थे । हमारे घर पर मेहमान आये थे । मेरी बहन भोजन के लिए उस मच्छीमार के घर से उसी मगरमच्छ को खरीद कर ले आयी, कि जो बांस की लकड़ी निगल गया था ! मेहमान ज्यादा थे, इसलिए बहन बड़ा मगरमच्छ खरीद कर ले आयी थी। उसने उस मगरमच्छ को चीर डाला । पेट में से वह बांस निकला ! उसने बांस को खोला । भीतर से रत्न, मणी वगैरह निकल आये । बहन अत्यंत हर्षित हो गई । हमारी माँ ने पूछा : बेटी, क्या है बांस में ? क्यों इतनी खुश हो गई? बहन ने बांस को छपा दिया और बोली : कुछ नहीं है माँ !' परंतु माँ उसके पास जाने लगी, तब बहन ने धन के लोभ से प्रेरित होकर, पास में जो मूशल पड़ा था, वह उठाकर माँ को मार दिया । माँ उसी समय मर गई । उसी समय हम दोनों भाई घर में आये | बहन घबरा गई। वह खड़ी हो गई। उसके वस्त्र में से वह बांस नीचे गिर पड़ा। अहो, यह तो वही पोला बांस है, जिसमें हमने रल भरे थे, बाद में हमारी बुद्धि बिगड़ी थी और हमने पानी में फेंक दिया था ! यह बांस यहाँ कैसे आ गया ? हमने माँ का मृत देह देखा, बहन को देखा...'अर्थ ही अनर्थ का मूल है । हमें संसार के प्रति वैराग्य हो गया। माँ का अग्निसंस्कार कर, घर बहन को सोंपकर, हम दोनों भाइयों ने आचार्यदेव के पास चारित्रधर्म स्वीकार कर लिया । मंत्रीश्वर, अभी उपाश्रय में प्रवेश करते समय, वह दृश्य - बहन माँ को मूशल मारती है – सामने आ गया और मुँह से 'भयं' शब्द निकल गया । __ मुनिराज की व्यथापूर्ण कथा सुनकर अभयकुमार व्यथित हो गये । विषयतृष्णा की, धनलालसा की भयानकता सोचते-सोचते वे अपनी जगह चले गये । वे । संसार भावना १८९ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्राधीन होने का सोचते थे, तभी दूसरी घटना वहाँ घटती है । पत्नी का विश्वासघात : 'महाभयं : महामंत्री ने 'महाभयम्' शब्द सुना। उन्होंने उपाश्रय के द्वार पर देखा । एक मुनिराज द्वार में प्रवेश कर रहे थे, उनके मुँह से यह शब्द निकला था । अभयकुमार खड़े हुए, मुनिराज के पास गये, धीरे से पूछा : है पूज्य, आप 'महाभयम्' क्यों बोले ? आपने यहाँ कोई भय देखा क्या ?' मुनिराज ने कहा : 'मंत्री श्वर, मेरे गृहस्थ जीवन की एक महाभयंकर घटना याद आ गई और सहसा मेरे मुँह से 'महाभयम्' शब्द निकल गया । महामंत्री ने पूछा : कृपावंत, ऐसी कैसी घटना घटी आपके जीवन में ? यदि आपके स्वाध्याय में विघ्न नहीं होता हो तो कहने की कृपा करें ।' मुनीश्वर और मंत्री श्वर, उपाश्रय के एक एकान्त भाग में जाकर बैठे। मुनिराज ने स्वस्थ बनकर अपनी व्यथापूर्ण कथा शुरू की। मैं चंपानगरी में रहता था । मेरा नाम था सुव्रत । मेरे पास अपार सुख-समृद्धि थी । परंतु एक रात्रि में मेरा भाग्यचक्र बदल गया । मेरी समृद्धि ही मेरे लिये दुःखरूप बन गई । डाकुओं ने मेरी हवेली में डाका डाला । मैं हवेली में छूप गया । मेरी पत्नी ने डाकुओं को कहा: 'तुम्हें क्या चाहिए ? कंचन या कामिनी ? यदि तुम्हें स्त्री चाहिए तो मैं तुम्हारे साथ आने को तैयार हूँ ।' मैंने मेरी पत्नी के शब्द सुने । मुझे सत्य नहीं लगा । परंतु सच ही मेरी पत्नी डाकुओं के साथ चली गई । डाकुओं ने मेरी पत्नी पल्लीपति को सौंप दी । पल्लीपति ने उसको अपनी पत्नी बना ली ! डाकुओं के जाने के बाद, मेरे मित्र मेरे घर आये । उनको मालूम हुआ कि 'डाकु मेरी पत्नी को उठाकर ले गये हैं । उन्होंने मुझे आग्रह किया कि मैं उसको मुक्त करा कर ले आऊँ । हालाँकि मेरा मन नहीं मानता था, फिर भी मैं मित्रों के आग्रह से डाकुओं के अड्डे की ओर चल पड़ा। वहाँ मैंने एक वृद्धा की झोंपड़ी देखी । मैं उसकी झोंपड़ी में गया । वृद्धा को बहुत धन देकर संतुष्ट किया । मैंने उसको कहा : पल्लीपति के घर में मेरी पत्नी रहती है, उसके पास जाकर तुम मेरे आगमन के समाचार दो । वृद्धा जाकर आयी और बोली : 'उसने कहा है कि आज रात्रि में तुम उसके घर चले जाना। क्योंकि आज रात्रि में पल्लीपति बाहर जानेवाला है ।' मैंने पूछा : वह कहाँ रहती है ? वृद्धा ने कहा : 'सामने..... १९० शान्त सुधारस : भाग १ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर जो तालवृक्ष दिखता है न ? उस वृक्ष के नीचे उसका घर है ।' मेरा मन आश्वस्त हुआ । पत्नी की ओर कुछ विश्वास पैदा हुआ । सूर्यास्त होने पर मैं वृद्धा की झोंपड़ी से निकला । तालवृक्ष के नीचे घर में दीपक जल रहा था । मैं उधर पहुँच गया । वह घर के द्वार पर ही खड़ी थी । उसने इशारे से मेरा स्वागत किया । मैंने झोंपड़ी में प्रवेश किया। मेरे मन में विचार आया : 'कहाँ, मेरी भव्य हवेली और कहाँ यह झोंपड़ी ? हवेली छोड़कर यह औरत क्यों इस झोंपड़ी में आयी होगी ? मेरी पत्नी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे खटिया पर बिठाया । पानी से मेरे पैर धोने लगी । उसकी आँखों में से अश्रुधारा बहने लगी । मुझे लगा कि उसको अपने पाप का पश्चात्ताप हो रहा है । इतने में झोंपड़ी के द्वार पर पल्लीपति आकर खड़ा रहा। मैं घबराया । मेरी पत्नी ने मुझे उसी खटिया के नीचे छिपा दिया । उसने पल्लीपति को उसी खटिये के ऊपर बिठाया । गरम पानी से उसके पैर धोने लगी । उसने पल्लीपति को कहा : हे नाथ, मेरा पति यदि यहाँ आये तो आप क्या करें ?' उसने कहा : 'उसको धन दूँ, वस्त्र दूँ और उसकी पत्नी देकर बिदा दूँ !' पल्लीपति की बात, मेरी पत्नी को पसंद नहीं आयी, उसने रोष किया । पल्लीपति ने हँसकर कहा : 'प्रिये, मैंने तो मजाक में बोला, वास्तव में यदि तेरा पति यहाँ आये तो उसको बाँधकर उसकी पिटाई कर दूँ। मेरी पत्नी खुश हो गई । वह बोली : 'मेरा पति इस खटिये के नीचे ही है !' पल्लीपति ने मुझे पकड़ा, एक वृक्ष के साथ बाँधा और मुझे मारा। झोंपड़ी के द्वार खुल्ले रखकर, पल्लीपति मेरी पत्नी के साथ सो गया । वहाँ कुछ देर के बाद एक कुत्ता आया । उसने मेरे पैर के बंधन का दिये । मैं मुक्त हो गया। मैं झोंपड़ी में गया । खटिये के पास तलवार पड़ी थी, मैंने उठा ली । मेरी पत्नी को जगाया, तलवार बतायी और इशारे से चलने को कह दिया । वह आगे और मैं पीछे ! हम चलते रहे । रात्रि पूर्ण हो गई । हम दोनों एक बांस के वृक्षों की जाल में छिप गये । परंतु कुछ समय में ही पल्लीपति उनके साथियों के साथ वहाँ आ पहुँचा । मैं भयभीत हो गया । मेरी पत्नी, पल्लीपति के पीछे जाकर खड़ी रह गई । पल्लीपति ने मुझसे तलवार छीन ली और मुझ पर प्रहार कर दिया। मैं भूमि पर गिर पड़ा । । जब मैं जगा, तो मेरे शरीर पर तलवार के अनेक प्रहार हुए थे। मुझे बहुत ज्यादा दर्द हो रहा था । मैं जरा भी हलचल करने में समर्थ नहीं था । मुझे मेरी संसार भावना १९१ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवशता पर रोना आ गया। मेरी आँखों में से आँसू बहने लगे । मध्याह्न का समय हुआ। एक बड़ा बंदर छाया खोजता हुआ मेरे पास आया। वह मुझे एकटक देखता रहा और भूमि पर गिर पड़ा। जब उसकी मूर्च्छा दूर हुई, वह खड़ा हुआ और जंगल में चला गया । वह थोड़ी देर में ही दो प्रकार की वनस्पति लेकर आया और मेरे शरीर पर वह वनस्पति लगा दी । मेरे घाव भर गये । बाद में वह बंदर जमीन पर कुछ लिखने लगा । उसने लिखा था 'मैं तेरे ही गाँव का सिद्धकर्मा नाम के वैद्य का पुत्र था । परंतु आर्तध्यान में मरकर बंदर हुआ | तुझे देखकर मुझे पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी है । पूर्वजन्म के औषधीज्ञान से यह वनस्पति ले आया हूँ और तुझे स्वस्थ किया है। अब तुझे मेरा एक काम करना है । मैंने कहा : 'मैं तेरा काम करूँगा । बंदर ने कहा : 'मेरी बात सुन । एक बलिष्ठ बंदर ने मुझे बंदरयूथ से निकाल दिया है । उसे मारकर, मुझे उस बंदरयूथ का नायक बना दे। मेरे उपकार का बदला इस प्रकार मुझे देना है । मैंने वैसा ही किया । उस बंदर को मारकर, मेरे उपकारी बंदर को नायक बना दिया । पुनः मैं वैर का बदला लेने, पल्लीपति के पास गया । रात्रि के समय उसकी तलवार से उसका वध कर दिया और बेवफा पत्नी को लेकर घर आया । परंतु मेरा मन संसार के प्रति विरक्त बन गया था। मैंने गुरुदेव के पास जाकर चारित्रधर्म का स्वीकार कर लिया । | हे मंत्रीश्वर, इस घटना से मेरे मुँह से 'महाभयम्' शब्द निकल गया था ! अभयकुमार एकाग्रता से सुव्रत मुनिवर की आत्मकथा सुन रहे थे । संसार की भयानकता के विचार में डूब गये थे । उन्होंने मुनिराज को कहा: मुनिराज, आपने चारित्रधर्म का मार्ग लेकर वास्तव में आत्मा को बचा ली है। जीवन को पावन बना दिया है और परलोक को सुखमय कर दिया है !' I अभयकुमार ने मुनिराज को वंदना की और वह अपने स्थान पर गये । धर्मध्यान में लीन बने । धनद मुनिवर : 'अतिभयम्' : रात्रि का तीसरा प्रहर शुरू हो गया था । महामंत्री के कान पर शब्द आया : 'अतिभयम् !' महामंत्री का धर्मध्यान भंग हुआ । उन्होंने उपाश्रय के द्वार में प्रवेश करते मुनिराज को देखा। वे उठकर मुनिराज के पास गये और पूछा : १९२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे पूज्य, अतिभयम्' शब्द क्या आपके मुख से निकला ?' मुनिराज ने कहा : हाँ, मंत्रीश्वर, मेरे मुख से निकल गया। महामंत्री ने कहा : 'प्रभो, श्री जिनधर्म की शरण में रहे हुए मुनि को किसका अति भय ? मुनिराज तो निर्भय होते हैं | मुनिराज ने कहा : ___ मंत्रीश्वर, जिनधर्म की शरण में आने के बाद आत्मा निर्भय ही होती है । परंतु मेरे गृहस्थ जीवन की एक अति भयानक घटना स्मृति में आयी और 'अतिभयम्' शब्द मेरे मुँह से निकल गया । ___ महामंत्री ने कहा : गुरुदेव, ऐसी कौन-सी घटना आपके जीवन में घटी ? यदि आप कहने की कृपा करेंगे तो मेरी वैराग्यभावना दृढ़ होगी। ___ दो मुनिवरों की व्यथापूर्ण जीवनकथा सुनकर अभयकुमार का वैराग्यभाव बढ़ ही रहा था । आज की रात, मानो कि ऐसी जीवनकथा सुनने की ही रात थी। अभयकुमार की तत्त्वदृष्टि, मुनिवरों की जीवनकथा में संसार की वास्तविकता का दर्शन करती थी । मोक्षमार्ग की यथार्थता का दर्शन करती थी। __धनद मुनिवर के चरणों में अभयकुमार विनय से बैठ गये । धनदमुनि ने अपने जीवन की... अतीतकाल की स्मृति को झकझोरा । उन्होंने कहा : उज्जयिनी नगरी के पास एक गाँव है । उस गाँव में प्रिय श्रेष्ठी मेरे पिता और गणसंदरी मेरी माता । मेरा नाम धनद । मेरे माता-पिता ने मुझे अच्छे संस्कार दिये । जब मैं यौवन में आया, तब मेरे पिता ने उज्जयिनी की एक कन्या के साथ मेरी शादी कर दी। शादी के कुछ दिनों के बाद, मेरी पत्नी उसके पितृगृह गई थी । उसको लेने मैं पैदल ही उज्जयिनी की ओर चला । संध्या का समय था । मेरे पास तलवार थी। उज्जयिनी में प्रवेश करने का मार्ग, स्मशान के पास से गुजरता था । मैं जब स्मशान के पास पहुंचा, तो मैने वहाँ एक भयानक दृश्य देखा । 'क्या देखा गुरुदेव ?' महामंत्री बीच में बोल उठे । वहाँ एक मनुष्य को सूली पर चढ़ाया हुआ था । वह मर गया था। उसके पास एक औरत बैठी थी और करुण स्वर से रो रही थी। मैं वहाँ खड़ा रह गया । मुझे उस स्त्री के ऊपर दया आ गई । मैंने पूछा : औरत, तू क्यों रोती है ?' उसने कहा : 'मैं दुःखी हूँ। मैंने पछा : 'तुझे किस बात का दुःख है ?' वह बोली : तुझे कहकर क्या करना ? जो पुरुष मेरा दुःख दूर कर सके, उसे कहना उचित है। मैंने कहा : 'मैं तेरा दुःख दूर करूँगा । उस स्त्री ने कहा : | संसार भावना १९३ | Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 'इस सूली पर जो पुरुष है, वह मेरा पति है । राजा ने उसके अपराध की शिक्षा दी है। अभी वह मरा नहीं है । मेरी इच्छा मेरे हाथों से उसको भोजन कराने की है । तूं यदि उतनी ऊँचाई पर मुझे चढ़ा दें तो मैं उसको भोजन करा सकूँ । मैंने कहा : ठीक है, तूं मेरे कंधे पर चढ़ जा ।' उसने कहा : 'जब तक मैं उसको भोजन करा न लूँ तब तक तुझे ऊपर नहीं देखने का । मैं लज्जाशील नारी हूँ ।' मैंने कहा : 'ठीक है, मैं ऊपर नहीं देखूँगा । वह औरत मेरे कंधे के ऊपर चढ़ गई। थोड़े समय के बाद मेरे शरीर पर कुछ बूंदे गिरने लगी । अंधेरा था, इसलिए मुझे खयाल नहीं आया कि वे बूंदे किसकी थी । पानी की बूंद समझकर मैंने ऊपर नहीं देखा । परंतु जब ज्यादा बूंदे गिरने लगी... मुझे खून की बाँस आने लगी । मैंने ऊपर देखा... मैं काँपने लगा । वह औरत, उस मृत पुरुष के शरीर का मांस खा रही थी । मैं उसी समय उस औरत को जमीन पर पछाड़कर भागा। परंतु मैं मेरी तलवार लेना भूल गया । वह स्त्री मेरी तलवार लेकर मेरे पीछे दौड़ी। मैं दौड़ता हुआ नगर के दरवाजे में प्रवेश करने जाता हूँ, मेरा एक पैर दरवाजे के बाहर था, उसी समय उस स्त्री ने मेरा एक पैर काट दिया और पैर लेकर वह भाग गई । मुझे अत्यंत वेदना हो रही थी । मैं दरवाजे के भीतर आ गया था । वहाँ पर ही बैठ गया । दरवाजे के भीतर दुर्गरक्षिका देवी का मंदिर था। मैं धीरेधीरे मंदिर में गया और करुण स्वर से देवी के सामने विलाप करने लगा । देवी प्रगट हुई और वात्सल्य से मुझे कहा: वत्स, जो मनुष्य नगर के भीतर होता है उसकी रक्षा मैं कर सकती हूँ। तेरा एक पैर दुर्ग के बाहर रह गया था, इसलिए कट गया । परंतु तू चिंता मत कर । मैं तेरा पैर अच्छा कर देता हूँ ।' देवी ने मेरा पैर अच्छा कर दिया और अदृश्य हो गई। देवी को मैंने वंदना की और मैं मेरे ससुराल पहुँचा । घर बंद था । परंतु भीतर जो वार्तालाप हो रहा था, वह मैं सुनने लगा । मेरी सास और मेरी पत्नी आपस में बात करती थी । मेरी सास बोल रही थी : 'बेटी, आज यह मांस बहुत स्वादिष्ट लगता है, क्या कारण है ?' लड़की बोली : 'माँ, यह मांस तेरे जमाई के पैर का है । इतना कह कर उसने स्मशान में जो घटना बनी थी वह सुनायी और मेरा पैर कैसे काटा, वह भी सुनाया । 1 मंत्री श्वर, मैं तो स्तब्ध हो गया । कैसी क्रूर... भयंकर औरत ? मैं वहाँ से उसी शान्त सुधारस : भाग १ १९४ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय वापस लौट गया, मेरे घर पहुँचा । मेरा मन संसार के वैषयिक सुखों से उद्विग्न हो गया । मैं गुरुदेव के पास चला गया और चारित्र का स्वीकार कर लिया । हे महामंत्री, यह घटना मेरी स्मृति में उभर आयी और मेरे मुँह से 'अतिभयम्' शब्द निकल गया । अभयकुमार, मुनिराज की आत्मकथा सुनकर स्तब्ध हो गये । ऐसी भयंकर घटना संसार में घट सकती है । इस विचार ने उनके मन को वैराग्य से भर दिया। उन्होंने मुनिराज को कहा : है पूज्य, सच ही भगवान महावीर स्वामी ने संसार की जो असारता बतायी है, वह यथार्थ है । जिनवचन सत्य है। आपने संसार का त्याग कर संयम ग्रहण किया, उत्तम कार्य किया । मोक्षमार्ग की आराधना कर लेना यही संसार में सारभूत तत्त्व है। चौथा प्रहर शुरू हो रहा था। चौथी घटना कौन-सी घटती है, यह बात कल बताऊँगा । आज बस, इतना ही । । संसार भावना १९५ | Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शान्त सुधारस प्रवचन : १८ संसार भावना — ⭑ मनुष्यभव के दुःख ⭑ एक गुजराती काव्य : नटवो * संसार की चार गति में परिभ्रमण * भवितव्यता * अनन्तकाल, अनन्त परिभ्रमण अनादिसंसार में नरक के दुःख संकलना चौनक मुनि की आत्मकथा 'भयाद्भयम्' --- २ १० प्रकार की क्षेत्रवेदनाएँ दूसरे प्रकार की १० वेदनाएँ परस्परकृत वेदनाएँ परमाधामी - देवकृत वेदनाएँ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलत्येका चिन्ता भवति पुनरन्या तदधिका मनोवाक्कायेहा विकृतिरतिरोषात्तरजसः । विपद्गर्तावर्ते झटिति पतयालोः प्रतिपदं । न जन्तोः संसारे भवति कथमप्यतिविरतिः ॥ २॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस ग्रंथ में तीसरी संसारभावना का वर्णन करते हुए कहते हैं : इस संसार में मनुष्य की एक चिंता दूर होती है वहाँ उससे बढ़-चढ़कर दूसरी चिंता पैदा हो जाती है । मन, वचन और काया में निरंतर विकार उत्पन्न होते हैं। तमोगुण और रजोगुण के प्रभाव से कदम-कदम पर आपत्तियों की गर्ता में गिरते-लुढ़कते जीवों के दुःखों का अंत किस तरह होगा?' चौनक मुनि की आत्मकथा : भयाद्भयम्। उपाध्यायजी ने इस श्लोक में कहा है : १. संसार में मनुष्य को सतत चिंताएँ रहती हैं । २. मन-वचन-काया में निरंतर विकार उत्पन्न होते हैं, और ३. कदमकदम पर आपत्तियाँ आती रहती हैं । ये तीनों बातें इस कहानी के माध्यम से आप समझने का प्रयत्न करें । महामंत्री अभयकुमार और चार मुनिवरों की यह कहानी, संसार की असारता-निर्गुणता और दुःखपूर्णता अच्छी तरह समझाती है। धनदमुनिवर की आत्मकथा सुनकर महामंत्री गहन विचार में डूब गये। रात्रि की निरव शांति, पौषधशाला का पवित्र वातावरण और मुनिवरों की वैराग्यपूर्ण जीवनकथाएँ ! अभयकुमार पर गहरा असर हुआ। संसार में कर्मों के दारुण विपाकों को वे सोचने लगे । चौथा प्रहर शुरू हुआ था। पुनः एक शब्द - भयाद्भयम् उनके कानों पर आया । भयों का भी भय ! महामंत्री ने उपाश्रय के द्वार पर देखा । द्वार पर एक मुनिराज खड़े थे। महामंत्री खड़े हुए और मुनिराज के पास गये । पछा : हे पूज्य, क्या भयाद्भयम् शब्द आपके मुँह से निकला ?' मुनिराज ने कहा : हाँ महामंत्री, भयाद्भयम् शब्द मेरे मुँह से निकल गया.... महामंत्री ने कहा : कैसे ? आपको कैसा भय ? आप तो इन्द्र जैसे निर्भय हो । संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले मुनिवर को भय कैसा ?' मंत्रीश्वर, सही बात है आपकी, परंतु मेरे गृहस्थजीवन की एक अति भयानक घटना मुझे याद आ गई, और मेरे मुँह से यह शब्द निकल गया । महामंत्री ने कहा : हे पूज्य, ऐसी कौन-सी घटना घटी थी, आपके जीवन । संसार भावना १९७ / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ? यदि समय हो तो मुझे सुनाने की कृपा करें, जिससे मेरा भववैराग्य तीव्र बन सकें । मुनिवर और मंत्रीश्वर उपाश्रय के एकान्त भाग में जाकर बैठे और मुनिवर ने अपनी आत्मकथा शुरू की। __ 'मेरा जन्म उज्जयिनी नगरी में हुआ था। मेरे पिता धनदत्त, अति धनवान थे । मेरा नाम चौनक था। मैं जब यौवन में आया, मेरे पिताजी ने श्रीमति नामकी कन्या के साथ मेरी शादी कर दी । श्रीमति के साथ मेरा जीवनकाल सुखमय व्यतीत होता था । श्रीमति गर्भवती हुई । उसने मुझसे कहा : हे नाथ, मुझे मृग का मांस खाने की इच्छा पैदा हुई है। आप मृग का मांस लाकर मुझे दें, अन्यथा मेरी अकाल मृत्यु हो जायेगी। मैंने उसको पूछा : मुझे मृग कहाँ मिलेगा ? उसने कहा : 'आप राजगृही नगरी में जायें, वहाँ के राजा श्रेणिक के पास मृग __ मैं मेरी पत्नी का मनोरथ पूर्ण करने के लिए हाथ में तलवार लेकर राजगृही की ओर चल पड़ा । पत्नी की ओर मुझे अति राग था। इसलिए मेरे मन में बहुत उल्लास था । मैं थोड़े दिनों में ही राजगृही पहुँच गया । मैं बाह्य उद्यान में गया। वहाँ राजगृही की वेश्याएँ आनंद-प्रमोद करने आई थीं। मैं एक वृक्ष के नीचे खड़ा रहा । उद्यान की शीतल हवा ने और वेश्याओं की क्रीड़ा ने मेरी थकान दूर कर दी । इतने में अचानक सरोवर के पास वेश्याओं ने शोर मचा दिया । नगरी की प्रसिद्ध वेश्या मगधसेना सरोवर में गिर गई थी । मैं सरोवर की ओर दौड़ा, सरोवर में कूद पड़ा। मुझे तैरना आता था । मैं मगधसेना को उठाकर सरोवर के किनारे पर आ गया । __ मगधसेना मुझ पर प्रसन्न हो गई । उसने मुझे कहा : हे प्रवासी, तुमने मुझे बचा लिया है, इसलिए तुम मेरे उपकारी हो । आज तुम मेरे साथ रहो और इस उद्यान में मेरे साथ आनंद-प्रमोद करो । मैं मगधसेना की बात टाल नहीं सका । एक दिन उसके साथ वहाँ रहा । उसने मुझे राजगृही आने का प्रयोजन पूछा । मैंने सारी बात बता दी । उसने मुझे कहा : 'हे श्रेष्ठिपुत्र, आप सरल हैं । आप समझ नहीं पाये, आपकी पत्नी दुराचारिणी है । मृग-मांस के बहाने से आपको दूर भेज दिया है।' ___ मैं मेरी पत्नी के प्रति अति रागी था, मेरा उस पर अति विश्वास था, इसलिए मैंने मगधसेना की बात नहीं मानी। मैंने मगधसेना को समझाने का प्रयत्न किया कि मेरी पत्नी संपूर्ण पतिव्रता है । परंतु मगधसेना मानने को तैयार नहीं थी। शान्त सुधारस : भाग १ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसने मुझे उसकी भव्य हवेली में रखा । एक दिन उसके साथ रथ में बैठकर नगर की ओर जा रहा था, वहाँ एक हाथी दौड़ता हुआ सामने आया। हाथी राजा श्रेणिक का था । वह उन्मत्त बन गया था। मैं रथ में से नीचे उतर गया । मैं हाथी को वश करने की विद्या जानता था। मैंने तर्त ही हाथी को वश कर लिया । नगरजनों ने मेरी बहुत प्रशंसा की । मगधसेना बहुत प्रसन्न हुई । हम हवेली पर पहुँचे । मगधसेना ने मुझे प्रेम से भोजन कराया और कहा : आज मैं महाराजा श्रेणिक के राजदरबार में नृत्य करने जानेवाली हूँ, आप साथ चलोगे न ? वहाँ बहुत लोग देखने आयेंगे।' मैने कहा : 'हे प्रिये, आज मुझे बहुत नींद आ रही है, इसलिए मैं नहीं आऊँगा। मगधसेना राजसभा में चली गई। उसके जाने के बाद मुझे मगमांस याद आया । मेरी पत्नी याद आई । मेरा मन व्यथित-विह्वल बन गया। पत्नी की इच्छा पूर्ण करने की इच्छा प्रबल हो गई । मैं उठा और राजमहल की ओर चल पड़ा। मैं पहले राजसभा में गया । वहाँ मगधसेना का नृत्य चल रहा था । लोग नृत्य देखने में लीन थे । मैं गुप्तरूप से राजमहल में घुस गया । मैंने मृगमांस ले लिया और गुप्त मार्ग से निकलने लगा कि द्वाररक्षकों ने मुझे पकड़ लिया। द्वाररक्षक मुझे लेकर राजसभा में आये । मेरे विषय में राजा को शिकायत की। राजा नृत्य देखने में तल्लीन था, उसने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया । मैं वैसे ही खड़ा रहा कि मगधसेना की दृष्टि मुझ पर गिरे । नृत्य पूर्ण होने पर राजा ने मगधसेना को तीन वचन माँगने को कहा । उस समय मगधसेना ने मेरे सामने दृष्टि करते हुए कहा : अरे, मृगमांस का अभिलाषी और मेरे प्राणों की रक्षा करनेवाला मेरा प्राणनाथ कहाँ है ?' मैं बोला : 'हे प्रिये, मैं यहाँ ही खड़ा हूँ | उसी समय मगधसेना ने राजा को नमन कर कहा : 'हे नरनाथ, आपने मुझे तीन वचन माँगने को कहा है, तो मैं पहला वचन यह माँगती हूँ कि इस मृगमांस की चोरी करनेवाले अपराधी को मुक्त कर दिया जायं और दूसरा वचन यह माँगती हूँ कि वही पुरुष मेरा पति हो । राजा ने मगधसेना को दोनों वचन दिये । मगधसेना का मन प्रसन्न हो गया, मैं भी बहुत खुश हुआ। हम दोनों घर पर पहुँचे । भरपूर आनंद-प्रमोद में हमारे दिन व्यतीत होने लगे। परंतु एक दिन मुझे मेरा घर और मेरी पत्नी याद आई । मैंने मगधसेना को कहा : यदि तू मुझे इजाजत दें, तो मैं मेरे घर जाना संसार भावना Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहता हूँ । यहाँ आये मुझे बहुत समय बीत गया है । मेरी पतिव्रता औरत मेरा इन्तजार करती होगी। बोलते-बोलते मेरा हृदय भर आया । मगधसेना ने मुझे कहा : 'प्राणनाथ, आप भले ही माने कि आपकी पत्नी पतिव्रता है, परंतु आप स्त्री का हृदय नहीं समझ सकते । फिर भी आपको जाना ही है तो चलें. मैं भी आपके साथ चलती हूँ । मुझे उस औरत का दुराचरण आपको बताना है । मैंने उसको मेरे साथ चलने की अनुमति दी । वह प्रसन्न हुई, राजा की अनुमति ले आई । हमने बहुत धन साथ ले लिया और उज्जयिनी की ओर प्रयाण कर दिया। - उज्जयिनी आने के बाद, हम नगरी के बाह्य उद्यान में रूके । रात्रि के समय मैं अकेला तलवार लेकर मेरे घर पहुँचा । भाग्य-योग से घर का द्वार खुला हुआ था । मैं धीरे से घर में गया । वहाँ मैंने भयंकर दृश्य देखा । मेरी पत्नी एक पुरुष के साथ सोयी हुई थी। मेरे क्रोध की कोई सीमा नहीं रही। मैंने उस पुरुष के गले पर तलवार का प्रहार कर दिया और उसको यमलोक पहुँचा दिया । मैं घर में ही छुपकर बैठ गया था । मेरी पत्नी जगी । उसने अपने प्रेमी को मरा हुआ देखा । वह शोकाकुल हो गई। परंतु उसने खड़े होकर उसके यार के मृतदेह को घर के पीछे ले जाकर, एक खड्डा खोदकर, उसमें गाड़ दिया । उसके ऊपर वेदिका बनाई, गोबर से लीपा और घर में आकर सो गई। _मैं घर में से निकलकर नगरी के बाहर उद्यान में पहुँचा । मैंने मगधसेना को सारी बात बता दी । मैंने कहा : 'हे प्रिये, तेरी कही हुई बात मैं नहीं मानता था, परंतु आज मैंने उसका व्यभिचार प्रत्यक्ष देखा । अब मुझे घर नहीं जाना है, चलो वापस राजगृही चलें। सुबह हमने राजगृही की ओर प्रयाण कर दिया। हम राजगृही आये । मगधसेना के साथ संसारसुख भोगते हुए कुछ वर्ष व्यतीत हो गये । एक दिन मेरे पिता की बीमारी के समाचार मिले । मैं अकेला ही उज्जयिनी गया। मेरे माता-पिता के पास गया। उनकी कुशलपृच्छा की । उनको नमन कर मैं मेरी पत्नी के पास गया । वह दूसरे घर में रहती थी । मेरी पत्नी ने हर्षविभोर होकर मेरा स्वागत किया। मुझे पलंग पर बिठाकर उसने पूछा : हे नाथ, आपको वापस लौटने में इतना सारा समय कैसे लग गया ?' मैंने कहा : 'तेरे लिए मृगमांस लेने मैं भटकता रहा, परंतु मृगमांस मिला नहीं, क्या करूँ ? फिर, तेरे प्रति अपूर्व स्नेह के कारण वापस घर पर आया । वह बोली : आप क्षेमकुशल वापस आ गये, वही मेरे लिये आनन्द की बात है। माता-पिता की बीमारी की वजह से मुझे वहाँ रहना आवश्यक था। मैं देखता | २०० 88888888888888888888888888888888888888888888888888888888 शान्त सुधारस : भाग १ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था कि मेरी पत्नी, उसके यार की समाधि पर रोजाना सर्वप्रथम नैवेद्य चढ़ाकर बाद में ही मुझे भोजन परोसती थी ! एक दिन मैंने उसको कहा : हे प्रिये, आज मुझे घेवर खाने की इच्छा हुई है, इसलिए घेवर बनाना । जब तक मैं भोजन नहीं कर लँ, तब तक और, किसी को घेवर देना नहीं । मेरी बात सुनकर वह बोली : हे प्राणनाथ, आप ऐसा क्यों बोलते हो ? आपसे ज्यादा मुझे कौन प्रिय है ? घेवर का भोजन तैयार हो गया। मैं भोजन करने बैठा । मेरी पत्नी ने पहला ही घेवर यह तो जल गया है, ऐसा बोलकर, छिपाकर रखे हुए घड़े में डाल दिया । मैंने देख लिया । मुझे क्रोध आ गया। मैंने कहा : रे दुष्टा, अभी भी तू तेरे मरे हुए यार को भूली नहीं है ?' __ मेरी पत्नी को भयंकर गुस्सा आया । मैं वहाँ से भागा । वह मेरे पीछे दौड़ी। उसके हाथ में गर्म-गर्म घी की कढाई थी। उसने मेरे शरीर पर घी डाल दिया। मेरा शरीर जलने लगा। मेरे मुँह से तीव्र चीख निकल पड़ी । मैं मेरे पिताजी के पास गया । उपचार करवाये, मुझे आराम हुआ। मेरा मन विरक्त बन गया था। हालाँकि मगधसेना मुझे हृदय से प्यार करती थी, परंतु मुझे संसार के सभी भोगसुखों के प्रति नफरत हो गई थी । मैंने चारित्रधर्म स्वीकार करने का निर्णय कर लिया। “हे मंत्रीश्वर, मैं पूज्य सुस्थिताचार्यजी के पास पहुँचा । उन्होंने मुझे चारित्र दिया । मेरे पूर्वजीवन की यह बात याद आ जाने पर मेरे मुँह से भयाद्भयम् शब्द निकल गया ।" __ अभयकुमार को सचमुच, चौनक मुनि के पूर्वजीवन की बात दुःखदर्द से भरी हुई मालुम हुई । उन्होंने मुनिराज को कहा : हे महामुनि, आपने चारित्रधर्म का स्वीकार कर, मानवजीवन को सफल कर दिया। भीषण भवसागर को तैर जाने के लिए चारित्रधर्म ही जहाज है। ___ एक रात में चार-चार मुनिवरों की रोमांचक आत्मकथाएँ सुनकर अभयकुमार का मन संसार के वैषयिक सखों से विरक्त बना था। प्रातः पौषधव्रत पूर्ण कर, वैराग्य की मस्ती पाकर वे राजमहल पहुँचे । आप लोग भी वैराग्य की मस्ती लेकर घर लौटोगे न ? हृदय में कुछ हलचल मची क्या ? मनुष्यभव के दुःख : - उपाध्यायश्री विनयविजयजी, मनुष्य-जन्म के दुःखों का वर्णन करते हुए कहते सहित्वा सन्तापानशुचिजननीकुक्षिकुहरे, संसार भावना । २०१ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततो जन्म प्राप्य प्रचुरतरकष्टक्रमहतः । सुखाभासैर्यावत् स्पृशति कथमप्यर्तिविरतिं, जरा तावत्कायं कवलयति मृत्योः सहचरी ॥ ३ ॥ माता के अशुचिमय उदर में आकर, नौ-नौ महीनों तक कष्ट सहन किये, इसके बाद जन्म की पीड़ा सही। बड़े कष्टों को सहते हुए क्षणिक और कल्पित सुख, वैषयिक सुख मिलने पर लगा कि चलो, दुःखों से छुटकारा मिला, इतने तो मौत की परिचारिका सी जरावस्था-वृद्धावस्था आ धमकी और काया जर्जरित हो जाती है। कीमती मनुष्य-जीवन कौडी के मोल बिककर व्यर्थ पूरा हो जाता है । मनुष्य-जीवन के प्रमुख दुःख इस श्लोक में बताये गये हैं । पहला दुःख बताया है गर्भावस्था का । माता के अशुचिपूर्ण उदर में जीव नौ-नौ महीनों तक दुःख सहन करता है । दूसरा दुःख बताया है जन्म का । तीसरा दुःख बताया है यौवनकाल में होनेवाला विषयसुखों के संयोग-वियोग का । चौथा दुःख बताया वृद्धावस्था का और पाँचवा दुःख बताया है मृत्यु का । है एक गुजराती काव्य में इन दुःखों का वर्णन, बहुत हृदयस्पर्शी ढंग से किया गया है । सरल गुजराती भाषा है । समझ में आ जाये वैसा काव्य है । जिनवरप्रभु के सामने कविश्री न्यायसागरजी अपने को नट अभिनेता (एक्टर) बताकर सारी बात कह रहे हैं । सुनें - www हुँ तो नटवो थईने नाटक एवां नाच्यो हो जिनवरिया ! पहेलां नाच्यो पेटमां, माताना, बहुवार, घोर अंधारी कोटडी, त्यां कुण सुणे पोकार... त्यां माधुं नीचुं ने छाती ऊँची हो जिनवरिया ! हुतो. १. हाड - मांसनुं पींजरुं, ऊपर मढ़ीयो चाम, मल-मूत्र मांहे भर्यो में मान्युं सुखनुं धाम, त्यां नव-नव महिना ऊँधे मस्तक लटक्यो हो जिनवरिया ! २. क्रोड़ - क्रोड़ रोम-रोममां करी धगधगती सोय, भोंके जो कोई सामटी, कष्ट अष्ट गणुं होय । पछी माताने में जमनां द्वार देखाइयां हो जिनवरिया ! ३. बाँधी मुठी दोयमां हुँ लाव्यो पुण्य ने पाप, उंवा उंवा करी हुँ रडुं, जगमां हर्ष न माय, पछी पडदामांथी रंगभूमि पर आव्यो हो जिनवरिया ! ४. शान्त सुधारस : भाग १ २०२ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारणीयामां पोढीयो ने माता हालो गाय, खरड़ायो मल-मूत्रमां अंगुली मुख जाय, पछी भीनामांथी सूकामां सुवडाव्यो हो जिनवरिया ! ५. छोटानो मोटो थयो, रमतो धूलीमांय, पिता परणावीयो माता हरख न माय, पछी नारीनो नचाव्यो थै-थै नाच्यो हो जिनवरिया ! ६. कुटुंब - चिंता कारमी घूंट कलेजा खाय, एथी तो भली डाकणी, मनडुं मांही मुंझाय, जाणे कोशीटानो कीडो जाल गुंथायो हो जिनवरिया ! ७. दांतो ने दाढो पडी, ने नीचां ढलीयां नेण, गालोनी लाली गई ख- ख थई गई रैन, पछी डोसो थईने डगमग डगमग चाल्यो हो जिनवरिया ! ८. चार गति चोगानमा नाच्यो नाच अपार, 'न्यायसागर नाच्यो नहीं, रत्नत्रयीने आधार, पण कुमतिनो भरमाव्यो, कांइ ना समज्यो हो जिनवरिया ! ९. संसार की चार गति में परिभ्रमण : - उपाध्यायश्री विनयविजयजी, जीवात्मा क्यों और कैसे संसार में परिभ्रमण कर रहा है, वह दो श्लोकों में बता रहे हैं। : विभ्रान्तचित्तो बत बम्प्रभीति, पक्षीव रुद्धस्तनुपञ्जरेऽङगी । नुन्नो नियत्याऽतनुकर्मतन्तु-सन्दानितः सन्निहितान्तकौतुः ॥ ४ ॥ अनन्तान्पुद्गलावर्ताननन्तानन्तस्पभृत् । अनन्तशो भ्रमत्येव जीवोऽनादिभवार्णवे ॥ ५ ॥ यह बेचारा जीव, भवितव्यता से प्रेरित, भारी कर्मों की रस्सी से बँधा हुआ और काल (मौत) रूप बिलाव के पास रहा हुआ (जीव), दिशाशून्य होकर भटक रहा है। पिंजरे में आबद्ध पक्षी की तरह शरीर के पिंजरे में कैद जीवात्मा इस संसार में परिभ्रमण (जन्म-मरण) किया करता है । संसार की चार गतियों में और ८४ लाख योनियों में भटकता हुआ अनंतअनंत देह धारण करता है । अनन्त पुद्गल परावर्तकाल से, अनादि भवसंसार में, अनंत बार भ्रमण किया करता है । संसार भावना २०३ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भटकाव में प्रेरक तत्त्व है भवितव्यता : .. सर्वज्ञ परमात्मा ने हर कार्य के पीछे पाँच कारण बताये हैं । इन पाँच कारणों में एक कारण है भवितव्यता । भवितव्यता को नियति भी कहते हैं । जिस बात में कोई बदलाव, कोई परिवर्तन की शक्यता नहीं होती है, जो बात निश्चित रूप से होती ही है, उसको भवितव्यता कहते हैं । भवितव्यता के आगे पुरुषार्थ कामयाब नहीं होता है । जीवों का चार गतिमय संसार में जो भटकाव होता है, उस भटकाव में प्रेरक तत्त्व है भवितव्यता ! जीवों को चार गति में भटकना ही पड़ता है । प्रश्न : इतनी परवशता का कोई कारण होगा न ? । उत्तर : हाँ, एक कारण है - प्रत्येक जीवात्मा कर्मों से बँधा हुआ है । कर्मी का बंधन ही कारण है । और जब तक कर्मों का बंधन रहता है तब तक हर जीव को शरीर धारण करना ही पड़ता है। जैसे पिंजडे का पक्षी ! चार गतियों में जीवों के भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर होते हैं । शरीर के रूप, पुद्गल और रंग अलग होते हैं । किस जीव को कैसा शरीर मिलना, इसका निर्णय उस जीव के कर्म करते हैं। अनन्त काल... अनन्त परिभ्रमण... अनादि संसार में : रात्रि की नीरवता में, एकान्त भूमिभाग पर... शान्त चित्त से संसार की वास्तविकता पर चिंतन करना होगा । चिंतन का विषय होना चाहिए संसार में जीवों का जन्म लेना और मरना । अपने आपको पूछना होगा : * ये सारे जीव कब से जनमते हैं और कब से मरते रहते हैं ? * जन्म-मृत्यु का यह चक्र चलता ही रहेगा या अन्त आ सकेगा ? * संसार आदि है या अनादि है ? * संसार की चार गतियों में सुख है या दुःख है ? व्यक्तिगत रूप से इन प्रश्नों का समाधान ढूँढना होगा। अन्यथा अज्ञानता के अंधकार में ही जीवन समाप्त हो जायेगा और ज्यादा प्रगाढ़ अंधकार में जीव खो जायेगा । इसलिए इन चार बातों पर गंभीरता से सोचो। __पहली बात : जिस प्रकार संसार अनादि है, वैसे जीव भी अनादि है, इसलिए जन्म और मृत्यु भी अनादिकाल से है । इसका कोई प्रारंभ-काल नहीं है । दूसरी बात : जन्म-मृत्यु का अन्त ला सकते हो। यदि आप कर्मों के बंधन तोड़ सकते हो तो जन्म-मृत्यु का अन्त आ सकता है । आप अ-मर बन सकते | २०४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो, अ-जन्मा बन सकते हो । संसार तो रहेगा ही । वह जैसे अनादि है वैसे अनन्त है । ऐसे संसार में से जीवात्मा बाहर निकल सकता है । चौथी बात पर अभी दो-तीन दिन चिंतन-मनन करेंगे। संसार की चार गतियों में दुःख ही दुःख है ! जो कुछ भी सुख लगता है वह सुख नहीं है, सुखाभास है ! मात्र मृगजल है ! मेघधनुष्य के क्षणिक रंग हैं। वास्तविकता जो है वह दुःखों की है। सर्वप्रथम 'नरक' के दुःखों को बताता हूँ । तीर्थंकर भगवंतों ने तो कहा है कि हम (आत्मा) अनेक बार नरक में गये हैं ! नरक के घोर दुःख सहे हैं, परंतु अपन जैसे स्वर्ग को भूल गये हैं वैसे नरक को भी भूल गये हैं । शास्त्रों में, धर्मग्रंथों में नरक के दुःखों का वर्णन पढ़ने में आता है। प्रश्न : क्या वास्तव में नरक है या मात्र कल्पना है ? उत्तर : हमारा तो इस विषय में संपूर्ण निःशंक निर्णय है नरक के अस्तित्व का! स्वर्ग के अस्तित्व का । मात्र कल्पना नहीं है । नरक के दुःख : अपनी आत्मा ने नरक में कैसे-कैसे दुःख भोगे हैं, मैं संक्षेप में आज बताता हूँ । सर्वप्रथम १० प्रकार की क्षेत्रवेदनाएँ बताता हूँ । (१) प्रतिसमय आहारादि पुद्गलों के साथ जीव का जो बंधन होता है, वह प्रदीप्त अग्नि से भी ज्यादा दुःखदायी होता है। ऊँट और गधे की चाल (चलने का ढंग) से भी नारकी के जीवों की चाल अति अशुभ होती है । तप्त लोहे जैसी भूमि के ऊपर पैर रखने से जो वेदना होती है, उससे बहुत ज्यादा वेदना, नरक की भूमि पर चलने से होती है, जो वेदना असह्य होती है । (३) नरक के जीवों का संस्थान (आकार) अति विकृत होता है । जैसे कटे हुई पंखवाले पक्षी ! (४) दीवार पर से गिरते पुद्गलों की वेदना, शस्त्र की धार से भी ज्यादा पीड़ाकारी होती है। (५) नरक के जीवों का वर्ण भयंकर मलिन होता है । अंधकार जैसा काला होता है । वहाँ का भूमिभाग, श्लेष्म-विष्टा-मूत्र-कफ वगैरह बीभत्स पदार्थों से लिप्त जैसा होता है । मांस, केश, नख, हड्डियाँ, चमड़ी आदि से जैसे आच्छादित हो, वैसी स्मशानभूमि जैसा होता है । । संसार भावना २०५५ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) वहाँ की गंध, सड़े हुए पशु-कलेवरों की दुर्गंध से भी ज्यादा अशुभ होती (७) वहाँ का रस, नीम पैड़ वगैरह के रस से भी ज्यादा कड़वा होता है । (८) वहाँ का स्पर्श, अग्नि के और बिच्छू के स्पर्श से भी ज्यादा तीव्र होता है। (९) वहाँ का शब्द, आवाज, सतत पीडाग्रस्त जीवों के करुण कल्पांत जैसा होता है । सुनने मात्र से दुःखदायी होता है । (१०) परिणाम भी अति व्यथा करनेवाला होता है । दूसरे प्रकार की भी १० वेदनाएँ वहाँ होती हैं, वे भी जान लो । (१) पोष महीना हो, रात्रि में हिमवर्षा होती हो, प्रचंड वायु बहता हो, हिमालय जैसा प्रदेश हो, वस्त्ररहित मनुष्य हो...उसको जैसा दुःख होता हो, उससे अनन्त गुना ज्यादा दुःख नारकी के जीवों को होता है । (२) चैत्र-वैशाख महीना हो, मध्याहन का समय हो, सूर्य सिर पर तपता हो, चारों दिशाओं में अग्निज्वालाएँ फैली हो, ऐसी स्थिति में जैसे कोई पित्तरोगी मनुष्य उष्णता की घोर वेदना अनुभव करें, उससे अनन्त गुना अधिक वेदना नारकी के जीवों को होती है। (३) नारकी के जीवों की भूख-क्षुधा कभी शान्त नहीं होती है । ढाई द्वीप का समग्र धान्य खा जाये तो भी उन जीवों की क्षुधा शान्त नहीं होती। (४) पानी की प्यास भी कभी नहीं बुझती । सभी समुद, सरोवर और नदियों का पानी पीने पर भी वे प्यासे रहते हैं । (५) नारकी के जीव शरीर को खुजलाते रहते हैं । छुरी से खुजलाने पर भी उनकी खुजली मिटती नहीं है । (६) नारकी के जीव सदैव परवश होते हैं। (७) वहाँ के जीवों के शरीर सदैव ज्वराक्रान्त रहते हैं । मनुष्य को अधिक से अधिक जितनी डीग्री का ज्वर होता है, उससे अनन्त गुना ज्वर नारकी के जीवों को होता है । (८) नारकी के जीवों को सदैव दाहज्वर जलाता रहता है । (९) उन जीवों का अवधिज्ञान अथवा विभंगज्ञान होता है, इससे वे अपने आनेवाले दुःखों को जानते हैं...इससे सतत भयाकुल रहते हैं । वैसे उनको परमाधामी देवों का भय और दूसरे नारकों का भय सताता रहता है । | २०६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) दसवाँ दुःख होता है शोक का । सदैव वे शोकग्रस्त रहते हैं । __नरक के जीवों की तीसरे प्रकार की वेदनाएँ होती हैं परस्पर लड़ने की । आपस में वे एक-दूसरे को दुःख देते हैं ! • जिस प्रकार एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखते ही उसको मारने लगता है, वैसे एक नारकी जीव दूसरे नारकी जीव को मारने लगता है, लड़ता है । वे वैक्रिय रूप करते हैं, क्षेत्रप्रभाव से प्राप्त होनेवाले शस्त्र लेकर वे एकदूसरे के टुकड़े कर डालते हैं, जैसे कतलखाने में पशु के टुकड़े किये जाते हैं वैसे। • वहाँ जो सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, वे तात्त्विक चिंतन के द्वारा समता से दुःख सहन करते हैं । वे सम्यग्दृष्टि जीव, मिथ्यादृष्टि नारकों से कम पीड़ा अनुभव करते हैं और कर्मक्षय करनेवाले होते हैं । मिथ्यादृष्टि नारक जीव, क्रोधावेश से परस्पर पीड़ा करते हैं, इसलिए वे बहुत दुःख पाते हैं और बहुत अधिक कर्मबंध करते हैं । मानसिक दुःख की अपेक्षा से समकितदृष्टि जीव ज्यादा दुःखी होते हैं । पूर्वकृत कर्मों का जितना संताप उनको होता है उतना संताप मिथ्यादष्टि जीवों को नहीं होता है । अब, परमाधामी-देवों के द्वारा नरक में जीवों को जो दुःख दिये जाते हैं, वे बताकर प्रवचन पूर्ण करूँगा। • अतिशय तप्त लोहे की पूतलियों के साथ जीवों को जोड़ते हैं, • अत्यंत तप्त सीसे का रस पीलाते हैं, • शस्त्र से शरीर को क्षत-विक्षत कर, उस पर क्षार डालते हैं, • गर्म-गर्म तैल से स्नान करवाते हैं, • भयंकर आग में डालते हैं, • भाले से बिंधते हैं, • कोल्हू में डालकर पीसते हैं, • आरी से काटते हैं, • आग जैसी रेती पर चलाते हैं, • बाघ, सिंह जैसे पशु के रूप धर जीवों को सताते हैं, • मूर्गों की तरह परस्पर लड़ाते हैं, | संसार भावना २०७ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • तलवार की धार जैसे असिपत्र के वन में चलाते हैं, • हाथ, पैर, कान, आँख आदि अंग-उपांगों को काट डालते हैं । इतना सारा कष्ट होने पर भी नारकी के जीव मरते नहीं है ! न वे आत्महत्या कर मर सकते हैं । जब उन जीवों का आयुष्य-कर्म समाप्त होता है, तभी वे मरते हैं। हमारी आत्मा ने भी नरक में इस प्रकार के कष्ट सहे हैं - कल्पना करना। अपने आपको नरक के जीव के रूप में देखना और अतिशय क्रूर...निर्दय ऐसे परमाधामी देव कष्ट दे रहे हैं, मार रहे हैं - कल्पना से देखना ! ... आज बस, इतना ही। | २०८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस ) प्रवचन : १९ संसार भावना - ३ : सकलना * संसार-भावना की नौ बातें * मोहशत्रु का सताना - संसार को डरावना समझना • देवगति के दुःख - सारे रिश्ते फिजूल * अठारह नाते - संसार में कदम-कदम पर परेशानी - संपत्ति में गर्व, दरिद्रता से दीन . कर्मपरवशता . जनम-जनम में नये-नये रूप Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( राग : भैरवी) कलय संसारमतिदारुणं, जन्ममरणादिभयभीत रे, मोहरिपुणेह सगलग्रहं प्रतिपदं विपदमुपनीत रे ॥ १ ॥ कलय० स्वजनतनयादिपरिचयगुणै - रिह मुधा बध्यसे मूढ रे, प्रतिपदं नवनवैरनुभवैः परिभवैरसकृदुपगूढ रे ॥ २ ॥ कलय० घटयसि क्वचन मदमुन्नतेः क्वचदहो हीनतादीन रे, प्रतिभवं रूपमपरापरं, वहसि बत कर्मणाधीन रे || ३ || कलय० जातु शैशव - दशापरवशो, जातु तारुण्यमदमत्त रे, जातु दुर्जयजराजर्जरो, जातु पितृपतिकरायत्त रे ॥ ४ ॥ कलय० उपाध्याय श्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस' ग्रंथ में तीसरी संसार - भावना का गान करते हुए कहते हैं: रे जीव, मोहशत्रु ने तुझे गले से पकड़कर, कदमकदम पर सताया है । तू इस संसार को जन्म - मृत्यु के भय से घिरा हुआ समझ और उसे अत्यंत डरावना मान । रे मूढ़ जीव, स्वजन - परिजन एवं रिश्तेदारों के साथ के तेरे मीठे संबंधों के बंधन फिजूल हैं । कदम-कदम पर तुझे इस संसार के नये-नये हालातों की परेशानी नहीं उठानी पड़ती क्या ? पग-पग पर तेरा पराभव नहीं होता है क्या ? तनिक शान्ति से सोच तो सही । 'कभी तू तेरी संपत्ति से गर्विष्ठ हो उठता है, तो कभी दरिद्रता के चंगुल में फँसकर दीन-हीन हो उठता है । तू कर्मों को परवश है। इसलिए तो जनमजनम में नये-नये रूप रचाता है । अलग-अलग स्वांग बनाता है, संसार के रंगमच के ऊपर तू एक अभिनेता ही है ।' · 'कभी तेरा बचपन इठलाता है, कभी तरुणाई के आवेगों से उन्मत्त होकर तू अठखेलियाँ करता है, कभी दुर्जय बुढ़ापे से तेरा शरीर जर्जरित हो जाता है और इस तरह अंत में तू यमराज के पंजों में फँस जाता है ।' संसार - भावना की इन चार गेय गाथाओं में ग्रंथकार ने नौ बाते कही हैं । पहले नौ बातें बताकर, बाद में एक-एक बात पर विवेचन करूँगा । १. मोहशत्रु का सताना । २. संसार को भयाक्रान्त- डरावना समझना । ३. सारे रिश्ते फिजूल । २१० शान्त सुधारस : भाग १ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पग-पग पर परेशानी-पराभव । ५. संपत्ति से गर्व, दरिद्रता से दीनता-हीनता । ६. कर्मपरवशता । ७. हर जन्म में नया रूप । ८. संसार - रंगमंच : अभिनेता । ९. बचपन-यौवन-बुढ़ापा-मृत्यु । मोहशत्रु का सताना : संसार के सभी दुःखों का मूल कारण है मोह । जो दुःखदायी होता है, उसको ही शत्र कहा जाता है। इसलिए मोह को शत्रु कहा गया है ! मोहशत्रु बड़ा खतरनाक शत्रु है ! क्योंकि वह प्रदर्शन करता है मित्रता का और काम करता है शत्रुता का । जिस मनुष्य के भीतर मोह का वर्चस्व होता है, वह कभी न कभी दूसरों के साथ शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा ही । मोहासक्त मनुष्य कौन-सा बुरा कार्य नहीं करता है ? रानी सर्यकान्ता ने उसके पति राजा प्रदेशी के साथ जो दुर्व्यवहार किया था, किसकी वजह से ? रायपसेणीय सूत्र में बताया गया है कि बाहर से प्रेमभाव बतानेवाली सूर्यकान्ता ने अपने पति राजा प्रदेशी की हत्या कर डाली थी । मालवदेश के राजा मुंज की कुमौत किसकी वजह से हुई थी ? उसकी प्रेमिका मृणालिनी ने ही मोहवश धोखाबाजी की थी न ? ऐसी अनेक घटनाएँ इतिहास में और शास्त्रों में पढ़ने को मिलती हैं । संसार को भयाक्रान्त - डरावना समझना : मोहासक्त जीव को चारों गतियों में दुःखों का भय रहता ही है । नरकगति में कैसे कैसे दुःख सहने पड़ते हैं, यह मैने कल बताया था । आज तिर्यंचगति के दुःख बताता हूँ । तिर्यंचगति में छोटे पशुओं को बड़े हिंसक पशुओं का भय सताता है । सिंह-बाघ वगैरह हिंसक पशु मृग, गाय, भेंस, इत्यादि पशुओं को मार डालते हैं और अपना भक्ष्य बना डालते हैं। शिकारी, हिंसक मनुष्य पशओं का शिकार करते हैं । इसलिए ऐसे शिकारी-हिंसक मनुष्यों से पशुओं को भय रहता है, वे डरते रहते हैं । घोर त्रास अनुभव करते हुए वे जीते हैं । तिर्यंचगति में जीव परस्पर भक्ष्य बनाते हैं ! माता अपनी संतान को भी भक्ष्य बना लेती है । पशुओं को, जानवरों को बहुत बड़े दुःख सहने पड़ते हैं । वे अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं । | संसार भावना २११ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यंचगति में जीवों को सबसे बड़ा दुःख होता है क्षुधा का और प्यास का । उदराग्नि से जलते हुए वे जीव तीव्र दुःख अनुभव करते हैं। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में कहा गया है - तिव्वतिसाए तिसिदो तिव्वविभुक्खाइ भुक्खिदो संतो । तिव्व पावदि दुःखं उयरहुयासेहिं डज्ईतो ॥ ४३ ॥ इसी 'कार्तिकेय अनुप्रेक्षा' में मनुष्यगति के दुःख बताये गये हैं । आप लोग दुःख अनुभव करते ही हैं, फिर भी दुःखों के विषय में चिंतन नहीं करते, अनुप्रेक्षा नहीं करते ! कैसे-कैसे दुःख जीवों को सहने पड़ते हैं । गर्भावस्था के दुःख, जन्म के दुःख और जन्म के बाद माता-पिता की मृत्यु हो जाती है तो पराश्रयता के दुःख, निर्धनता के दुःख... ... वगैरह दुःख, पापकर्मों के उदय से भोगने पड़ते हैं । अशाता - वेदनीय, नीच गोत्र, अशुभ नामकर्म के उदय से दुःख सहने पड़ते हैं । फिर भी अज्ञानतावश जीव नये पापकर्म करता जाता है । I जिन मनुष्यों को पुण्यकर्म का उदय होता है, वैसे मनुष्यों को भी इष्टवियोग और अनिष्ट संयोग के दुःख सहने पड़ते हैं ! भरत चक्रवर्ती जैसे श्रेष्ठ पुरुष को अपने ही छोटे भाई बाहुबली से हार खाने का दुःख सहना पड़ा था न ? सनत्कुमार चक्रवर्ती जैसे श्रेष्ठ पुरुष के शरीर में १६ रोग उत्पन्न हो गये थे न ? पुण्यशाली मनुष्य को भी सभी मनोवांछित सुख नहीं मिलते हैं । किसी को स्त्री का सुख नहीं होता है, किसी को पुत्र का सुख नहीं होता है, किसी को निरोगी शरीर नहीं होता है ! शरीर निरोगी होता है तो धन-धान्यादि की प्राप्ति नहीं होती है । सबकुछ प्राप्त हो भी गया, तो मौत आ जाती है ! I किसी की पत्नी दुराचारिणी होती है, तो किसी का पति व्यभिचारी होता है । किसी का पुत्र जुआ खेलता है, शराबी होता है, किसी का भाई शत्रु जैसा व्यवहार करता है, किसी की पुत्री दुराचारिणी होती है। वैसे, किसी का पुत्र अच्छा है, गुणवान है, परंतु तरुणवय में मर जाता है। किसी को पत्नी अच्छी होती है, परंतु उसकी अकाल मृत्यु हो जाती है । किसी के पास विपुल धन-संपत्तिहोती है, परंतु आग... भूकंप आदि से सर्वनाश हो जाता है । आप देखते हो, सुनते हो कि धनवान निर्धन हो जाते हैं, निर्धन धनवान हो जाते हैं । राजाओं के राज चले गये और निम्न जाति के लोग बड़े बड़े पदों पर आरूढ़ हो जाते हैं । जो वैरी होते हैं वे मित्र बन जाते हैं और मित्र वैरी बन जाते हैं । 1 २१२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगति के दुःख : ये तो मनुष्यगति के दुःख बताये, देवगति में भी दुःख होते हैं ! सामान्य रूप से आप लोग यह समझते हैं कि देवलोक में देव-देवी को सुख ही सुख होते हैं ! परंतु यह गलत धारणा है । देवों को भी दुःख होते हैं ! अपने से ज्यादा सुख-संपत्ति, वैभववाले देवों को देखकर, देवों को मानसिक दुःख होता है । बड़े बड़े वैभवशाली देवों को भी जब देवर्द्धिका, देवांगनाओं का वियोग होता है तब दुःख होता है । सारे भौतिक सुख विषयाधीन होते हैं, उनसे जीवों को तृप्ति कैसे होगी ? तृष्णा बढ़ती ही रहती है । प्रश्न : मानसिक दुःख अल्प होता है न ? उत्तर : शारीरिक दुःख से मानसिक दुःख ज्यादा होता है, बहुत तीव्र होता है। मनुष्य के पास बहुत ज्यादा वैषयिक सुख के साधन होने पर भी यदि मानसिक दुःख होता है, तो वह अपने आपको बहुत दुःखी मानता है । मन चिंताग्रस्त होने पर सभी सुखसामग्री दुःखरूप ही लगती है । देवों के सुख, विषयों के अधीन होते हैं, इसलिए वे दुःख के ही कारण होते हैं । वास्तव में सोचा जायं तो अन्य निमित्त से माना गया सुख, सुखाभास ही होता है, भ्रम ही होता है। क्योंकि जिस वस्तु को सुख का कारण माना जाता है, वही वस्तु कालान्तर में दुःख का कारण होती है I इस प्रकार असार और भयानक संसार में कहीं भी सुख नहीं है । सारे रिश्ते फिजूल : वैसे, इस संसार में कोई रिश्ता, नाता, संबंध शाश्वत् नहीं होता है। सारे रिश्ते बदलते रहते हैं । एक जन्म की माता दूसरे जन्म में पुत्री होती है, बहन होती है, या पत्नी भी होती है । पिता मरकर पुत्र होता है, शत्रु होता है, भाई होता है ! पत्नी मरकर शत्रु होती है, पति भी बन सकती है ! 'समरादित्य - महाकथा' में नौ-नौ जन्मों की कथा पढ़ना। रिश्ते-नाते कैसे बदलते हैं... आपको मालुम होगा । अरे, एक ही वर्तमान जीवन में एक मनुष्य के १८ प्रकार के संबंध की कहानी पढ़ने में आती है। मैंने जिस प्रकार वह कहानी पढ़ी है, आपको सुनाता हूँ । अठारह नाते : मथुरा नाम की नगरी थी । उस नगरी में कुबेरसेना नाम की एक वेश्या रहती संसार भावना २१३ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी । कुबेरसेना ने एक पुत्र-पुत्री के जोड़े को जन्म दिया । पुत्र का नाम रखा कुबेरदत्त और पुत्री का नाम रखा कुबेरदत्ता । दस दिन तक उन दोनों को कुबेरसेना ने स्तनपान करवाया । बाद में एक मजबूत पेटी में गद्दी बिछाकर दोनों को उसमें सुला दिया। दोनों के पास उनके नाम की सोने की अंगूठी बनवाकर रख दी । पेटी बंद करके यमुना नदी के पानी में बहा दी । वह पेटी बहती-बहती शौरीपुरी नगरी के किनारे पर पहुंची। __ सबेरे का समय था । शौरीपुरी नगरी के दो युवान श्रेष्ठी घूमने के लिए यमुना नदी के किनारे पर आये हुए थे। उन्होंने नदी के प्रवाह में बहती हुई रत्नजड़ित कीमती पेटी को देखा । उन्हें बड़ी ताज्जुबी हुई । उन्होंने पेटी बाहर निकाली। दोनों ने आपस में मशविरा किया : 'पेटी में से जो भी निकलेगा, वह अपन आधा-आधा बाँट लेंगे। उन्होंने पेटी खोली । दो बच्चों को सोये हुए देखा । दोनों बच्चे सुंदर-सलोने थे । एक ने लड़के को ले लिया, दूसरे ने लड़की ली। दोनों ने नाम की सोने की अँगुठियाँ भी ले ली। बच्चों को लेकर वे अपनेअपने घर चले गये । बच्चे पुण्यशाली थे, इसलिए उनका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार के साथ होने लगा। ___ कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता पढ़-लिखकर बड़े हुए। दोनों श्रेष्ठियों ने इन दोनों की जोड़ी जमेगी यों सोचकर दोनों की शादी कर दी । भाई-बहिन पति-पत्नी बन गये। दोनों के पास अपने-अपने नाम की अंगठी थी। दोनों पति-पत्नी जरूर हुए, परंतु दोनों को एक दूजे के प्रति कोई सेक्सी-कामवासना नहीं जगती है । शारीरिक आकर्षण पैदा नहीं होता है । __एक दिन दोनों चौपड़ का खेल खेल रहे थे। पासे डालते हुए अचानक कुबेरदत्त की अंगुली में से अँगूठी सरक कर कुबेरदत्ता की गोद में गिरी । कुबेरदत्ता ने अँगूठी उठायी और आश्चर्य से अपनी अँगूठी के साथ मिलाई, वह सोच में पड़ गई । उसने सोचा : ये दोनों अँगूठी एक-सी है । क्या हम दोनों भाईबहन तो नहीं होंगे ? क्या इसीलिए हमें एक-दूजे के लिए वासनाजन्य आकर्षण नहीं जगता है ?' उसने कुबेरदत्त से कहा : हम इस बारे में अपने माता-पिता से पूछे तो ? कुबेरदत्त ने हाँ कही । कुबेरदत्त ने अपनी माँ से पूछा : माँ सच-सच बताना । हमारा सच्चा रिश्ता क्या है ? हमारे दोनों के हाथ में एक-सी अँगुठियाँ क्यों हैं ?' माँ ने उनसे नदी में से पेटी मिलने की सारी बात बता दी । कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता आश्चर्य एवं ग्लानि से स्तब्ध रह | २१४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये । कुबेरदत्त ने कहा : ‘अच्छा हुआ कि हमारा शारीरिक संबंध नहीं हुआ, वर्ना बड़ा अनर्थ हो जाता । हम निर्मल रहे, यह खुशकिस्मती है । कुबेरदत्ता उसके पालक पिता के वहाँ चली गई । कुबेरदत्त का मन भी बुझाबुझा-सा रहने लगा। एक दिन वह भी व्यापार करने के लिए शौरीपुरी छोड़कर चला गया। कुबेरदत्ता का मन संसार से विरक्त बन गया था। उसने एक दिन जैन दीक्षा ले ली, वह साध्वी बन गई। उग्र तपश्चर्या करके उसने अवधिज्ञान प्राप्त किया । ___ कुबेरदत्त व्यापार करने के लिए मथुरा पहुंचा था । मथुरा में वह कुबेरसेना वेश्या के अतिथिगृह में ठहरा था। उसने कुबेरसेना को ढेरों संपत्ति देकर उसे अपनी पत्नी बना ली थी । वह उसके साथ रंगराग में डूब गया था। मथुरा में व्यापार करते हुए उसने लाखों रुपये भी कमाये । उधर साध्वी कुबेरदत्ता ने अपने अवधिज्ञान के प्रकाश में जानना चाहा कि कुबेरदत्त कहाँ है और क्या करता है। उसने मथुरा में कुबेरसेना के साथ भोगविलास में लीन कुबेरदत्त को देखा । वह काँप उठी । उसका हृदय चित्कार उठा । ओह ! अपनी सगी माँ के संग भोग-विलास ? खुद को जन्म देनेवाली माँ के साथ रंगराग का जीवन ? बड़ा भयंकर अनर्थ हो गया, यह तो। वे एक-दूसरे को पहचानते नहीं हैं । मैं जल्दी-जल्दी वहाँ पर जाऊँ और अनर्थ को रोकूँ । साध्वी कुबेरदत्ता विहार कर मथुरा पहुँची । इस बीच कुबेरसेना ने एक पुत्र को जन्म दिया था। साध्वी कुबेरदत्ता सोचती है : इन दोनों को समझाना किस तरह ? उपदेश दूँ कैसे? धर्मशास्त्र का उपदेश तो ये सनेंगे नहीं। और ही कोई तरकीब खोजनी होगी । यथार्थता का बोध कराना ही होगा। साध्वी कुबेरदत्ता, कुबेरसेना के घर पर पहुँची । साध्वी ने कुबेरसेना से कहा: मैं तुम्हारे इस नवजात शिशु को अच्छे संस्कार दूँगी । उसे मीठी-मीठी लोरियाँ सुनाऊँगी । मेरे पास वह खेलता रहेगा। क्या मैं तुम्हारे घर में रह सकती हूँ ? बच्चा मेरे पास रहेगा तब तक तुम्हें भी अवकाश मिल जायेगा। कुबेरसेना ने साध्वीजी की विनयभरी मधुर वाणी सुनी । साध्वीजी का सौम्य, शीतल, सुंदर चेहरा देखा । उसने साध्वी को अपने घर में रहने की इजाजत दे दी। अन्य साध्वियों के साथ कुबेरदत्ता ने वहाँ पर निवास किया । कुबेरदत्त, अपनी बहन कुबेरदत्ता को साध्वीरूप में पहचान नहीं पाता है । कुबेरदत्ता ने उग्र तपश्चर्या करके शरीर को कृश कर दिया है । और फिर वह | संसार भावना Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी भी साध्वी के वेश में ! कुबेरसेना रोजाना अपने नवजात पुत्र को साध्वी के पास छोड़ जाती है । साध्वीजी हँसती है, शिशु को हँसाती है और एक लोरी गाती जाती है। I भाई तूं बेटो माहरो देवर वली भत्रीज, पितराई ने पौत्र - इम तुजथी संबंधना बीज... १ भाई-पिता-मातामह, भर्ता बेटो ससरो तेह, छ संबंध धरावुं हुं ताहरा जनकथी हुँ सस्नेह...२ माता पितामही भोजाई वहु सासु वली शोक, छ संबंध धरावे मुजथी माता तुज अवलोक...३ (जंबूस्वामी रास) साध्वीजी ऐसे तार स्वर में लोरी सुनाती है कि कुबेरदत्त और कुबेरसेना भी सुन सके। रोजाना गाती है, बार-बार गाती है । कुबेरदत्त को उसका अर्थ समझ में नहीं आता है । एक दिन उसने साध्वीजी से पूछ ही लिया - पूज्या, आप मेरे पुत्र को रोजाना जो लोरी सुनाती हो, उसका अर्थ मुझे समझ में नहीं आता है । आप जैसे कि कुछ अटपटा-सा बोल रही हो, असंबद्ध बोल रही हो, वैसा मुझे लगता है । साध्वी कुबेरदत्ता जिस अवसर की राह देख रही थी, वह अवसर आ गया था । उन्होंने कहा 'कुबेरदत्त, तेरे इस पुत्र के साथ मेरे छह प्रकार के नाते हैं । तेरे साथ भी मेरे छह प्रकार के रिश्ते हैं और इस बच्चे की माँ के साथ भी मेरे छह प्रकार के संबंध हैं ! यों सब मिलाकर अठारह प्रकार के नाते हैं तुम तीनों के साथ !' २१६ कुबेरदत्त साध्वीजी की बात सुनकर आश्चर्य से चकित रह गया। उसने कहा : 'आप कृपा करके मुझे वे अठारह प्रकार के नाते समझाइये । साध्वीजी ने कहा : १. इस बच्चे की और मेरी जनेता एक ही होने से यह मेरा भाई होता है । २. यह बालक मेरे पति का पुत्र होने से मेरा भी पुत्र कहा जा सकता है । ३. यह बालक मेरे पति का छोटा भाई होने से मेरा देवर होता है । (मेरे पति को एवं इस बच्चे को जन्म देनेवाली माँ एक ही कुबेरसेना है ।) ४. मेरे भाई का बेटा होने से यह मेरा भतीजा होता है । - शान्त सुधारस : भाग १ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. मेरी माँ के पति का भाई होने से मेरा चाचा भी होता है । ६. मेरी सौतन के बेटे का लड़का है, इसलिए पौत्र भी कहा जाएगा । ७. इस बच्चे का जो पिता है वह मेरा भाई है, क्योंकि हम दोनों की माँ एक ही है । ८. इस बच्चे का पिता तू (कुबेरदत्त) मेरी माँ का पति होने से मेरा पिता होता है । ९. तू मेरे चाचा का ( इस बच्चे का पिता है, अतः मेरा पितामह है । १०. मैंने तेरे साथ शादी की थी, अतः तू मेरा पति है । ११. यह कुबेरसेना तेरी दूसरी पत्नी है, इसलिए मेरी सौतन है; इसने तेरे को जन्म दिया है, इसलिए तूं मेरा भी पुत्र माना जाएगा । १२. और, मेरे देवर का तूं पिता होने से मेरा श्वसुर भी होता है । १३. कुबेरदत्त, तेरी जो माता है, वह मेरी भी माता है । १४. यह बच्चा, एक संबंध से मेरा चाचा होता है, इसलिए उसकी जो माँ है वह मेरी पितामही भी होती है । १५. तू मेरा भाई है, तेरी यह पत्नी कुबेरसेना मेरी भाभी होगी । १६. और, मेरी सौतन के बेटे की बहू होने से (यह कुबेरसेना तेरी पत्नी है) मेरी पुत्रवधू भी होगी । १७. मेरे पति (तेरी) की यह कुबेरसेना माता है, अतः मेरी सास भी होती है । १८. मेरे पति की (तेरी) दूसरी पत्नी होने से यह कुबेरसेना मेरी सौतन भी कहलाएगी। कुबेरदत्त पहचान गया कुबेरदत्ता को । कुबेरदत्ता ने अपने पास कपड़े में बाँधकर रखी हुई दोनों अँगुठियाँ भी बतायी। इतने में वहाँ कुबेरसेना भी आ गई । उसने भी अँगुठियाँ पहचान ली । कुबेरदत्त फूट-फूटकर रो पड़ा । कुबेरसेना दहाड़ मार-मारकर रोने लगी । दोनों पश्चात्ताप की आग में जलने लगे । - कुबेरदत्त संसार के प्रति विरक्त हो गया । उसने संसारत्याग किया और साधुजीवन स्वीकार कर लिया । - कुबेरसेना भी संसार का त्याग करना चाहती थी, पर छोटे बच्चे के पालन की जिम्मेदारी होने से उसने श्राविका - जीवन के व्रत अंगीकार किये । साध्वी कुबेरदत्ता ने वहाँ से अन्यत्र विहार कर दिया । संसार भावना २१७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकाल के अनंत प्रवाह में यह कहानी विलीन हो गई, परंतु अनन्त ज्ञान के आलोक में जीवंत रहती है सभी कहानियाँ । संसार के सभी संबंधों की, सभी रिश्तों की निःसारता...असारता बताती रहती हैं ऐसी कहानियाँ । ज्ञानी पुरुष, वीतराग परमात्मा संसार के सारे रिश्तों को अनित्य, निःसार और फालतू बताते हैं । रिश्तों के कारण राग-द्वेष नहीं करने का उपदेश देते हैं । संसार में पग-पग पर परेशानी-पराभव : तनिक शांति से सोचना आवश्यक है । 'प्रतिपदं नवनवैरनुभवः परिभवैरसकृदुपगूढ रे...' कदम-कदम पर तुझे इस संसार के नये-नये हालातों की परेशानी नहीं उठानी पड़ती क्या ? पग-पग पर तेरा पराभव नहीं होता क्या ? अन्तरायकर्म के उदय से – किसी को रहने को घर नहीं मिलता है, फुटपाथ पर पड़ा रहना पड़ता है। - किसी को अति जीर्ण, छोटे और साँप, चूहे आदि के बिलवाले घर में रहना पड़ता है । - किसी को हिंसक, अभक्ष्य खानेवाले, कुकर्मी लोगों के संग रहना पड़ता है । - किसी को दुष्ट, व्यसनी, दुराचारी, महापापी लोगों से पल्ला पड़ता है । ऐसे लोगों को पग-पग पर परेशानी होती रहती है न ? पराभव होता रहता है न ? वैसे जिसको अनेक पलियाँ होती हैं उसके घर में प्रतिदिन झगड़े होते रहते हैं । किसी को अति दुष्ट, व्यभिचारिणी, अतिक्लेश करनेवाली, महारोगी औरत होती है तो महा दुःखी होता है । * कोई पुरुष इसलिए परेशान होता है, क्योंकि उसकी सुशील और प्रिय पत्नी की अचानक मृत्यु हो जाती है । * किसी पुरुष को तब बड़ी परेशानी होती है, जब उसकी पत्नी वृद्धावस्था में अथवा निर्धन अवस्था में छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर मर जाती है । * कुछ पुरुष शादी के बाद तूर्त ही मर जाते हैं, इससे उसकी पत्नी को दीर्घकाल तक परेशानी-पराभव भोगना पड़ता है । * माता-पिता की वृद्धावस्था में, आधारभूत पुत्र अचानक मर जाता है । * किसी को पुत्र तो होते हैं, परंतु चोर होते हैं, जुआरी होते हैं, शराबी होते हैं, उन माता-पिता को परेशानियों की सीमा नहीं रहती है । * एक तो निर्धनता का बड़ा दुःख होता है, दूसरी ओर अनेक पुत्रियाँ होती हैं, | २१८ शान्त सधारस : भाग १ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्रियों की शादी-संरक्षण आदि की चिंता सताती रहती है । * पुत्री बड़ी होने पर भी उसकी शादी नहीं होती है, शादी होती है तो वर मूर्ख दुराचारी और उग्र दिमाग का होता है...तब लड़की को और उसके माता पिता को सदैव चिंता, परेशानी बनी रहती है। * किसी को पुत्री अपंग, अंधी और गूंगी होने से उसको वर नहीं मिलता है, तो बहुत चिंता बनी रहती है । * किसी की माता, पत्नी, पुत्री अथवा बहन गलत रास्ते पर जाती है, व्यभिचारी बनती है, तो घोर चिंता-परेशानी बनी रहती है। * किसी को लोभी, दोषग्राही, अन्यायी, क्रोधी, नीच और मूर्ख श्रीमंत की नौकरी सर्विस करनी पड़ती है, तो पग-पग पर पराभव-अपमान सहन करने पड़ते हैं । * वैसे किसी सेठ को कृतघ्नी, मूर्ख, अप्रामाणिक नौकर-सेवक होता है, तो उसको कदम-कदम पर परेशानी भोगनी पड़ती है । इस प्रकार असंख्य प्रकार की परेशानियाँ संसार में जीवों को भोगनी पड़ती है । ऐसे संसार में शान्ति कहाँ ? समता कहाँ ? संपत्ति में गर्व, दरिद्रता से दीन-हीन : __ पाँचवी बात है गर्व की और दीनता-हीनता की । संसार में हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि धनवान निर्धन हो जाता है और निर्धन धनवान हो जाता है । धनवान जब निर्धन बन जाता है तब वह दीन-हीन बन जाता है, निर्धन जब धनवान बनता है तब अभिमानी बन जाता है । अभिमानी धनवानों को देखे हैं न आपने ? वे जमीन से ऊपर चलते हैं । न माता-पिता की इज्जत करते हैं, न ही गुरुजनों की आज्ञा मानते हैं । उपकारीजनों का भी तिरस्कार कर देते हैं । इतना ही नहीं, धनवानों को सभी प्रकार के सुख होते हैं, ऐसा नहीं मानना । उनको असंख्य प्रकार की चिंताएँ सताती रहती हैं । धन-संपत्ति की रक्षा की चिंता, सबसे बड़ी चिंता होती है । पारिवारिक चिंताएँ भी सताती रहती हैं । शरीर भी कोई न कोई रोग से घिरा हुआ रहता है...इसलिए वे भीतर से अपने आपको दुःखी ही समझते कर्मपरवशता : संसार की सभी परेशानियों का मूल कारण है कर्मपरवशता ! चारों गति में जीवों की कैसी कर्मपरवशता होती है - इस बात का चिंतन करना चाहिए । | संसार भावना २१९ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मों की पराधीनता...परवशता बड़ी दुःखदायी होती है । जीवात्मा की इच्छाओं को, अभिलाषाओं को कौन पूर्ण नहीं होने देता है ? जीवात्मा को अपनी इच्छाओं से विपरीत जीना पड़ता है, किसकी वजह से ? कर्मसत्ता ऐसी अदृश्य सत्ता है कि उसने समग्र संसार पर अपना आधिपत्य स्थापित कर रखा है । कोई उसके आधिपत्य को नष्ट नहीं कर सकता है। हाँ, जो जीवात्मा प्रबुद्ध बनता है और कर्मों के बंधनों को तोड़ने के लिए कृतनिश्चयी बनता है, वह स्वाधीन-स्वतंत्र बन सकता है । उग्र पुरुषार्थ करना पड़ता है । सतत पुरुषार्थ करना पड़ता है । दुःखों से जो डरता नहीं है और कर्मजनित सुखों से जो ललचाता नहीं है, वही कर्मों के बंधन तोड़ सकता है ! कर्मदत्त सुखों का जो त्याग कर देता है और कर्मजन्य दुःखों का प्रतिकार किये बिना, समताभाव से सहन करता है, वह आत्मा स्वाधीन बनती है, परमात्मस्वरूप प्राप्त करती है। जनम-जनम में नये-नये स्प: चार गतियों में जीवों को कैसे-कैसे नये रूप करने पड़ते हैं-जानते हो ? रोजाना अथवा कभी-कभी याद करने चाहिए वे रूप ! कभी पृथ्वी का रूप, कभी पानी का रूप, कभी अग्नि का रूप, कभी वायु का रूप, कभी वनस्पति का रूप...कभी बेइन्द्रिय जीवों का रूप, कभी तेइन्द्रिय का, कभी चउरिन्द्रिय का, तो कभी पंचेन्द्रिय का रूप धारण करता है जीव ! कभी देव बनकर सुखोपभोग किया, कभी नरक में नारकी बनकर घोर दुःख सहन किये...कभी पश-पक्षी बनकर त्रास सहन किये, तो कभी मनुष्य के विविध रूप धारण किये हैं। न सा जाइ, न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुआ जत्थ सव्वे जीवा अनन्तसो ॥ ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई स्थान नहीं है और ऐसा कोई कुल नहीं है कि जहाँ सभी जीव अनंत बार जन्मे नहीं हो और मरे नहीं हो। __संसार एक रंगमंच है, उसके ऊपर जीव सदैव अभिनय करते रहते हैं। कर्म होते हैं डायरेक्टर-दिग्दर्शक ! कर्म जिस प्रकार नचाये उस प्रकार जीव नाचते रहते हैं ! कभी पुत्र का रूप लेकर नाचता है, तो कभी भाई का रूप लेकर नाचता है । कभी वही पिता या शत्रु का रूप लेकर नाचता है । कभी माता का, तो कभी पत्नी का, कभी बहन का, तो कभी पुत्री का रूप लेकर संसार के रंगमंच पर | २२० । BE शान्त सुधारस : भाग १ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाचता है, अभिनय करता रहता है । अपन सब नट हैं, अभिनेता हैं ! अनन्त काल से अभिनय कर रहे हैं । कब अन्त आयेगा, हमें पता नहीं है । ___ कभी-कभी सोचें कि कब इस भवनाटक में नाचने का अंत आयेगा ? नाचतेनाचते थक गये । अब नहीं नाचना है संसार के रंगमंच पर । इस वर्तमान मनुष्यजीवन में भी कैसे-कैसे रूप बनाकर नाचते हैं ? बचपन...यौवन...और बुढ़ापा...कैसा व्यतीत होता है ? कैसे-कैसे रूप बनाते पड़ते हैं ? आखिर मृत्यु ! मृत्यु भी एक प्रकार का रूप ही होता है । मृत्यु के बाद नया जन्म लेना होगा ! पता नहीं, किस गति में जन्म लेना होगा । ___ इस संसार-परिभ्रमण से मन उद्विग्न होना चाहिए । संसार-परिभ्रमण के मुख्य हेतु है विषय और कषाय । विषय-कषायों को प्रतिक्षण शत्रु समझें, मित्र नहीं । विषय-कषायों का साथ नहीं ले, सहारा नहीं ले; सहारा लें मात्र देवगुरु और धर्म का । तभी संसार-परिभ्रमण का अंत आ सकता है । संसार की भयानकता का संवेदन होना चाहिए । इसलिए आप लोग “समरादित्य-महाकथा" अवश्य पढ़ें। इस प्रकार आज तृतीय संसार-भावना की चार गाथा (काव्य) का विवेचन किया। शेष चार गाथा का विवेचन कल करूँगा । आज बस, इतना ही। ससार भावना २२१ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : २० संसार भावना – ४ ELEEPEECHEAPER : संकलना : पापत्याग का पुरुषार्थ करें । मोहमदिरा से बुद्धिभ्रष्टता । महाकाल जादूगर है। जिनवचनों का सच्चा सहारा । गर्दभाली मुनि और संजय राजा । जिनवचनों पर थोड़ा चिंतन करें । अभयदाता बनें। यह जीवलोक अनित्य है । सबकुछ छोड़कर जाना है । स्वजन साथ नहीं चलेंगे । मृत्यु के बाद सारे रिश्ते समाप्त । मृत्यु का शोक अल्पकालीन । शुभाशुभ कर्म ही साथ चलते हैं । . निमित्त और उपादान । धर्मक्रिया करनेवाले सावधान ! Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रजति तनयोऽपि ननु जनकतां, तनयतां व्रजति पुनरेष रे । भावयन्विकृतिमिति भवगतेस्त्यज तमां नृभवशुभशेष रे ।। ५ ।। कलय० यत्र दुःखार्तिगददवलवै-रनुदिनं दासे जीव रे हन्त तत्रैव रज्यसि चिरं मोहमदिरामदक्षीव रे ॥६॥ कलय. दर्शयन् किमपि सुखवैभवं संहरंस्तदथ सहसैव रे।। विप्रलम्भयति शिशुमिव जनं कालबटुकोऽयमत्रैव रे ॥७॥ कलय. सकलसंसारभयभेदकं जिनवचो मनसि निबधान रे । विनय परिणमय निःश्रेयसं विहित शमरससुधापान रे ॥८॥ कलय. उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' ग्रंथ में तीसरी संसार-भावना का गान करते हुए कहते हैं : इस संसार में, भव के परिवर्तन के साथ पुत्र पिता बनता है, पिता पुत्र का रूप लेता है ! तू ऐसी संसार-स्थिति का जरा विचार तो कर ! और ऐसे संसार के हेतुभूत पापों का त्याग कर । अभी भी मानवदेहरूप शुभ सामग्री तेरे पास है, तू पुरुषार्थ कर । ओ जीव, तु जिस संसार में प्रतिदिन तरह-तरह की चिंता, दुःख और बीमारियों की अग्निज्वाला में जलता है, झलसता है, उसी संसार पर त क्या आसक्त हुआ जा रहा है ? परंतु इसमें तेरा दोष क्या ? मोह की मदिरा तूने दबा-दबा कर पी रखी है, जिससे तेरी बुद्धि सुन्न हो गई है । बड़े अफसोस की यह बात है। यह काल-महाकाल एक जादुगर है । इस संसार के जीवों को वह सुखसमद्धि बताता है, ललचाता है और फिर अचानक वह सारी मायाजाल समेटकर लोगों को अबोध बच्चे की तरह ठगता है । यह संसार एक इन्द्रजाल से ज्यादा, जादुगर की मायाजाल से ज्यादा और कुछभी नहीं है । इसलिए ओ आत्मन्, तू तेरे मन में जिनवचनों का चिंतन कर । वे जिनवचन ही संसार के तमाम भयों का नाश करेंगे । शमरस का अमृतपान करके तू मुक्ति का यात्री हो सकेगा। मक्ति, तमाम दुःखों के संपूर्णतया विलयरूप है और शाश्वत सुख का एकमात्र धाम है । पापत्याग का पुरुषार्थ करें : जिस संसार में मोहशत्रु सताता रहता है, जो संसार भयाक्रान्त है, डरावना है, जिस संसार के सभी रिश्ते असार हैं, जहाँ कदम-कदम पर परेशानियाँ है, पराभव _ संसार भावना २२३ , 88888888 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता रहता है, जहाँ सदाकाल कर्मपरवशता होती है, जहाँ नये-नये जन्म और नये-नये रूप धारण करने पड़ते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिनय करने पड़ते हैं... ऐसे दुःखपूर्ण संसार का परिभ्रमण मिटाना हो तो पापत्याग का पुरुषार्थ करना होगा । पापों का त्याग करना ही होगा । इस मनुष्य-जीवन में ही पापत्याग का पुरुषार्थ हो सकेगा। I जिनेश्वर भगवंतों ने १८ प्रकार के पाप बताये हैं। शायद आप लोग जानते होंगे इन पापों को । फिर भी नामनिर्देश करता हूँ । 1 १. हिंसा ७. मान ८. माया २. मृषावाद ३. चोरी ९. लोभ ४. मैथुन ५. परिग्रह १०. राग ११. द्वेष १३. अभ्याख्यान १४. पैशुन्य ( चुगली) १५. रति - अरति १६. पर - परिवाद ( निंदा) १७. माया - मृषावाद (दंभ से झूठ ) १८. मिथ्यात्वशल्य ६. क्रोध १२. कलह 1 ये १८ पाप हैं । संसार - परिभ्रमण के ये पाप ही कारणभूत हैं। इसलिए इन पापों का त्याग करना अनिवार्य है, यदि संसार से मुक्ति चाहिए तो । मोहमदिरा से बुद्धिभ्रष्टता : परंतु सदैव मोहमदिरा का पान करनेवाले जीवों की बुद्धि भ्रष्ट होती ही है । ऐसे जीवों को तो संसार में भटकना ही है। संसार की चार गति में जन्ममृत्यु करना ही है । बुद्धिभ्रष्ट लोगों को संसार की असारता समझाना असंभव होता है । वे संसाररसिक होते हैं । उनको तो वैषयिक सुख ही प्रिय होते हैं । आत्मा... आत्मसुख... मोक्ष ... मोक्षसुख की बातें उनको प्रिय नहीं लगती हैं । उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं होता है । 1 1 मोहान्ध-बुद्धिभ्रष्ट लोगों को पापों का भय नहीं होता है, उनको तो दुःखों का भय होता है । उनको दुःख नहीं चाहिए ! परंतु वे दुःखों से बच नहीं सकते । जो लोग पाप करते हैं, उनको दुःख भोगने ही पड़ते हैं । वे संसार की दुर्गतियों में जन्म-मरण करते रहते हैं । महाकाल जादूगर है : ऐसे मोहमदिरा के व्यसनी और बुद्धिभ्रष्ट लोग, संसार में अनेक प्रकार की चिन्ताओं की अग्निज्वाला में जलते रहते हैं । सतत चिंता करनेवाला मनुष्य, एक २२४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योद्धा से भी ज्यादा तनाव सहता होता है । युद्ध में लड़नेवाला वोरियर' (warrior) कहलाता है, जब कि चिंता (वरि) करनेवाला वरियर (worrier) कहलाता है। ऐसे एक तनावग्रस्त योद्धा ने चिन्ता का पृथक्करण किया है और कहा है - - ३० प्रतिशत चिंताएँ ऐसी होती हैं कि जो अपरिवर्तनीय होती हैं । जिसके निर्णय ___ हो गये होते हैं। - १२ प्रतिशत चिंताएँ, दूसरों ने अपने लिए जो टीकाएँ की होती हैं, तविषयक होती हैं। इनमें से बहुत सी टीकाएँ सच्ची नहीं होती हैं । - १० प्रतिशत चिंताएँ स्वास्थ्यविषयक होती हैं । -- ४० प्रतिशत चिंताएँ भविष्यविषयक होती हैं, जो निरर्थक होती हैं । - मात्र ८ प्रतिशत जितनी चिंताएँ सच्ची होती हैं, जिनका प्रतिकार योग्य समय पर अपन कर सकते हैं। चिंताएँ अपना पीछा छोड़ती नहीं हैं, यह भी एक प्रकार का ब्लेक-मेइल ही कहा जायेगा ! वर्तमानकालीन मनुष्य को, पूर्वकालीन मनुष्य की अपेक्षा ज्यादा चिंताएँ रहती हैं । पूर्वकालीन मनुष्य जब एक गाँव से दूसरे गाँव जाता, तब जंगली जनावरों का भय रहता था। आज मनुष्य को हाइ-वे के ऊपर ट्रकों से डर लगता है ! चिन्ता नाम की डाकिन मनुष्य को नींद में भी सताती हैं, इसी कारण स्लीपिंग टेब्लेट की खोज हुई है न ! __ संसार में एक या दूसरे प्रकार की चिन्ताएँ मनुष्य को बनी ही रहती हैं । जब तक इच्छाएँ, कामनाएँ, अभिलाषाएँ बनी रहती हैं, तब तक चिन्ताएँ बनी रहती हैं । बनी रहेंगी ही। और एक दिन जादूगर की तरह महाकाल जीव को उठाकर ले जाता है । ___ महाकाल को ग्रंथकार ने जादूगर' कहा है । जैसे जादूगर मायाजाल फैलाता है वैसे यह संसार भी मायाजाल ही है । एक क्षण में मायाजाल को समेट कर महाकाल जीव को उठाकर ले जाता है । सब कुछ शून्य हो जाता है । जिनवचनों का सच्चा सहारा : संसार का इस प्रकार से चिंतन करते रहना है । संसार की निःसारता, असारता, क्षणिकता का पुनः पुनः, बार-बार चिंतन करते हुए जब संसार के प्रति वैराग्य जगता है, विरक्ति आ जाती है, तब जिनवचन ही जीवों को आंतरिक शान्ति देते हैं । संसार-परिभ्रमण के भय को मिटाते हैं । जिनवचनों के सहारे ही जीव, संसार भावना 3588838 २२५ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I संसार के दुःखों से बचने का आश्वासन पाता है । विश्वास पाता है । वैसे संसार की, हिंसादि पापों की आसक्ति भी जिनवचनों से ही टूटती है | मोहासक्त और पापासक्त जीवों को, भाग्यवश जिनवचन सुनने मिल जाते हैं, तो वे जीव मोहरहित - पापरहित बन जाते हैं । 1 गर्दभाली मुनि और संजय राजा : ऐसी ही एक प्राचीन कहानी आज आपको सुनाऊँगा। यह कहानी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपनी अंतिम देशना में सुनाई थी । 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आज भी वह कहानी पढ़ सकते हैं । कांपिल्य नगर का राजा संजय, पशुओं का शिकार करने जंगलों में जाया करता था । उसको मृगमांस बहुत भाता था, इसलिए वह ज्यादातर मृगों का शिकार करता था । उसने एक बहुत बड़ा मृगवन बनवाया था। उस वन में हजारों मृग रहते थे । उस वन का नाम था केशरवन । एक दिन की बात है । वह कुछ सैनिकों के साथ शिकार करने केशरवन में गया । उसने मृगों का शिकार करना प्रारंभ किया । परंतु राजा को देखकर, हजारों मृग दौड़कर एक वृक्षघटा में कि जहाँ एक मुनिराज धर्मध्यान में निमग्न हो, खड़े थे, वहाँ पहुँच गये । राजा ने वहाँ जाकर शिकार किया। कुछ मृगों को मार डाला । फिर घोड़े पर से उतरकर उस वृक्षघटा में गया । वहाँ उसने करुणामूर्ति ध्यानस्थ गर्दभाली नाम के मुनिराज को देखा । उसने सोचा : 'मैंने मुनिराज को देखा नहीं, मात्र मृगों को ही देखा और तीर चला दिये । मुनिराज को भी तीर लगा होगा ?' वह भयभीत हो गया । उसने मुनिराज के चरणों में वंदना की और बोला : 'हे भगवन्, मेरे इस अपराध को क्षमा करें, मैंने बड़ा पाप किया है ।' परंतु मुनिराज तो ध्यानस्थ थे । उन्होंने राजा को प्रत्युत्तर नहीं दिया । राजा संजय घबराया । उसने सोचा: 'ये मुनि प्रत्युत्तर नहीं देते । अवश्य ये मेरे प्रति कोपायमान बने हैं... ये क्या करेंगे। शाप देंगे ? जला देंगे मुझे ? ऐसे घोर तपस्वी मुनि, यदि वे क्रोधी बनते हैं, तो हजारों लोगों को जला सकते हैं। मैंने ऐसा सुना है। परंतु मैं क्या करूँ ? मुझे मालुम नहीं था कि इस वृक्षघटा में मुनिराज खड़े होंगे ! मैं मेरा परिचय दूँ और पुनः क्षमायाचना कर, उनसे अभयवचन माँग लँ । राजा विनम्र भाव से बोला 'भगवन्, मुझे क्षमावचन सुनायें । मैं राजा संजय २२६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मैंने मृगों का शिकार किया है । आपको भी कष्ट पहुँचाया है । भगवन्, मुझे अभयवचन देने की कृपा करें । मुनिराज ने अपना धर्मध्यान पूर्ण किया और कृपापूर्ण दृष्टि से राजा की ओर देखा । उन्होंने कहा : अभओ पत्थिवा तुब्भं अभयदाया भवाहि अ 1 अणिच्चे जीवलोगंमि किं हिंसा ए पसज्जसि ? 11 राजन्, मेरी ओर से तुझे अभय है और तू भी अभयदाता हो ! यह जीवलोकयह संसार अनित्य है, तू क्यों हिंसा में प्रवृत्त होता है ? जया सव्वं परिच्चज्ज, गंतव्वमवसस्स ते अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं रज्जंमि पसज्जसि ? ॥ राजन्, सब कुछ छोड़कर जीव को एक दिन अवश्य जाना ही पड़ता है, तुझे भी जाना पड़ेगा; तो फिर इस अनित्य संसार में, राज्य का मोह क्यों ? जीविअं चेव स्वं च, विज्जुसंपायचंचलं जत्थ तं मुज्झसी रायं, पेच्चत्थं नावबुज्झसे ? 1 । राजन्, यह जीवन... यह रूप... बिजली की चमक जैसा मान, जिसमें तू मोहासक्त बना है 1 तू परलोक का विचार क्यों नहीं करता है ? दाराणि अ सुआ चेव मित्ता य तहा बंधवा । जीवंतमणुजीवंति मयं नाणुव्वयंति अ 11 राजन्, पत्नी, पुत्र, मित्र और बांधव - ये सभी तू जीवित है तब तक हैं, मृत्यु होने पर ये साथ नहीं चलेंगे । फिर ये मेरे स्वजन ऐसा ममत्व क्यों ? बंधूरायं 11 निहरंति मयं पुत्ता, पिअरं परमदुक्खि आ पिअरोऽवि तहा पुत्ते पुत्ते तवं चरे राजन्, संसार की कैसी असारता है ! मृत पिता को पुत्र घर से बाहर निकाल देते हैं और पिता भी मृत पुत्र, मृत बंधु वगैरह को घर से बाहर निकाल देते हैं । इसलिए राजन्, तपश्चर्या करें । संयम ग्रहण करें । तओ तेणऽज्जिए दव्वे दारे अ परिरक्खिए । कीलंतन्ने नरा रायं हठ्ठतुट्ठा अलंकिया राजन्, धनार्जन करनेवाले मनुष्य की मृत्यु होने पर, दूसरे लोग उस धन से और उस स्त्री वगैरह से मौज-मजा करते हैं। शरीर को सजाकर बड़े खुश होकर संसार भावना २२७ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीते हैं । तेणावि जं कयं कम्मं सुहं वा जइ वाऽसुहं । कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छइ उ परं भवं ॥ मरनेवाला जीव, हे राजन्, जो शुभाशुभ कर्म करता है, उन कर्मों के साथ वह जीव परलोक जाता है, इसलिए हे राजन्, तप और संयम ग्रहण करना चाहिए । महामुनि से इस प्रकार जिनवचन सुन कर राजा संजय संसार के प्रति विरक्त बनते हैं, वैषयिक सुखों के प्रति विरागी बनते हैं, राज्य का त्याग कर देते हैं... और श्रमण बन जाते हैं । तप-संयम का पालन कर परम संवेग से मुक्तिसुख पा लेते हैं । इन जिनवचनों पर थोड़ा चिंतन करें : राजा संजय की आत्मस्थिति पर थोड़ा विचार करना चाहिए । वह राजा था। मांसाहारी था । रोजाना मृगमांस खानेवाला था । मृगमांस उसे बहुत भाता था । यह बात 'उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बताई है । शायद वह कोई भी धर्मक्रिया नहीं करता होगा । न किसी साधु-मुनिराज का परिचय होगा ! जैन श्रमण का तो परिचय होगा ही नहीं । अन्यथा वह यह नहीं सोचता कि ये मुनि कोपायमान होंगे, तो लाखों-करोड़ों मनुष्यों को जला सकते हैं !' 'कुद्धे तेण अणगारे दहिज्ज नरकोडिओ । ऐसा नहीं सोच सकता था । जैन श्रमण क्षमाशील होते हैं । अपराधी के प्रति भी क्षमाशील होते हैं । क्षमा तो उनका प्रथम गुण होता है। परंतु संजय राजा, सर्वप्रथम गर्दभाली मुनिराज के परिचय में आये थे । दूसरी बात थी शिकार की। उसने अनेक मृगों का शिकार किया था । अनेक मरे हुए मृग वहाँ पड़े थे । शायद एकाध तीर मुनिराज को भी लगा हो। इसलिए राजा भयभीत हो गया था और विनम्र हो, विनीत हो, मुनिराज से क्षमा माँग रहा था । अभय वचन माँग रहा था । यह बात हुई राजा की । अब सोचें मुनिराज के विषय में । पहली बात : मुनिराज राजा के परिचित नहीं थे । राजा भी मुनिराज का परिचित नहीं था । दोनों एक-दूसरे से अपरिचित थे । दूसरी बात : मुनिराज जंगल में - केशरवन में, मृगों के वन में, अकेले ध्यान- धर्मध्यान कर रहे थे यानी ध्यानस्थ थे । राजा ने उनके ध्यान में विघ्न किया था। हजारों मृग भी जीव बचाने के लिए उधर २२८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिराज के आसपास पहुँच गये थे और राजा भी वहाँ पहुँच गया था ! मुनिराज का ध्यान भंग हो गया था। राजा को शिकारी के रूप में देखा था। यह संजय राजा है, यह मुनि को मालुम भी हो गया था। क्योंकि राजा ने स्वयं अपना परिचय दिया था ! मुनिराज ने राजा को डाँटा नहीं, उपालंभ नहीं दिया, यह महत्त्वपूर्ण बात है ! उसका तिरस्कार नहीं किया, कटुवचन नहीं सुनाये – 'तूने मृगों को मार डाले, महापाप किया, तू मरकर नरक में जायेगा...' वगैरह कटु वचन नहीं सुनाये । राजा की ओर क्रुद्ध दृष्टि से देखा भी नहीं । अपराधी के साथ उन्होंने कैसा व्यवहार किया, यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है ! जिनवचन सुनाने हैं, धर्मोपदेश देना है, तो सर्वप्रथम श्रोता के मन को आश्वस्त करना होगा। उसके अपराध को माफ करना होगा । मुनिराज ने पहला ही वचन क्या बोला था ? 'अभओ पत्थिवा तुभं ! 'हे पार्थिव, हे राजन्, तुझे अभय है ! मेरी ओर से तू निर्भय है !' राजा निर्भय हुआ । मनुष्य को जहाँ भयंकर सजा मिलने की संभावना लगती हो, वहाँ यदि उसको माफी मिल जाती है, वह निर्दोष छूट जाता है, तब उसकी खशी की सीमा नहीं रहती है। राजा को अभय वचन सुनाने के बाद मुनिराज ने जिनवचन सुनाये हैं । उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवें अध्ययन में सात गाथाएँ कही गई हैं, जो मैंने आपको सुनाई हैं । उधर गर्दभाली मुनि ने शिकारी राजा को सात गाथा सुनायी थी, यहाँ मैंने आप जैसे धार्मिक लोगों को वे ही गाथाएँ सुनायी हैं । ये जिनवचन सुनकर शिकारी राजा साधु बन गया था, आप लोग क्या बनेंगे ? आप तो अच्छे लोग हैं न ? मांसाहार नहीं करते, शराब नहीं पीते, जुआ नहीं खेलते...वगैरह पाप नहीं करते हैं न ? __ सभा में से : हमारे चरित्र आप नहीं जानते...आप हमें अच्छे समझते हैं, परंतु हम लोग तो दुर्जनों के भी दुर्जन हैं...। महाराजश्री : दुर्जनता का पश्चात्ताप होता है ? यदि पश्चात्ताप होगा तो एक दिन दुर्जनता चली जायेगी और सज्जनता आ जायेगी । जिनवचनों के प्रभाव से ही दुर्जन सज्जन बन जाते हैं । भूतकाल में बने हैं, वर्तमान में बनते हैं और भविष्यकाल में बनेंगे । जिनवचनों का यही चमत्कार हैं ! अब मैं आपको मुनिवर गर्दभाली ने संजय राजा को सात गाथाओं में जो जिनवचन सुनाये हैं, उन वचनों को कुछ विशेषताएँ बताता हूँ । | संसार भावना २२९ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयदाता बनें : सर्वप्रथम बात कही अभयदान की ! स्वयं मुनिराज ने राजा को अभय किया और प्रेरणा भी अभयदान की दी । क्योंकि वह उस वन में शिकार करने आया था । आसपास हजारों निर्दोष मृग खड़े थे । जैसे वे मुनिराज से अभय की याचना कर रहे हों ! उनको भय था राजा से । मुनिराज ने राजा को अभयदान का पहला धर्म बताया । 'त मेरे से अभय चाहता है, वैसे ये मग तेरे से अभय चाहते हैं ! सभी जीव जीवन चाहते हैं, मृत्यु कोई नहीं चाहता है । और त्रस-स्थावर सभी जीवों को अभयदान, मात्र महाव्रतधारी संयमी आत्मा ही दे सकती है । इस दृष्टि से मुनिराज ने राजा को साधुधर्म की ओर इशारा कर दिया है । आगे जाकर स्पष्ट शब्दों में साधुधर्म की प्रेरणा दी है । यह जीवलोक अनित्य है : __ जीवलोक की अनित्यता...असारता उन्होंने दो गाथा में कही है । क्योंकि सामने राजा था । राजा के पास भरपूर भौतिक सुख होते हैं और सुखों के बीच जीव को संसार अनित्य नहीं लगता । संसार की असारता का विचार भी नहीं आता ! इसलिए मुनिराज ने राजा को कहा : क्षणिक...अल्पकालीन जीवन में तू हिंसा में क्यों प्रवृत्ति करता है ? जीवहिंसा से परलोक में जीव तीव्र शारीरिकमानसिक दुःख पाता है ? सदैव याद रखना चाहिए कि यह जीवलोक, यह संसार असार है । इसमें जीव, किसी भी गति में, किसी भी योनि में स्थिर नहीं है । जन्म-मृत्यु का अनादिकालीन चक्र फिरता ही रहता है । वैसे, संसार में सुखदुःख का भी चक्र चलता ही रहता है। सब कुछ छोड़कर जाना है : मुनिराज ने तीसरी बात भी चोटदार कही है । याद रखो - 'सब कुछ छोड़कर जाना है ! राज्य को भी छोड़कर जाना है ! एकान्त क्षणों में अपने मन की साक्षी से प्रतिदिन चिंतन करने की बात कह दी है - 'मुझे सब कुछ छोड़कर जाना है । जिसको एक दिन अवश्य छोड़कर जाना है, उस पर ममत्व क्यों करना ? उसको अपना क्यों मानना ? नहीं मानना चाहिए । जब भी कोई इष्टप्रिय वस्तु का त्याग करने में मन आनाकानी करता हो तब इस सूत्र को याद करना - सब कुछ छोड़कर जाना है ! २३० शान्त सुधारस : भाग १ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्प और जीवन चंचल है : __ सभी जीवों को अपना जीवन प्रिय होता है और यह तो राजा था, रूपवान था, इसलिए रूप भी प्रिय होता है । मुनिराज ने रूप और जीवन, दोनों की चंचलताअस्थिरता-क्षणिकता बता दी । रूप शाश्वत् नहीं है, जीवन शाश्वत् नहीं है । रूप कभी भी करूप बन सकता है, जीवन का कभी भी अंत आ सकता है। रूप की चंचलता को मन-मस्तिष्क में बनाये रखने के लिए सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टांत याद रखो । स्नान करते समय देवों को भी विस्मित कर देनेवाला रूप, जब चक्रवर्ती राजसभा में जाकर बैठा, तब कुरूप बन गया था ! उसके शरीर में सोलह प्रकार के रोग पैदा हो गये थे ! जीवन की चंचलता तो होस्पिटलों में और स्मशान-गृहों में प्रतिदिन देखने मिलेगी । अखबारों में पढ़ते रहते हो न ? रूप और जीवन की क्षणिकता का विचार, आपको परलोक का विचार करने के लिए प्रेरित करेगा। मृत्यु के बाद मैं किस गति में जाऊँगा, यह विचार प्रतिदिन करना चाहिए । परलोक का विचार मनुष्य को पाप करने से रोकता है। पाप करने से दुर्गति में जाना पड़ता है । नरक और तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ता है, यह बात जो मनुष्य जानता है, वह पापों से बचकर जीवन जीयेगा। स्वजन साथ नहीं चलेंगे। जिन स्वजनों के लिए, स्वजनप्रेम से, स्वजनमोह से प्रेरित होकर जीव पाप करता है अथवा अपने स्वार्थ से स्वजनों के साथ राग-द्वेष करता है, वे स्वजनपत्नी, पुत्र, भाई-बहन-मित्र वगैरह जीव की मृत्यु के बाद परलोक में साथ नहीं चलते । जिन स्वजनों के कारण जीव पाप करता है, दुष्कर्म करता है, वे स्वजन, जब पापों के फल जीव को भोगने पड़ते हैं, तब दुःख बँटाते नहीं हैं। यह बात अच्छी तरह समझने के लिए अभयकुमार और कालसौकरिक कसाई के पुत्र सुलस की कहानी पढ़ना। अभयकुमार ने यह बात सुलस को प्रयोगात्मक ढंग से समझायी थी। मृत्यु के बाद सारे रिश्ते समाप्त : __ स्वजन और परिजनों का स्नेह-संबंध, आदान-प्रदान वगैरह तब तक रहता है, जब तक मृत्यु नहीं आती ! पिता की मृत्यु हो गई, पुत्र पिता के मृतदेह को घर से बाहर निकाल देता है, पिता का कितना भी प्यार हो, पिता मर गये, बस प्यार भी मर गया ! वैसे पत्र भी कितना प्यारा था। परंतु मर गया, पिता पुत्र [ संसार भावना Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के मृतदेह को घर में नहीं रखता, निकाल देता है, जला देता है ! वैसे पतिपत्नी का रिश्ता हो, भाई-भाई का रिश्ता हो, मित्र-मित्र का रिश्ता है...जब तक जीवन होता है, तब तक ही स्नेह, प्यार... संबंध बना रहता है, मृत्यु के साथ सब कुछ समाप्त हो जाता है। मृत्यु का शोक अल्पकालीन : प्रियजन की मृत्यु के बाद, स्वजन-विरह की व्यथा-वेदना प्रायः अल्पकाल रहती है । बलदेव-वासुदेव का प्रेम अपवादरूप समझना चाहिए । इनके अलावा संसार में सर्वत्र मृत्यु का शोक अल्पकालीन ही होता है । प्रियजन की मृत्यु के बाद, कुछ महीने व्यतीत होने पर स्वजन-लोग मस्ती से खाते-पीते हैं, शृंगार सजते हैं और रंगराग में डूब जाते हैं । जो व्यक्ति मर जाता है, सब संपत्तिवैभव छोड़कर मर जाता है, उस संपत्ति का, उस वैभव का उपयोग उसके स्वजन वगैरह मजे से करते रहते हैं । दान-पुण्य बहुत कम करते हैं, भोगोपभोग ही ज्यादा करते हैं। शुभाशुभ कर्म ही साथ चलते हैं : __ मृत्यु के बाद स्नेही-स्वजन-परिजन कोई भी साथ नहीं चलते, चलते हैं मात्र जीव के किये हुए शुभाशुभ कर्म ! इस जीवन में जो भी अच्छे-बुरे कर्म बाँधे होंगे, वे कर्म आत्मा के साथ परलोक में चलते हैं ! __ शुभ कर्म परलोक में साथ चलते हैं, तो परलोक में जीव को सुख के साधन मिलते हैं । अशुभ कर्म परलोक में साथ चलते हैं, तो परलोक में जीव को दुःख के निमित्त मिलते हैं । पुण्य से सुख और पापों से दुःख मिलते हैं । मनिराज गर्दभाली ने संजय राजा को ये जिनवचन सुनाये और राजा का मन संसार के प्रति विरक्त बना । राजा ने संसार का त्याग किया, वे श्रमण बने । आत्मा को कर्मों से मुक्त करने का प्रबल पुरुषार्थ किया और वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन गये ! संसार-परिभ्रमण का अंत आ गया । निमित्त और उपादान : जिनवचन निमित्त हैं । वे ही जिनवचन हमें मिले हैं, जो जिनवचन राजा संजय को मिले थे । वे जिनवचनों का श्रेष्ठ निमित्त पाकर भवसागर को पार कर गये । हम अभी भवसागर में भटक रहे हैं । ऐसा क्यों हो रहा है ? मन में प्रश्न उठता है न ? ज्ञानी पुरुषों ने इस प्रश्न का समाधान दिया है । निमित्त कारण | २३२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना भी श्रेष्ठ हो, उत्तम हो, परंतु यदि उपादान परिपक्व नहीं होता है, तो फलप्राप्ति नहीं होती है । उपादान होता है आत्मा । आत्मा की भवस्थिति परिपक्व नहीं होती है, तो निमित्त का असर नहीं होता है । राजा संजय की आत्मा की योग्यता परिपक्व हो गई थी। सभा में से : वह तो मांसाहारी था, शिकारी था...रसलोलुप था...! महाराजश्री : आप लोग बाल जीव हैं । आप दूसरों की बाह्य क्रियाएँ देखकर उसकी योग्यता-अयोग्यता का निर्णय करते हैं । ज्ञानी पुरुष, कभी भी दूसरे जीवों के बाह्य क्रिया-कलापों को देखकर उनकी योग्यता-अयोग्यता का निर्णय नहीं करते। वे तो उनकी आत्मदशा देखते हैं । वे उनके भीतर देखते हैं ! जैसे भूस्तरशास्त्री मिट्टी में सोना देखते हैं ! और अज्ञानी पित्तल में सोना देखते हैं ! वैसे आप लोग धर्मक्रिया करनेवालों को मोक्षगामी मान लेते हो और पापक्रिया करनेवालों को नरकगामी मान लेते हो ! ज्ञानी पुरुष ऐसा नहीं मानते ! वे उपादानभूत आत्मा की भीतरी अवस्था को देखते हैं । संभव होता है कि इसी भव में मोक्ष पानेवाले जीवों की क्रिया पाप की हो और अनंत संसार में भटकनेवाले जीव की क्रिया धर्म की हो ! वह धर्मक्रिया उसको मुक्ति नहीं दिलाती है ! धर्मक्रिया करनेवाले सावधान ! ___ इसलिए मैं कई बार आपको कहता हूँ कि आप धर्मक्रियाएँ करके अभिमान नहीं करें। धर्मक्रिया करने मात्र से आपकी मुक्ति निश्चित नहीं होती है । आप लोग मेरे निम्न प्रश्नों के उत्तर देना - १. क्या आपको पापक्रियाओं के प्रति नफरत हुई है ? २. पापक्रिया करनेवालों के प्रति भाव-करुणा होती है ? ३. स्वयं पापक्रिया करने पर पश्चात्ताप होता है ? ४. पूर्ण जागृति के साथ उपयोगपूर्वक प्रतिक्रमण करते हो ? ५. जो भी धर्मक्रिया आप करते हो, करते समय आनंद और करने के बाद अनुमोदना का भाव जगता है ? ६. जो दूसरे लोग आप से अच्छी धर्मक्रिया करते हैं, उनकी प्रशंसा करते हो क्या ? उनकी प्रशंसा सुनकर प्रमोदभाव आता है क्या ? ७. पापक्रिया करने के बाद हृदय में दुःख होता है क्या ? ८. सभी पापों का कारण संसारवास है - यह जिनवचन हृदयस्थ हुआ है क्या ? ९. संसारत्याग कर कब संयमी श्रमण बनूँ - ऐसी भावना जगती है क्या ? । संसार भावना २३३ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. संयमधर्म का अच्छा पालन करने के मनोरथ चित्त में जगते हैं क्या ? इन प्रश्नों पर चिंतन करना । अपनी डायरी में उत्तर लिखना । इस प्रकार आत्मावलोकन करना । - संसार-भावना से भावित होना है । - संसार-भावना से भावित होकर संसार के प्रति विरक्त बनना है । - संसारविरक्ति ही आत्मानन्द की जननी है । - संसारविरक्ति आने पर राग-द्वेष मंद हो जायेंगे । - संसारविरक्ति आने पर अन्तरात्मभाव जाग्रत होगा, उसमें स्थिरता होगी और परमात्मा के प्रति प्रीतिभाव जाग्रत होगा । संसार-भावना भाते-भाते संसार से विरक्त बनें, यही मंगल कामना । आज बस, इतना ही। | २३४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : २१ : संकलना : मैं आत्मा आतम सर्व समान । हम सिद्धों के साधर्मिक आत्मा ही भगवान । एकत्व - भावना में दीनता नहीं है । आत्मा के अलावा सब कुछ कल्पना । मैं नहीं हूँ नाऽहम आत्मसाधक को परिचय बाधक - घातक । परद्रव्य को स्वद्रव्य मानना बड़ी भूल । परस्त्री को स्वस्त्री मानना दुःखदायी । - ★ कमांडर नाणावटी और प्रेम आहुजा जीवन में परद्रव्य का प्रवेश, अनर्थ का मूल । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक एव भगवानयमात्मा ज्ञानदर्शनतरङ्गसरङ्गः । सर्वमन्यदुपकल्पितमेद् व्याकुलीकरणमेव ममत्वम् ॥१॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस ग्रंथ की चौथी भावना का मंगल प्रारंभ करते हुए कहते हैं : यह आत्मा एक ही है, यही प्रभु है, भगवान् है, ज्ञानदर्शन की तरंगों में मस्त है । इसके अलावा जो कुछ भी है, वह सब ममत्व मात्र है, कल्पना का विश्व है । यह ममत्व व्याकुलता को बढ़ानेवाला है। मैं आत्मा : मैं आत्मा हूँ। 'मैं विशुद्ध आत्मद्रव्य हूँ, आत्मसत्ता हूँ। शुद्ध ज्ञान और दर्शन मेरे हैं, मेरे गुण हैं । आज हमें इस आत्मतत्त्व पर ही चिंतन-मनन करना है । जो हम स्वयं हैं, हमें अपने आपका चिंतन करना है । भावना के आलोक में उस आत्मद्रव्य को देखना है, आत्मसत्ता को निहारना है । आज उसी के गीत गाना है । शेष सब कुछ भूलकर... कल्पना के जगत् को भूलकर आत्मा की मस्ती का अनुभव करना आतम सर्व समान : एक अध्यात्म के कवि ने गाया है : 'आतम सर्व समान, निधान महा सुखकंद, सिद्ध तणा साधर्मी सत्ताए गुणवृन्द ! विशुद्ध आत्मसत्ता की दृष्टि से समग्र आत्मसृष्टि एक ही है । जैसी स्थिति सिद्ध भगवंतों की है वैसी सभी आत्माओं की है। इस दृष्टि से, विशुद्ध आत्मसत्ता की दृष्टि से हम सिद्धों के साधर्मिक हैं । उनके जैसे ही हैं । अनंत सुखमय हैं, ज्ञानमय हैं, गुणमय हैं। मैं विशुद्ध आत्मा हूँ। मैं अनंत सुखमय हूँ। मैं अनंत ज्ञानमय हूँ। मैं अनंत गुणमय हूँ। सत्ता से सभी आत्मा एक-समान हैं । عالم २३६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम सिद्धों के साधर्मिक : ___एक अपनी नयी पहचान कर लो । चौदह राजलोक के ऊपर जो सिद्धशिला है, जहाँ सिद्ध-बुद्ध-मुक्त अनंत आत्माओं का अवस्थान हैं, जो पूर्णानन्दी हैं, जो पूर्ण सुखी हैं, जो पूर्ण ज्ञानी हैं... वे हमारे साधर्मिक हैं ! हम भी उनके जैसे ही हैं । वे हमारे जैसे हैं ! वे ही साधर्मिक कहलाते हैं, जिनके गुणधर्म समान होते हैं । उनके ज्ञान, सुख, आनंद आदि अनंतगुण हैं, हमारे भी हैं ! उनके प्रगट भय हैं, हमारे प्रच्छन्न हैं ! अस्तित्व (सत्ता) की दृष्टि से उनकी आत्मसत्ता जैसी हमारी भी आत्मसत्ता है ।। कल्पना करें सिद्धशिला की । कल्पना करें विशुद्ध आत्मसत्तावाले सिद्ध भगवंतों की ! और उनसे कहें : हे सिद्ध भगवंत, हम आपके साधर्मिक हैं ! हम आप जैसे ही हैं, फिर हमें यहाँ मध्यलोक में क्यों रहने दिया ? हमें भी वहाँ आपके सिद्धलोक में बुला लो! हमें वहाँ आना है । आपके पास रहना है। अब इस १४ राजलोक में परिभ्रमण नहीं करना है । कृपा करो, हमें आपके पास ले लो। आत्मा ही भगवान् है : कितनी उल्लासप्रेरक, उत्साहप्रेरक बात कही है ग्रंथकार ने ! एक एव भगवानयमात्मा ।' यह आत्मा ही एक भगवान है, प्रभु है ! यानी मैं जो आत्मा हूँ, भगवान हूँ ! सिद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, मुक्त हूँ। पूर्णानन्दी हूँ, पूर्ण ज्ञानी हूँ, पूर्ण सुखी शुद्ध नयदृष्टि की इस भावना से सदैव भावित होना है । इससे पापों का नाश होता है और आत्मस्वरूप प्रगट होता है : देह-मन-वचन पुद्गल थकी, कर्मथी भिन्न तुज स्प रे, अक्षय अकलंक छे जीवनू, ज्ञान-आनंद सस्प रे... चेतन, ज्ञान अजवालीए । 'अमृतवेली काव्य में उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने यह उपदेश-प्रेरणा दी है । मन-वचन-काया से मुक्त, कर्मों से मुक्त आत्मसत्ता का चिंतन करना है। * मैं मनस्वरूप नहीं हूँ, मन पौद्गलिक है, मैं आत्मा हूँ। * मैं वचनस्वरूप नहीं हूँ, वचन पौद्गलिक है, मैं चेतन हूँ । * मैं शरीरस्वरूप नहीं हूँ, शरीर पौद्गलिक है, मैं आत्मा हूँ ! | एकत्व-भावना २३७ | ००००००४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मैं जो आत्मा हूँ, चैतन्यस्वरूप हूँ, कर्मों से भिन्न हूँ । * मैं ज्ञानात्मा हूँ । मैं दर्शनात्मा हूँ। मैं स्वगुणभोगी हूँ । इस प्रकार स्वगुण - चिंतन करते हुए अपनी विशुद्ध आत्मसत्ता की ओर देखना है । तभी पूर्ण निर्मलानंद की ओर गति होगी । कहा है ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह, ज्ञान - एकत्वता ध्यानगेह, आत्मतादात्म्यता पूर्णभावे, तदा निर्मलानंद संपूर्ण पावे 1 ज्ञान - ज्ञानी की अभेद स्थिति के ध्यान से जब तादात्म्य हो जाता है, तब आत्मा निश्चल आनन्द की अनुभूति करती है और समतारस का आस्वाद करती है । यह है आत्मा के एकत्व की भावना का सर्व प्रथम प्रकार । और, इस प्रकार आत्मरमणता करने पर निरवधि आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होती है । उसका मन तृण और मणि को समान देखता है, देव और नरक को समान देखता है । माटे निजभोगी योगीसर सुप्रसन्न, देव-नरक, तृण-मणि सम, भासे जेहने मन्न एकत्व - भावना में दीनता नहीं है : इस प्रकार, 'निश्चयदृष्टि से आत्मा के एकत्व का चिंतन करने पर 'मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, ऐसी दीनता नहीं आयेगी । 'मैं अकेली आत्मा हूँ, मैं भगवान हूँ, मैं प्रभु हूँ, मैं अनन्त सुखमय... ज्ञानमय और आनन्दमय हूँ, इस प्रकार का एकत्व का चिंतन दीनता पैदा नहीं करता है, परंतु आत्मविश्वास पैदा करता है । आत्मश्रद्धा पैदा करता है। सच्चे अर्थ में अपनी पहचान है यह । जब तक आत्मतत्त्व की पहचान नहीं होती है तब तक तप - संयम भी व्यर्थ होते हैं; दुःखों का, संसार का अन्त नहीं आता है । कहा गया है कष्ट करो, संयम धरो, गालो निज देह, ज्ञानदशा विण जीवने, नहीं दुःखनो छेह जब तक आत्मतत्त्व की पहचान नहीं होती तब तक भवदुःख, संसार के दुःख भोगने ही पड़ते हैं । आत्मज्ञान होने पर ही भवदुःख मिटते हैं । आतम - अज्ञाने करी, जे भवदुःख लहीए, आतमज्ञाने ते टले, एम मन सद्रहीए - आत्मा के अलावा सब कुछ कल्पना : I वास्तविक तत्त्व एक मात्र आत्मा है । शेष सब कुछ कल्पना है । एक मात्र ममत्व है । जीव को यह अज्ञानजन्य ममत्व ही दुःखी करता है । जो 'मैं' नहीं 1 २३८ शान्त सुधारस : भाग १ — Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ, जो मेरा नहीं है, उसको मैं समझना और मेरा समझना जीव की जड़ता है । बुद्धिशून्यता है । हुँ एहनो, ए माहरो, ए हुं, इण बुद्धि, चेतन जड़ता अनुभवे, न विमासे शुद्धि । वेदांत दर्शन में जो कहा गया है – ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या । इस अपेक्षा से सही है । ब्रह्म यानी आत्मा । आत्मा ही सत्य तत्त्व है, इसके अलावा सब कुछ मिथ्या है, असत्य है । इसलिए जगत के साथ ममत्व जोड़ने को ज्ञानीपुरुष मना करते हैं । जगत के साथ भावात्मक संबंध तोड़ने ही होंगे । बाह्य व्यवहार की दृष्टि से, निर्लेप भाव से ही संबंध रखने के हैं । बाह्य व्यवहारों में संबंध रखने पड़ते हैं, क्योंकि जगत के साथ जीना है । हाँ, पर्वकालीन महर्षि, योगी. मुनीश्वर...जो जंगलों में, गिरिगुफाओं में रहते थे, साधनानिमग्न रहते हैं, वैसे रहना हो तो व्यावहारिक संबंध भी रखने की आवश्यकता नहीं है । मैं नहीं हूँ – नाऽहम् । ___ जगत के साथ, दूसरे जड़-चेतन पदार्थों के साथ तो संबंध नहीं रखने हैं, अपने शरीर के साथ और अपने व्यक्तित्व के साथ भी संबंध नहीं रखने के * मैं मनुष्य नहीं हूँ, यह मनुष्यदेह मैं नहीं हूँ । * मैं युवान नहीं हूँ, वृद्ध नहीं हूँ । शरीर की कोई भी अवस्था, मैं नहीं हूँ । * मैं स्त्री नहीं हूँ, पुरुष नहीं हूँ । * मैं व्यापारी नहीं हूँ, मैं नौकर नहीं हूँ। * जिस नाम से मैं पुकारा जाता हूँ, वो मैं नहीं हूँ, मैं अनामी हूँ । * मैं डॉक्टर नहीं हूँ, वकील नहीं हूँ, इन्जिनियर नहीं हूँ। * कोई नाम-रूपवाला मैं नहीं हूँ। नाऽहम्...नाऽहम्...नाऽहम् । मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ, मैं नहीं हूँ। अपने व्यक्तित्व को भूलना, अपनी पहचान को भूलना बहुत आवश्यक है । इसलिए योगी, मुनि, ऋषि, इस मिथ्या जगत् से दूर-दूर जंगलों में, पहाड़ों में खो जाते थे। अपरिचित प्रदेशों में चले जाते थे। अनामी और अरूपी आत्मा के साथ तादात्म्य साधने के लिए, नाम और रूप से संबंध तोडना ही होगा। प्राचीन धर्मग्रंथों में मैंने पढ़ा था । साधुजीवन की श्रेष्ठ भूमिका जहाँ बतायी गई है । साधु किसी गाँव में गये और किसी गृहस्थ ने उनको नाम से, व्यक्तित्व | एकत्व-भावना २३९ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पहचान लिया और उनको मालुम हो गया, तो वे उस गाँव में नहीं रहते थे, चले जाते थे उस गाँव-नगर को छोड़कर ! दुनिया में अपरिचित होकर जीना उनका लक्ष्य होता था । आत्मसाधक को परिचय बाधक - घातक : अनामी और अरूपी आत्मतत्त्व की पहचान कर, आत्मरमणता कर, ज्ञानानन्द, आत्मानन्द का अनुभव करना है; तो नाम और रूप से प्राप्त होनेवाला क्षणिक और तुच्छ आनन्द का त्याग करना ही होगा । परद्रव्य का, परपर्याय का परिचय त्यागना ही होगा । परद्रव्य के परिचय से सुख प्राप्त करने की अनादिकालीन बुरी आदत, कुटेव छोड़नी ही होगी । 'अब मुझे परद्रव्य से सुख नहीं पाना है, परपर्याय से सुख नहीं पाना है - यह निर्णय होना चाहिए। यदि आत्मतत्त्व की सच्ची पहचान हो जाती है तो फिर परभाव का कर्तृत्व रहता ही नहीं है । वह तो अपने ही आत्मस्वरूप में रहता है । उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने कहा है — एम जाणीने रे ज्ञानदशा भजी, रहीए आप स्वरूप, पर - परिणतिथी रे धर्म न छांडीए, नवि पडीए भवकूप..... श्री सीमंधर साहिब सांभलो... आप - स्वरूप में रहना है, यानी आत्मज्ञान में ही रहना है । पर - परिणति में यदि गये, तो धर्म भी गया समझना और संसार - सागर में डूबना होगा । परद्रव्य, परपर्याय की रमणता ही अधर्म है, पाप है... यह बात आत्मज्ञानी समझता है । परद्रव्य को अपना द्रव्य मानना, बड़ी भूल : उपाध्यायश्री विनयविजयजी दूसरे श्लोक में यही बात कहते हैं अबुधैः परभावलालसा - लसदज्ञानदशावशात्मभिः । परवस्तुषु हा स्वकीयता, विषयावेशवशाद् विकल्पते ॥ २ ॥ 'परभाव की लालसा में डूबे हुए मूर्ख और अज्ञानी आदमी, इन्द्रियजन्य आवेगों को परवश होकर, परायी वस्त में अपनापन मानते हैं ।' 9 जो अबुध - अज्ञानी लोग होते हैं, उनको तो स्वभाव और परभाव का भी ज्ञान नहीं होता है । न वे स्वभाव' का विज्ञान जानते हैं, न वे परभाव की बात जानते हैं । बाह्य धर्मक्रियाएँ कितनी भी करते हों, परंतु यदि वे स्वभाव और परभाव की बातों से अनभिज्ञ हैं, तो वे मूर्ख हैं, अज्ञानी हैं। क्योंकि वे पाँच इन्द्रियों के आवेगों को परवश हो ही जाते हैं और परद्रव्यों को, परपुद्गलों को अपना मानते २४० शान्त सुधारस : भाग १ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, उनसे ममत्व जोड़ते हैं ! अज्ञानी लोग जानते ही नहीं कि शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के विषय, मेरे स्वभावभूत नहीं है, परभाव - रूप है, इसलिए वे उसी विषयों में लुब्ध होते हैं, उन्हीं विषयों को अपने मानते हैं, ममत्व बाँधते हैं और दुःखी होते हैं । जो परद्रव्य होता है, जो पराया द्रव्य होता है, उसको अपना मानने की भूल, बड़ी भूल होती है । दुःखदायी भूल होती है । परद्रव्य को, परपदार्थ को स्वद्रव्य मानना कितना अनर्थकारी है, वह समझाने के लिए ग्रंथकार ने उदाहरण दिया है - परस्त्री को अपनी स्त्री समझना, अपनी मानना | परस्त्री को अपनी स्त्री माननेवालों को जैसा दुःख सहन करना पड़ता है, जैसी पीड़ाएँ सहन करनी पड़ती है; वैसी पीड़ा, परद्रव्य को, परपुद्गल को स्वद्रव्य माननेवालों को भोगनी पड़ती है । 'आत्मद्रव्य ही स्वद्रव्य है, शेष सब परद्रव्य है, यह बात अच्छी तरह समझ लो । कृतिनां दयितेति चिन्तनं, परदारेषु यथा विपत्तये । विविधार्तिभयावहं तथा परभावेषु ममत्वभावनम् ॥३॥ जो मनुष्य दूसरों की औरतों के बारे में यह मेरी औरत है, वैसी कल्पना यदि करता है तो वह दुःखी होता है; वैसे ही जो अपना नहीं है, परभाव है, उसमें ममत्व का खयाल करना, तरह-तरह की पीड़ाओं का कारण होता है । परस्त्री को स्वस्त्री मानना दुःखदायी : जो परभाव है, जो परद्रव्य है, जो अपना नहीं है, उसको स्वभाव मानना, स्वद्रव्य मानना, अपना मानना, भय त्रास और दुःख देनेवाला होता है । इस विषय में एक प्राचीन कहानी बताकर कुछ वर्तमानकालीन सत्य घटना भी बताऊँगा । वसन्तपुर नाम का नगर था। उस नगर के राजा का नाम था शतायुध । उसकी रानी थी ललितादेवी । वह रानी बहुत ही खूबसूरत थी और मोहक व्यक्तित्ववाली थी । चौसठ कलाओं में निपुण थी । परंतु वह चरित्रहीन थी। पति को वह वफादार नहीं थी । I एक दिन वह महल के झरोखे में खड़ी खड़ी राजमार्ग पर नजर फेंक रही थी, उसकी नजर राजमार्ग पर से गुजर रहे एक युवक पर गिरी। उस युवक का रूप और जवानी रानी की आँखों में बस गये। युवक तो चला गया, पर रानी उसके खयालों में खो गयी । उसके मोहपाश में बंध गई । रानी की एक दासी दूर खड़ी, रानी की एक-एक क्रिया को देख रही थी । वह रानी के मनोभाव एकत्व - भावना २४१ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ गई । वह धीरे से रानी के पास आकर खड़ी रही। रानी ने उससे पूछा : 'अभी जो यहाँ राजमार्ग पर से सुंदर कपड़े पहना हुआ रूपवान युवक गया, वह कौन है ? कहाँ रहता है ? तू उसकी तलाश करके आ, पर चोरी-छिपे ! किसी को मालूम नहीं पड़ना चाहिए ।' यों कह कर रानी ने दासी को अपनी अँगुठी भेंट कर दी । दासी प्रसन्न हो उठी । वह तुरंत उस युवक की जानकारी लेने चली गई । एक घंटे के बाद वह वापस आयी । रानी बड़ी बेसब्री से उसका इन्तजार कर रही थी । दासी ने कहा : 'महारानीजी, वह सुंदर-सलोना युवक तो अपने नगर श्रेष्ठि समुद्रप्रिय का पुत्र ललितांग है । वह पुरुष की ७२ कलाओं में निपुण है । अब आप जैसा कहो, वैसा करूँ । I रानी ने दासी के कान में एकदम धीरे से कहा: 'वह मुझे यहाँ एकान्त में मिले वैसा कुछ कर सकेगी ?' दासी ने कहा : हाँ, हाँ, जरूर मैं उसका मिलन करवा दूँगी । पर इसके पहले आप एक निमंत्रणपत्र लिखकर मुझे दे दो। मैं वह पत्र उसे दे आऊँगी । इसके बाद सब काम जमा दूंगी । रानी ने ललितांग पर प्रेमपत्र लिखकर दासी को दे दिया । दासी ने पत्र ले जाकर ललितांग को दे दिया । ललितांग, रानी का प्रेमपत्र पाकर दिंग रह गया । उसने दासी से कहा : 'कहाँ अन्तःपुर में रहनेवाली रानी और कहाँ मैं एक वणिकपुत्र ! हमारा मिलन अशक्य है ।' दासी ने कहा : 'अशक्य कुछ भी नहीं है ललितांग । मैं सब शक्य कर दूँगी । तू तैयार है ना ?' ललितांग ने हाँ भरी । दासी ने मौका मिलने पर आने का वादा किया और चली गई । ललितांग उसके बाद दिन में तीन बार रानी के महल के सामने से गुजरता है और रानी को देखता है । रानी उसको देखती है । दोनों की निगाहें मिलती हैं। दोनों के चेहरे खिलते हैं और मौन प्रेमालाप होता है। एक दूजे से मिलने के लिए दोनों बेताब हुए जा रहे थे । I नगर में कौमुदी - महोत्सव के दिन आये । राजा ने रानी से कहा : 'चलो, हम जंगल में शिकार के लिए चलें । रानी ने तबीयत का बहाना बनाया और महल में रह गई । उसने दासी को इस मौके का फायदा उठाने को कहा । अन्तःपुर के दरवाजे पर सशस्त्र सैनिक चौबीस घंटे तैनात रहते थे । राजा के अलावा किसी भी आदमी को अन्तःपुर में प्रवेश नहीं मिलता था । दासी ने ललितांग को महल में लाने की योजना बनाई । नगर के बाहर बगीचे में वह एक पालकी लेकर गई । उसने अन्तःपुर के शान्त सुधारस : भाग १ २४२ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्षक से कह रखा था महारानी के आनन्द-प्रमोद के लिए एक यक्ष की मूर्ति लेने जा रही हूँ। अभी वह लेकर लौटूंगी। पर वह मूर्ति, महारानी के सिवाय किसी को देखनी नहीं है । बंद पालकी में लाऊँगी। उसने पालकी में ललितांग को बिठा दिया। उस पर लाल वस्त्र ढंक दिया । पालकी के चारों तरफ परदे गिरा दिये । आदमियों से पालकी उठवायी और वह महल में ले आयी । न तो किसी ने उसे रोका, न किसी ने उसे टोका । रानी और ललितांग मिले । जैसे स्वर्ग मिल गया हो, दोनों को वैसी खुशी हुई । दोनों मनचाही कामक्रीड़ा करने लगे। दासी को शयनखंड के बाहर महल के मुख्य दरवाजे की ओर निगाह रखने के लिए खड़ी कर दी थी। आनन्दप्रमोद में डूबी हुई रानी को समय का खयाल रहा नहीं । दिन का चौथा प्रहर शुरू हो गया था। शिकार पर गया हुआ राजा लौट आया था। । दूसरी ओर, अन्तःपुर के रक्षक को रानी की दासी की हलचल शंकास्पद लगी थी। यक्ष की मूर्ति लाल वस्त्र में लपेट कर क्यों लायी गई ? क्यों दासी कभी की रानीवास के दरवाजे पर अकेली बैठी है ? जब राजा आया तब अन्तःपुर के रक्षक ने यक्ष की मूर्ति की बात कही । अपनी शंका भी व्यक्त की । राजा ने कहा : मैं अभी रानीवास में ही जा रहा हूँ, चौकसी कर लूँगा। दासी चतुर थी। उसने महल के दरवाजे पर महाराजा के घोड़े को देख लिया था। रक्षक को महाराजा से कानाफसी करते देखा । महाराजा को घोड़े से नीचे उतरकर, धीरे धीरे रानीवास की ओर कदम बढ़ाते देखकर उसका माथा ठनका। दासी ने तूर्त ही शयनखंड का द्वार खटखटाया। रानी ने अपने कपड़े ठीकठाक किये और दरवाजा खोला। दासी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी। उसने बोला : महाराजा आ रहे हैं। रानी और ललितांग के होशहवास गुम हो गये। ललितांग पसीने-पसीने हो गया । उसने कहा : 'मुझे कहीं छुपा दे। रानी ने कहा : यहाँ तुझे कहाँ पर छुपाऊँ ? पकड़ा जायेगा तो राजा तुझे मार डालेगा और मेरी चमड़ी उतार लेगा। ललितांग रूआंसा हो उठा । कांपने लगा भय से । सोचने का समय कहाँ था ? रानी और दासी ने ललितांग को उठाया और रानीवास के पीछे जो गंदा पुराना कुआ था, उसमें फेंक दिया। रानी दासी के सामने देखकर हँस दी । जैसे कि आम चूसकर गुटली बाहर फेंक दी हो । ललितांग को कए में फेंकने के बाद रानी निश्चित थी। राजा ने रानीवास में प्रवेश किया। रानी ने बड़ी स्वाभाविकता से राजा का स्वागत किया । दासी शयनखंड के बाहर निकल गई । राजा ने शयनखंड में | एकत्व-भावना २४३ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर-उधर निगाहें फेंकी, पर कुछ दिखा नहीं । फिर भी रानी को पूछा : वह यक्ष की प्रतिमा कहाँ है ?' कौन-सी ? जो सबेरे लायी थी वह ?' 'हाँ । वह मूर्ति तो वापस भिजवा दी। यों कहकर रानी ने मोहक हावभाव से राजा को गपशप में लगा दिया । चिकनी-चुपड़ी बातें करके राजा का ध्यान दूसरी ओर खींच लिया । ललितांग जिस कुए में पड़ा था, वह कुआ बहुत गहरा नहीं था । पर, दरअसल में वह गंदगी का कुआ था । कुए में पड़ा पड़ा ललितांग कांप रहा था। राजा तलाशते तलाशते यहाँ पर आ गया और मुझे देख लिया तो? तलवार से मेरा गला काट देगा। परंतु जब दो-तीन घंटे बीत गये, तब वह निर्भय बना । उसे रानी याद आयो । रानी ने मुझे उठाकर यहाँ इस कुए में फेंक दिया. कैसी स्वार्थी और नीच औरत है ? मेरे साथ कितना प्रेम दिखाया, कैसी मीठी मीठी बातें की...और जब उसका स्वार्थ पूरा हो गया तो उसने मेरी यह कदर्थना कर दी । यहाँ मैं जीऊँगा कैसे ? परंतु यदि मैं जिंदा इस कुए से बाहर निकलँगा तो फिर कभी भी इस तरह परायी औरत के साथ प्यार नहीं करूँगा । उसके सामने भी नहीं देखंगा।। दूसरे दिन सबेरे रानी की दासी ने उस कुए में भोजन की पडिया बाँधकर डाली । ललितांग ने पुडिया खोलकर खा लिया और गटर का गंदा पानी पी लिया । मरता हुआ मनुष्य क्या नहीं करता ? यों कुछ दिन-कुछ महिने गुजरे, बारिश के दिन आये । जोरों का पानी गिरने लगा। खड्डे-कुए भर गये । ललितांग पानी के प्रवाह में बहता हुआ नगर के बाहर किले की खाई में जा पहुँचा। बहताबहता वह खाई के किनारे पर पहुँचा। बेहोश होकर पड़ा था वहाँ । शरीर उसका सड़ गया था। वहाँ से गुजर रही उसकी धावमाता ने उसे देखा । उसे पहचाना। तुरंत घर पर जाकर ललितांग के पिता समुद्रप्रिय को बोला। रात्रि के समय ललितांग को रथ में डालकर घर पर लाया गया। चिकित्सकों को बुलाकर उसके औषधोपचार करवाये । छह महीनों की लम्बी चिकित्सा के बाद वह स्वस्थ हुआ। संसार के भ्रामक सुखों में फँसे सभी मनुष्य, ललितांग की भाँति विषयोपभोग में डूबे रहते हैं । विषयसुख ललितारानी के संग सा समझना। यह सुख शुरूआत में मधुर लगता है, पर अंत में बड़ा ही भयंकर होता है । परभावों को अपना समझ कर ममत्व बाँधना, कितना दुःखदायी होता है, इसका यह शास्त्रीय उदाहरण | २४४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । अब कुछ ही वर्ष पूर्व की बंबई में घटी एक भयंकर घटना की बात करता कमांडर नाणावटी और प्रेम आहुजा : इ. स. १९५९ की यह घटना है । 'ट्र स्टोरीझ ऑफ स्ट्रेंज मर्डर्स इन इन्डियां पुस्तक में क्रिमिनोलोजिस्ट डॉ. एस. दत्त ने यह किस्सा लिखा है । ___ कमांडर कावसजी नाणावटी, भारतीय नौकादल में न्यूक्लियर सायंस्टिस्ट के पद पर नियुक्त I.N.S. मायसोर-जहाज पर केप्टन थे । एक बार जब वे इंग्लेन्ड गये, वहाँ सिल्विया नाम की फ्रेन्च युवती के साथ कमांडर की पहचान हुई और १९४९ में इंग्लैंड के पोर्ट्समाउथ नाम के शहर में नाणावटी और सिल्विया ने शादी कर ली। शादी के १० वर्ष में तीन संतान के माता-पिता बने। शादी की दसवीं लग्नतिथि आने से कुछ दिन पूर्व जिंदगी का एक खतरनाक मोड आया । उनके संसार में तीसरे व्यक्ति का प्रवेश हुआ । उसका नाम था प्रेम आहुजा । बंबई के नेपियन्सी रोड पर, जीवनज्योत' नाम के बिल्डिंग में वह रहता था । वह ३४ वर्ष का अविवाहित युवक था। वह युनिवर्सल मोटर्स नाम की पेढी का मालिक था और विलिस जीप का विक्रेता था । नाणावटी दंपती के साथ प्रेम आहुजा का परिचय हुआ । नाणावटी को आहुजा का रंगीन स्वभाव पसंद आ गया। दोस्ती हो गई। एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरू हो गया । नाणावटी को कहाँ मालुम था कि आहुजा एक दिन दोस्ती की पीठ में खंजर भोंक देगा ! __ प्रेम आहुजा सौन्दर्य का प्रेमी था । कमांडर नाणावटी की पत्नी सिल्विया भी बहुत सुंदर स्त्री थी। दोनों के बीच अनैतिक प्रेमसंबंध बंध गया । एक बार आहुजा ने बात-बात में अपनी बहन को कह भी दिया कि यदि नाणावटी उनकी पत्नी को तलाक दे दे तो मैं उसके साथ शादी करने तैयार हूँ। हालाँकि सिल्विया कमांडर को तन-मन से चाहती थी। पति के साथ बेवफाई करने की कल्पना तक वह कर सकती नहीं थी। दूसरी ओर, आहुजा सिल्विया के अलावा कुछ सोच भी नहीं सकता था। वह सिल्विया को अपनी बना लेने के लिए मौका खोजता था । ___ एक दिन आहुजा को वैसा मौका मिल गया। कमांडर नाणावटी कुछ दिनों के लिए बाहरगाँव गये । सिल्विया घर में अकेली थी । आहुजा ने उसके साथ अनैतिक शारीरिक संबंध बांध लिया। एक बार अधःपतन की गहरी खाई में गिरने के बाद सिल्विया ने अपने मुँह पर मौन का ताला लगा दिया। उसको अनिच्छा से भी आहुजा की इच्छा को वश होना पड़ता था। वह मनोमन प्रार्थना एकत्व-भावना २४५ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करती थी कि इस बात की जानकारी कमांडर को नहीं हो । परंतु ऐसी बातें कब तक गुप्त रह सकती हैं ? आखिर एक दिन कमांडर को मालुम हो गया। सिल्विया को पूछा । सिल्विया ने आहुजा के साथ का प्रणय-संबंध का इकरार किया । बाद में तुरंत कमांडर सीधे जहाज पर गये। सर्विस रिवोल्वर और ६ कारतूस लेकर वे वहाँ से निकल गये । सीधे वे आहुजा के घर पर गये । आहुजा स्नान कर बाहर आया ही था कि नाणावटी ने उस पर रिवोल्वर चला दी। आहुजा जमीन पर गिर पड़ा। उसके मृतदेह पर थूककर नाणावटी बोला : दुश्मन जो काम नहीं करे, वो काम दोस्त ने किया । वे वहाँ से सीधे पोलीस स्टेशन चले गये और कह दिया - 'मैंने प्रेम आहुजा की हत्या की है ।' नाणावटी को दोषित सिद्ध किया गया था और उसको आजीवन कारावास की सजा हुई थी । बंबई में उन दिनों में यह केस की चर्चा घर-घर में थी। सब लोग दूसरे पुरुष को अपने घर में प्रवेश देने में हिचकिचाते होंगे ! जीवन में परद्रव्य का प्रवेश - अनर्थ का मूल : परभावों से, परद्रव्यों से ममत्व करने का परिणाम तो इससे भी ज्यादा भयंकर आता है । वहाँ तो प्रेम आहुजा की हत्या हो गई, एक मनुष्य-जीवन से हाथ धोने पड़े, परंतु परद्रव्यों के साथ किये हुए ममत्व से तो हजारों जन्म तक दुःख भोगने पड़ते हैं । इसलिए परद्रव्यों के ममत्व से जो सख की कल्पना होती है. उस कल्पना का त्याग कर दो। अपने मन की साक्षी से, देव-गुरु की साक्षी से निर्णय कर लो कि मुझे अब मेरे आत्मभाव में ही रहना है । परद्रव्यों से, परभावों से ममत्व नहीं बाँधना हे । जो ममत्व बंध गया है, उसको तोड़ना है। __ परद्रव्यों का ममत्व, परस्त्री के साथ किये हुए ममत्व के समान है, जो सचमुच दुःखदायी होता है । रामकालीन रावण से लगा कर वर्तमानकालीन रावणों तक देख लो ! वैसे परद्रव्यों से ममत्व करनेवालों की दर्दनाक पीड़ाओं का इतिहास असंख्य वर्षों का पढ़ लो ! शास्त्रों को पढ़ लो । * मैं अकेली शद्धस्वरूपी आत्मा हूँ। * मैं ज्ञानमय, सुखमय, आनन्दमय आत्मा हूँ | * आत्मा में ही संतुष्ट रहना है । आत्मा के अलावा किसी भी बात की अपेक्षा नहीं है । एकत्व का ऐसा निर्णय कर, प्रतिदिन एकत्व-भावना करनी है । आज बस, इतना ही। २४६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : २२ : संकलना : * परभाव के आवरणों को चीर डालो । पुद्गल-राग । शेर जैसी आत्मा पराधीन है। * पुद्गल की पहचान कर लो। * आत्मविचार - चंदनवृक्ष की शीतल हवा । * समत्व के साथ एकत्व का चिंतन । * नमि राजर्षि : समत्व-एकत्व का उत्सव । * नमि राजर्षि व इन्द्र का संवाद । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुना परभावसंवृतिं हर चेतः परितोऽवगुण्ठिताम् । क्षणमात्मविचारचन्दन-दुमवातोर्मिरसाश्पृशन्तु माम् ॥४॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी, अपने मन को संबोधित करते हुए कहते हैं - 'ओ मेरे मन ! परभाव के इन आवरणों को चीर करके जरा मुक्त हो ! ताकि आत्म-विचाररूप चंदनवृक्ष की शीतल हवा तुझे स्पर्श कर सके । परभाव के आवरणों को चीर डालो : महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आत्मविचार अब करना है ? अभी तक पुद्गल विचार ही ज्यादा किये हैं । अनन्त जन्मों से पुद्गल-भावों की ही रमणता जीव ने की है ! इसलिए ग्रंथकार ने 'अधुना' शब्द का प्रयोग कर पूछा है : “अब आत्मविचार करना है ? ज्यादा समय नहीं, क्षणम् थोड़ी क्षणों के लिए आत्मविचार कर लो !" ___ और, यदि आत्मविचार करना है तो एक काम अवश्य करना होगा, पुद्गलभाव, कि जो परभाव है, उन पुद्गल-भावों के आवरणों को चीर डालने होंगे । पुद्गल-भावों के आवरणों को नष्ट करने के लिए, पुद्गल-भावों की अनर्थकारिता और भयंकरता समझनी होगी। पुद्गल-गीता में योगी चिदानन्दजी ने कहा है : काल अनंत निगोदधाम में पुद्गलरागे रहियो, दुःख अनन्त नरकादिकथी तुं अधिक बहुविध सहियो । अपनी आत्मा अनंतकाल निगोदनाम की योनि में रही थी। जहाँ जीव एकेन्द्रिय होता है ! जीव को मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती है । वहाँ पर नरक से भी ज्यादा दुःख जीव को सहना पड़ता है और अनंतकाल तक सहे भी हैं ! निगोद में पुद्गलराग के कारण ही रहना पड़ता है । पाय अकाम निर्जरा' को बल, किंचित् ऊँचो आयो, बादर में पुद्गल-रस वशथी काल असंख्य गमायो । सूक्ष्म निगोद में अनन्तकाल जीव जन्म-मरण करता रहा, अनंत दुःख सहन करता है, इससे कर्मों की निर्जरा हुई, अकाम निर्जरा हुई, कर्मों का भार कुछ कम हुआ और जीव बादर निगोद में आया ! सूक्ष्म में से बादर में आया, इतनी उन्नति हुई, परंतु वहाँ भी पुद्गल-रस के कारण असंख्य वर्ष बीता दिये । सूक्ष्म निगोद और बादर निगोद - दोनों प्रकार वनस्पतिकाय के हैं । आत्मा के | २४८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकासकाल की ये प्रारंभिक अवस्थाएँ होती हैं । वहाँ से पुद्गल-भाव का रागरस जीव के साथ लगा हुआ है ! कितना प्रगाढ़ और तीव्र होगा यह राग-रस ? इस पुद्गल-राग को मिटाने का भव्य पुरुषार्थ इस जीवन में करने का है । लही क्षयोपशम मतिज्ञान को, पंचेन्द्रिय जब लाधी, विषयासक्त राग पुद्गलथी धार नरकगति साधी । ताडन-मारन छेदन-भेदन, वेदना बहुविध पायी, क्षेत्रवेदना, परमाधामीकृत विधविध है दरसायी । पुद्गलरागे नरकवेदना वार अनंती वेदी, पुण्यसंयोगे नरभव लाधो, अशुभ युगलगति भेदी । वनस्पतिकाय में से दूसरी एकेन्द्रिय जातियों में जीव ने जन्म-मृत्यु किये हैं ! पृथ्वीकाय में, अप्काय में, वायुकाय में, तेउकाय में...। बाद में बेइन्दिय में, तेइन्द्रिय में, चउरिंद्रिय में और पंचेन्द्रिय में जीव आया है । बड़ी मुश्किल से पंचेन्द्रियत्व मिलता है ! परंतु पुद्गल-राग' के कारण, विषयासक्ति के कारण जीव नरकगति में उत्पन्न होता है ! नरकगति में कैसे कैसे दुःख होते हैं, संसारभावना के प्रवचनों में आपने सुना है न ? ताड़न, मारन और छेदन-भेदन होता रहता है । कैसी घोर वेदनाएँ वहाँ जीवों को सहनी पड़ती हैं ? इसका कारण होता है पुद्गल-राग ! जीव ने नरक की वेदना एक-दो बार सही है, ऐसा मत समझें, अनंत बार सही है ! वार अनंती वेदी !' नरक में अनिच्छा से दुःख सहने से जो कर्मनिर्जरा होती है, उसको अकाम निर्जरा कहते हैं । उस कर्मनिर्जरा के कारण जीव की उन्नति होती है, उसको मनुष्य-जन्म मिलता है । नरकगति और तिर्यंचगति से वह बाहर निकल जाता है । मनुष्यगति, देवगति से भी ज्यादा अच्छी बतायी है जिनेश्वर भगवंतों ने । ऐसी अच्छी - श्रेष्ठ मनुष्यगति पाने के बाद क्यों पुद्गलरागी-विषयरागी बन कर मनुष्य-जीवन को बरबाद करता है ? विषयासक्त राग पुद्गल को धरी नरजन्म गमावे, काग उडावणकाज विप्र जिम, डार मणि पछतावे । अज्ञनी ब्राह्मण ने कौओं को उड़ाने के लिए रत्नों को फेंक दिये थे न ? बाद में उसको जब मालुम हुआ कि मैंने पत्थर समझकर रत्नों को फेंक दिये हैं, तब उसको घोर पछतावा हुआ था ! वैसे पुद्गल-राग से, वैषयिक सुखों के राग से मनुष्य-जीवन गँवा देने के बाद अपने को पछतावा होगा ! एकत्व-भावना २४९ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी बात, पौद्गलिक-वैषयिक सुख कितने भी भोगें, सदैव भोगते रहें, मन और इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होंगी । जिस प्रकार आग में घी अथवा मधु की आहुति देने पर आग शांत नहीं होती है, परंतु ज्यादा प्रज्वलित होती है । 'पुद्गल-गीता में कहा हैं - पुद्गल-सुख सेवत अहनिश, मन-इन्द्रिय न धावे, जिम घृत-मधु-आहूति देतां, अग्नि शांत नवि थावे । आगे चलकर चिदानंदजी ने कहा है - जिम जिम अधिक विषयसुख सेवे, तिम तिम तृष्णा दीपे, जिम अपेय जल पान कीया थी तृषा कहो किम छीपे ? 'अपेय जल यानी सागर का खारा पानी । सागर का पानी पीने से तृषा छिपती नहीं है, परंतु ज्यादा बढ़ती है, वैसे विषयसुख भोगने से, ज्यादा से ज्यादा भोगने से भोग-तृष्णा बढ़ती है, ज्यादा प्रदीप्त होती है। परंतु पौद्गलिक सुख में आसक्त जीव यह मार्मिक बात नहीं जानता है ! जन्मांध जीव सूर्य का तेज कैसे पहचान सकता है ? यह बात चिदानन्दजी कहते हैं - पौद्गलिक सुखना आस्वादी, एह मरम नवि जाणे, जिम जात्यंध पुरुष दिनकरनें तेज नवि पहिचाणे । जीवों को इन्द्रियजन्य वैषयिक सुख अच्छे लगते हैं, प्रिय लगते हैं, परंतु उन सखों के भोगोपभोग के परिणामों का वे जीव, अज्ञानी जीव विचार नहीं कर सकते । अज्ञानी जीवों को परिणामों का ज्ञान ही कहाँ होता है ? उनको तो वर्तमानकाल का ही विचार होता है । अभी सुख मिलता है ? बस, कल का विचार नहीं करना है !' इन्द्रियजनित विषयरस सेवत, वर्तमान सुख ठाणे, पण किंपाक तणा फलनी परे, नहीं विपाक तस जाणे । 'किंपाक' नाम का जंगली फल खाने में मीठा होता है, परंतु उसका परिणाम मौत होती है ! वैसे वैषयिक सुख भोगने में अच्छे लगते हैं, परंतु जनम-जनम वे दुःखदायी होते हैं। ऐसा समझकर पौद्गलिक-वैषयिक सुखों से विमुख होना चाहिए, विरक्त होना चाहिए और आत्मभाव के सन्मुख होना चाहिए । एहवं जाणी विषयसुखसेंती, विमुखस्प नित रहीए, त्रिकरण योगे शुद्धभावधर, भेद यथारथ लहीये । | २५० शान्त सुधारस : भाग १ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'त्रिकरण योग' यानी मन-वचन और काया। आत्मा का शुद्ध स्वरूप मनवचन-काया से समझना है । आत्मभाव और पुद्गल-भाव का यथार्थ भेद जानना शेर जैसी आत्मा पराधीन है : __ वैसे तो आत्मा, अपने शुद्ध स्वरूप में अनंतज्ञानी है । परंतु पुद्गल-भाव से आवृत्त है । आत्मा अनन्त शक्ति का स्वामी है, परंतु पुद्गल-भाव ने उसको कायर बना डाला है । श्री चिदानन्दजी कहते हैं : ज्ञान अनंत जीवनो निज गुण, ते पुद्गल आवरिया, जे अनंत शक्तिनो नायक, ते इण कायर करियो । आत्मा अपने मूल स्वरूप में अज्ञानी नहीं है, अनंत ज्ञानी है, कायर-अशक्त नहीं है, अनंत शक्तिवाली है। परंतु अनंत कर्म-पुद्गलों से आवृत्त है । कर्मपुद्गलों का आवरण काटना है । वह आवरण दूर होने पर मूल स्वरूप प्रगट होगा। जब तक कर्म-पुद्गलों का प्रभाव है, तब तक तो आत्मा को दुःख सहने ही पड़ेंगे ! चेतनकुं पुद्गलए निशदिन, नानाविध दुःख घाले, पण पिंजरगत नाहरनी परे, जोर कछु न चाले । शेर है, परंतु पिंजरे में है ! क्या करे ? आत्मा, शेर जैसी शक्तिशाली आत्मा, कर्मों के पिंजरे में बंद है । पुद्गल उसको विविध दुःख देते हैं । पाप-पुद्गल जीव को दुःखी करते रहते हैं । पुद्गल का पिंजरा तोड़ना ही होगा । कैसे भी कर के तोड़ना होगा । तप से तोड़ो, त्याग से तोड़ो, ज्ञान से तोड़ो... ध्यान से तोड़ो... शम-उपशम से तोड़ो... मार्दव-आर्जव से तोड़ो ! जो भी उपाय अपने से बन पड़े, उस उपाय से पुद्गल के पिंजरे को तोड़ो और शेर जैसी आत्मा को मुक्त करो। शेर होते हुए भी, पिंजरे में रहने का आदी हो गया है, उसको पुद्गल का संग अच्छा लगता है ! प्रिय लगता है ! जिस प्रकार रोगी मनुष्य कुपथ्य करता है, नहीं खाने का खाता है, नहीं पीने का पीता है और खुशियाँ मनाता है ! श्री चिदानन्दजी कहते हैं - इतने पर भी जो चेतन कुं, पुद्गलसंग सोहावे, रोगी नर जिम कुपथ करीने, मन में हर्षित थावे । कर्मों के पुद्गलों की कितनी परवशता हो गई है ? आत्मा अपने सभी श्रेष्ठ एकत्व-भावना २५१ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणों को भूल गयी है, श्रेष्ठ स्व-रूप को भूल गयी है ! उसकी कोई जातपात नहीं होती है, कुल और न्यात नहीं है, नाम और रूप नहीं है... परंतु पुद्गल के संग नाम और रूप धारण कर लिया है ! पुद्गल-माया ने उस पर जादू कर दिया है । आत्मा अपने आपको भूल गयी है - जात्य-पात्य कुल न्यात न जाकुं, नाम-गाम नवि कोई, पुद्गलसंगत नाम धरावत निज गुण सघलो खोई । यह पुद्गल-संगत ही परभाव-संवृत्ति है । ग्रंथकार उपाध्यायजी इसी परभाव-संवृत्ति को तोड़ने का उपदेश देते हैं । और यह तभी तोड़ने की इच्छा होगी जब जीव समान होगा, पुद्गल-संगत, 'पुद्गल-पिंजरा उसको बंधन लगेगा ! जब तक पुद्गल-संगत अच्छी लगती है तब तक - पुद्गल के बस हालत-चालत, पुद्गल के बस बोले, कहूंक बेठा टक-टक जुए, कहूंक नयण न खोले ! हलना-चलना, बोलना... सब कुछ पुद्गल के बस ! आँखें खोलना और बंद करना भी पुद्गल के बस ! मनपसंद भोग भोगना और सुखशैया में सोना, पुद्गल के बस ! और इन्हीं पुद्गल के परवश बन कर भूखे-प्यासे गलियों में पड़े रोते हैं ! मनगमता कहूं भोग भोगवे, सुखसज्या में सोवे, कहूंक भूख्या तरस्या बाहर, पड्या गली में रोवे ! 'पुद्गल' की पहचान कर लो। परभाव की पहचान कर लो। और उससे मुक्त होने का पुरुषार्थ करो । पुद्गल का बंधन जानो और तोड़ने का प्रबल प्रयत्न करो। इस मनुष्य-जीवन में ही यह प्रयल-पुरुषार्थ कर पायेंगे । पुद्गल-भावों की लालच में फँसना नहीं है। पुद्गल की पहचान कराते हुए श्री चिदानन्दजी सरल शब्दों में कहते हैं : पाणीमांहे गले जे वस्तु, जले अगनि संयोग, पुद्गलपिंड जाण ते चेतन, त्याग हरख अरू सोग । छाया, आकृति, तेजाति सहु, पुद्गल की परजाय, सड़न-पड़न-विध्वंस धर्म ए, पुद्गल को कहेवाय ! मल्या पिंड जेहने बंधे बे, काले विखरी जाय, चरमनयण करी देखीये ते, सहु पुद्गल कहेवाय । २५२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरण-गलन धर्मथी पुद्गल नाम जिणंद वखाणे, केवल विण परजाय अनंती, चार ज्ञान नवि जाणे । शुभथी अशुभ, अशुभथी शुभ, मूल स्वभावे थाय, धर्मपालटण पुद्गलनो इम सद्गुरु दीयो बताय । काव्य में और सरल भाषा में पुद्गल का परिचय करा दिया है न ? समझ गये न ? फिर भी समझाता हूँ गद्य में ! -- जो वस्तु पानी में गल जाती है, - जो वस्तु अग्नि में जल जाती है, उसको पुद्गल जानना । हे चेतन, पुद्गल-भाव में हर्ष-शोक नहीं करना । - जो छाया दिखती है, जो प्रकाश दिखता है, जो आकृति दिखती है, ये सब पुद्गल के पर्याय होते हैं। पुद्गल का धर्म होता है सड़ना, गिरना और नाश होना ! 'सड़न-पड़न और विध्वंसन पुद्गल की नियति है ! वैसे जो दो पिंड इकट्ठे होते हैं और कालक्रम से बिखर जाते हैं, जिसको जीवात्मा अपनी आँखों से, चर्मदृष्टि से देखता है, वह सब पुद्गल होता है ! आत्मा जो होती है वह आँखों से, चर्मदृष्टि से नहीं दिखती है ! __जो बढ़ता है और घटता है, जिसका पूरण-गलन स्वभाव होता है, वह पुद्गल होता है । पुद्गल के अनंत पर्याय होते हैं और वे पर्याय केवलज्ञानी ही जान सकते हैं। __ पुद्गल परिवर्तनशील होते हैं । शुभ का अशुभ और अशुभ का शुभ होता है ! पुद्गल-भाव स्थिर नहीं रहते । इसलिए उन पर राग-द्वेष नहीं करने चाहिए । इनके कारण हर्ष-शोक नहीं करने चाहिए । आत्मविचार - चन्दनवृक्ष की शीतल हवा : पुद्गल-राग का आवरण दूर होगा तब आत्मविचार पैदा होगा । ग्रंथकार उपाध्यायजी ने आत्मचिंतन को, चंदनवृक्षों की घटा में से आता हुआ सुगंधित शीतल पवन जैसा कहा है ! जिस पवन में चंदन की सुगंध होती है और चंदनवत् शीतलता होती है । भीतर में ही परम आनन्द का अनुभव होता है । समाधिशतक में उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने कहा है - रागादिक जब परिहरी, करे सहज गुणखोज, घट में भी प्रगटे तदा, चिदानन्द की मोज । यदि भीतर में चिदानन्द पाना है तो आत्मचिंतन करना ही होगा। आत्मा के | एकत्व-भावना २५३ | Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहज ज्ञानादि गुणों का चिंतन करना ही होगा। और, पारमार्थिक दृष्टि से सोचें तो सिर्फ आत्मज्ञान, आत्मबोध ही मोक्षमार्ग है, शिवपंथ है । समाधिशतक के प्रारंभ में ही कहा गया है - केवल आतमबोध है, परमारथ शिवपंथ, तामें जिनकी मगनता, सोइ भावनिग्रंथ । आत्मबोध में, आत्मज्ञान में मग्नता ही भावसाधुता है ! यदि आत्मज्ञान में मगनता नहीं है तो भावसाधुता नहीं है । भले ही महाव्रतों का पालन करते हों या उग्र तपश्चर्या करते हों... ज्ञानमगनता के बिना भावसाधुता नहीं होती है । आतमज्ञाने मगन जो, सो सब पुद्गलखेल, इन्द्रजाल करी लेखवे, मिले न तिहां मनमेल । आत्मज्ञान में निमग्न आत्मा, सारे पुद्गल-निर्मित खेलों को इन्द्रजाल समझता है, उसके साथ उनका मन लगता ही नहीं है । एक बार आत्मज्ञान में मगनता का अभूतपूर्व अनुभव होने पर, पुद्गल रचनाओं में मन लगता ही नहीं है । ज्ञानमग्नता का, आत्मरमणता का जो सुख होता है, उस सुख का शब्दों में वर्णन हो ही नहीं सकता है । ज्ञानसार में उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने कहा है - ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म तद्वक्तुं नैव शक्यते ।' ज्ञानमग्न आत्मा का सुख कहा नहीं जा सकता। समत्व के साथ एकत्व का चिंतन : याद रहें, अपनी बात एकत्व-भावना की चल रही है। भीतर में एकत्व का उत्सव मनाना है, उत्सव का परम आनन्द पाना है, तो एकत्व के साथ समत्व को जोड़ना होगा । एकत्व के साथ समत्व जुड़ता है तब भीतर में उत्सव रचाता है, उत्सव का आनन्द प्रगट होता है । एकत्व के साथ समत्व जुड़ने पर यह शत्रु, यह मित्र', ऐसा भेद नहीं रहता ! यह कंचन, यह कथिर', ऐसा भेद नहीं रहता । शत्रु पर द्वेष नहीं रहता, मित्र पर राग नहीं रहता, कंचन पर राग नहीं रहता, कथिर पर द्वेष नहीं रहता ! तभी एकत्व उत्सवरूप बन कर आनन्दरूप बन जाता है। एकतां समतोपेता-मेनात्मात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्द-सम्पदं नमिराजवत् ।।५।। ग्रंथकार कहते हैं : “आत्मन्, समत्वभाव के साथ तू एकत्व की अनुभूति २५४ २५४ शान्त सुधारस : भाग १ शान्त सुधारस: भाग १ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर । यों करके तू नमि राजर्षि की तरह परमानन्द का खजाना प्राप्त कर सकेगा ।" 'अध्यात्मगीता में श्री देवचंद्रजी ने भी कहा है - तेह समतारस-तत्त्व साधे, निश्चलानंद अनुभव आराधे । तीव्र घनघाति निजकर्म तोड़े, संधि पडिलेहीने ते विछोड़े ॥ वही आत्मा समत्व की सिद्धि पाता है और निश्चल आनंद का अनुभव करता है, जो मोहनीय आदि घाती कर्मों को तोड़ने का पुरुषार्थ करता है । अवसर पाकर कर्मों को तोड़ता जाता है, कर्मों का क्षय-क्षयोपशम करता जाता है । नमि राजर्षि – समत्व-एकत्व का उत्सव : उपाध्यायश्री विनयविजयजी ने नमिराजा' का उदाहरण दिया है । नमि राजवत् ! नमि राजर्षि की तरह तू भी परमानन्द की संपत्ति प्राप्त कर ! उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ही स्वयं नमिराजा का पूरा एक अध्ययन कहा है । इन्द्र का और नमि राजर्षि का संवाद, वास्तव में हृदयस्पर्शी है । उस संवाद की कुछ बातें आपको सुनाता हूँ। नमिराजा मिथिला के राजा थे । उनको पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी थी । स्वर्गलोक जैसे श्रेष्ठ भोगसुखों के प्रति वे विरक्त बने, पुत्र का राज्याभिषेक कर दिया और उन्होंने अभिनिष्क्रमण किया, यानी भोगसुखों का, राज्यवैभव का त्याग कर वे साधु बन गये । 'मैं अकेला हूँ, इस निश्चय के साथ उन्होंने मिथिला का त्याग किया । जब वे मिथिला छोड़ कर चल दिये, तब मिथिला में सर्वत्र विलाप, रूदन... शोक... संताप का कोलाहल व्याप्त हो गया था। प्रजा का राजा के प्रति अपार प्रेम था । उस समय देवराज इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान के आलोक में नमि राजर्षि को मिथिला छोड़ कर जाते हुए देखा । इन्द्र ने ब्राह्मण का रूप किया और जा कर राजर्षि को मिले । प्रणाम कर पूछा : किं नु भो अज्ज मिहिलाए कोलाहलगसंकुला । सुच्चंति दारुणा सदा पासएसु गिहेसु अ ॥ ९/७ हे राजर्षि, आज मिथिला में, महलों में और गृहों में सर्वत्र रूदन-विलाप आदि शब्द क्यों सुनायी दे रहे हैं ? राजर्षि ने कहा : हे ब्राह्मण, उद्यान में रहा हुआ मनोरम वृक्ष, प्रचंड आंधीतूफान से गिर जाता है तब उस पर बैठे हुए पक्षी दुःखी होते हैं, आश्रयहीन होते हैं, इसलिए वे क्रंदन-रूदन करते हैं ! यानी लोग अपना स्वार्थ नष्ट होने से रोते | एकत्व-भावना २५५ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, मेरी प्रव्रज्या के कारण नहीं रोते !' देवेन्द्र ने कहा : राजर्षि, आप मिथिला की ओर देखिए तो सही । मिथिला आग में जल रही है, आपका अन्तःपुर-रानीवास भी जल रहा है... आप क्यों उस तरफ देखते नहीं ? राजर्षि समताभाव से बोले - सुहं वसामो जीवामो जेसिमो नत्थि किंचणं । मिहिलाए डज्झमाणीए न मे उज्झइ किंचणं ॥ ९/१४ हे ब्राह्मण, हम सुख से जीते हैं, सुख से रहते हैं, मेरा कुछ भी नहीं है ! मिथिला जल रही है, मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है ! चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो । पिअंण विज्जई किंचि अप्पिअंपि ण विज्जई ॥ ९/१५ बहुं खु मुणिणो भई, अणगारस्स भिक्खूणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगंतमणुपस्सोओ॥ ९/१६ हे ब्राह्मण, स्त्री-पुत्र वगैरह स्वजनों का त्याग करनेवाले और सभी पापप्रवृत्ति का परिहार करनेवाले भिक्षु को कोई वस्तु प्रिय नहीं होती है, कोई वस्तु अप्रिय नहीं होती है । उनको सर्वत्र समभाव-समत्व होता है । ___ “हे ब्राह्मण, परिग्रह से सर्वथा मुक्त, अणगार ऐसे भिक्षु को मैं अकेला ही हूँ, ऐसी एकत्व की मस्ती में बहुत सुख होता है ।" तब इन्द्र ने कहा : हे राजर्षि, ठीक है आपकी बात, परंतु आप किल्ला-प्राकार बनवा कर, गोपुर और अट्टालिकाएँ, युद्ध करने के स्थान, शस्त्रागार इत्यादि बनवा कर, सब कुछ व्यवस्थित करवा कर बाद में जाना । राजर्षि ने प्रत्युत्तर दिया - सद्धं च नगरं किच्चा, तव संवरमग्गलं । खंतिनिउण पागारं तिगुत्तं दुप्पधंसगं ॥ ९/२० धणुं परक्कम किच्चा, जीवं च इरिअं सया । धिइं च केअणं किच्चा, सच्चेणं पलिमंथए ॥ ९/२१ तव नारायजुत्तेणं भित्तूणं कम्मकंचुअं । मुणी विगढसंगामो, भावाओ परिमुच्चई ॥ ९/२२ हे ब्राह्मण, मैंने एक अभिनव नगर बसाया है । शत्रु पर विजय पाने के लिए शस्त्र वगैरह भी बना लिये हैं । सुनो - | २५६ शान्त सुधारस : भाग १ 8888888 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 'श्रद्धा' नाम का नगर बसाया है, - प्रशम को नगर का मुख्य दरवाजा बनाया है, - संसार को किवाड़ बनाये हैं, - क्षमा को गढ़ बनाया है, - मनोगुप्ति-वचनगुप्ति-कायगुप्ति को अट्टालिका, खाई और शस्त्र बनाये हैं, - वीर्योल्लास को धनुष्य बनाया है, - 'पाँच समिति' को धनुष्य की डोरी बनायी है, - 'धैर्य को धनुष्य पकड़ने की मूठ (हत्था) बनायी है, - तप को बाण-तीर बनाया है ! . हे ब्राह्मण, तप के तीरों से कर्मशत्रु को मार कर मुनि संग्रामविजेता बनता है और संसार से मुक्त होता है । इन्द्र का चित्त आनन्दित होता है । वह कहता है : राजर्षि, वास्तुशास्त्र के अनुसार प्रासाद, विशिष्ट रचनावाले गृह इत्यादि का निर्माण करवा कर बाद में निष्क्रमण करना। राजर्षि ने कहा : हे ब्राह्मण - संसयं खलु सो कुणइ, जो मग्गे कुणई घरं। जत्थेव गन्तुमिच्छिज्जा, तत्थ कुव्विज्ज सासयं ॥ ९/२६ मार्ग में वह मनुष्य घर बनाता है, जिसको अपनी यात्रा में संशय होता है । जिसने यात्रा का, गमन का निश्चय कर लिया है वह तो अपने इष्ट स्थान पर पहुँचने पर ही आश्रय करता है । हे ब्राह्मण, इसलिए मैं मुक्ति को ही आश्रय बनाने के लिए प्रयत्नशील बना हूँ।' तब इन्द्र ने कहा : हे राजेश्वर, धनवानों को मारकर अथवा बिना मारे - चोरी करनेवाले चोरों को, तस्करों को नगर से बाहर निकाल कर, नगर का क्षेम करने के बाद जाना ! क्योंकि यह आपका राजधर्म है । इन्द्र की बात सुन कर, राजर्षि ने कहा - असई तु मणस्सेहिं, मिच्छादंडो पजुज्जए । अकारिणोत्थ बज्झंति, मुच्चइ कारगो जणो ॥ ९/३० ॥ हे ब्राह्मण, जो निरपराधी होते हैं, उनको अज्ञान के कारण मनुष्य सजा करता है, इससे दुनिया में निर्दोष लोग दंडित होते हैं और दोषित लोग छूट जाते | एकत्व-भावना २५७ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । अज्ञान के कारण अपराधी को दंड नहीं मिले और निरपराधी दंडित हो, वैसा राजा नगर का, प्रजा का क्षेम करनेवाला कैसे कहा जायेगा ? इन्द्र अब राजर्षि की अद्वेष-भावना की परीक्षा की दृष्टि से कहता है - राजन्, आपकी बात ठीक है, परंतु जो राजाएँ आपकी आज्ञा नहीं मानते उनको आज्ञाधीन करके आप जाना ! राजाओं को आज्ञाधीन बनाने की आपमें शक्ति राजर्षि ने कहा - जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जा ए जिणे । एगं जिणिज्ज अप्पाणं, एस मे परमो जओ ॥ ९/३४ हे ब्राह्मण, दुर्जय संग्राम में जो सुभट दस लाख सैनिकों पर विजय पाता है, वह सुभट यदि विषय-कषाय में प्रवृत्त ऐसी अति दुर्जेय एक आत्मा को जीत लेता है, तो वह परम विजेता कहा जाता है !' अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझेण बज्झओ । अप्पणामेवमप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥ ९/३५ हे ब्राह्मण, आत्मा को आत्मा के साथ युद्ध करना है ! अनाचारों में प्रवृत्त आत्मा के साथ युद्ध करना है । बाहर के दुश्मनों से लड़ने से क्या लाभ ? आत्मा से आत्मा पर विजय पा लेनेवाला मुनि परम सुख पाता है । पंचिन्दियाणी कोहं माणं माणि तहेव लोभं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वमप्पे जिए जिअं ॥ ९/३६ हे ब्राह्मण, पाँच इन्द्रियाँ - क्रोध, मान, माया, लोभ और दुर्जय मन, ये सब आत्मविजय प्राप्त होने पर सहजता से जीता जा सकता है । इसलिए बाहर के शत्रुओं की उपेक्षा कर मैं आत्मजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हूँ। आत्मजय प्राप्त होने पर सब कुछ जीता जाता है ।' अभी तो मैं आपको इन्द्र और नमि राजर्षि के प्रश्न-उत्तर ही सना रहा हूँ । नमि राजर्षि ब्राह्मण-रूपधारी इन्द्र को जो उत्तर दे रहे हैं, उसकी एक-एक बात पर एक-एक प्रवचन दिया जा सकता है, परंतु इतना लंबा प्रवचन नहीं देना है । आप लोग बुद्धिमान हो न ? संक्षेप में सारी बातें समझ सकते हो । बहुत सरल भाषा में सारी बातें बतायी जा रही हैं। महत्त्वपूर्ण बातें दो हैं – समत्व की और एकत्व की । नमि राजर्षि इन्द्र को कितने समभाव से उत्तर दे रहे हैं ! उनके भीतर आत्मा का विशुद्ध स्वरूप प्रगट शान्त सुधारस : भाग १ २५८ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने की कितनी उत्कट भावना है ! वे भीतर में कितने संतुष्ट होंगे ? इसलिए तो उन्होंने पहले ही कह दिया : 'सुहं वसामो जीवामो ! 'हम सुखपूर्वक रह रहे हैं और जी रहे हैं!' बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है यह ! आत्मभाव की मस्ती में सुखपूर्वक रहना और जीना ! और क्या चाहिए ? इन्द्र और नमि राजर्षि का संवाद, आज यही पर ही पूर्ण करते हैं । अभी कुछ प्रश्न- उत्तर शेष हैं, कल बताऊँगा । आज बस, इतना ही । एकत्व - भावना २५९ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Z शान्त सुधारस प्रवचन : २३ : संकलना नमि राजर्षि व इन्द्र का संवाद । देवराज इन्द्र, राजर्षि की स्तुति करता है । वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानें । मैं अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा । श्रीकृष्ण और बलराम । जीव अकेला ही स्वर्ग में, नरक में और मोक्ष में जाता है । आत्महित भी अकेले ही कर लेना है । लव-कुश का गृहत्याग ममत्व का बोझ नीचे ले जाता है । परभाव शराब का नशा । ममत्व टूटा, राम स्वस्थ हुए । एकत्व और समत्व से मुक्ति । - Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यायश्री विनयविजयजी शान्तसुधारस' ग्रंथ की चौथी एकत्व-भावना में कहते हैं : एकतां समतोपेता-मेनामात्मन् विभावय । लभस्व परमानन्दसंपदं नमिराजवत् ॥५॥ हे आत्मन, समत्वभाव के साथ तू आत्मा के एकत्व की अनुभूति कर । यों करके नमि राजर्षि की भाँति तू भी परम आनंद का खजाना प्राप्त कर सकेगा। मिथिला का राजा नमि को पाँच सौ रानियाँ थी। अपार राजरिद्धि का वह मालिक था। एक दिन उसके बदन में दाहज्वर पैदा हुआ। वैद्यों ने अनेकविध औषधोपचार किये, परंतु उसका दाहज्वर शान्त नहीं हुआ। शरीर पर चंदन का विलेपन करने के लिए उसकी सभी रानियाँ चंदन घिसने लगी । रानियों के हाथ पर अनेक कंगन थे । कंगनों के घर्षण से आवाज आती थी, ज्यादा आवाज आती थी। नमिराजा से सहन नहीं होती थी । उसको मालुम नहीं था कि यह आवाज रानियों के कंगनों का है । उसने कहा : यह आवाज बंद हो । रानियों ने तुरंत ही सौभाग्य का सूचक एक-एक कंगन रखकर शेष कंगन उतार दिये । आवाज बंद हो गई । राजा ने पूछा : अब आवाज कैसे बंद हो गई ? रानियों ने कहा : स्वामिनाथ, हमारे हाथ पर अनेक कंगन थे, इसलिए परस्पर घर्षण होता था, घर्षण में से आवाज पैदा होती थी। हमने सौभाग्य का एक-एक कंगन रखकर, शेष कंगन उतार दिये, इसलिए अब आवाज नहीं आती है। रानियों ने तो यह बात सहजभाव से कही थी, परंतु नमिराजा ने इस बात का आध्यात्मिक अर्थ किया । ‘अनेक में संघर्ष है, एक में शान्ति है । अनेक में दुःख है, एक में ही सुख है ! एकत्व और समत्व में ही शान्ति और सुख है। इसलिए मेरा दाहज्वर शान्त होने पर मैं इस संसार का त्याग करूँगा। अणगार बनूँगा। नमि राजर्षि व इन्द्र का संवाद : नमिराजा का शरीर निरोगी होता है । वे प्रत्येकबुद्ध बनते हैं। यानी किसी के भी उपदेश के बिना वे विरागी-विरक्त बनकर अणगार बनते हैं । मिथिला का, राजपरिवार का, राज्य-रिद्धि का त्याग कर चल देते हैं । तब देवराज इन्द्र अपने अवधिज्ञान से नमिराजा को देखते हैं । इन्द्र को आश्चर्य होता है ! नमिराजा का वैराग्य दुःखगर्भित है अथवा ज्ञानगर्भित है - यह जानने के लिए इन्द्र, ब्राह्मण का रूप कर, पृथ्वी पर आता है और नमि राजर्षि को रास्ते में मिलकर उनसे । एकत्व-भावना २६१ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न पूछता है । नमि राजर्षि समभाव से कैसे ज्ञानगर्भित प्रत्युत्तर देते हैं, कल कुछ प्रश्नोत्तर आपको सुनाये थे । जो शेष प्रश्नोत्तर हैं, वे आज सुनाता हूँ। एकाग्र मन से सुनना, बाद में उन पर चिंतन करना है। इन्द्र ने कहा : राजन, बड़े-बड़े यज्ञ करा कर, श्रमण-ब्राह्मण वगैरह को भोजन करा कर, गौ आदि का दान देकर, इष्ट-मिष्ट और प्रिय विषयसुखों को भोगकर, स्वयं यज्ञादि करने के बाद त्यागमार्ग पर जाना । नमि राजर्षि ने कहा : जो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए । तस्सावि संजमो सेओ अदितस्सावि किंचणं ॥ ९/४० हे ब्राह्मण, कोई मनुष्य प्रतिमास १०-१० लाख गायों का दान देता हो, और कोई मनुष्य एक गाय का भी दान नहीं देता हो, तो भी हिंसा वगैरह पापों के परिहाररूप संयम अति श्रेष्ठ होता है !' इन्द्र ने कहा : ठीक है आपकी बात, परंतु गृहस्थाश्रम भी घोर दुष्कर है, उसका त्याग कर अन्य संन्यासाश्रम की क्यों इच्छा करते हो ? हे राजन्, गृहस्थाश्रम में रहते हुए पौषधव्रत में निरत रहें । नमि राजर्षि ने कहा : मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए । न सो सुअक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ॥ ९/४४ हे ब्राह्मण, कोई अज्ञानी मनुष्य, एक-एक महीने के उपवास के पारणे में अति अल्प आहार ग्रहण करता हो, फिर भी वह तीर्थंकर-प्रणीत मुनिधर्म के सोलहवें भागसमान भी नहीं होता है । तीर्थंकरों ने मुनिधर्म को ही मुख्य रूप से मुक्तिमार्ग बताया है, गृहस्थाश्रम को नहीं । ___ इन्द्र ने कहा : हे राजन्, सोना, रत्न, मणि-मोती, मूल्यवान वस्त्र, वाहन, धनभंडार इत्यादि की वृद्धि करके अणगार बनना । नमि राजर्षि ने कहा : सुवण्णस्पस्स, उ पव्वया भवे, सिआ हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥ ४/४८ हे ब्राह्मण, मेरुपर्वत जैसे सोना-चांदी के असंख्य पहाड़ मिल जायं, फिर भी तृष्णातुर मनुष्य को थोड़ा भी संतोष नहीं होता है। क्योंकि इच्छा आकाश | २६२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसी अनंत होती है । इतना ही नहीं, पुढवी साली जवा चेव हिरण्यं पसुभिस्सइ । पडिपुण्णं नालमेगस्स, इइ विज्जा तवं चरे ॥ ९/४९ हे ब्राह्मण, भूमि, जव आदि धान्य, सोना आदि धनसंपत्ति, पशुधन आदि वैभव, एक जीवात्मा की इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता है । ऐसा समझकर, बारह प्रकार के तप करने चाहिए। ___ इन्द्र ने कहा : हे राजन्, आश्चर्य की बात है कि आप विद्यमान अद्भुत भोगों का त्याग कर, अविद्यमान स्वर्ग के सुखों को चाहते हो ! अप्राप्त भोगों की अनन्त इच्छाओं से हत-प्रहत हो रहे हो ! आप विवेकी हैं, आपको अप्राप्त भोगों की इच्छा से, प्राप्त भोगों का त्याग नहीं करना चाहिए !' नमि राजर्षि ने कहा : सल्लं कामा, विसं कामा, कामा, आसीविसोवमा । कामे पत्थयमाणा य अकामा जंति दुग्गइं ॥ ९/५३ अहे वयइ कोहेणं माणेणं अहमा गई । माया गइ पडिग्घाओ लोहोओ दुहओ भयं ॥ ९/५४ हे ब्राह्मण, शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श के कामसुख शल्यरूप हैं, काँटे जैसे हैं, जहर जैसे हैं और काले नाग जैसे हैं । कामभोगों की इच्छा करने मात्र से जीव नरक-तिर्यंचगति में उत्पन्न होते हैं, कामभोग भोगने की बात तो दूर रही ! __ हे ब्राह्मण, क्रोध से नरकगति मिलती है, मान-अभिमान से नीच गति मिलती है, माया से सद्गति का नाश होता है और लोभ से इस भव में और परभव में अनेक भय उत्पन्न होते हैं । देवराज इन्द्र को नमि राजर्षि का वैराग्य ज्ञानमूलक हैं - इस बात की प्रतीति हो गई । उसको अति हर्ष हुआ । उसने अपना इन्द्र का रूप प्रगट किया और नमि राजर्षि के चरणों में भावपूर्वक वंदना कर स्तुति की। देवराज इन्द्र, राजर्षि की स्तुति करता है : हे राजर्षि, आपने क्रोध को जीत लिया है, मान-अभिमान को हरा दिया है, माया का विसर्जन किया है और लोभ को स्वाधीन कर लिया है ! हे राजर्षि, अहो ! आपकी कैसी श्रेष्ठ सरलता है ! कैसी अपूर्व नम्रता है ! | एकत्व-भावना २६३ | Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसी अलौकिक क्षमा है और कैसा अद्वितीय-असाधारण संतोष है ! ___ हे पूज्य, आप उत्तम गुणों से संपन्न हैं, इसलिए वर्तमान जीवन में उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तमोत्तम होंगे। आप कर्ममुक्त बनकर उत्तमोत्तम स्थानमुक्ति में जायेंगे । इस प्रकार स्तुति-स्तवना कर इन्द्र आकाशमार्ग से देवलोक में चला गया। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान महावीर स्वामी कहते हैं : इन्द्र ने प्रत्यक्ष होकर नमि राजर्षि की स्तुति की, फिर भी नमि राजर्षि गर्वित नहीं बने ! परंतु वे विशेष रूप से आत्मभाव में लीन बने ! नमि नमेइ अप्पाणं । बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कह दी है । नमि राजर्षि अपने आत्मस्वरूप में विशेष रूप से लीन बने ! प्रशंसा सुनकर तनिक भी बाह्य भाव में नहीं गये । एकत्व और समत्व की आराधना को चूके नहीं, परंतु उसमें गहरे डूब गये। - इस प्रकार चौथी एकत्व-भावना के पाँच प्रारंभिक श्लोकों का विवेचन पूर्ण कर, अपन उस भावना के गेय काव्य का विवेचन शुरू करते हैं। यदि आपको शास्त्रीय रागों का ज्ञान हो तो यह गेय काव्य परजीया या भीमपलास राग में गा सकते हैं । सुनें - विनय चिन्तय वस्तुतत्त्वं, जगति निजमिह कस्य किम् ? भवतिमतिरिति यस्य हृदये, दुरितमुदयति, तस्य किम् ॥१॥ एक उत्पद्यते तनुमा-नेक एव विपद्यते एक एव हि कर्म चिनुते, सैककः फलमश्नुते ॥२॥ यस्य यावान्परपरिग्रह-विविधममतावीवधः । जलविधिविनिहित पोतयुक्त्या, पतति तावदसावधः ॥३॥ स्वस्वभावं मद्यमुदितो भुवि विलुप्य विचेष्टते । दृश्यतां परभावघटनात्, पतति विलुठति जृम्भते ॥४॥ पहले इन श्लोकों का अर्थ सुन लें - ओ विनय, तू वस्तु के वास्तविक रूप का भलीभाँति चिंतन कर। इस विश्व की जेल में मेरा अपना क्या है ? ऐसी पारदर्शी प्रज्ञा जिसके दिल में प्रगट हो जाती है, उसे फिर दुःख-दुरित छुएगा भी कैसे ? शरीरधारी आत्मा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मोत का शिकार होता है । कर्मों का बंध भी अकेले ही करता है और कर्मों को भुगतना भी उसे २६४ शान्त सुधारस : भाग १ १४.१४ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकेले ही पड़ता है। __तरह-तरह के ममत्वों के बोझ से दबा हुआ प्राणी, परिग्रह का बोझ पढ़ने से, बहुत ज्यादा बोझ बढ़ने से समुद्र में डूब जाते जहाज की भाँति नीचे गहराई में पहुँच जाता है। शराब के नशे में चूर हुए आदमी की तरह आत्मा परभाव के पाश में पतित होता है, टकराता है, लोटता है और शून्यमनस्क होकर भटकता है । वस्तु के वास्तविक स्वस्प को जानें : ___ हर वस्तु के दो रूप होते हैं - वास्तविक और अवास्तविक । वस्तु के मूलभूत द्रव्य को वास्तविक कहते हैं, जिसका कभी नाश नहीं होता है । दूसरा रूप होता है अवास्तविक । उसको कहते हैं पर्याय ! हर द्रव्य के अनंत पर्याय होते हैं । पर्याय विनाशी होते हैं ! पर्याय परिवर्तनशील होते हैं । यह गंभीर तत्त्वज्ञान है द्रव्य और पर्याय का । इस तत्त्वज्ञान की ओर ग्रंथकार निर्देश करते हुए कहते हैं : सोचें, इस विश्व में अपना क्या है ? यह दिव्य विचार जिसके चित्त में जाग्रत हो जाता है, उसको दुःख-दुरित का स्पर्श भी नहीं हो सकता है ! चूंकि उसने समझ लिया होता है कि मैं विशुद्ध और अविनाशी आत्मा हूँ और ज्ञानादि गुण ही मेरे है, इसके अलावा कुछ भी मेरा नहीं है । चर्मदृष्टि से दिखनेवाला एक भी पर्याय मेरा नहीं है । पाँच इन्द्रियाँ और उनके विषय मेरे नहीं है । जो मेरा नहीं है वह बने या बिगड़े, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है ! अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा : इस अनादि संसार में कर्मवश जीव का एकत्व' कैसा है, इसका बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन कार्तिकेयानुप्रेक्षा में किया है । एकत्व की अनुप्रेक्षा करते हुए तीन श्लोकों में उन्होंने कहा है - जीव अकेला ही गर्भ में उत्पन्न होता है । गर्भ में शरीर बनाता है । वही अकेला जनमता है, बाल होता है, युवान होता है और वृद्ध होता है। ___ अकेला ही रोग-शोक भोगता है । अकेला ही संताप-वेदना सहता है और अकेला ही मरता है ! अकेला ही नरक के दुःख सहन करता है । नरक में परवशता से दुःख सहन करने ही पड़ते हैं । कोई बचा सकता नहीं है । श्रीकृष्ण और बलराम : जैन महाभारत में बताया गया है कि श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद बलराम विरक्त हो जाते हैं । वे श्रमण बन जाते हैं । सौ वर्ष तक वे संयमधर्म का पालन करते एकत्व-भावना २६५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । देवलोक में उत्पन्न होते हैं । श्रीकृष्ण के प्रति अपार राग होने से, उन्होंने देवलोक में उत्पन्न होते ही, अपने अवधिज्ञान के प्रकाश में देखा कि श्रीकृष्ण का जन्म कहाँ हुआ है ? कृष्ण को उन्होंने तीसरी नरक में देखे। वासुदेव मरकर नरक में ही जाते हैं । ऐसा सिद्धांत है । कृष्ण वासुदेव थे । बलराम-देव ने अपनी दैवीशक्ति से दूसरा शरीर बनाया और वे श्रीकृष्ण को मिलने तीसरी नरक में गये । कृष्ण को आलिंगन कर बोले : मेरे भाई, मैं तुम्हारा भाई बलराम हूँ | तुम्हारी रक्षा करने मैं पाँचवे ब्रह्म-देवलोक से यहाँ आया हूँ । बोलो, तुम्हारे लिए मैं क्या करूँ ?' कृष्ण कुछ भी बोले, उसके पहले देव ने कृष्ण को उठाये । परंतु उठाते ही कृष्ण का शरीर पारे की तरह विशीर्ण होकर जमीन पर गिर पड़ा । जमीन पर गिरते ही पुनः शरीर जैसा था वैसा बन गया । श्रीकृष्ण ने खड़े होकर बलरामदेव को नमस्कार किया । देव ने कहा - 'मेरे भाई, भगवान नेमनाथ ने कहा था कि वैषयिक सुख दुःखदायी होते हैं । आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। हे वासुदेव, कर्मों से आप नियंत्रित हो, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले जा नहीं सकता, परंतु तुम्हारे मन की खुशी के लिए मैं यहाँ तुम्हारे पास रहना चाहता हूँ । __ कृष्ण ने कहा - 'भैया, आपके यहाँ रहने से मुझे कोई लाभ होनेवाला नहीं है । आप रहेंगे, तो भी मैंने जितना नरक का आयुष्य-कर्म बाँधा है, उतना भोगना ही पड़ेगा । मुझे अकेले को भोगना पड़ेगा। आप यहाँ नहीं रहें । मेरे कर्म मुझे भोगने दो। बलराम के हृदय में बहुत दुःख हुआ। वे वापस देवलोक में चले गये । अकेला ही स्वर्ग में, नरक में और मोक्ष में जाता है : इक्को संचदि पुण्णं, इक्को भुंजेदि विविहसुरसोक्खं । इक्को खवेदि कम्म, इक्को विय पावए मोक्खं ॥ 'अकेला जीव पुण्य बाँधता है, अकेला जीव देवलोक का सुख भोगता है, अकेला ही जीव कर्मों की निर्जरा करता है और अकेला ही जीव मोक्ष पाता है । इसलिए, दूसरों की ओर नहीं देखते हुए आत्महित भी अकेले ही कर लेना चाहिए। प्रशमरति में भगवान् उमास्वातीजी ने कहा है : एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिकाहितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ॥ १५३ ॥ मैं अकेला हूँ ! पैदा होता हूँ अकेला और मरता भी अकेला ही हूँ । नरक | २६६ शान्त सुधारस : भाग १ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जाता हूँ तो भी अकेला और स्वर्ग की सैर करता हूँ तो भी मैं अकेला ही । मनुष्यगति में जन्म लेता हूँ तो भी मैं खुद अकेला और पशुयोनि में जाऊँ तो भी मैं स्वयं ही! आत्महित भी अकेले ही कर लेना है : __ जो अनंत-अनंत समय बीत गया इस संसार में परिभ्रमण करते हुए, उस अनंतकाल में जो कोई सुख-दुःख मैंने सहे वो भी अकेले ही । मैं यानी आत्मा। मैं अकेला हूँ, असहाय हूँ, यह वास्तविकता है और मुझे इस वास्तविकता का सरसरी तौर पर स्वीकार कर लेना चाहिए । इस वास्तविकता का मैंने स्वीकार नहीं किया और अनेकता के ख्याल में खो गया। अनेकता की जाल में उलझता ही रहा - 'अकेले में दुःख, अनेक में सुख, यह विचार मेरा दृढ़ रहा है, इसलिए एक में से अनेक होने का प्रयत्न किया है और किये जा रहा हूँ। ___ 'विशाल परिवार हो तो सुख, विशाल मित्र-मंडल हो तो सुख, बड़ा अनुयायी वर्ग हो तो सुख, बस ! भीड़ में ही सुख और आनंद की कल्पना बनायी और उसमें ही उलझता रहा । परिणाम-स्वरूप दुःख और अशान्ति का बोझ ढोता रहा । हालाँकि समूह-जीवन में कुछ-एक सुख, कुछ आनंद भी मैने पाया है, पर वो सुख दीर्घकाल तक टिका नहीं, वो आनन्द ज्यादा समय रहा नहीं। वो सब अल्पकालीन सिद्ध हुआ है ।। __ मुझे एकाकी होना नहीं है, फिर भी कभी न कभी तो एकाकी बनना ही होगा। तब क्या मुझे दुःख नहीं होगा ? वेदना नहीं होगी? अकेले जब मरना होगा तब क्या मेरी स्वस्थता बरकरार बनी रहेगी ? समता और समाधि में लीन हो जाऊँगा? मैं अकेला, कौन-सी गति में जाऊँगा? यह भय मुझे व्याकुल तो नहीं बना डालेगा ? इसलिए अब मैं इस परम सत्य का स्वीकार करता हूँ - 'मैं अकेला हूँ, मुझे अकेले ही जन्म-मरण करने हैं, अकेले ही चार गति में और ८४ लाख योनि में भटकना है, तो फिर क्यों न मैं अकेले ही मेरा आत्महितआत्मकल्याण साध लूँ? क्यों न मैं अकेला ही महान् धर्म-पुरुषार्थ कर लूँ ?' अब आज में चार निर्णय कर लेता हूँ - १. मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मुझे किसी का सहारा नहीं है, ऐसी शिकायत अब मैं कभी भी नहीं करूँगा। २. मैने तो उन्हें अपना मानकर, उनके ढेरों काम किये, पर उन्होंने मेरी कोई सहायता नहीं की, ऐसी मनोव्यथा अब मैं कभी नहीं करूँगा । ३. 'धर्मआराधना तो मैं करूँ, पर मुझे कोई साथी चाहिए, कोई सहयोगी चाहिए, & एकत्व-भावना २६७ & Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ-सहयोग के बिना धर्मआराधना मेरे से नहीं होगी, ऐसी दलीलें मैं नहीं करूँगा। ४. एकोऽहं- मैं अकेला हूँ - इस सत्य को आत्मसात् करने के लिए निरंतर एकत्व-भावना से भावित बना रहँगा । आत्मा की अद्वैतभाव की मस्ती में जीनेवाले मिथिला के नमि राजर्षि और अवंती के राजा भर्तृहरि वगैरह जब स्मृति की शीप में मोती बनकर उभरते हैं, तब आत्मानन्द की अकथ्य अनुभूति होती है । अकेलेपन की दीनता-हताशा चूर-चूर हो जाती है । पर-सापेक्षता की ऊँची-ऊँची कगारे टूट गिरती हैं । रहना सब के बीच, पर सब से जुदा !' ऐसे जीने का मजा मैने चख लिया है । किसी गिरिमाला के उत्तुंग शिखर पर, गगनचुंबी भव्य जिनमंदिरों की गोद में, अकेले आसन जमाकर, हवा की सनसनाहटों के और पक्षियों के मधुर कूजन के अलावा जहाँ और कुछ भी न हो, मंदिर का पूजारी भी जब अपने घर चला गया हो, ऐसे में जनरहित नीरव शांति में, परमात्मा के सान्निध्य में, एकत्व और समत्व का निजानंद मैंने पाया है । और, तीव्र संवेदनाओं से सिक्त हुआ हूँ । अनेकता के कोलाहल से मुक्त होकर दूर दूर एकत्व के क्षीरसमुद्र में डुबकियाँ लगाने की मस्ती मैंने पायी है। अब अनेकता में से मिलनेवाले सुख मुझे नहीं चाहिए । अनेकता में से पैदा होनेवाला आनंद मुझे नहीं भायेगा । पर-सापेक्ष जीवन अब नहीं जीना है । अब तो इस छोटी-सी जिन्दगी में आत्मा के अद्वैत-एकत्व की जी भरकर साधना कर लेना है । आत्मा का स्थायी हित खोज लेना है । नित्य और शाश्वत् गुणसमृद्धि पा लेना है। ___ आत्मसाक्षी से ऐसा निर्णय कर लेना है और इस निर्णय को दृढ़ करने के लिए परमात्मा से प्रार्थना करना है । लव-कुश का गृहत्याग : जब जीवन चंचल है, जीव अशरण है, संसार निर्गुण-असार है और आत्मा अकेली है, तब प्रबुद्ध मनुष्य को शाश्वत् आत्मकल्याण ही साध लेना चाहिए । इस विषय में आपको रामायणकालीन एक अद्भुत घटना सुनाता हूँ। ___ अयोध्या के राजमहल में अचानक लक्ष्मणजी की मृत्यु हो गई थी । अन्तःपुर की रानियाँ घोर आक्रन्द करने लगी थी । रानियाँ और दासियों का करुण विलाप सुनकर श्रीराम वहाँ पहुँच गये और बोले : तुम लोग यह क्या कर रहे हो ? मैं जिन्दा हूँ, मेरा भाई लक्ष्मण भी जिन्दा है । उसको कोई रोग हुआ है, वह मूछित शान्त सुधारस : भाग १ २६८ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो गया है । अभी मैं वैद्यों को बुलाकर औषध करवाता हूँ । श्रीराम ने तुरंत ही वैद्यों को बुलवाये, मांत्रिक और तांत्रिकों को बुलवाये । औषध और मंत्रतंत्र के प्रयोग करवाये, परंतु सब कुछ निष्फल गया । श्रीराम दुःख से मच्छित हो गये। जब होश में आये, वे करुण विलाप करने लगे । विभीषण, सुग्रीव, शत्रुध्न वगैरह अयोध्या में ही थे, वे भी श्रीराम के साथ करुण आक्रन्द करने लगे। कौशल्या, सुमित्रा वगैरह माताएँ, पुत्रवधूएँ वगैरह भी बार-बार मूछित होने लगी और करुण रुदन करने लगी । अयोध्या के प्रत्येक मार्ग में, प्रत्येक घर में और प्रत्येक दुकान में शोकाद्वैत फैल गया। उस समय श्रीराम के दो पुत्र लव और कुश, गहन शोकसागर में डूबे थे। वे गहन चिंतन में, गहन आत्ममंथन में चले गये ! हमारे पितातुल्य लक्ष्मणजी अचानक चल बसे...। क्रूर महाकाल ने उन जैसे अद्वितीय पराक्रमी वासुदेव का अपहरण कर लिया। वे कुछ भी आत्महित नहीं कर पाये..। जीवन...आयुष्य...यौवन चंचल है... विनाशी है... । आरोग्य भी चंचल है । हमें प्रमाद नहीं करना चाहिए। स्वजनों के मोह-ममत्व में उलझना नहीं चाहिए । ममत्व के बंधनों को तत्काल तोड़ डालने चाहिए । आज चाचा चल बसे, कल हम भी चले जा सकते हैं । मृत्यु कभी भी आ सकती है । इसके पूर्व गृह त्याग कर, श्रमण बन कर, चारित्रधर्म ले लेना चाहिए । दोनों भाइयों ने श्रीराम को अपनी भावना बता दी और नमस्कार कर चल दिया। श्री अमृतघोष मुनि के पास जाकर दीक्षा ले ली । ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप की आराधना की, सभी कर्मबंधन तोड़ डाले और वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन गये। ममत्व का बोझ नीचे ले जाता है : ___ ममत्व को ही परिग्रह कहा गया है । मूर्छा कहें, ममत्व कहें या परिग्रह कहें, अर्थ एक ही है । ममत्व भारी होता है । लोहे से भी भारी । लोहे से और लकड़ी से बना जहाज तो समुद्र की सतह पर तैरता है, परंतु ममत्व-परिग्रहआसक्ति के बोझ से भरा हुआ मनुष्य संसार-सागर में डूब जाता है। नीचे...बहुत नीचे चला जाता है । संसार-सागर के बहुत नीचे सात नरक हैं । परिग्रही जीव नरक में चला जाता है । बहुत ज्यादा परिग्रही-विषयासक्त जीव सातवीं नरक में जाता है, उससे कम परिग्रही छट्ठी नरक में, उससे कम परिग्रही पाँचवी नरक में... वैसे कम-कम ममत्ववाला जीव चौथी, तीसरी, दूसरी, पहली नरक में जाता एकत्व-भावना २६९ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए ममत्व तोड़ने का और समत्व पाने का उपदेश ज्ञानी पुरुष देते हैं । तुम अकेले हो, अकेले जन्मे हो और अकेले मरोगे । जिन पौद्गलिक विषयों पर ममत्व करते हो, आसक्ति बाँधते हो, वे साथ चलनेवाले नहीं है । ममत्व का बोझ तुम्हें नीचे...गहरे पानी में डूबो देगा। तुम नरक में चले जाओगे। असंख्य वर्षों तक दुःख पाओगे । __शास्त्रों में, धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो वासुदेव होते हैं, वे अवश्य नरक में जाते हैं । क्योंकि वे मृत्युपर्यंत परिग्रह का, ममत्व का त्याग नहीं करते हैं ! और सभी बलदेव स्वर्ग अथवा मोक्ष में जाते हैं, ऊपर जाते हैं, क्योंकि वे मृत्यु के पहले परिग्रह का त्याग कर देते हैं ! ममत्व का बोझ कम कर देते हैं अथवा सर्वथा त्याग कर देते हैं । वैसे जो चक्रवर्ती मृत्यु तक परिग्रही बने रहते हैं, वे अवश्य नरक में जाते हैं । जो मृत्यु के पूर्व ममत्व का त्याग करते हैं वे स्वर्ग अथवा मोक्ष में जाते हैं । भरत चक्रवर्ती वगैरह सर्वथा अपरिग्रही बने थे तो मोक्ष में गये । सनत्कुमार चक्रवर्ती ने ममत्व का बोझ कम किया था तो वे तीसरे देवलोक में गये । और सुभूम-ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने ममत्व-परिग्रह नहीं त्यागा था तो वे नरक में गये ! इसलिए ममत्व छोड़कर, एकत्व की और समत्व की आराधना करें । परभाव : शराब का नशा : ___ जहाँ एकत्व की भावना नहीं रहती है, अनेकत्व की भावना दृढ़ होती है, परभाव की आसक्ति, परद्रव्य का ममत्व रहता है, वहाँ जीव की दशा शराबी जैसी होती रहती है । फिर वह पुरुष साधारण हो या असाधारण ! सामान्य हो या विशिष्ट! युवान हो या वृद्ध । शराबी की तरह वह पतति, विलुठति, जृम्भते! वह गिरता है, टकराता है...लोटता है ! जब लंकापति रावण सीता का अपहरण कर गया था तब श्रीराम जैसे महापरुष की क्या स्थिति बनी थी ? श्रीराम का सीता के प्रति ममत्व था, परभाव का बंधन था ! श्रीराम ने जब कुटिया में सीता को नहीं देखा, वे तत्काल मूञ्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े थे । जब वे होश में आये तब वे जंगल में सीताजी की खोज में भटकने लगे थे। वनदेवता को दीन वचनों से प्रार्थना करने लगे थे - हे वनदेवता, मैं इस वन में सर्वत्र भटका, परंतु मैंने जानकी को नहीं देखा...तुमने देखा हो तो कृपया बतायें । भूत और जंगली क्रूर जनावरों से भरे हुए इस वन में सीता को अकेली छोड़कर मैं लक्ष्मण के पास चला गया...मैं कैसा बुद्धिहीन ? हे प्रिये | २७० शान्त सुधारस : भाग १ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता, इस भयानक वन में मैंने तुझे अकेली क्यों छोड़ दी ?' बोलते-बोलते वे रो पड़े...और मूर्छित होकर गिर पड़े जमीन पर । श्रीराम की कैसी करुणाजनक स्थिति बनी थी ! वे बार-बार गिरते रहे, विलाप करते रहे...संतप्त बने रहे ! कारण ? परभाव का ममत्व था ! सीता के प्रति आसक्ति थी ! लक्ष्मणजी की मृत्यु के बाद भी श्रीराम की स्थिति ऐसी ही दयनीय हो गई थी। वे बार-बार मच्छित होकर जमीन पर गिर जाते थे। लक्ष्मण के ऊपर श्रीराम का अति स्नेह था, अति ममत्व था ! वे मानने को ही तैयार नहीं थे कि लक्ष्मण की मृत्यु हुई है । लक्ष्मण के मृतदेह को अपने कंधे पर लेकर अयोध्या में वे ६ महीनों तक फिरते रहे थे। कभी वे लक्ष्मण के मृतदेह को स्नान करवाते, स्वयं उनके शरीर पर चंदन का विलेपन करते, उत्तम भोजन का थाल उनके सामने रखते । मृतदेह को अपने उत्संग में लेकर मुख पर बार-बार चुंबन करते। कभी शैया पर सुलाकर उस पर पंखा ढोते । कभी अंगमर्दन करते । इस प्रकार राग से उन्मत्त होकर...विविध मोहचेष्टाएँ करते...छह महीने तक फिरते रहे । ममत्व टूटा, राम स्वस्थ हुए : श्री सीताजी की रक्षा करते-करते मरा हुआ जटायु-पक्षी, मरकर माहेन्द्र देवलोक में देव हुआ था । श्रीराम के प्रति उनका दृढ़ स्नेह था, वह स्नेह से प्रेरित होकर श्रीराम के पास आता है और राम की रागाक्रान्त मोहमूढ दशा देखकर, उनको प्रतिबुद्ध करने, विविध उपाय करता है । वैसे, श्रीराम का सेनापति कृतान्तवदन भी मरकर देव बना था, वह भी श्रीराम को प्रतिबोध देने वहाँ अयोध्या में आता है । दोनों देवों ने विविध प्रयोगों से श्रीराम की मोहमूर्छा दूर की। लक्ष्मण की मृत्यु हो गई है, यह वास्तविकता समझायी, श्रीराम ने लक्ष्मण की मृत्यु की बात मान ली, तब दोनों देव, श्रीराम को प्रणाम कर, देवलोक में चले गये ! लक्ष्मण के मृतदेह का अग्निसंस्कार किया गया। श्रीराम अब संसार के प्रति विरक्त बन गये । सीता, लक्ष्मण और लव-कुश के बिना दुनिया उनके लिए उज्जड़ वीरान-सी बन गई थी । संसार की असारता का उनको वास्तविक ज्ञान हो गया था। उन्होंने शत्रुध्न को राज्य ग्रहण करने को कहा, परंतु शत्रुघ्न ने कहाः 'मैं भी आपके साथ ही दीक्षा लूँगा। तब राम ने लव के पुत्र अनंगदेव का राज्याभिषेक किया और वे सुव्रत नाम के महामुनि के पास गये । ___ सुग्रीव, शत्रुघ्न, विभीषण, विराध वगैरह के साथ श्रीराम ने गृहवास का त्याग किया और वे अणगार बन गये । यह समाचार सारे भारत में फैल गये । सोलह | एकत्व-भावना २७१ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजार राजाओं ने भी दीक्षा ले ली । एकत्व और समत्व की आराधना करतेकरते श्री रामभद्र महामुनि वगैरह ने मुक्ति पा ली। एकत्व और समत्व से मुक्ति : ___ सभी कर्मों से मुक्ति पाना है तब तो एकत्व और समत्व की आराधना करनी ही होगी, परंतु इस जीवन में शारीरिक-मानसिक संतापों से-क्लेशों से मुक्ति पाना है, तो भी एकत्व और समत्व की आराधना करनी होगी । एकत्व-भावना का चिंतन प्रतिदिन करना होगा । इस भावना को आत्मसात् करनी होगी । आज गेयकाव्य की चार गाथाओं पर विवेचन किया है। कल शेष चार गाथाओं पर विवेचन कर, एकत्व-भावना का विवेचन पूर्ण करेंगे। आज बस, इतना ही। | २७२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्त सुधारस प्रवचन : २४ : संकलना : * अपना रूप खोजना होगा। * कर्मवश जीव के अनेक स्प । * एकत्व से ही परम सुख की ओर।। * श्रीराम-महामुनि को अनुकूल उपसर्ग । * हृदयमंदिर में पूर्णात्मा की रमणता हो । * इन्द्रियाँ और आत्मरमणता । * समतासुधा का आस्वाद करें। * परमात्मभाव में वासना दृढ़ कैसे बनें ? * एकत्व-भावना से ही समतासुख । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्य काञ्चनमितरपुद्गल - मिलितमञ्चति कां दशाम् । केवलस्य तु तस्य रूपं विदितमेव भवादशाम् ॥ ५॥ एवमात्मनि कर्मवशतो, भवति स्पमनेकधा । कर्ममलरहिते तु भगवति, भासते काञ्चनविधा ।। ६ ।। ज्ञानदर्शन चरणपर्यव - परिवृत्तः परमेश्वरः । एक एवानुभवसदने, स रमतामविनश्वरः ।। ७॥ रुचिरसमतामृतरसं - क्षण- मुदितमास्वादय मुदा । विनय विषयातीतसुखरस - रतिरुदञ्चतु ते सदा ॥ ८ ॥ उपाध्यायश्री विनयविजयजी 'शान्तसुधारस' ग्रंथ में चौथी 'एकत्व - भावना' के गेय काव्य में फरमाते हैं : ५. तुम्हें तो मालूम ही है ना ? सोने जैसी कीमती धातु भी यदि हलकी धातु में मिल जाती है तो अपना निर्मल रूप खो बैठती है। वैसे ही आत्मा का परभाव में अपना निर्मल रूप खो गया है । ६. परभाव के प्रपंच में पड़ी हुई आत्मा, न जाने कितने स्वांग रचाती है । पर वही आत्मा यदि कर्मों के मैल से मुक्त हो जाए तो शुद्ध सोने की भाँति चमक उठती है । ७. ऐसे परमेश्वर (आत्मा) सदैव ज्ञान - दर्शन और चारित्र के भावों से परिपूर्ण होते हैं । वे ही मेरे स्वानुभव के मंदिर में रममाण रहो । I ८. तेरे हृदय में शांतरस का आविर्भाव हुआ है, तू जरा उसका आस्वाद तो ले ! ऐन्द्रिक सुखों के उपभोग - रस से दूर-दूर वैसे शान्तरस में तेरा मन आनन्द को प्राप्त करेगा । अपना रूप खोजना होगा : आत्मा का विशुद्ध रूप 'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं प्रगट नहीं है । तब मन में प्रश्न उठता है 'कहाँ वो विशुद्ध रूप खो गया है ? कहाँ वो विशुद्ध आत्मा खो गयी है ?' उसका उत्तर है : परभाव में, पुद्गल-भाव में उस आत्मा का विशुद्ध रूप खो गया है, छिप गया है । यह बात समझाने के लिए ग्रंथकार ने सुवर्ण का उदाहरण दिया है । पित्तल धातु में यदि सोना मिल जाता है तो सोना अपना रूप खो देता है । वैसे पुद्गल-भाव में आत्मा ने अपना 'रूप' खो दिया है । वैसे आत्मा का रूप है ही नहीं, वह तो 'अरूपी' है, रूप तो पुद्गल का होता है ! पुद्गल के संग आत्मा रूपी' कहलाती है । I २७४ ― शान्त सुधारस : भाग १ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल-गीता में कहा है - जीव अस्पी, स्प धरत ते परपरिणतिपरसंग परपरिणतिसंग' यानी परपुद्गलसंग । जब तक आत्मा कर्मों के बंधन में होगी तब तक वह रूपी ही रहेगी । रूप पुद्गल का गुण है । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श - ये पाँचों पुद्गल के गुण है। पुद्गल खाणो, पुद्गल पीणो, पुद्गलहुंथी काया । वर्ण गंध रस फरस सहुए, पुद्गलहुं की माया ॥ यह सब पुद्गल की माया है ! आत्मा को पुद्गल से कोई मतलब नहीं है। फिर भी, जीव पुद्गल के अनादिकालीन संग की वजह से पुद्गल के गुणों को अपने गुण मान रहा है। मेरा रूप, मेरा स्पर्श, मेरी गंध, मेरा शब्द... ऐसा मानता है, ऐसा बोलता है और ऐसा व्यवहार करता है। अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप का उसे ज्ञान ही नहीं है । एकत्व-भावना में आत्मा के एकत्व का ज्ञान करना है। विशुद्ध आत्म-स्वरूप का ध्यान करना है । तब पुद्गल के रूप-रसादि का ममत्व छूट जायेगा । शुद्ध सोने की तरह आत्मा स्वरूप में चमक उठेगी। कर्मवश जीव के अनेक रूप : कर्मवशतो भवति रूपमनेकधा । इस विराट विश्व में जीवों के विविध रूप जो दिखायी देते हैं, वे कर्मों की वजह से हैं । कर्म की वजह से ही जीव देव का रूप लेता है, नरक का रूप धारण करता है, मनुष्य का और जनावर का रूप धारण करता है । जड़ पुद्गल चेतन कुं जग में, नाना नाच नचावे !' कर्म, जड़ पुद्गल है । वह कर्म चेतन-आत्मा को विविध नाच नचाता है। तीन भवन में सभी प्रकार का व्यवहार कर्मपदगल की वजह से ही है । मोक्ष में कर्म नहीं है, तो एक भी विकार वहाँ नहीं है ! एक भी दाग वहाँ आत्मा पर नहीं होता है । शुद्ध सोने जैसी वहाँ आत्मा होती है। तीन भुवन में देखीये सहु, पुद्गल का व्यवहार, पुद्गल विण कोउ सिद्धस्प में दरसत नहीं विकार । इस दृष्टि से यदि आत्मा के एकत्व की भावना भाना है, तो पुद्गलजन्यकर्मजन्य सभी रूपों से भिन्न आत्मा का चिंतन करना होगा । जैसे कि - - मैं देव नहीं हूँ, मैं देवी नहीं हूँ । - मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं स्त्री नहीं हैं। एकत्व-भावना २७५ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मैं नारकी नहीं हूँ। - मैं जानवर नहीं हूँ। - मैं श्रीमंत नहीं हूँ, मैं गरीब नहीं हूँ। मैं रोगी नहीं हूँ, मैं निरोगी नहीं हूँ । - मैं मूर्ख नहीं हूँ, मैं बुद्धिमान नहीं हूँ । - मैं रूपवान नहीं हूँ, मैं कुरूप नहीं हूँ। - मैं यशस्वी नहीं हूँ, मैं बदनाम नहीं हूँ । मैं इन सभी रूपों से परे हूँ ! ये सभी रूप कर्मजन्य हैं, परभावजन्य हैं, पुद्गलजन्य हैं । इसलिए इन सभी रूपों में ममत्व, आसक्ति नहीं करना है । वैसे ही, पुण्य और पाप को भी समान समझें । न पुण्य में राग करें, न पाप में द्वेष करें । पुण्यकर्म और पापकर्म – दोनों परभाव है, दोनों पौद्गलिक है । दोनों बंधन है । पुण्यकर्म सोने की जंजीर है, पापकर्म लोहे की बेड़ी है ! कहा गया है - पुण्य पाप दोय सम करी जाणो, भेदम जाणो कोउ, जिम बेड़ी कंचन लोढानी, बंधनस्प दोउ । पुण्यकर्म में हर्षित नहीं होना है और पापकर्म में शोकाकुल नहीं होना है । दोनों अवस्था परद्रव्य की है, परभाव की है, इस दृष्टि से दोनों समान हैं ! जैसे एक मनुष्य कुए में गिरकर मरता है, दूसरा पर्वत के शिखर पर से गिरकर मरता है ! मृत्यु दोनों समान हैं, फिर भी दो प्रकार माने जाते हैं न ? वैसे पुण्य-पाप दो प्रकार परभाव के माने गये हैं। कोउ कूप में पडि मुवे जिम, कोउ गिरि झंपा खाय, मरण बे सरिखा जाणिये पण, भेद दोउ कहेवाय । पुण्य-पाप-पुद्गलदशा इम, जे जाणे समतुल, शुभ किरियाफल नवि चाहे ए, जाण अध्यातम मूल । आत्मा के एकत्व और समत्व के चिंतन में पुण्य-पाप को कर्मपुद्गल समझ कर, दोनों को समान मान कर, उनसे आत्मा की अलिप्तता का भाव दृढ़ करना है । आध्यात्मिक चिंतन में न पुण्य का महत्त्व है, न पाप का महत्त्व है । आत्मभाव, दोनों से मुक्त है। शुभ-पवित्र धर्मक्रिया करने की है, परंतु ममत्वभाव नहीं करना है । इससे नया कर्मबंध नहीं होता है । मैं पुद्गलभावों का कर्ता भी नहीं हूँ और कारयिता २७६ शान्त सुधारस : भाग १] Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी नहीं हूँ । इस प्रकार की समझदारी आने पर नया कर्मबंध नहीं होता है । और, इस प्रकार का आध्यात्मिक चिंतन, मोहशत्रु पर पहला प्रहार है । शुभ किरिया आचरण आचरे, धरे न ममताभाव, नूतन बंध होय नहीं इणविध, प्रथम अरि-शिर घाव । बहुत से मनुष्य - जन्म मिले, अनंत बार मनुष्य बने, परंतु यह आध्यात्मिक चिंतन नहीं किया, इस मनुष्य-जीवन में वह भूल दोहराना नहीं है । इस जीवन में आध्यात्मिक दृष्टि पाकर, मोह की छाती में आत्मा के एकत्व का तीर मारना ही है । मोह-ममत्व को नष्ट करना ही है । वार अनन्त चूकीया चेतन ! इण अवसर मत चूक, मार निशाना मोहराय की छाती में, मत उक ! एकत्व से ही परम सुख की ओर : 'अनेकता में दुःख है, एकत्व में ही सुख है । परम सुख पाने का मार्ग भी एकत्व की आराधना का ही हैं, ऐसा दृढ़ निश्चय ही महात्माओं को कठोर उपसर्गों में विचलित नहीं होने देता। अनुकूल उपसर्गों में भी विचलित नहीं होने देता । श्रीराम के चित्त में, श्रमण बनने के बाद ऐसा ही 'एकत्व' का, आत्मा के एकत्व का दृढ़ निश्चय हो गया था। सीताजी के प्रति या लक्ष्मण के प्रति थोड़ासा भी ममत्व नहीं रहा था। सीता का रूप और लक्ष्मण का रूप 'ये कर्मजन्य हैं, ये अवस्थाएँ अवास्तविक हैं, असत् हैं...' यह सत्य आत्मसात् हो गया था । इसलिए सीतेन्द्र के अनुकूल उपसर्ग में वे चलायमान नहीं हुए थे । I वैसे भी महामुनि श्रीराम अप्रमत्त भाव से घोर और उग्र तपश्चर्या करते थे एक महीने के, दो महीने के, तीन-चार महीने के उपवास करते थे। कभी जंगलों में वे पर्यंकासन' से रहते थे, कभी भुजाओं को प्रलंबित कर खड़े रहते थे, कभी अंगुष्ठ पर तो कभी पैरों की एड़ी पर खड़े रहकर आत्मध्यान में रहते थे । विहार करते, श्रीराम - महामुनि 'कोटिशिला' नाम की जगह पर पहुँचे । श्रीराम - महामुनि को अनुकूल उपसर्ग : 'त्रिषष्टि- शलाका पुरुष - चरित्र में श्रीराम - महामुनि को कैसा अनुकूल उपसर्ग, सीतेन्द्र द्वारा हुआ था, उसका हृदयस्पर्शी वर्णन पढ़ने को मिलता है । आपको सुनाता हूँ । सीता ने साध्वी बनकर, ज्ञान- दर्शन - चारित्र की आराधना कर, देवगति पायी थी । वे बारहवे देवलोक में देवेन्द्र बने थे। उनके मन में से अभी भी रामस्नेह 1 एकत्व - भावना - २७७ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का द्वैत निर्मूल नहीं हुआ था। रामस्नेह पूर्ववत् बना हुआ था । अपने अवधिज्ञान से उन्होंने देखा, श्रीराम क्या कर रहे हैं!' अवधिज्ञान के आलोक में उन्होंने श्रीराम को अणगार बने हुए देखा । कोटिशिला पर ध्यानस्थ बने हुए देखा । उनके मन में चिंता हुई कि ये यदि शुक्लध्यान में चले जायेंगे तो सर्वज्ञ - वीतराग बनकर मुक्त बन जायेंगे । मैं चाहता हूँ कि वे संसार में ही रहे... तो उनके साथ मेरा पुनः संबंध हो सके। मैं उनको अनुकूल उपसर्ग करूँ, ध्यान से विचलित करूँ, जिससे वे मृत्यु के बाद यहाँ मेरे मित्र देव बनें !' 1 ऐसा सोचकर सीतेन्द्र श्रीराम - महामुनि के पास, कोटिशिला पर आये । उन्होंने वहाँ वसंतऋतु से विभूषित एक बड़ा उद्यान बना दिया ! देव थे न ? थोड़ी क्षणों में जो चाहे वह हो सकता था ! उद्यान में वृक्षों की डाली पर कोयलें कूकने लगी । मलयानिल बहने लगा । पुष्प - सुगंध से हर्षित भ्रमरगण गुंजारव करने लगा । आम्र, चंपक, गुलाब, बोरसल्ली पर नये सुगंधी पुष्प आ गये । सीतेन्द्र ने अपना सीता का रूप बना लिया । अन्य स्त्रियों के साथ राम- महामुनि के पास आ कर सीता बोलने लगी : 1 'हे नाथ, मैं आपकी प्रिया सीता हूँ, आपके पास आयी हूँ । हे नाथ, उस समय मैंने आप जैसे स्नेहभरपूर पति का त्याग कर दीक्षा ले ली थी, परंतु बाद में मुझे बड़ा पश्चात्ताप हुआ था । इन विद्याधर कुमारिकाओं ने मुझे प्रार्थना की - 'आप दीक्षा छोड़ दो और पुनः श्रीराम की पट्टरानी बन जाओ। हम भी सभी कुमारिकाएँ श्रीराम की रानियाँ बन जायेंगी । इसलिए हे नाथ, आप इन विद्याधर कुमारिकाओं से शादी रचा लो, मैं भी आपके साथ पूर्ववत् स्नेह करूँगी। मैंने जो अपमान किया था, मुझे क्षमा कर दो ।' विद्याधर कुमारिकाओं के सीतेन्द्र ने गीत-नृत्य शुरू कर दिया। परंतु श्रीराममुनि पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने न तो उद्यान की शोभा देखी, न सीता के वचन सुनें, न ही गीत-नृत्य देखा..। धर्मध्यान में से शुक्लध्यान में प्रवेश हो गया और माघमास की शुक्ला द्वादशी की रात्रि के चौथे प्रहर में महामुनि को केवलज्ञान प्रगट हो गया। वे वीतराग - सर्वज्ञ बन गये । उनकी आत्मा पूर्ण ज्ञान से, पूर्ण दर्शन से, पूर्ण शक्ति से और पूर्ण वीतरागता से उज्ज्वल बन गई । घाती कर्मों का क्षय कर, आत्मा परमात्मा बन जाती है। और इसी तरह बाकी बचे अघाती कर्मों का क्षय करके आत्मा सिद्ध-बुद्ध - मुक्त बन जाती है। अनामी और अरूपी बन जाती है । २७८ शान्त सुधारस : भाग १ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयमंदिर में परिपूर्ण आत्मा की रमणता हो : आत्मा की परमात्मदशा प्राप्त करने के लिए अपने हृदय में परम आत्मा का चिंतन करें, दर्शन करें, ध्यान करें । आत्मा ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय विशुद्ध सत्ता है । चैतन्यमय सत्ता है । उसका स्वरूप इस प्रकार है। अरसमरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ॥ जीवस्स नत्थि वण्णोण विगंधो ण रसोण विय कासो । ण विरुवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ॥ हमारी इन्द्रियाँ जानती हैं शब्द को, रूप को, गंध को, रस को और स्पर्श को ! हमारी आत्मा को शब्दादि से कोई संबंध नहीं है । चैतन्य से शब्दादि का संबंध कम करने के लिए, तोड़ने के लिए कुछ प्रयोग करने होंगे । 1 आँख खुली है, रूप देख रहे हैं । आँख बंद की, रूप दिखना बंद हो जायेगा । - -- - कान खुले हैं, शब्द सुन रहे हैं। कान बंद किये, शब्द सुनने बंद हो जायेंगे । नाक खुला है, गंध आती है। नाक को बंद किया, गंध आनी बंद हो जायेगी । जीभ सक्रिय है, रस का अनुभव होता है। जीभ पर कुछ न डालो, कोई रसानुभूति नहीं होगी । किसी वस्तु को स्पर्श किया तो स्पर्श का अनुभव होता है । किसी को छुओ ही मत, अकेले में रहो, स्पर्श का अनुभव नहीं होगा । इस प्रकार इन्द्रियों को कुछ समय के लिए विषयों के संपर्क से दूर रखें 1 बार-बार ऐसा प्रयोग करते रहें । इन्द्रियों का विषयों के साथ जो संपर्क होता है, संपर्क - जन्य राग-द्वेष होते हैं, वे कम करते रहें । आँखें बंद कर, ४८ मिनट ध्यान करें । अरूप की स्थिति का अनुभव करें । आत्मा अरूपी है | अरूप की अनुभूति आत्मा की अनुभूति है । प्रश्न : ध्यान में आलंबन चाहिए न ? आलंबन रूपी होगा ! उत्तर : सही बात है, परंतु आलंबन का रूप ऐसा होना चाहिए कि रागद्वेष न हो ! ज्योतिस्वरूप आत्मा का आलंबन लें, वीतराग - मूर्ति का आलंबन लें ! रूप सामने हो फिर भी राग-द्वेष न हो, वैसी स्थिति प्राप्त करने की है । रूप पुद्गल का है, आत्मा अरूपी है, यह ज्ञानोपयोग सदा रहे, वैसा अभ्यास करना होगा । शब्द, रूप, रसादि के साथ चेतना नहीं जुड़नी चाहिए । चेतना की एकत्व - भावना २७९ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमणता ज्ञान-दर्शन-चारित्र इत्यादि आत्मगुणों में होनी चाहिए । यदि चेतना इन्द्रियों के साथ नहीं जुड़ेगी तो इन्द्रिय विषयों को ग्रहण नहीं करेंगी । इसी को अनध्यवसाय' कहते हैं । एक उदाहरण से यह बात समझाता हूँ । एक मनुष्य को डायमंड खरीदना है । वह बाजार में गया । बाजार में सैंकड़ों दुकाने हैं । उनमें हजारों प्रकार की वस्तुएँ उपलब्ध है । मनुष्य उन वस्तुओं को देखता चला जाता है; परंतु वह जौहरात की दुकान पर रुकता है, हीरा खरीद लेता है। हीरे के अलावा भी वह अनेक वस्तुओं को देखता है, परंतु वह देखना, न देखने जैसा ही रहता है । जिसके साथ अध्यवसाय जुड़ा उसे देखा, ले लिया और सब कुछ अनदेखा-सा रह गया । ___ हम वस्तु के साथ उतनी ही चेतना को जोड़ें, जितनी उस वस्तु को जानने के लिए आवश्यक हो । उसके साथ ममत्व की चेतना को नहीं जोड़ें। * हम शब्द सुने, परंतु उस पर राग-द्वेष न करें । * हम रूप देखें, पर उसके प्रति राग-द्वेष न करें। * हम खाना खायें, पर उसके प्रति राग-द्वेष न करें । * हम गंध ले, परंतु उसके प्रति राग-द्वेष न करें । * हम स्पर्श करें, पर उसके प्रति राग-द्वेष न करें। __ हमें ऐसी साधना-आराधना करनी होगी कि ज्ञान ज्ञान रहे, उसके साथ रागद्वेष न जुड़े । ज्ञान और मोह को पृथक् करते रहें । इन्द्रियाँ अपना-अपना काम करेगी, पर उसके साथ ममत्व नहीं जुड़ेगा, ज्ञानदशा रहेगी। इन्द्रियाँ और आत्मरमणता : ज्ञानदशा की, ज्ञानोपयोग की सिर्फ बातें नहीं करना है, अभ्यास करना है । जीवनपर्यंत अभ्यास करना है। इन्द्रियाँ सदैव अपने विषयों से विमख नहीं रह सकतीं । इन्द्रियों का सदैव दमन भी नहीं हो सकता । हाँ, इन्द्रियों के साथ मन को ज्यादा समय नहीं जोड़ना है । चेतना को नहीं जोड़ना है । एक दृष्टांत से यह बात समझाता हूँ। बंबई जैसे बड़े शहरों में आपने पानी की बड़ी पाईपलाईन' देखी होगी । उसके साथ गंदे पानी की गटरलाईन (अंडरग्राउन्ड) भी चलती है। यानी पानी का नाला और मल का नाला – दोनों साथ-साथ चलते हैं। कभी-कभी नाला बीच में टूटता है... तो जल और मल का मिश्रण हो जाता है ! यह गड़बड़ जनस्वास्थ्य के लिए खतरा बन जाती है । वैसे हम जल और मल का नाला अलग अलग चलने दें । इन्द्रियों को अपना काम करने दें, चेतना को ज्ञान-दर्शन की, आत्मा की रमणता में रमने दें । इसी को अध्यात्म की आराधना कहते हैं । शान्त सुधारस : भाग १ | २८० Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम जो ज्ञाताभाव और दृष्टाभाव की बात करते हैं, इसका मतलब क्या है ? इसका यही अर्थ है कि हम इन्द्रियों के साथ चेतना को जोड़े नहीं । वैसे, इन्द्रियों को चौबीस घंटे बंध रखना संभव नहीं है । और इन्द्रियों की उपलब्धि कर्म के क्षयोपशम से होती है। हम इन्हें बंद क्यों करें ? हमें वह अभ्यास करना होगा कि हम केवल इन्द्रियों का उपभोग करें, राग-द्वेष न करें । प्रश्न: क्या यह संभव है ? उत्तर : हाँ, अन्तर्मुखता आने पर संभव है । अन्तर्मुख मनुष्य के लिए यह स्थिति सहज संभव होती है । फिर छलना- प्रवंचना नहीं रहती है । प्रश्न : अन्तर्मुख कैसे बन सकते हैं ? उत्तर : अन्तर्यात्रा से । बहिरात्म दशा से मुक्त होकर अन्तरात्म दशा में जाना होगा । आत्मज्ञानी बनना होगा । राचे साचे ध्यान में, जाचे विषय न कोई । नाचे राचे मुगतिरस, आतमज्ञानी सोई ॥ विषयों से विमुख बन कर आत्मध्यान में ही जिसकी रुचि हो जाती है, एक मात्र मुक्ति - मोक्षं' ही जिसका लक्ष्य हो जाता है, वह आत्मज्ञानी कहलाता है । ऐसा आत्मज्ञानी ही परमात्मा को अपने अनुभव - मंदिर में रखता है । ग्रंथकार ऐसी भावना करते हैं --- 'परमेश्वरः एक एवानुभव सदने रमतामविनश्वरः ।' ऐसी अन्तरात्मा ही 'समता-सुधा' का आस्वाद करती है। उसको ही विषयातीत 'समतारस' में प्रेम जाग्रत होता है । समता - सुधा का आस्वाद करें : आत्मज्ञानी पुरुष, जब अन्तरात्म दशा में मस्त बन कर, समता - सुधा का आस्वाद करता है, तब उसका जीवनव्यवहार ही बदल जाता है । इस संसार के साथ, संसार के रागी -द्वेषी लोगों के साथ उसका कोई संबंध ही नहीं रहता है ! दुनिया की निगाहों में आत्मज्ञानी उन्मत्त सा दिखता है। आत्मज्ञानी की दृष्टि में दुनिया अंधी लगती है । 'समाधिशतक' में कहा गया है। - जग जाणे उन्मत्त यह, यह जाणे जग अंध, ज्ञानी को जग में रह्यो, युं नहीं कोई संबंध | कितनी सच्ची बात कह दी है उपाध्यायश्री यशोविजयजी ने ! ज्ञानी पुरुषों को, आत्मज्ञानी पुरुषों को 'उन्मत्त' 'पागल' समझकर जगत ने उनको कितने सताये एकत्व - भावना २८१ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं ? भगवान महावीर को भी बारह वर्ष तक कितने सताये थे दुनिया ने ? देवों ने सताये थे, मनुष्यों ने भी सताये थे ! परंतु जो आत्मज्ञानी होते हैं वे शरीर के ममत्व से मुक्त होते हैं । वे सदैव समतामृत के आस्वाद में मग्न होते हैं! भले कोई उनके शरीर की चमड़ी को उतारे, अथवा सिर पर जलते अंगार भरे । भले ही कोई उन पर मुष्ठिप्रहार करे अथवा गालियों की ब्योछार करे । वह तो समझता है 'ये लोग अंधे हैं, वे कुछ देखते ही नहीं ! उन पर करुणा ही करना है । अंधों पर क्रोध क्या करना ?' वैसे तो आत्मज्ञानी विकल्पों से मुक्त होते हैं । वे राग-द्वेष के फालतू विचार करते ही नहीं ! वे समझते हैं : 'निर्विकल्प मुझ रूप है, द्विधाभाव न सुहाई !' 1 आत्मज्ञानी के चिंतन में, उनकी अन्तर्यात्रा में विकल्पों को कोई स्थान ही नहीं है । उनकी अन्तर्यात्रा में द्वैत को जगह ही नहीं होती है 1 युं बहिरातम छांड के अंतर आतम होई, परमातम मति भावीए, जहाँ विकल्प न कोई । उस आत्मज्ञानी की अन्तर्यात्रा में एक मात्र परम आत्मा ही होता है। दूसरा कोई विकल्प नहीं होता है। उसका मन, उसकी मति, बुद्धि... सब कुछ परमात्ममय बन जाता है । परमात्मभाव की वासना दृढ़ हो जाती है । परिणामस्वरूप आत्मा परमात्मा बन जाती है । सोमें या दृढ़ वासना, परमातम पद हेत, इलिकाभ्रमरी ध्यानगत, जिनमति जिनपद देत । जिस प्रकार पिल्लू (इलिका) भ्रमरी का ध्यान करती है तो वह भ्रमरी बन जाती है, वैसे परमात्मा का ध्यान करते-करते अन्तरात्मा परमात्मा बन जाता है। परमात्मभाव में वासना बन जानी चाहिए ! दृढ़ वासना बन जानी चाहिए । परमात्मभाव में वासना दृढ़ कैसे बने ? प्रश्न : आपने कहा वह सिद्धान्त की दृष्टि से सही है, परंतु परमात्मभाव में वासना बनती ही नहीं । वैषयिक सुखों में ही वासना दृढ़ है । उत्तर: मैं इन्द्रियों से, शरीर से भिन्न हूँ, मेरे से शरीर - इन्द्रियाँ भिन्न है । मैं तो विशुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही हूँ ।' यह शुद्ध भावना ही परमात्म-पथ की दीपिका है ! 'समाधिशतक' में कहा है -- 'देहादिक से भिन्न में, मो से न्यारे तेहु, परमातम - पथ दीपिका, शुद्ध भावना एहु ।' २८२ शान्त सुधारस : भाग १ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्यात्रा में यह चिंतन बार-बार करना है । करते रहो यह चिंतन । ६/८ महीना यह चिंतन करने के बाद मुझे बताना कि परमात्मभाव की वासना जगी या नहीं ? एक बार इस वासना को जगने दो! फिर वह दृढ़ होती जायेगी। चिंतन तो करना ही होगा । भेदज्ञान का चिंतन करना होगा। अध्यात्ममार्ग में यह चिंतन अनिवार्य होता है । इस चिंतन से वैषयिक वासना शिथिल हो जायेगी। पुद्गलविषयक अभिनिर्वश-दुराग्रह छूट जायेगा । 'मुझे ऐसे ही शब्द-रूपरसादि चाहिए' - ऐसा दुराग्रह नहीं रहता । आत्मज्ञानी-अन्तरात्मा को तो अपने गुणों का भी अभिमान नहीं रहता, तो फिर विषयों का, पुद्गलों का आग्रह तो कैसे रह सकता है ? अभिनिवेश पुद्गलविषय ज्ञानी कुं कहाँ होत ? गुण को भी मद मिट गयो, प्रकटत सहज उद्योत । एकत्व-भावना से ही समतासुख : प्रतिदिन एकत्व-भावना का चिंतन करते रहो । चित्त समतासुख का अनुभव करेगा । इस दृष्टि से आत्मा के एकत्व का विस्तार से विवेचन किया है, निश्चयदृष्टि से समझाया है और व्यवहारदृष्टि से भी समझाया है । ___पंडित श्री सकलचंद्रजी ने एकत्व-भावना को भाववाही काव्य में प्रवाहित की है । उस काव्य को गाकर, उस पर कुछ चिंतन कर, आज एकत्व-भावना का विवेचन पूर्ण करेंगे। ए तुही आपकुं तुंही ध्याओजी, ध्यानमांही अकेला, जिहाँ तिहाँ तु जाया अकेला, जावेगा भी अकेला....१. हरिहर प्रमुखा सुर-नर जाया ते भी जगे अकेला, ते संसार विविध पर खेली गया ते भी अकेला....२. कुछ भी लीना साथ न तेणे, ऋद्धि गई नवि साथे, निज-निज करणी ले गये ते, धन बिन ठाले हाथे....३. बह परिवारे न राचो लोगों, मुधामल्यो सहु साथो, ऋद्धि मुधा होशे सब चिंता, गगन तणी जिम बाथो....४. शांतसुधारस सर में झीलो, विषय-विष पंच निवारो, एकपणुं शुभ भावे चिंती, आप आपकुं तारो....५. हिंसादिक पापे ए जीवो, पामे बहुविध रोगो, जल विण जिम माछो अकेलो, पामे दुःख परलोगो....६. एकपणुं भावी नमिराजा, मूकी मिथिला राजो, । एकत्व-भावना २८३ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूकी नर-नारी सवि संगत, प्रणमे तस सुरराजो.... ७. हे आत्मन् ! तू अपना ही ध्यान कर ! अपनी आत्मा का ध्यान कर ! क्योंकि ध्यान में एकत्व ही, अकेलापन ही आवश्यक होता है। ध्यान में दूसरे का संयोग विक्षेप करता है । तू सोचना कि इस संसार में तू जहाँ-जहाँ जन्मा, वहाँ अकेला ही जन्मा है और मरा भी अकेला है । कोई साथ आया नहीं है और आनेवाला भी नहीं है । 1 इस विश्व में विष्णु - शिव वगैरह देव भी, दूसरे देव और मनुष्य, सभी अकेले ही आये और इस संसार में विविध खेल रचाकर अकेले ही चले गये । ये सभी अकेले गये, किसी को साथ नहीं ले गये । उनकी समृद्धि भी उनके साथ नहीं गयी वे अपने शुभाशुभ कर्म ही साथ ले गये । खाली हाथ चले गये । हे दुनिया के लोगों, विशाल परिवार देखकर खुश नहीं होना । क्योंकि वह परिवार तुम्हें कोई काम का नहीं है । तुम्हारी सारी चिंता व्यर्थ जानेवाली है । जैसे आकाश को आलिंगन देना व्यर्थ होता है, कुछ मिलता नहीं है, वैसे विशाल परिवार परलोक जाने पर उपयोगी होनेवाला नहीं । इसलिए हे भव्य लोगों, तुम शान्तसुधारस के सरोवर में स्नान करते रहो । पाँच इन्द्रियों के विषयरूप जहर को दूर करो । एकत्व - भावना का चिंतन कर, आप ही आपको तारो । हिंसा - असत्यादि पापों के द्वारा यह जीव अनेक प्रकार के रोगों का भाजन बनता है । और जिस प्रकार पानी के बिना मछली दुःखी होती है वैसे अकेला ही जीव बेचारा दुर्गति में दुःख पाता है । इस प्रकार एकत्व - भावना से भावित हो कर नमिराजा, मिथिला का राज्य छोड़कर, अंतःपुर का त्याग कर अणगार बने थे, प्रत्येक बुद्ध बने थे । इन्द्र ने उनके वैराग्य की परीक्षा की थी, नमि राजर्षि उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए थे । देवेन्द्र उनके चरणों में वंदना कर, वापस देवलोक में गया था । उपसंहार : 1 'एकत्व - भावना' का यह गीत याद कर लोगे और गुनगुनाते रहोगे तो मजा आ जायेगा । वैसे जब समय मिले, इन प्रवचनों को पढ़ते रहना । संसार में मनुष्य को किसी न किसी प्रकार की अशान्ति बनी रहती है, उस समय ये प्रवचन आपको अवश्य शान्ति - समता प्रदान करेंगे । आप शान्ति समता का आस्वाद करते ही रहे - ऐसी शुभ कामना के साथ प्रवचन पूर्ण करता हूँ । * २८४ शान्त सुधारस : भाग १ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचंद महेता निर्मित काशन ट्रस्टभ UN श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य •धम्म सरणंपवज्जामि-१-२-३-४ • प्रशमरति भा. १-२ न म्रियते • सबसे ऊंची प्रेम सगाई .नैन बहे दिन रैन राग विराग ज्ञानसार • संसार सागर है • मांगलिक • मायावी रानी •प्रार्थना • बच्चों का सुवास सेट (३ पुस्तकें) • जिनदर्शन • कथादीप • छोटी सी बात • फूलपत्ती •पर्व प्रवचनमाला • जिन्दगी इम्तिहान लेती है •प्रीत किये दुःख होय • जैन रामायण भा.१-२-३ • यही है जिन्दगी • मारग साचा कौन बतावे .श्रावकजीवन भा.१-२-३-४ •शोध प्रतिशोध • द्वेष अद्वेष •विश्वासघात • वैर विकार • शांतसुधारस (प्रवचन) • पीओ अनुभव रस प्याला • हिसाब किताब • राजकुमार श्रेणिक व्रतकथा • बच्चों का विज्ञान सेट (३ पुस्तकें) • चैत्यवंदन सूत्र • नवपद भावना • शुभरात्रि • शांतसुधारस (अनुवाद) • कलिकाल सर्वज्ञ • The Way of Life - 1-2-3-4 • Jain Ramayana - 1-2-3 Bury Your Worry Guidelines of Jainism A Code of Conduct Treasure of Mind Rising Sun Story Story Jindarshan • Science of Children-1-2-3 (Atma-Karma-Dharma) FFer-Private & Personal use diye • प्रतिमाह 'अरिहंत' के द्वारा ताजा चिंतन, प्रवचन, एवं साहित्य सर्जन Jain Education international Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIGN 6641 m inimalac .org